तू चल मैं आई – अनिल मोहन

रेटिंग : 2.75/5
उपन्यास 28 मई 2018 से 4 जून,2018 के बीच पढ़ा गया

संस्करण विवरण :
फॉर्मेट : पेपरबैक
पृष्ठ संख्या : 240
प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स
आईएसबीएन : 9789332419940
श्रृंखला : मोना चौधरी सीरीज

पहला वाक्य:
मोना चौधरी का वो आखिरी घूँसा था जो उसके पेट पर पड़ा था।

‘तू चल मैं आई’ – यही कहा था मोना चौधरी ने जब नीलू महाजन ने उसे दिल्ली चलने को कहा था। जिस काम से वो दिल्ली से बाहर आये थे वो निपट चुका था। लेकिन चूँकि मोना को कोई व्यक्तिगत काम था इसलिए उसने नीलू महाजन के साथ जाने के बजाय कुछ देर बाद अकेले दिल्ली लौटने का फैसला किया था।

फिर बीच में परिस्थितियाँ ऐसी बनी कि मोना ने खुद को आजाद कलवा नामक आतंकवादी के गिरोह के बीच में पाया। ये गिरोह उस वक्त एक गाँव में छुपा था जब पुलिस को इनके विषय में खबर लगी थी। फिर कुछ ऐसा हुआ कि इस गिरोह ने उस गाँव के सरपंच के परिवार को तो कैद किया ही परन्तु उसके साथ पुलिस के कमिश्नर शेखर दीवान और मोना चौधरी को भी अपनी गिरफ्त में ले लिया था।

अब वो उन्हें लेकर पुलिस की नाकाबंदी से बाहर जाना चाहते थे।

आखिर मोना चौधरी इन सबके बीच कैसी फँसी?


आज़ाद कलवा, जैसे खूँखार आतंकवादी का गिरोह, दिल्ली के इतने नजदीक क्या कर रहा था? 


क्या उनका कोई मिशन था जिसे पूरा करने के लिए वो आये थे? अगर हाँ, तो वो क्या था?


क्या मोना इस गिरोह के चंगुल से निकल पाई? 


आज़ाद कलवा के गिरोह से हुये इस टकराव का क्या नतीजा निकला?

ऐसे ही कई सवालों के जवाब आपको इस उपन्यास को पढ़कर मिलेंगे।


मुख्य किरदार :
मोना चौधरी – दिल्ली में मौजूद एक अपराधी जो पैसों के लिए काम करती है
नीलू महाजन – मोना का साथी
पारसनाथ – मोना का जानकार जिसकी वो काफी इज्जत करती है
कालीचरण –  एक सेठ जिसे लोग ब्लैकमेल कर रहे थे
हीराभाई मालपानी – एक सिन्धी सेठ जो मोना को तब मिला था जब उसकी गाड़ी जाम में फँसी थी
एसीपी शर्मा – पुलिस ऑफिसर जो आतंकवादियों की घेरा बन्दी किये था
शेखर दीवान – पुलिस कमीश्नर जिसे आतंकवादियों से कैद कर लिया था
आज़ाद कलवा – एक खूँखार पाक्सितानी आतंकवादी जिसके ऊपर काफी रुपयों का ईनाम था
करम खान, गुलवीरा – आज़ाद कलवा गिरोह के आतंकवादी
जखीरा खान-  आज़ाद कलवा का खास साथी
वाहिद अली – दिल्ली में मौजूद आज़ाद कलवा का एजेंट

‘तू चल मैं आई’ अनिल मोहन जी की मोना चौधरी श्रृंखला का उपन्यास है। मोना चौधरी  दिल्ली में बसी एक ऐसी mercenary है जो पैसों के लिए किसी के भी काम को अंजाम दे सकती है। इस कारण कई बार अपराधी और क़ानून के रखवाले भी उसे अपने चुनिन्दा कार्यों के लिए इस्तेमाल करते हैं। क़ानून की नजरों में वो मुजरिम है लेकिन उसके खुद के कुछ उसूल हैं। आतंकवादियों से उसे सख्त नफरत है और यही कारण है कि कई बार उसे सरकारी खूफिया एजेंसी भी अपने मिशन के लिए इस्तेमाल कर चुकी हैं।

अगर आप मोना चौधरी से वाकिफ हैं तो उपरोक्त बात जानते ही होंगे और अगर नहीं है तो अब जान गये होंगे। ‘तू चल मैं आई’ में मोना चौधरी पाठको को एक बड़े गिरोह से उलझते हुए दिखती है। वो ये काम बिना किसी के कहे करती है। वही इस उपन्यास की खासियत ये भी है कि इस उपन्यास में मार धाड़ काफी कम है। ज्यादातर समय मोना चौधरी और गिरोह के बीच दिमागी खेल होते हैं। वो दिमाग से काम लेकर अपने दुश्मनों से निपटती है। वो ऐसा कैसे करती है ये तो आपको उपन्यास पढ़कर ही पता चलेगा।

उपन्यास में बीच बीच में घुमाव भी आते हैं तो जो पाठक को उपन्यास से बाँध कर रखते हैं। उपन्यास आंतकवाद की समस्या के ऊपर लिखा है। पात्रों के माध्यम से लेखक ने ये दर्शाने की कोशिश भी की है कि भले ही ये आतंकवाद कई बार धर्म की आड़ में किया जाता है लेकिन इन आतंकवादियों में से ज्यादातर का मसकद पैसा ही होता है। ये बात मुझे भी ठीक लगती है। एक किरदार के माध्यम से लेखक ने ये भी दर्शाया है कि दूसरो के आशियाने में जब हम आग लगाने की कोशिश करते हैं तो कई बार उसमें हमारे खुद के हाथ जल जाते हैं। फिर पछतावे के सिवाय हमारे पास कुछ नहीं रहता।

इन सबके अलावा उपन्यास में  किरदारों के मजाकिया अंदाज भी पाठक का मनोरंजन करते हैं। विशेषकर वो सीन जिसमें हीराभाई मालपानी और गुलीवरा हैं  पाठकों को गुदगुदाने में कामयाब होंगे। मुझे तो उन्हें पढ़ते हुए काफी मज़ा आया।

उपन्यास की मूल कहानी तो मुझे पसंद आई लेकिन फिर भी एक दो बातें मुझे खटकी।

जैसे उपन्यास में एक प्रसंग है जिसमें मोना चौधरी एक ब्लैकमेलर से लड़ती है। उसे पछाड़ती है और फिर उससे वो सबूत ले लेती है जिसके माध्यम से वो ब्लैकमेल कर रहा था। वो सबूत ब्लैकमेलर की जेब से बरामद होता है। अब मुझे ये प्रसंगअटपटा लगा। अगर मैं ब्लैकमेलर की जगह होऊँगा तो सबूत जेब में लेकर क्यों घूमूँगा। इस प्रसंग में हम घटना के बीच में दाखिल होते हैं। मोना और उसका टकराव कैसे होता है ये हमे पता नहीं लगता। लेकिन अगर लेखक ने उन सबूतों का जेब में होने का कुछ वाजिब कारण दिया होता तो शायद मुझे इतना नहीं खटकता। अभी मुझे ऐसा लगा कि लेखक एक्शन से उपन्यास की शुरुआत करना चाहता था लेकिन फिर प्रसंग को जल्दी में निपटाने के चक्कर में अपनी सहूलियत के लिए उसने ऐसा दर्शा दिया।

उपन्यास में एक और प्रसंग था जो मुझे खटका था। वो प्रसंग क्या है उसके विषय में ज्यादा कहूँगा तो उपन्यास का मजा किरकिरा हो सकता है। काफी महत्वपूर्ण प्लाट पॉइंट्स भी उजागर हो सकते हैं तो अपनी बात कैसे रखूँ ये थोड़ा टेढ़ी खीर है। बस इतना कह सकता हूँ कि जो आदमी किसी गिरोह का नाश चाहता है वो उसके साथ मिलकर न तो कई पुलिस वालों की हत्या करता है और न ही किसी औरत की इज्जत लूटता है। उपन्यास के आखिर में आचानक से उस किरदार में मन में आये ये बदलाव मुझे एक कमजोर प्लाट पॉइंट लगा। ऐसा लगा जैसे लेखक ने अपनी सहूलियत के हिसाब से काम किया है। आदमी का किरदार समय के साथ बदलता है लेकिन इसे और बेहतर तरीके से दर्शाया जा सकता था ताकि वो इतना अटपटा नहीं लगता जितना इस वक्त लगा।

तीसरी बात उपन्यास की कमी तो नहीं है लेकिन फिर भी कहना बनता है क्योंकि अक्सर ऐसे उपन्यासों से कुछ अपेक्षाएं होती हैं। व्यक्तिगत तौर पर मुझे इससे परेशानी नहीं हुई। लेकिन कई पाठक जब मोना को पढ़ते हैं तो ओवर द टॉप एक्शन की अपेक्षा रखते हैं। ये मैं नहीं रखता इसलिए इसकी कमी मुझे इतनी नहीं खली। चूँकि  इस उपन्यास में दिमागी दाँव पेंच ज्यादा दिखते हैं तो  मार धाड़ काफी कम है। इससे जिन पाठकों को ओवर द टॉप एक्शन चाहिए होता है उन्हें उपन्यास में रोमांच की कमी लग सकती है। मेरी माने तो बिना अपेक्षा के इसे पढेंगे तो उपन्यास का लुत्फ़ ले पाएंगे।

अंत में यही कहूँगा कि मोना चौधरी का ये उपन्यास अपनी कमियों के बावजूद भी मुझे पसंद आया। कथानक पठनीय है। कहीं कहीं गति थोड़ी धीमी पड़ती है लेकिन उस वक्त चल रहे दिमागी दाँव पेंच रोमांच बराबर बनाकर रखते है। मेरे हिसाब से एक बार इसे पढ़ा जा सकता है।

अगर आपने इस उपन्यास को पढ़ा है तो आपको ये कैसी लगा? अपनी राय कमेंट के माध्यम से आप देंगे तो मुझे अच्छा लगेगा।

अगर आपने इस उपन्यास को नहीं पढ़ा है तो आप निम्न लिंक से इसे मंगवा सकते है:
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अनिल मोहन जी के दूसरे उपन्यास भी मैंने पढ़े हैं। उनके विषय में मेरी राय आप निम्न लिंक से प्राप्त कर सकते हैं:
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About विकास नैनवाल 'अंजान'

विकास नैनवाल को अलग अलग तरह के विषयों पर लिखना पसंद है। साहित्य में गहरी रूचि है। एक बुक जर्नल नाम से एक वेब पत्रिका और दुईबात नाम से वह अपनी व्यक्तिगत वेबसाईट का संचालन भी करते हैं।

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0 Comments on “तू चल मैं आई – अनिल मोहन”

  1. पठनीय उपन्यास है,
    गुलवीरा का पात्र कहानी में रुचि बनाये रखता है।

    1. सही कहा.. उसकी कॉमेडी कमाल की थी…. सर्फ एक्सेल लगा लगा कर उसने खूब मनोरंजन किया…

  2. यह उपन्यास किशोरावस्था में पढा था।
    अनिल मोहन जी और मोना चौधरी का मेरे द्वारा पढा गया प्रथम उपन्यास।
    मध्यम स्तर का उपन्यास है।

    1. उपन्यास में मारधाड़ कम है। हाँ उपन्यास मुझे औसत से अच्छा लगा। कुछ कमियाँ थी लेकिन उम्मीद से बेहतर लगा था।

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