संस्करण विवरण:
फॉर्मैट: ई-बुक | पृष्ठ संख्या: 257 | प्रकाशक: डायमंड बुक्स | प्लेटफॉर्म: किंडल
पुस्तक लिंक: अमेज़न
कहानी
नीलिमा ने कभी रवि को दिल से चाहा था। लेकिन फिर अकसर जो व्यक्ति चाहता है वो उसे मिल कहाँ पाता है।
रवि और नीलिमा की जिन्दगी में भी उथल-पुथल ही आए। जहाँ नीलिमा को उसका एक स्वर्ग का टुकड़ा मिला वहीं रवि के हिस्से में आया केवल संताप और दुख।
इसी दुख की घड़ी में रवि को लगने लगा था कि नीलिमा एक पत्थर की देवी थी जिसके सीने में दिल न था। अगर होता तो वह रवि की जिंदगी से यूँ न खेलती।
आखिर ऐसा क्या हुआ इस प्रेमी जोड़े के बीच?
जो रवि नीलिमा को पूरी दुनिया से अधिक चाहता था वो उसे ‘पत्थर की देवी’ क्यों मानने लगा?
मुख्य किरदार
नीलिमा रस्तोगी – नायिका
पूर्णिमा रस्तोगी – नीलिमा की छोटी बहन जो घर से भाग गई थी
मोहन – पूर्णिमा का सहपाठी जिसके साथ वह भागी थी
गंगा प्रसाद रस्तोगी – नीलिमा और पूर्णिमा के पिता जो एक सरकारी विभाग मेंन सहायक अधीक्षक थे
रूबी – नीलिमा की दोस्त और सहपाठी
बिन्दु – नीलिमा की दोस्त
रवि – नीलिमा के कॉलेज का दोस्त
राजा – नीलिमा का बेटा
गुप्ता – वह व्यक्ति जिससे नीलिमा की शादी हुई थी
विचार
हिन्दी लोकप्रिय उपन्यासों की बात की जाए तो इसमें
अपराध उपन्यासों के अलावा
सामाजिक उपन्यासों का अपना अलग स्थान रहा है। सामाजिक उपन्यास अक्सर महिलाओं को ध्यान में रखकर लिखे जाते थे और इनके कथानक भाव प्रधान होते थे। प्रेम, दुख, बिछोह इत्यादि के भाव ऐसे उपन्यासों के कथानक में प्राथमिकता से दर्शाये जाते थे जिस कारण इन पुस्तकों का पाठक वर्ग महिलायें ही मानी जाती थीं। प्रस्तुत उपन्यास ‘पत्थर की देवी’ भी
डायमंड पॉकेट बुक्स द्वारा प्रकाशित सामाजिक उपन्यास है जिसे डायमंड ने ई-संस्करण के रूप में पुनः प्रकाशित किया है।
उपन्यास की कहानी कॉलेज से शुरू होती है। यह मुख्यतः नीलिमा रस्तोगी की कहानी है जो कि अपना शहर छोड़कर एक नए शहर में आती है। वह अपनी मर्जी से यहाँ नहीं आयी है बल्कि शर्मसार होकर उसका परिवार यहाँ आया है। जैसे-जैसे कथानक बढ़ता है आपको न केवल यह पता लगता है कि नीलिमा के यहाँ आने का कारण क्या था साथ ही आप नीलिमा के जीवन में प्रेम को आते हुए देखते हैं।
‘पत्थर की देवी’ मूलतः नीलिमा के इस प्रेम की दास्तान है। नीलिमा की जिन्दगी में कैसे यह प्रेम आता है और फिर कैसे वह इस प्रेम को अपनी जिन्दगी से निकालने के लिए मजबूर होती है और उसके इस फैसले का उस पर, उसके प्रेमी पर और इनकी ज़िंदगियों पर जो असर पड़ता है वह उपन्यास का कथानक बनता है। इस उपन्यास में लेखक ने लगभग बीस-बाईस वर्षों का अंतराल कवर किया है। इस दौरान उपन्यास के किरदारों में जो उतार चढ़ाव आते है वह इसमें दिखता है। कहानी में मुख्य किरदारों के जीवन में भर-भर कर दुख आते हैं।
अगर कहानी के तौर पर देखा जाए तो यह दो प्रेमियों के बिछड़ने की आम सी कहानी है। हाँ, जो अलग बात इसमें दिखती है वह यह है कि यहाँ अमीर माँ बाप खलनायक नहीं है। इस उपन्यास में परिस्थितियाँ ही खलनायक हैं। जब चीजें सुधरती रहती हैं तभी ऐसा कुछ हो जाता है कि मुख्य किरदारों के जीवन पटरी से उतरता सा प्रतीत होने लगता है।
लेखक ने किसी तरह से कहानी को सुखांत करने की कोशिश तो की है लेकिन एक टीस सी मन में रह ही जाती है।
चूँकि उपन्यास शायद नब्बे के दशक में लिखा गया था तो उस वक्त की सोच भी इधर दिखती है। वैसे हमारे समाज की सोच में इतना बदलाव तो नहीं हुआ और उस समाज के हिसाब से चीजें ठीक हैं लेकिन जैसे आदर्श लेखक ग़ढ़ने की कोशिश इधर करते हैं वह ऐसे हैं जिन्हें अब त्याग देना चाहिए।
किरदारों की बात करूँ तो उपन्यास का मुख्य किरदार नीलिमा है। नीलिमा एक ऐसी युवती है जो भावना में बहकर अपनी बहन और परिवार के लिए अपना प्यार तक न्यौछावर कर देती है और ‘पत्थर की देवी’ का कथन उसके लिए प्रयोग किया गया है। नीलिमा को एक आदर्श भारतीय नारी की तरह लेखक ने प्रस्तुत किया है। वह न केवल आदर्श प्रेमिका रही है, बल्कि आदर्श बेटी बहन और आगे चलकर आदर्श पत्नी भी है।
उपन्यास का दूसरा महत्वपूर्ण किरदार रवि है। वह नीलिमा का सहपाठी और उसका प्रेमी है। नीलिमा के निर्णय के चलते रवि को अपने प्यार की कुर्बानी देनी पड़ती है और वह इस दुख को सहन नहीं कर पाता है। अपने इस दुख से उभरने के लिए वह शराब तक का सहारा लेता। लेखक ने रवि के माध्यम से यह भी दर्शाया है कि शराब किस तरह व्यक्ति को कमजोर करके कई बार उससे ऐसा काम करवा देती है जिसके बाद वह व्यक्ति पछताने के सिवा कुछ और कर नहीं सकता है। उपन्यास के अंत में रवि का किरदार में ऐसा बदलाव आता है कि उसके प्रति मेरी सहानुभूति तो कम हो ही गई थी।
उपन्यास के बाकी किरदार कथानक के अनुरूप ही हैं। हाँ, उपन्यास में नीलिमा का पति का किरदार ऐसा रखा गया है जिसके होने न होने से फर्क नहीं पड़ता है। उसका मोल लेखक की नज़रों में कितना यह इस बात से दिखता है कि उसका पूरा नाम भी लेखक उपन्यास में नहीं देते हैं। उसे केवल गुप्ता कहा गया है। उपन्यास में एक बड़ी त्रासदी होती है। यह त्रासिदी इन्हीं गुप्ता जी से जुड़ी हुई है लेकिन लेखक इस चीज को चलती चाल में निपटा देते हैं। इस त्रासदी का गुप्ता पर असर वह दर्शाते तो बेहतर होता। माना, लेखक का फोकस नीलिमा और रवि पर था लेकिन गुप्ता को यूँ नजरंदाज करना मुझे व्यक्तिगत तौर पर खला।
लेखन शैली की बात करूँ तो लेखक ने आम बोल चाल की भाषा का प्रयोग किया है। बीच-बीच में वह अपनी बात कहने के लिए कुछ ऐसी पंक्तियों का प्रयोग करते हैं जिन्हें सूक्ति कहा जा सकता है लेकिन भाषा को ज्यादा अलंकृत करने से वह बचते ही रहे हैं। कहीं भी ऐसी भाषा का प्रयोग नही किया गया है जो कि आपको ठिठककर उसे सराहने के लिए आपको मजबूर करे। व्यक्तिगत तौर पर मुझे लगता है कि अगर सामाजिक उपन्यासों में भाषा सुंदर हो तो वह उपन्यास का स्तर बढ़ा देती है। चूँकि यह उपन्यास भावना प्रधान होते हैं तो लेखक के पास यह मौका रहता है कि वह खूबसूरती से उन भावों को दर्शाये और अगर लेखक ऐसा करे तो शायद पाठकों को भी यह चीज पसंद आएगी।
मैंने उपन्यास का ई संस्करण पढ़ा था और उसे लेकर भी मैं एक बात कहना चाहूँगा। डायमंड पॉकेट बुक्स द्वारा प्रकाशित इस ई-संस्करण में काफी गलतियाँ हैं। यह गलतियाँ वर्तनी की है जो कि पठनीयता को प्रभावित करती हैं। प्रकाशन को कम से कम ई बुक की प्रूफरीडिंग तो ढंग से करानी चाहिए थी।
अंत में यही कहूँगा कि पत्थर की देवी एक साधारण कहानी है जिसे एक बार पढ़ा जा सकता है। अगर आपको सामाजिक उपन्यास पसंद आते हैं तो एक बार इसे पढ़कर देख सकते हैं। हाँ, चूँकि कहानी काफी पहले लिखी गई थी तो नयेपन की कमी इसमें लग सकती है।
उपन्यास के कुछ अंश
जब एक संदेह दिल के अंदर बैठ जाता है तो उसे निकालना असम्भव हो जाता है- विशेषकर एक स्त्री का संदेह जो वह अपने पति पर करती है।
बोझ बँट जाए तो हल्का हो जाता है। छाती का लावा बाहर आ जाए तो दिल की तपिश कम हो जाती है।
प्यार करने वाले अपना स्वार्थ देखे बिना जी जान से लुट जाते हैं।
मानव को झूठा संतोष मिले या सच्चा, यदि यह उसे प्राप्त हो जाता है और इसके द्वारा उसे सुख और शांति से जीवित रहने का सहारा मिल जाता है तो वह वास्तव में बहुत भाग्यवान है।
प्यार करने वाले अपनी प्रसन्नता नहीं दूसरे की प्रसन्नता का ध्यान रखते हैं… दूसरे का स्वार्थ देखते हैं… उसका जिससे प्यार किया गया। सच्चे प्यार की यही निशानी है।
प्यार करने वाले परिणाम की चिंता नहीं करते। प्यार पर खामोशी के साथ निछावर होते हुए जान दे देते हैं परंतु उफ्फ़ भी नहीं करते।
सपने किसी के अधीन नहीं होते। सपनों पर किसी का अधिकार नहीं जिसे जो जब चाहे आँखें बंद करके अपनी इच्छानुसार देख सके।
मानव तो कभी-कभी ऐसा भी स्वप्न देख लेटा है जिसके बारे में उसने कभी सुना न देखा-कभी जीवन में सोचा भी नहीं।
पुस्तक लिंक: अमेज़न
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It's been years since I read a Ranu novel. I have read some (many, many years ago), but don't really remember. It's good to see a review here.
And it's a wonderful feeling जब लेखक ऐसी भाषा का प्रयोग करते हैं 'जो कि आपको ठिठककर उसे सराहने के लिए आपको मजबूर कर देती है।' है न?
There's a quote regarding this feeling that I found on Pinterest.
Very nice review, like always.
I am into hindi popular fiction and social novels were the one that i had not yet read that extensively among these (crime, horror and social novels). So i'm going through social novels written by different writers of that era. सामाजिक उपन्यास हो या गंभीर साहित्य उसमें खेल भाषा का ही होता है तो उसमें सुंदरता खलती नहीं है। बशर्ते एक संतुलन हो। कई बार लेखक भाषा की सुंदरता पर इतना ध्यान देते हैं कि वह नकली लगने लगती है और कहानी की गति को भी बाधित करती है। ऐसी भाषा भी मुझे पसंद नहीं आती। मेरी नजर में भाषा की सुंदरता कहानी में नमक के समान है। सही मात्रा में हो तो कहानी का जायका बढ़ाती है लेकिन कम या अधिक हो तो स्वाद बिगड़ सा जाता है। ये संतुलन हासिल करना ही मुश्किल है।