उपन्यास 25 अगस्त 2018 से 26 अगस्त 2018 के बीच पढ़ा गया
संस्करण विवरण:
फॉर्मेट: ई बुक
प्रकाशक : डेली हंट
प्रथम प्रकाशन : 1974
कार में लाश और फोन पर उपन्यास |
कामतानाथ दिल्ली की एक विदेशी फर्म में सेल्स ऑफिसर था। उसका अच्छा खासा खुशहाल परिवार था।
सब कुछ सही चल रहा था कि उसके परिवार पर विपत्तियों का पहाड़ टूट गया। काम के सिलसिले में कामतानाथ को अक्सर दिल्ली से बाहर जाना पड़ता था। यह भी ऐसा ही साधारण टूर था जिसके चलते उसे मथुरा जाना पड़ा। मथुरा से लौटते हुए जब कामतानाथ की गाड़ी खराब हो गई तो उसे मदद की दरकार होने लगी।
ऐसे में एक पुलिसवाले ने उसकी मदद करने की कोशिश की लेकिन कामतानाथ के पैरो तले जमीन तब खिसक गई जब टायर बदलने के लिए डिग्गी खोलने पर उधर टायर के साथ एक लाश भी मिली।
कामतानाथ के कार में यह लाश कैसे आई? उसके होश उड़े हुए थे। कामतानाथ खुद को बेगुनाह बताता और उसके अनुसार इस विषय में उसे कुछ नहीं पता था।
ऐसे में कामतानाथ का दोस्त और उसका पड़ोसी महेश श्रीवास्तव कामतानाथ की मदद के लिए आगे आया। दोनों परिवार आपस में काफी नज़दीक थे और एक दूसरे की मदद करते आये थे। महेश पेशे से एक वकील था और इसलिए इस तरह के केस हैंडल कर सकता था।
परन्तु अगर कामतानाथ को उसे बचाना था तो उसे कुछ बातों का पता लगाना था।
आखिर वह लाश किसकी थी? लाश कामतानाथ की कार में कैसे आई? और सबसे महत्वपूर्ण सवाल – कातिल कौन था?
वहीं महेश के ज़हन में एक और उधेड़बुन चल रही थी। कुछ ही दिनों पहले कामतानाथ की पत्नी गौरी महेश के समक्ष अपने मन का एक शक जाहिर कर चुकी थी। गौरी को लग रहा था कि उसकी जान लेने की कोशिश की जा रही है। और वह महेश के सामने ऐसे सबूत रख चुकी थी कि महेश को गौरी की बात माननी पड़ी थी। वहीं वह महेश से वादा ले चुकी थी कि कामतानाथ को इस विषय पता न चले क्योंकि वह नहीं चाहती थी कि कामतानाथ बिना मतलब परेशान हो।
आखिर,गौरी को मारने की कोशिश के पीछे कौन था? क्या यह गौरी के दिमाग का वहम था या सचमुच कोई उसकी जान लेने को उतारू था? अगर सच में गौरी की जान को खतरा था तो कोई क्यों उसकी जान के पीछे पड़ा था? क्या कामतानाथ के साथ घटित घटना से इसका कोई सम्बन्ध था?
यही सब प्रश्न महेश को परेशान कर रहे थे और इन्ही सब प्रश्नों के उत्तर उसे पाने थे।
क्या वह इन रहस्यों से पर्दा उठा पाया? क्या वह अपने दोस्त और पड़ोसी को बचा पाने में सफल हो पाया? क्या गौरी के ऊपर दोबारा हमला हुआ?
इन सब सवालों के जवाब तो आप इस उपन्यास को पढ़कर ही जान पायेंगे।
मुख्य किरदार:
महेश श्रीवास्तव – एक वकील
कामतानाथ – महेश का पड़ोसी
गौरी – कामतानाथ की पत्नी
अमीठिया – सी आई डी इंस्पेक्टर जो इस केस की छानबीन कर रहा था
सूरज जोशी – हिन्दुस्तान टाइम्स का पत्रकार
सुषमा – कामतानाथ की जानकार
विपिन बिहारी – एक अपराधी
छाया श्रीवास्तव – महेश की स्वर्गवासी पत्नी
मेजर लाल – ग्लोबल डिटेक्टिव एजेंसी का डायरेक्टर
डॉक्टर शर्मा – गौरी को नींद की गोली देने वाला डॉक्टर
विक्रमसिंह – एक बड़ा स्मगलर और खतरनाक अपराधी
पाठक साहब का उपन्यास ‘कार में लाश’ पढ़ा। उपन्यास सबसे पहली बार 1974 प्रकाशित किया गया था। उपन्यास की सबसे ख़ास बात यह ही है कि भले ही उपन्यास आज से चालीस साल पहले लिखा गया था लेकिन आज भी जब मैंने इसे पढ़ा तो मुझे यह किसी भी कोण से पुराना नहीं लगा। कुछ कथानक ऐसे होते हैं जिन्हें पढ़ते हुए लग जाता है कि यह पुराने हैं और अब ऐसा कुछ नहीं होगा। परन्तु कार में लाश का कथानक आज भी उतना ही नया है जितना उस वक्त था। समय के गुजरने से से इसके नये पन में ज्यादा फर्क नहीं पड़ा है।
उपन्यास शुरू से आखिर तक पाठकों को बाँध कर रखता है। उपन्यास में दो मुख्य रहस्य हैं जो पाठक को अंत तक उलझाकर रखते हैं। यह तो पाठक के रूप में मैं जान गया था कि दोनों रहस्यों का कुछ न कुछ सम्बन्ध जरूर है लेकिन वह सम्बन्ध क्या है यह जानने के लिए भी मुझे अंत तक इंतजार करना पड़ा।
उपन्यास के किरदार यथार्थ के नजदीक है। महेश उपन्यास का मुख्य किरदार है। वही कहानी सुना भी रहा है और पूरे घटनाक्रम को हम उसकी नज़र से देखते हैं। वह एक नौसीखिया वकील है और उसी हिसाब से उपन्यास में उसका आचरण है। यही कारण है कि मुख्य डिटेक्शन वो खुद नहीं करता है बल्कि किसी और एक्सपर्ट के माध्यम से करवाता है। उपन्यास के दूसरे किरदार उपन्यास के कथानक के हिसाब से फिट बैठते हैं। उपन्यास में अमीठिया नाम का इंस्पेक्टर है। इसी नाम के किरदार को लेकर पाठक साहब ने कई लघु कथाएँ लिखी हैं। मैंने उनमें से कई लघु कथा पढ़ी हैं तो अमीठिया को एक उपन्यास में देखना किसी ऐसे व्यक्ति से अचानक मिलने के समान था जिससे हम काफी अरसे पहले मिले हो। अच्छा लगा।
उपन्यास एक बात सोचने पर हमे मजबूर करता है। इस दुनिया में हम गलतफहमी पाल लेते हैं कि हम अपने दोस्तों,परिवार वालों या पड़ोसियों को जानते हैं। लेकिन यह गलत धारणा ही होती है। अक्सर हमे लगता है हम किसी को जानते हैं लेकिन उसके विषय में कई बातें ऐसी होती हैं जिनसे अगर हम अवगत तो हमे पता लगेगा कि हम उस व्यक्ति को कितना कम जानते हैं। यही हाल महेश का इस उपन्यास में होता है और पाठक के रूप में आप भी यह चीज सोचने लगते हो कि क्या सचमुच हम अपने करीबियों को जानते हैं?
उपन्यास में कमी की बात करूँ तो वह मुझे उपन्यास के रहस्योद्घाटन के तरीके में लगी। उपन्यास में जितने भी मुख्य रहस्य उजागर होते उसमें नायक का कोई हाथ नहीं था और उपन्यास में उपसंहार के तौर पर होते हैं। इसलिए रोमांच थोड़ा कम हो जाता है। अगर पाठक नायक के माध्यम से उन रहस्यों को जानता तो शायद रोमांच बढ़ जाता।
हाँ, कहानी को जिस तरह से अंत किया गया वो मुझे पसंद आया। कहानी का अंत हमे सोचने पर मजबूर कर देता है कि कहीं सब कुछ सोची समझी चाल तो नहीं थी। इस हिसाब से उपन्यास का अंत मुझे पसंद आया क्योंकि यह कई सम्भावनाओं को जन्म देता है। हम सोचने लगते हैं कि क्या पूरी बात हमे बताई थी? या कुछ ऐसा था जो महेश,जो कि कथावाचक भी है, ने हमे नहीं बताया था? इससे उपन्यास में रोमांच थोड़ा बढ़ जाता है और पाठक अपनी सोच के हिसाब से अंत फिट कर सकता है। मुझे ऐसे कथानक पसंद है तो पाठक के पास कुछ न कुछ सोचने के लिए छोड़ जाते हैं।
उपन्यास एक अच्छी मिस्ट्री है जो अंत तक पाठक को बाँध कर रखती है। मुझे तो बहुत पसंद आई। अगर आपको मिस्ट्री उपन्यास पढ़ने का शौक है तो आपको इसे एक बार पढ़कर देखना चाहिए। उम्मीद है जिस तरह इसने मेरा मनोरंजन किया उस तरह आपका मनोरंजन करने में यह सफल रहेगी।
अगर आपने इस उपन्यास को पढ़ा है तो आप इसके विषय में क्या सोचते हैं? आपको यह कैसी लगी थी? अपने विचारों से मुझे कमेंट्स का माध्यम से अवगत करवाईयेगा।
अगर आपने इस उपन्यास को नहीं पढ़ा है तो आप इस उपन्यास को डेलीहंट के ई बुक एप्प में खरीदकर पढ़ सकते हैं।
डेलीहंट
पाठक साहब के दूसरे उपन्यासों के प्रति मेरी राय आप निम्न लिंक पर जाकर प्राप्त कर सकते हैं:
सुरेन्द्र मोहन पाठक
हिंदी पल्प के दूसरे उपन्यास के विषय में मेरी राय आप निम्न लिंक पर जाकर पढ़ सकते:
हिंदी पल्प फिक्शन
रोचक समीक्षा है | नॉवेल मिला तो पढूंगा जरूर |
जी लेख आपको पसंद आया यह जानकार अच्छा लगा। उपन्यास मिले तो जरूर पढ़ियेगा।
रोचक समीक्षा लगी। अगर उपन्यास मिला तो अवश्य पढूंगा क्योंकि मुझे पाठक सर के थ्रिलर बहुत पसंद है।
धन्यवाद
गुरप्रीत सिंह
मैंने तो डेलीहंट में पढ़ी थी। अब शायद kindle में डालें पाठक साहब। उन्हें मेल करके देखिये।