सुबह की आपा-धापी से सफलतापूर्वक निबट वह अपनी पसंदीदा मसाला चाय लिये सोफे पर आलथी-पालथी मार कर बैठ चुकी थी। बेटा स्कूल के लिये रवाना हो चुका था। पति महोदय अपना तमाम माल‑असबाब लिये कार में बैठ उसे टाटा कर चुके थे। कामवाली बाई आदतन इधर-उधर की गप्प हाँक, अपना काम निबटा निकल चुकी थी, और अब कम-से-कम अगले दो घंटों तक उसका ध्यान बँटाने के लिये न कोई आने वाला था न कोई फ़ोन ही अपेक्षित था। इन सुनहरे दो घंटों का सदुपयोग वह सिर्फ सोचने के लिये करती थी। आस-पास से जुटे किस्सों का मनन करने पर कितने ही पात्र और कहानियाँ आकार लेने के लिये तड़फड़ाने लगते।
इस समय उसके सामने माउंटेड बुद्धू बक्सा खामोश था। पंखे की हवा से टेबल पर रखे अखबार और किताबों के पन्ने फड़फड़ा रहे थे, और उसकी चाय भाप उड़ा उसे अपने कल्पित पात्र और कहानी के समय काल परिवेश में ले ही गयी थी कि अचानक फ़ोन की घंटी बजी। अपरिचित नम्बर देख पहले तो वह आलस कर गयी, फिर सोचा ले ही ले, ज़्यादा से ज़्यादा किसी ज़मीन बेचने वाली या बैंक के सेल्समैन को हल्के से झिड़कना होगा और क्या!
फ़ोन उठाया तो बड़े ही भारी और गम्भीर स्वर ने उससे पूछा, “ये डॉक्टर अनुपमा सिंह जी का नम्बर है?”
और फिर उसके हाँ कहते ही वह अपरिचित शुरू हो गया।
“अनुपमा जी, आप क्या बोलती हैं, क्या लिखती हैं! अभी पिछले हफ्ते आप कालिदास अकादमी में जो बोली हैं, मुझे अभी तक याद है। और आपकी किताब का तो मुरीद हूँ ही मैं।”
अनु ने विनम्र स्वर में उसका परिचय जानना चाहा, तो पता लगा महाशय भोपाल में प्रोफेसर हैं और हाल-फिलहाल एक प्रतिष्ठित सरकारी संस्थान के निदेशक हैं। यह पूछने पर कि उसका नम्बर उन्हें कहाँ से मिला उसे पता चला कि उसकी एक सखी उनके साथ ही पढ़ाती है और ज़ाहिर है, वजह जान उसका नम्बर उन्हें देने में उसे कोई परेशानी न हुई होगी।
वे उसे अपने संस्थान बुलाना चाहते थे, बतौर किसी कार्यक्रम के विशिष्ट अतिथि। कार्यक्रम दो दिनों का था और उसे दोनों ही दिन महिला सशक्तिकरण और ध्यान पर व्याख्यान देने थे। विषय उसके प्रिय थे और उस व्यक्ति ने तमाम बातचीत के बीच अपने धीर-गम्भीर होने का परिचय दिया था। कुछ इसरार भी इतना था कि वह मना नहीं कर पायी। शाम को पति महोदय से चर्चा की तो वे भी प्रसन्न हुए।
“इतने अच्छे काज से तुम्हें बुला रहे हैं। तुम्हें ज़रूर जाना चाहिए”।
“जाने से क्या मतलब है आपका? मैं अकेली नहीं जा पाऊँगी। चलेंगे तो सब, और फिर इसी बहाने प्रोफेसर पांडे से भी मिल लेंगे।”
प्रोफेसर पांडे से अनु का साहित्यिक परिचय था, पर लगाव आत्मिक था। वे कब से उसे भोपाल बुला रहे थे, पर कार्यक्रम बन ही नहीं पा रहा था।
अनु असमंजस में थी। जाना तो वह चाहती थी, पर तबीयत ज़रा गड़बड़ चल रही थी। फिर बेटे की छुट्टियाँ भी पड़ने वाली थीं। उसके साथ वह कुछ क्वालिटी टाइम बिताना चाहती थी। कितने ही दिनों से बेटा ‘बगुला भगत’ की कहानी सुनाने को कह रहा था। उसने सोचा ट्रिप के दौरान बेटे के साथ कुछ किस्से-कहानियाँ भी हो जाएँगी।
फिर उसने यही तय किया कि सपरिवार भोपाल चला जाय। एक पंथ तीन काज हो जाएँगे। एक विद्वान् से मिलना हो जाएगा, अनु ने संक्षिप्त बातचीत में प्रोफ़ेसर वेद को विद्वान् ही पाया था। फिर प्रोफेसर पांडे से मिल लेगी, उनकी बहुत बड़ी मुरीद थी वह। पचासों किताबों के लेखक, अद्भुत वक्ता और इतनी बड़ी हस्ती होने पर भी वे बेहद उदार और सरल थे। उनसे मिल कर उसे नयी शक्ति मिल जाती थी। और फिर इसी बहाने पूरा परिवार लम्बे समय के बाद साथ कहीं यात्रा करेगा।
उसने प्रोफ़ेसर वेद से बात कर अपना कार्यक्रम उन्हें बताया। वे थोड़े विचलित लगे, पर जब अनु ने उन्हें अपनी तबीयत के बारे में बताया तो वे मान गये । जल्द ही उसके ठहरने की व्यवस्था के डीटेल्स आ गये । उसने भी तीन फ्लाइट टिकट करा लिए। तय समय पर भोपाल पहुँच गये । गेस्ट हाउस में अच्छी व्यवस्था थी। अनु ने प्रोफेसर पांडे को सूचित कर दिया था। वे भी बहुत खुश थे। कार्यक्रम के बाद एक दोपहर उनके साथ बिता अनु शाम की फ्लाइट से दिल्ली लौटने वाली थी।
कार्यक्रम वाले दिन सुबह वेद साहब से मिली। कार्यक्रम बड़े अच्छे से सम्पन्न हुआ। अनु के व्याख्यान पर उपस्थित समूह ने खड़े होकर तालियाँ बजायीं।
सबके साथ भोजन कर अनु को वेद साहब अपने कमरे में लिवा ले गये । बड़ी भव्य सजावट थी उनके कमरे की। कमरा क्या था, अच्छा ख़ासा फंक्शन हाल था। दसियों कुर्सियाँ, मखमली सोफे, नक्काशीदार टेबल, टेबल पर पचासों किताबें, फाइलें और भी न जाने क्या क्या, कोने में फिट स्पीकर और उनसे आती मधुर संगीत लहरी, संस्थान में ब्रॉडकास्ट करने के लिये लगा रेडियो सिस्टम और सिस्टम के पास, टेबल के पार बैठे वेद साहब। श्वेत केश, श्वेत परिधान, हाथों में पहनी स्फटिक और रूद्राक्ष की माला और उनकी भव्य मुस्कान। बड़ी अदा से उन्होंने जलपान मँगाया और बातों का एक लम्बा दौर शुरू किया। अपने बारे में बताया, अनु से उसके बारे में पूछा। अनु सदा की घामड़, उसे याद ही नहीं रहता कि उसका साहित्य जगत में अच्छा ख़ासा नाम है। सामने वाले पर विश्वास भी आसानी से हो जाता है उसे और फिर अगर सामने वाला आत्मा, परमात्मा, सत्य, ध्यान, योग, समाज जैसे विषयों पर बात करने लगे तो कहना ही क्या! अनु वेद साहब के ज्ञान से बड़ी प्रभावित हुई। अपनी संघर्ष गाथा के बारे में बड़ी सहजता से बताया। चर्चा बड़ी अच्छी जमी। वेद साहब बीच-बीच में अपने स्टाफ को बुला कर डाँट भी रहे थे, रेडियो पर अनाउंसमेंट भी कर रहे थे, अन्य अतिथियों को बुला कर चाय पिला कर विदा भी कर दे रहे थे। अपना ओहदा हर तरह से प्रदर्शित भी कर रहे थे। अनु को हर पल वेद साहब में एक अलग रंग दिख रहा था। हालाँकि उसके साथ उनकी योग और ध्यान पर गहन चर्चा जारी थी। अनु कुछ ही घंटों की बातचीत में डॉ अनुपमा जी से अनु हो चुकी थी।
अचानक उनका लहजा बदला और वे एकदम से अजनबी होकर अजीब से रूखे स्वर में बोले, “चलिये अनुपमा जी, आपका आज का व्याख्यान बहुत सुंदर रहा, कल मिलते हैं।”
अनु ने ठिठक के उनकी निगाहों को पकड़ा, जो उसके पीछे कहीं स्थिर थीं, उसने पलट के देखा तो बड़े तंग कपड़ों में एक लड़की सोफे पर बैठी थी।
तभी वेद साहब अचानक ही उठ खड़े हुए और चलते-चलते बोले, “मीट माय बेटर हाफ, शांता।”
अनु ने तुरंत नमस्कार किया और ध्यान से देखने पर पाया कि शांता जी जो अब तक अपनी बेहद छरहरी काया और टाइट जींस में किशोरी लग रही थीं, दरअसल पचासेक साल की महिला थीं। फिर उसे पता चला वे ‘हीलर’ हैं। वे लोगों को ध्यान, योग आदि सिखाती हैं। और ये कि वे देश-विदेश के कितने ही लोगों के अवसाद आदि ठीक कर चुकी हैं। ‘ऑनलाइन’ भी ‘हील’ करती हैं। अनु को न उनके चेहरे पर वह शांति दिखी, जो अक्सर ध्यान करने वालों के चेहरों पर, व्यक्तित्व में महसूस होती है न सौम्यता। अजीब सी रूखी महिला थी। पर अनु ने समुस्कान, सादर दोनों से विदा ली और गेस्ट हाउस पहुँच गयी।
वेद साहब और उनकी पत्नी का विचित्र जोड़ा और अपनी पत्नी को देख, उनके बदले सुर अनु को कुछ अजीब लगे, पर फिर उसने ये विचार झटका और बेटे के घूमने के प्रस्ताव पर तैयार हो, चाय का आर्डर दे दिया।
उसकी दुविधा सुनने के बाद पति महाशय ने भी यही कहा, “एक तो तुम सब पर विश्वास कर लेती हो। ऊपर से इतना सोचने लगती हो, जाने दो। वैसे भी कल का दिन तो है ही बस।”
खा-पी के परिवार के साथ न्यू मार्केट हो आयी। बेटा खुश हो गया।
अगला दिन भी बहुत अच्छा बीता। उसका आज का व्याख्यान भी बहुत सराहा गया। आज भी वेद साहब से अनेकानेक विषयों पर चर्चा हुई। वेद साहब इतने प्रसन्न कि अनु को अपना संस्थान ज्वाइन करने का न्यौता दे डाला। अनु ने विनम्रता से विषय बदल दिया। आज तक जो मिला है, अपने संघर्ष और मेहनत से मिला है, कितने ही लोग उसे अपने साथ काम करने का न्यौता देते थे, पर वह मुस्कुरा के हाथ जोड़ लेती थी। वेद साहब ने आज ध्यान पर विशेष चर्चा की, तमाम चक्रों से लेकर, अनाहत को शुद्ध करने के नुस्खे बताये, महादेव की साधना के बारे में बताया। अपनी तंत्र साधना के बारे में बताया। अनु फिर चकित! कल शाम वाले वेद साहब कहाँ गये! खैर, शाम को अपने परिवार को बुला कर वेद साहब और उनकी पत्नी से मिलाया। कल सुबह तो वे लोग वैसे भी प्रोफ़ेसर पांडे के पास निकल जाएँगे। फिर वेद साहब से कब मिलना हो क्या पता! पर वेद साहब ने साधिकार उसे अगले कार्यक्रम का न्यौता दिया, और बड़ी आत्मीयता प्रदर्शित करते हुए दिल्ली से उसे कुर्ते, पेड़े और हरे सेब लाने को कहा। अनु मुस्कुरा दी। उसने भी उन दोनों को दिल्ली आने का आमंत्रण दिया।
“इस बार तो अकेली आ जाओगी ना?”
वेद साहब के इस प्रश्न पर वह चौंकी। कहना तो चाहती थी कि ज़रूर आ जाऊँगी, इस बार तो सबको घूमना भी था, तबीयत भी ठीक नहीं थी और प्रोफ़ेसर पांडे से भी मिलना था, इसलिये अपने परिवार के साथ आयी , पर फिर पता नहीं क्या सोच वह मुस्कुरा के बोली, “देखिये आ पाती हूँ कि नहीं, कुछ दिनों से तबीयत बार-बार खराब हो जाती है, हालाँकि बीमारी कोई नहीं है। इसीलिये ये लोग रहते हैं तो मैं निश्चिन्त रहती हूँ।”
वेद साहब चुप। कुछ बोले ही नहीं। तमाम आभार, नमस्कार के बीच अनु ने विदा ली।
अगली सुबह अपना सामान उठा वे पांडे साहब के यहाँ पहुँच गये । वे उनका ही इंतज़ार कर रहे थे। अनु को देख कर खुश हो गये, अनु भी खिल गयी, कितने विद्वान्, सरल और प्यारे हैं प्रोफ़ेसर पांडे! उन्होंने बेटे के लिये पूरी टेबल ही भर दी थी सूखे मेवों, मिष्ठानों, चॉकलेटों और फलों से। अनु को एक खूबसूरत शाल उढ़ाया तो पति महोदय को तगड़ा नाश्ता कराया। सच उनके साथ आत्मा की कोई डोर बंधी थी। गप्पे मारते-मारते, खाते-पीते कब शाम ढली पता ही नहीं चला। उन्होंने ही अनु को एयरपोर्ट छोड़ा।
दिल्ली पहुँच दो दिन तो अपने को और घर को सम्भालने में लग गये । फिर अनु ने सबसे पहले वेद साहब को उन सम्भावित विषयों की लिस्ट मैसेज की, जिन्हें अगले कार्यक्रम में प्रस्तुत किया जा सके। वेद साहब का कोई जवाब न पा उसने उन्हें फ़ोन किया पर आश्चर्य, अनु के महान प्रशंसक ने फ़ोन ही नहीं उठाया।
“तबीयत तो ठीक होगी?”, अनु ने सोचा और दो-तीन दिन रुक फिर फ़ोन किया, कोई जवाब नहीं। होली के दिन उसने फिर कोशिश की कि बात हो जाए पर न फ़ोन उठाया गया, न कॉल ही किया गया। न ही उसके मैसेज का कोई जवाब आया।
फिर कोई पंद्रह एक दिन बाद वेद साहब के ऑफिस से फ़ोन आया-“आपका टीए मिल गया मैडम?”
अनु आवाज़ पहचान गयी। वेद साहब के ऑफिस में सरला से भी बात हुई थी, उनकी सेक्रेटरी।
“हाँ पर वेद साहब कैसे हैं? मैंने कितने फ़ोन लगाए! पर बात नहीं हो पायी। ठीक तो हैं?”
अनु की आवाज़ में चिंता पकड़ सरला ने फ़ौरन पूछा, “ठीक क्यों नहीं होंगे! यहीं हैं, बात कराऊँ?”
“हाँ भाई सरला, कराओ।”
कुछ मिनट कोई आवाज़ न आयी, फिर सरला के बदले हुए सुर उसे एक नयी कहानी का रास्ता दे गये – “सर बहुत बिजी हैं, मैडम, उन्हें फुर्सत कहाँ रहती है!”
अनु मुस्कुरा दी।
“कोई बात नहीं, मेरा नमस्कार कहना।”
‘अहम् ब्रह्मास्मि’ कहने वाले इस इंसान में ब्रह्म कहीं नहीं है। सिर्फ अहम् है, अनु जान चुकी थी। बस तय नहीं कर पायी कि तथाकथित महाविद्वान और महादेव के ‘भगत’ वेद साहब को बुरा क्या लगा, कहीं व्याख्यान में कोई चूक हुई? बातचीत में उन्हें कुछ लगा? उसके परिवार सहित पहुँचने पर कोई परेशानी हुई? पर ऐसा कुछ होता तो वे इतनी आत्मीयता थोड़े ही बरतते। फिर अचानक टन्न से कुछ माथे पर लगा उसे। प्रोफ़ेसर पांडे से उसका मिलना। वे पांडे साहब को पसंद नहीं करते थे। ये उसकी सखी ने बताया था उसे।
“ही इस वैरी मीन, अनु! पांडे साहब से तेरा मिलना पसंद नहीं आएगा उन्हें। तूने बताया उन्हें इस बारे में?”–उसकी सखी ने कार्यक्रम के दौरान उसे कहा था।
“पर वह कौन होते हैं, भाई ये तय करने वाले? उनका कार्यक्रम अच्छे से निबटा के मैं कहीं भी जाऊँ।”
“और वैसे अब तक इतनी बात की है उनसे, वे तो अपने आप को महादेव का भक्त और ध्यानी आदमी बताते हैं। फिर ऐसी छोटी बात कैसे सोच सकते हैं? नहीं रे! तुझे कोई गलतफहमी हुई होगी।”
उसके कहने पर सखी ने मुँह बिचका लिया था–“मुझे क्या, मैं तो जो जानती हूँ, बता रही हूँ। तुझसे तो अभी पहचान हुई है, यहाँ पर हम सब इस फर्जी आदमी के ढकोसले सालों से देख रहे हैं। महिलाओं को लेकर इसके भाषणों पर मत जाना, असल में महिलाओं को लेकर ये बेहद तंग दिमाग हैं। वह तो यह कार्यक्रम था वरना मैं तेरा नम्बर इसे तो कभी न देती। तुझे अच्छे से जानती हूँ तो पता था तू इसे सही से टैकल कर लेगी। फिर जब पता लगा कि तू ‘विद फैमिली’ आ रही है तो मुझे कोई संशय ही नहीं रह गया। इसीलिये तुझे इसके बारे में पहले नहीं बताया, वरना तू फिर नहीं आती। तुझे क्या लगता है? तेरी विद्वत्ता से प्रभावित हैं ये? अरे सब चोंचले हैं। एक तो तुझे ‘विद फैमिली’ देख वैसे ही चिढ़ गया होगा, ऊपर से तूने पांडे जी की तारीफ़ और कर दी! खैर छोड़, चल कॉफ़ी पीते हैं।”
और अब अनु को याद आया वे कैसे चौंक पड़े थे, जब उसने प्रोफ़ेसर पांडे की तारीफ़ की थी उनके सामने। धत्त तेरे की, क्या क्या सोच बैठी थी वो! और दूसरी तरफ पांडे जी, कितनी सरलता से बोले थे, “ज्ञानी आदमी है वेद।”
वेद साहब की बड़ी-बड़ी बातें याद करती वह किचन में घुस गयी।
शाम को पति देव आये तो शानदार मफिंस और अदरक चाय के साथ अनु का खिला चेहरा देख के पूछ ही बैठे, “क्या बात है मैडम? वेद साहब का फ़ोन आया क्या?”
अनु दो-तीन बार चिंता जता चुकी थी कि वेद साहब के यहाँ सब ठीक-ठाक तो है, वरना एकाएक ऐसे कैसे पचास बार अपने यहाँ बुलाने वाला आदमी न फ़ोन उठा रहा है न जवाब दे रहा है।
अनु खिलखिला दी–“नहीं, और आना भी नहीं चाहिए।”
“क्यों?”
“क्योंकि भगत जी अपनी बगुला भगताई में व्यस्त होंगे!”
पति के चेहरे पर असमंजस देख उसने आवाज़ दी–“बिट्टा, आओ, तुम्हें कई दिनों से बगुला भगत की कहानी सुननी थी न, मैं फ्री हूँ, चलो तुम्हें आज दो कहानी सुनाऊँ, एक पुराने बगुला भगत की, एक नये बगुला भगत की।”
(यह कहानी लेखिका के कथा संग्रह ‘अग्निपाखी’ से प्रकाशक की इजाजत से ली गयी है।)
किताब परिचय

धनक के सातों रंगों से बनी, सबसे अनोखी, भारतीय स्त्रियों पर लिखी आठ कहानियाँ संजोये आपके समक्ष प्रस्तुत है कहानी संग्रह ‘अग्निपाखी’। आठ अलग-अलग कहानियों में अपनी ज़िंदगी जीतीं, अलग-अलग चुनौतियों का सामना करतीं ‘अग्निपाखी’ की नायिकाएँ स्नेही, संवेदनशील बेटी, बहन, प्रेमिका, पत्नी, माँ और बहू हैं, पर इनके साथ वे ज्वालजयी स्त्रियाँ हैं, जिनकी अपनी पहचान है, जिनका अपना आसमान है। भारतीय स्त्री के अग्नि तत्व को समर्पित, ‘अग्निपाखी’।
संग्रह में निम्न कहानियाँ मौजूद हैं:
एक सार्थक मना, सेटल, कान्टैक्टस,अग्निपाखी, बगुला भगत, वापसी, ताजमहल, गठबंधन
किताब लिंक: अमेज़न | साहित्य विमर्श
लेखक परिचय

डॉक्टर अंशु जोशी विश्व प्रसिद्ध जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के कनाडा, अमेरिका तथा लैटिन अमेरिका अध्ययन केंद्र, अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्ध संस्थान में सहायक प्राध्यापक हैं। वे यहीं के कूटनीति तथा निशस्त्रीकरण केंद्र से डॉक्टरेट हैं। अपने विषय के अलावा विभिन्न समसामयिक मुद्दों पर लिखे उनके सौ से भी अधिक लेख प्रतिष्ठित अंतर्राष्ट्रीय तथा राष्ट्रीय शोध जर्नल्स, समाचार पत्रों तथा पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं।
लेखन के अलावा अंशु जोशी लंबे समय तक आकाशवाणी के एफएम गोल्ड चैनल के साथ प्रेजेंटर के रूप में भी जुड़ी हैं। उन्होंने टीसीएस, टेक महिंद्रा जैसी कंपनियों के साथ भी कार्य किया है।
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