भँवर – सत्य प्रकाश बंसल

संस्करण विवरण:

फॉर्मैट: ईबुक | पृष्ठ संख्या: 265 | प्रकाशक: डायमंड पॉकेट बुक्स 

पुस्तक लिंक: अमेज़न

भँवर - सत्यप्रकाश बंसल | समीक्षा

कहानी 

विनय कुमार मल्होत्रा वी के इंडस्ट्री का एकलौता वारिस था। मूल रूप से कलाकार स्वभाव का विनय के ऊपर जब व्यापार का भार आया तो उसे घुटन सी महसूस होने लगी। और उसने कम्पनी और मुंबई शहर से दूर जाने का मन बना लिया। 

पर उसे क्या मालूम था कि उसका ये कदम उसकी ज़िंदगी में एक नया अध्याय जोड़ देगा। उसकी ज़िन्दगी में प्रेम तो आयेगा लेकिन उसका यह कदम उसे एक ऐसे भँवर में फँसा देगा कि उस भँवर से निकलना उसके लिए नामुमकिन हो जाएगा। 

आखिर विनय ज़िन्दगी से क्यों परेशान था?

विनय की ज़िंदगी मुंबई से बाहर निकलने के फैसले के बाद किस भँवर में फँस गई थी?

आखिर विनय की ज़िन्दगी में प्रेम कैसे आया?

क्या वो इस भँवर से निकल पाया?

मुख्य किरदार 

विनय कुमार मल्होत्रा – वी के मल्टी इंडस्ट्रीज का प्रोप्राइटर
मिस रूबी – विनय की स्टेनो 
अमर – एक युवक जिसे विनय ने लिफ्ट दी थी 
कुलवन्त सिंह – एक ट्रक ड्राइवर 
सेठ करमचंद मल्होत्रा – विनय के पिता 
अमृता – सेठ करमचंद की जवान पत्नी 
सुचित्रा सिंह – मिस बॉम्बे 
वीणा – अमर की पड़ोसन जो अमर से प्रेम करती थी 
लीला मौसी – अमर की माँ 
बिरजू – वीणा का बाप 
प्रमिला – एक गायिका 
रामप्रसाद शर्मा – लीला का मौसा 
श्री दुग्गल – सेठ करमचंद का मैनेजर 
विकास – विनय का हमशकल 

मेरे विचार

भँवर डायमंड पॉकेट बुक्स द्वारा प्रकाशित सत्य प्रकाश बंसल का लिखा हुआ सामाजिक उपन्यास है। सत्य प्रकाश बंसल का यह पहला उपन्यास है जो कि मैंने पढ़ा है। 

उपन्यास के केंद्र में विनय कुमार मल्होत्रा नाम का युवक है जो कि एक बड़े व्यापारी का लड़का है। उसके पास धन दौलत सब कुछ है लेकिन वह इससे खुश नहीं है। यही कारण है वह एक दिन अपनी मौजूदा ज़िंदगी से परेशान होकर मुंबई से कूच करने का निर्णय लेता है। उसके इस निर्णय के साथ उसकी ज़िन्दगी में ऐसा मोड़ आता है जो कि उसकी ज़िन्दगी बदल देता है। एक रईस युवक से वह ग्वाले के लड़के में तब्दील हो जाता है और नैनीताल के आस-पास के गांव में रहने लगता है। उसका यह कदम उसके जीवन में क्या बदलाव लेकर आता है यही उपन्यास का कथानक बनता है। 

उपन्यास का कथानक पढ़ते हुए इस बात का अहसास हो जाता है कि कथानक काफी पहले लिखा गया था। किसी पुरानी फिल्म की तरह कथानक आगे बढ़ता है। विनय के पहले गाँव पहुँचने और फिर उधर से वापिस मुंबई पहुँचने की कथा कई रोचक परिस्थितियों से होकर गुजरती है। कुछ ऐसी परिस्थितियों से भी कथानक आगे बढ़ता है जो कि कई बार तर्क की कसौटी पर खरा नहीं उतरता है लेकिन अगर इन्हें नजरंदाज कर दे तो लेखक ने एक रोचक कथानक पाठक को देने की कोशिश की है जिसमें वह काफी हद तक सफल भी होते है। उपन्यास में बदला भी है, प्रेम भी है, जुनून भी है और आखिर तक पहुँचने पर उपन्यास ऐसा रूप ले लेता है जिसका अंत देखने के लिए आप उपन्यास पढ़ते चले जाते हैं। मुख्य किरदार के जीवन में जो घटनाएँ होती है वो पाठक को आगे पढ़ते जाने के लिए विवश कर देती है।

उपन्यास में विनय के अतिरिक्त बाकी किरदार कथानक के अनुरूप ही है। इन किरदारों के रूप जैसे जैसे कथानक आगे बढ़ता है वैसे वैसे बदलते रहते हैं जो कि कथानक में रोचकता बनाए रखते हैं।  हाँ, उपन्यास पढ़ते हुए पता लगता है कि लेखक को कुमाऊँ और उसके आस-पास की संस्कृति का इतना ज्ञान नहीं है और इस कारण पहाड़ी संस्कृति का खाका वो इतनी अच्छी तरह से खींच नहीं पाते है। क्योंकि खुद मै पहाड़ से आता हू तो यह कमी खलती है लेकिन आम पाठक जो खुद पहाड़ से वाकिफ नहीं होंगे उन्हें शायद ये कमी इतनी न खले। 

उपन्यास के केंद्र में अमर और वीणा का प्यार है। वीणा बचपन से अमर से प्यार करती थी लेकिन जब विनय रूपी अमर से वह मिलती है तो वो प्यार आगे परवान चढ़ता है। मुझे लगता इसे परवान चढ़ाते हुए दर्शाने के लिए लेखक ने जितने प्रसंग इस्तेमाल किये उससे कुछ अधिक करने चाहिए थी।  ऐसा इसलिए भी है क्योंकि कथानक में आगे जाकर यही प्रसंग वीणा की भावनाओं को दिशा देते हैं। ऐसे में फ्लैश बैक में ऐसे प्रसंग दर्शाकर वह भावनाओं को निर्धारित दिशा लेते दिखा सकते थे। अगर ऐसा होता तो व्यक्तिगत तौर पर मुझे लगता है कि कथानक और प्रभावी बन सकता था।  

उपन्यास के कथानक में लेखक ने अंत में कुछ घुमाव दिए हैं लेकिन जब सब कुछ उजागर हो जाता है तो आप यह सोचने को मजबूर हो जाते हो कि चीजों को इतना गोल घुमाने की जरूरत ही क्या थी। सब कुछ बचकाना सा लगने लगता है। कुछ चीजें और भी ऐसी रहती हैं जो कि बचकानी लगती है। 

मसलन विनय किसी दूसरे युवक की पहचान लेकर उसके गाँव जाता है जहाँ उस युवक की अंधी माँ है। लेकिन उस गाँव में उसके पड़ोसी को छोड़कर ऐसा कोई व्यक्ति नहीं रहता है जो कि असल युवक को पहचानता हो। यह चीज थोड़ा अटपटी लगती है। उसके गाँव वाले, उसके दोस्त, उसके स्कूल वाले न जाने कितने लोगों के साथ उसका उठना बैठना रहा होगा। फिर उसे तो मुंबई एक बड़े फिल्म वाले ने बुलाया था। ऐसे में उसका आसपास नाम होना बनता था लेकिन ऐसी कोई चीज देखने को उधर नहीं मिलती है। 

फिर माँ की आँखें भले ही चली गई हों लेकिन माँ  द्वारा लड़के की आवाज़ न पहचानना भी अटपटा लगता है। वो भी तब जब विनय पूरी ज़िन्दगी मुंबई में रहा हो। पहाड़ी व्यक्ति के बोलने का तरीका और मुंबई वासी के बोलने का तरीका अलग होता है। दोनों में फर्क आसानी पता चल जाता है। ऐसे में कोई व्यक्ति केवल पाँच साल बाहर रहने के बाद न केवल अपना लहजा बदल ले बल्कि साथ साथ पहाड़ी शब्दों का भाषा में इस्तेमाल करना बन्द कर दे ऐसा मुमकिन नहीं लगता है।

उपन्यास के अंत में भी एक मुख्य किरदार जो चीजें करता है वो दूसरे को शिक्षा देने हेतु करता है। इस दौरान वह कई लोगों को कष्ट भी देता है। यह चीज पढ़कर पाठक यही सोचने पर मजबूर हो जाता है कि ऐसी शिक्षा की जरूरत ही क्यों थी? वह इसे समझाने की कोशिश भी करता है लेकिन  उसका वो वक्तव्य इतना प्रभाव कम से कम मेरे ऊपर तो नहीं डाल पाया। वहीं जिस किरदार के साथ वह यह खेल खेलता है वह बाद में सब कुछ सहज रूप से अपना कैसे लेता है। अगर उसकी जगह मैं होता तो इस खेल के कारण नाराज जरूर होता। ये सब चीजें कथानक को अतिनाटकीय बना देती हैं जिससे बचा जा सकता था।

वीणा का किरदार वैसे तो पूरे उपन्यास में तेज तर्रार युवती का दर्शाया गया है लेकिन शुरुआत में कहानी बढ़ाने के लिए जो करते दर्शाया गया है वह अटपटा ही लगता है। वह अठारह साल की युवती है जिसे यह तो याद है कि गिटार में क्या गुदा हुआ था लेकिन उसे अपने उस प्रेमी का चेहरा मोहरा याद नहीं है। यह बात समझ आती है कि आठ साल में व्यक्ति काफी बदल जाता है लेकिन इतना भी नहीं बदलता कि दूसरे व्यक्ति से लोग कन्फ्यूज हो जाए। उसकी यह हरकत अटपटी लगती है। अगर कथानक में कहीं ये दर्ज होता है कि विनय और अमर का चेहरा मोहरा इत्यादि मिलती जुलती थी तो शायद एक बार के लिए वीणा का संशय में पड़ना माना जा सकता था लेकिन लेखक ऐसा कुछ भी कहीं नहीं लिखते हैं। यह बात समझ में आती है कहानी को बढ़ाने के लिए वीणा का कन्फ्यूज होना जरूरी था लेकिन लेखक इसके लिए एक मजबूत कारण देते तो बेहतर होता। 

उपन्यास में एक दो जगह शब्द की गलतियाँ भी हैं। अश्योरेन्स (जिसका अर्थ आश्वासन देना होता है) को इंश्योरेंस (जिसका अर्थ बीमा या किसी चीज की रक्षा हेतु किया गया प्रावधान होता है) लिखा गया है। 

“गुड! सेठ साहब कल जरूर आएंगे। पार्टियों को इंश्योरेन्स अश्योरेन्स (आश्वासन) दे दो – सब ठीक है।” 

एक जगह उपेक्षा की जगह अपेक्षा लिखा है। 

सेठ मल्होत्रा ने न तो उसके पैरों को देखा और न ही पत्रिका की उत्तेजक तस्वीर पर ध्यान दिया। अमृता उनकी अपेक्षा उपेक्ष देखकर कुछ झल्ला गई और फिर पत्रिका इतनी जोर से जमीन पर पटकी की सेठ मल्होत्रा चौंक पड़े और पत्नी की ओर देखने लगे। 

कुछ जगह सीढ़ी को पीढ़ी लिखा है। 

दूसरी सुबह जब वीणा दूध निकालने गई तो लीला लाठी लेकर एक पीढ़ी पर बैठी रही। 

लीला पीढ़ी पर बैठी थी। उसने धीरे से पूछा – ‘क्या हुआ बेटी?’

उपन्यास में एक प्रसंग है जहाँ पर लोग विनय को मरा हुआ समझते हैं क्योंकि उसकी गाड़ी में एक लाश मिलती है। डीएसपी लाश प्राप्त होने पर कहता है:

“गाड़ी में जली हुई लाश पाई गई है, उसकी कलाई पर जो घड़ी बंधी है, वह झुलस तो गई है लेकिन पिघलने से बच गई है।” डीएसपी ने घड़ी निकालकर दिखाते हुए कहा – “बस मरने वाली की यही एक पहचान मिल सकी है।”

लेकिन इससे पहले ही यह दर्शाया गया था कि विनय ने वह घड़ी अमर को उसके सपने हासिल करने के लिए दी थी। फिर उसके कुछ पलों बाद ही एक ट्रक से उसका एक्सीडेंट हो गया था। ऐसे में अमर के हाथ में घड़ी कैसे आई? वहीं अगर कोई उपकार स्वरूप कुछ चीज देता है तो व्यक्ति उसे कलाई में नहीं बांधता है बल्कि बाकी चीजों के साथ रखता है। तो यह बात अटपटी लगती है। फिर अमर को दी गई चीजों में हीरे की अंगूठी भी थी लेकिन घड़ी का मिलना और अंगूठी का न मिलना भी अजीब लगता है। 

“बताता हूँ।” कहकर अमर ने पिछली सीट पर से बैग उठाकर उसमें से पाँच-पाँच सौ के लगभग दस हजार रुपये के नोट निकाले। अपनी अंगूठी और घड़ी उतारी और यह सब अमर की ओर बढ़ाकर बोला – “यह दस हजार कैश, 25 हजार रुपये की घड़ी और यह सफेद सोने की हीरे की नग वाली अंगूठी दो लाख से कम न होगी।”

“मैं क्या करूँ इन सबका?” अमर ने असीम आश्चर्य से उसे देखते हुए पूछा। 

“अभी ऋण समझकर रख लो और अपना सपना पूरा करने मुंबई लौट जाओ।” 

मुझे लगता है उपन्यास में ये कुछ ऐसी कमियाँ है जिन्हें कुशल संपादन से लेखक के समक्ष उजागर कर उन्हें ठीक करवाया जा सकता था। अगर ऐसा होता तो उपन्यास थोड़ा तार्किक भी हो जाता है और इस कारण उसकी रोचकता बढ़ जाती। 

उपन्यास के आवरण चित्र की बात भी मैं करना चाहूँगा। उपन्यास के आवरण चित्र का कहानी से कोई लेना देना नहीं है। प्रकाशक ने क्या सोचकर ये आवरण रखा ये मेरी समझ में तो नहीं आया। मुझे लगता है अगर कहानी के हिसाब से आवरण चित्र होता तो बेहतर होता। 

अंत में यही कहूँगा कि ऊपर लिखी कमियों को छोड़ दें तो उपन्यास पठनीय है। कुछ संपादन से यह औसत फिल्मी उपन्यास से अच्छा फिल्मी उपन्यास बन सकता था। एक बार इसे पढ़ना चाहें तो इसे पढ़ सकते हैं।

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About विकास नैनवाल 'अंजान'

विकास नैनवाल को अलग अलग तरह के विषयों पर लिखना पसंद है। साहित्य में गहरी रूचि है। एक बुक जर्नल नाम से एक वेब पत्रिका और दुईबात नाम से वह अपनी व्यक्तिगत वेबसाईट का संचालन भी करते हैं।

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2 Comments on “भँवर – सत्य प्रकाश बंसल”

  1. समीक्षा से पढने से यह एक सामान्य उपन्यास प्रतीत होता है।
    – 'इंश्योरेंस' शब्द ही पढने में आता है 'अश्योरेन्स' तो मैंने भी कहीं नहीं पढा।
    – उपहारस्वरूप दी गयी चीजें सामान्यतः लोग काम में लेते हैं।
    अच्छी समीक्षा, धन्यवाद।

    1. अश्योरेन्स का अर्थ आश्वासन देना होता है… इंश्योरेन्स को अक्सर बीमा के तौर पर प्रयोग किया जाता है… या किसी ऐसी वस्तु के तौर पर जो किसी चीज के एवज में दी जा रही हो। उपहारस्वरूप नहीं चीज उपकार के तौर पर दी गई थी ताकि व्यक्ति उन्हे बेचकर अपने सपने हासिल कर सके। चीज देने के कुछ पलों बाद ही एक्सीडेंट हो जाता है जिसमें चीज पाने वाले की मृत्यु हो जाती है। ऐसे में उसे पहनने का वक्त कब मिला यह चीज संशय पैदा करती है। उपन्यास सामान्य है। एक बार पढ़ा जा सकता है।

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