“पता है मेरा सपना क्या है?”, उसने मेरी तरफ देखते हुए संजीदगी से कहा।
“क्या?” मैंने सवाल किया।
उसने इधर-उधर देखा। फिर मेरी आँखों में देखा। फिर वह चुप हो गयी। हम लोग ऑफिस से निकल कर घर की तरफ जा रहे थे। वो और मैं एक ही दफ्तर में काम करते थे। साथ काम करते-करते हमें दो तीन वर्ष हो गए थे। इन दो तीन वर्षॉं में मैंने उसे जितना जाना था उससे यही समझा था कि वह एक बड़े शहर में रहने वाली बिंदास लड़की थी। हँसती, खेलती मुस्कराती वह लड़की ज़िंदगी की पुड़िया सी लगती थी। जहाँ चली जाती वहीं रौनक ला देती। उसका एक सवाल के ऊपर इस तरह चुप हो जाना मुझे कहीं खटक सा गया था।
“क्या सपना है? बता न?”, मैंने इसरार किया।
उसने मुझे देखा और फिर जैसी उसकी नज़र कहीं शून्य में देखने लगी। उसकी उँगलियों ने उसके चेहरे पर आई लटों को किनारे धकेल दिया।
फिर एक गहरी साँस लेकर उसने कहा, “मेरा एक सपना है कि कुछ पल के लिए मैं ऐसी जगह चली जाऊँ जहाँ खुले में घूमते हुए मुझे दो जोड़ी आँखें मुझे ताड़ती हुई, मुझे जाँचती-परखती,टटोलती न महसूस हों।”
मैंने उसे सुना। मैं चुप रहा। उसे देखते रहा। फिर मैंने अपनी आँखें बंद कर दी।
“क्या हुआ अपनी आँखें क्यों बंद कर दी?” उसने खिलखिलाते हुए पूछा।
“इन दो जोड़ी आँखों से बचाने के लिए।” मैंने आँख खोलते हुए जवाब दिया।
वो मुस्कराने लगी। लेकिन न जाने क्यों इस बार उसकी मुस्कराहट उसकी आँखों तक नहीं पहुँच पायी थी।
अब हम दोनों चुप थे।
इस चुप्पी को उसके स्टेशन के आगमन ने तोड़ा। “अच्छा बाय।”, वह कहकर उतर मेट्रो से बाहर चली गयी।
“बाय।”, मैं बुदबुदाया।
मैं उसे जाते हुए देखता रहा। वह सीधे चली जा रही थी और मैं मेट्रो में खड़ा उसके नामुमकिन से लगते स्वप्न के विषय में केवल सोच सकता था।
समाप्त
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