त्यागपत्र – जैनेन्द्र कुमार

रेटिंग : 3.25/5
किताब अप्रैल 30 2017 से मई 5 2017 के बीच पढ़ी गयी

संस्करण विवरण :
फॉर्मेट : पेपरबैक
पृष्ठ संख्या : 85
प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ

पहला वाक्य :
….नहीं भाई, पाप-पुण्य की समीक्षा मुझसे नहीं होगी।

सर एम दयाल कभी प्रांत के चीफ जज हुआ करते थे। लेकिन जजी को त्यागकर कई वर्षों से हरिद्वार में वो विरक्त जीवन व्यतीत कर रहे  थे। उन्होंने क्यों अपनी नौकरी और ऐश्वर्य त्यागा? इसका जवाब किसी के पास नहीं था।

जब उनका देहांत हुआ तो उनके दस्तावेजों से एक पाण्डुलिपि मिली। इस पाण्डुलिपि के अंत में उनके हस्ताक्षर भी था और इससे उनके जजी के त्यागपत्र के कारणों का पता भी लगता था।

आखिर  क्यों अपने कैरियर  चरमोत्कर्ष पर उन्होंने अपनी नौकरी से इस्तीफा दिया था?

मुझे त्यागपत्र के विषय में सबसे पहली बार एक विडियो से पता चला था। हिंदी उपन्यास के ऊपर बने इस विडियो में त्यागपत्र के सीन का नाट्य रूपांतरण था। मैंने वो विडियो देखा और फिर इस उपन्यास को पढने की रुचि मन में जागी। और इस उपन्यास को तभी ढूँढना शुरू किया। जब मिला तो खरीद लिया और अब जाकर पढ़ा। किधर खरीदा ये अब ध्यान में नहीं है। शायद किसी पुस्तक मेले में ही खरीदा था। खैर, इससे ज्यादा फर्क भी नहीं पड़ता। खरीदा ये जरूरी है।

अब इस लघु उपन्यास  की बात करूँ तो यह मूलतः मृणाल की कहानी है। कहानी का नैरेटर प्रमोद एक जज है जिसकी समाज में इज्जत है, शौहरत है यानी वो सब कुछ है जिसकी एक व्यक्ति को लालसा होती है। लेकिन फिर भी वो ग्लानि महसूस कर रहा है। उसे लगता है वो इनके लायक नहीं है(या इनका उसके लिए अब कोई मोल नहीं है) और इसलिए वो न केवल अपनी नौकरी से बल्कि अपने जुटाए ऐश्वर्य से भी त्यागपत्र दे देता है और एक विरक्त सा जीवन जीने लगता है। ऐसा वो क्यों कर रहा है इस बात को वो इस आत्मकथात्मक संस्मरण में बताने की कोशिश करता है।

बचपन में हम सभी के जीवन में ऐसे कई रिश्ते होते हैं जिनसे हम बहुत नज़दीक होते हैं। उस वक्त हमे लगता है कि हम इन लोगों से दूर कभी नही होंगे। लेकिन वक्त गुजरने के साथ जैसे जैसे हम बड़े होते हैं हम उनसे दूर होते चले जाते हैं। वो भी अपने जीवन में व्यस्त हो जाते हैं और हम  भी। मुझे लगता है ऐसा हर किसी ने अनुभव किया होगा।

प्रमोद  और उसकी बुआ मृणाल के बीच में भी ऐसा ही सम्बन्ध है । मृणाल प्रमोद  से ५ साल बड़ी है तो वो आपस में दोस्त भी थे और वो उसकी बुआ कम उसकी बड़ी बहन ज्यादा थी।  वक्त के साथ इस रिश्ते में कैसे बदलाव आये वो हम कहानी के माध्यम से जानते हैं।

यह कहानी मृणाल के चहूँ और घूमती है लेकिन हम खाली  प्रमोद  के दृष्टिकोण से इसे देखते हैं। हम मृणाल के पूरे जीवन को नहीं देखते बल्कि खाली उस हिस्से को देखते हैं जिसमे प्रमोद  मृणाल से मिलता रहता है।  ऐसे में मेरे मन में ये लालसा थी कि एक बार मैं मृणाल के नज़रिए से भी चीजों को पढ़ पाता।

मृणाल एक चुलबुली और ईमानदार लड़की है। वो अपने जीवन में सच के साथ तो रहती ही है लेकिन अगर उसके किसी नजदीकी को दुःख होता है तो वो उसके कष्ट को भी अपने ऊपर ले लेती है। और इस बात का उसे कोई दुःख भी नहीं होता।

उसके  लिए पाप और पुण्य की परिभाषा अपने  वक्त के समाज के अनुरूप है। और अगर उसे लगता है उसने पाप किया है तो वो उसके दंड का भागी खुद को मानकर उससे खुद को दंडित करने से भी नहीं चूकती है। और यही सोच उसके जीवन में लिए गये निर्णयों का आधार बनती है।

वह शहर के बड़े स्कूल में बग्घी में पढ़ने जाती थीं और घर आकर जो नयी शरारतें वहाँ होती, अकेले में सब मुझको ऐसा सुनाती थीं। आज मास्टर जी को ऐसा छकाया, कि प्रमोद, तुझे क्या बताऊँ। कहकर वह ऐसा ठहाका मारकर हँसती कि मैं देखता रह जाता। 

...शीला ने उनकी कुर्सी की गद्दी में पिन चुभोकर रख दी,शीला बड़ी नटखट है। … पिन जो चुभी तो खूब बिगड़े। डपटकर बोले- यह किसकी शरारत है? वह खड़ी हो जाय। सब लड़कियाँ सहमी बैठी रहीं। शीला ऐसे हो गयी, जैसे उद-बिलाव के आगे मूसी। मास्टर ने बेंत फटकार कर कहा – मैं तुममें से एक-एक को पीटूँगा। सचमुच उनको बहुत गुस्सा था। उनका गुस्सा देखकर सब लड़कियाँ एक-दूसरे की तरफ देखने लगी। यह मुझको बुरा लगा। मैंने खड़े होकर कहा – यह मेरा कसूर है। … 

मैं उनकी उस आँख की तरफ देख रही थी, पर वह आँख जाने कहाँ देख रही थी। अरे,प्रमोद तू उन मास्टर को एक बार तो जरूर ही देख। फिर मास्टरजी ने चिल्लाकर कहा – अब तो नहीं करेगी? मैं चुपचाप खड़ी रही और सोचती रही कि एक बार तो सचमुच का कसूर करके देखूँगी

(पृष्ठ 8-9)

उन्होंने मेरे लिए क्या नहीं त्यागा? उनकी करुणा  पर मैं बची हूँ। मैं मर सकती थी, लेकिन मैं नहीं मरी। मरने को अधर्म जानकर ही मैं मरने से बच गयी। जिसके सहारे मैं उस मृत्यु के अधर्म से बची ,उन्हीं को छोड़ देने को मुझे कहते हो ! मैं नहीं छोड़ सकती। पापिनी हो सकती हूँ , पर उसके ऊपर क्या बेहया भी बनूँ। 
(पृष्ठ ५०)

…सोचकर अंत में पाया कि मैं छल नहीं कर सकती, छल पाप है। हुआ जो हुआ, ब्याहता को पतिव्रता होना चाहिए। उसके लिए उसे पहले पति के प्रति सच्ची होना चाहिए। सच्ची बनकर ही समर्पित हुआ जा सकता है।…. 
सुनकर उन्होंने कहा कि मुझसे कहने की कोई जरूरत नहीं है। यह था, तो मुझसे शादी क्यों की? कुछ देर बाद उन्होंने मुझसे कहा कि मैं हरामजादी हूँ। मैंने कोई प्रतिवाद नहीं किया। …. 
एक दिन उन्होंने एकदम आकर कहा,’चल, निकल यहाँ से।’  मैंने आज्ञा न  मानने की जिद नहीं की। … 
(पृष्ठ ५६-५७)


जब सबको छोड़कर मुझे साथ ले चलने को उतावला था, तब भी मैं जानती थी कि थोड़े दिन बाद इसे लौटकर अपने परिवार के बीच आ जाना होगा। …. अन इसे चले ही जाना चाहिए। परिवार उसका वहाँ अकेला है। मुझे वह नहीं झेल सकता। मेरी कोशिश है कि वह मुझसे उकता जाए। अपनी अवस्था मैं जानती हूँ। … लेकिन ऐसी अवस्था में भी स्वार्थ की बात सोचना ठीक नहीं है। 
(पृष्ठ ६० )

उपन्यास पढ़ते हुए दो तीन बातें मेरे मन में आयीं। मृणाल का प्रेम शादी से पहले शीला के भाई से था। ये हमे जल्द ही पता चल जाता है। अगर उसे मृणाल की गति का पता लगता तो उसे कैसा लगता। उसने आजीवन शादी न करने की कसम खायी थी। अगर मैं उसकी जगह होता तो मृणाल की हालत जानकार कैसा महसूस करता? या अगर मैं प्रमोद  की जगह होता तो क्या एक बार उससे मिलने की कोशिश नहीं करता और उसे मृणाल की हालत से अवगत न करवाता? लेकिन फिर सवाल कई और बनते हैं? क्या मृणाल को पता था कि प्रमोद  के साथ उसका निर्वाह नहीं होगा और समाज के सामने दयाल घुटने टेक देगा इसलिए वो उसके साथ नहीं जाना चाहती थी। इसीलिए आखिर में वो उसके सामने एक ऐसी शर्त रखती है जिसे मानना मृणाल को पता था कि उसके लिए नामुमकिन के सामान होगा। अगर कोई मेरे सामने वो शर्त रखे तो क्या मैं मानूँगा ? मुझे लगता है मैं भी नहीं मानूँगा। या फिर कुछ और ही सोचूंगा।

हमारा जीवन ऐसा ही होता है। कई बातों के लिए हमे जीवन में खेद रहता है। हम यही सोचते रह जाते हैं कि अगर फिर दुबारा उस वक्त में जा पाते तो कुछ और निर्णय लेते।

उपन्यास के दोनो पात्र ही मुझे जीवंत लगे। मैं कई ऐसे लोगों से मिला हूँ तो कष्ट को पापों का प्रायश्चित समझते हैं और खुद को कष्ट देने से भी गुरेज नहीं करते हैं। मृणाल भी खुद की इच्छाओं को खत्म करके खुद को सजा ही दे रही थी।

कहानी मार्मिक है। मैं मृणाल के लिए दुखी हुआ और उसके लिए कुछ करना चाहता था। प्रमोद  के मन की स्थिति भी मैं कुछ हद तक समझ सकता हूँ। लेकिन अगर मैं उसकी जगह होता तो ऐसी परिस्थितियों में कुछ और तरह के निर्णय लेता। क्या पता मैं उस लड़के से बात करता जिससे मृणाल प्यार करती थी? क्या पता अगर मृणाल मेरे साथ आने के लिए तैयार नहीं थी तो उसे पूर्णतः छोड़कर कुछ आर्थिक मदद करता रहता ताकि उसकी ऐसी स्थिति न होती।

मृणाल की सोच समझने में आजकल के लोगों को थोड़ी दिक्कत हो सकती है लेकिन समाज आपको इस तरह से कंडीशन कर देता है कि आप के निर्णय उस समाज की नैतिकता  के हिसाब से होने लगते हैं। मृणाल का पति भी जीवंत किरदार है। ज्यादातर लोगों की प्रतिक्रिया अभी भी शायद उसके जैसे ही हो। कुछ लोग अलग मिलेंगे लेकिन फिर वो हर जमाने में रहते हैं। यहाँ मैं ये नहीं कह रहा वो सही है , बस ये कह रहा हूँ कि वो किरदार भी सच्चाई के निकट है।

किताब को एक बार पढ़ा जा सकता है। मुझे तो पसंद आई। अगर आपने इसे पढ़ा है तो अपनी राय जरूर दीजियेगा। अगर नहीं पढ़ा है तो किताब आप निम्न लिंक से खरीद सकते हैं :
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About विकास नैनवाल 'अंजान'

विकास नैनवाल को अलग अलग तरह के विषयों पर उन्हें लिखना पसंद है। एक बुक जर्नल नाम से एक वेब पत्रिका और दुईबात नाम से वह अपनी व्यक्तिगत वेबसाईट का संचालन भी करते हैं।

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12 Comments on “त्यागपत्र – जैनेन्द्र कुमार”

  1. काॅलेज समय में यह उपन्यास पढा था। मन को छू गया।
    मृणाल की मर्मस्पर्शी कथा आज भी मन को मायूस कर जाती है।
    वक्त के साथ प्रमोद का दुख भी गहरा जाता है और वह समाज से न टकरा कर स्वयं ही जज की पोस्ट से त्यागपत्र देकर अपने अनजाने अपराध का प्रायश्चित करता है।
    एक मर्मस्पर्शी उपन्यास ।
    समीक्षा के लिए धन्यवाद।

    1. माफ़ करना दोस्त, इस विषय में मुझे कोई जानकारी नहीं है।

    1. जी सही कहा। अच्छा उपन्यास है।

    1. किरदार उसका जीवन के नज़दीक है। हम कई बार ऐसे फैसले नहीं ले पाते हैं जो कि हमे लेने चाहिए थे। फिर उनके लिए मन में ग्लानि उठती है। कभी न कभी हम अपने जीवन में प्रमोद हुए हैं।

      आपने ब्लॉग पर आकर अपनी प्रतिक्रिया दी उसके लिए आभार। आते रहिएगा।

  2. बेहद मार्मिक उपन्यास पढ़ने के बाद कई दिनों तक गूगल बाबा से एम दयाल के बारे में जानकारी प्राप्त करने की कोशिश करता रहा

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