संस्करण विवरण:
फॉर्मैट: ई बुक | प्रकाशक: डायमंड पॉकेट बुक्स | एएसआईएन: B072VKXRDR
पुस्तक लिंक: अमेज़न
कहानी
मोना माथुर का सपना एक रिपोर्टर बनना था। उसके पिता हरिचंद माथुर डेली न्यूज अखबार के संपादक थे जो कि उसके आदर्श थे। हरिचंद माथुर के लेखों ने मुंबई के जरायमपेशा लोगों की नाक में दम कर दिया था और मोना का सपना भी अपने पिता की तरह निर्भीक पत्रकार बनना था।
लेकिन उसने सपने में भी नहीं सोचा था कि उसे इस तरह से अपने सपने को पूरा करने का मौका मिलेगा।
अचानक उसके परिवार के ऊपर मुसीबतों का ऐसा पहाड़ टूटा जिसने उनकी हँसती खेलती जिंदगी में जहर घोल दिया।
अब ये मोना के ऊपर था कि वह पता लगाए कि उसके परिवार पर ऊपर आई इस मुसीबत के पीछे कौन था?
आखिर मोना के परिवार को किन मुसीबतों का सामना करना पड़ा?
उनकी इन मुसीबतों के पीछे कौन था?
क्या मोना उस अज्ञात शख्स का पता लगा पाई?
किरदार
मोना माथुर – एक कॉलेज स्टूडेंट
हरिचंद माथुर – मोना के पिता जो कि डेलीन्यूज के एडिटर थे
चिंटू – मोना का छोटा भाई
कमला माथुर – मोना की माँ
सोनी – मोना की दोस्त
मिस्टर जगन्नाथ ओबेरॉय – डेलीन्यूज का मालिक
दीनानाथ चोपड़ा – मुंबई का एक सफेद पोश अपराधी जो कि सिद्धार्थ होटल का मालिक था
जूली – चोपड़ा की प्रेमिका
जोजफ, जोगेन्द्र पाल, ज्ञानू – तीन अपराधी
नीला – हरिचन्द की भतीजी
प्रभा – नीला की माँ
सुनील ओबेरॉय उर्फ घोंचू – एक युवक जो मोना से प्रेम करता था
लक्ष्मी – सुनील की भाभी
मेरे विचार
हिंदी लोकप्रिय साहित्य मूलतः दो तरह के उपन्यासों में ही विभाजित रहा है। एक अपराध साहित्य और एक प्रेम में डूबे हुए उपन्यास जिन्हें सामाजिक उपन्यास कहा जाता है। यह विभाजन इतना गहरा था कि अक्सर सामाजिक उपन्यास लिखने वाले समाजिक उपन्यास ही लिखते थे और अपराध कथा लिखने वाले अपराध कथा ही लिखते थे।
मुझे पहले से ही अपराध साहित्य में रुचि रही है और सामाजिक उपन्यास अगर मैंने पढ़ा भी है तो वह इक्के दुक्के उपन्यास ही रहे हैं और ऐसे लेखकों के लिखे रहे हैं जो कि अपने लिखे अपराध साहित्य के लिए जाने जाते हैं। समाजिक उपन्यासो के प्रति मेरे पूर्वाग्रह रहे हैं जिसके कारण मैं अब तक सोचता रहा हूँ कि वह प्रेम के विषय को लेकर लिखे ऐसे उपन्यास होते हैं जिनमें ज्यादा रोना धोना होता है। व्यक्तिगत तौर पर मुझे प्रेम पर केंद्रित ऐसे कथानक लुभाते नहीं है और इस कारण मैं उन्हें पढ़ने से बचता रहा हूँ। पर मेरा यह भी मानना है कि आपको हर तरह का साहित्य पढ़ना चाहिए। अगर उसमें डूब भी न पाओ तो कम से कम चख कर तो देखना ही चाहिए। यही कारण था कि कुछ समाजिक उपन्यासों को इस साल मैंने अपने संग्रह में जोड़ा और कुछ को पढ़ने का मन बनाया। यह सब ऐसे लेखकों द्वारा लिखे गए उपन्यास थे जिनका नाम उनके लिए सामाजिक उपन्यासो के लिए ही हुआ था। लेकिन फिर मौका ऐसा लगा कि वह उपन्यास खरीदने के बाद दूसरे घर भेजने पड़े और मैं उन्हें पढ़ने के अनुभव से वंचित रह गया। इस कारण जब मैंने डायमंड पॉकेट बुक्स से प्रकाशित समीर, राजवंश, राज हंस, रानू, कुशवाहा कांत जैसे लेखकों के उपन्यास किंडल अनलिमिटेड पर देखे तो इन्हें पढ़ने का फैसला कर दिया। पतन इसी फैसले के अंतर्गत डाउनलोड किया गया उपन्यास था जिसे मैंने हाल फिलहाल में पढ़ा है।
समीर के लेखन से मैं इससे पहले परिचित नहीं था लेकिन इस उपन्यास को पढ़ने के बाद समीर के कुछ और उपन्यास जरूर पढ़ना चाहूँगा।
पतन के बारे में बात करने से पहले यह साफ कर दूँ कि यह एक फिल्मी उपन्यास है। अगर आपने 70-80 के दशक की फिल्में देखी हैं तो उनकी झलक इसमें आपको देखने को मिलती है।
पतन के केंद्र में मोना माथुर नाम की युवती है। उपन्यास ग्यारह छोटे छोटे अध्यायों में विभाजित है। उपन्यास का आधा भाग मोना के शुरुआती जीवन को दर्शाता है जहाँ वह एक चुलबुली लड़की के रूप में दर्शाई गयी है। वह अपने कॉलेज की स्टार है, अपने परिवार विशेषकर अपने पिता की लाडली है। परिवार में उसकी माँ है जो एक रूढ़िवादी महिला है जो कि लड़की होने पर मोना को टोकती है लेकिन उसकी बात को मोना और उसके पिता हँसी में उड़ा देते हैं। इधर लेखक उस दौर के लोगों की लड़की की बारे में सोच को दर्शाते हैं वहीं मोना और हरिचंद माथुर के रवैये से यह दर्शाते हैं कि हमें इस सोच का कैसे दमन करना है। उपन्यास के इस शरुआती हिस्से ही में मोना को बड़े नोक झोंक के बाद प्रेम होता है।
जहाँ उपन्यास के इस हिस्से में मुख्यतः मोना के खुशनुमा जीवन की झलक है वहीं इसके कुछ छोटे हिस्सो में समाज में आए पतन को दर्शाया गया है। किस तरह अपराधी अपराध कर रहे हैं और उस अपराध के खिलाफ आवाज उठाने वाले को किस तरह दबाने ककी कोशिश करते हैं यह भी इन हिस्सों में हल्के फुल्के तरीके से दर्शाया गया है। यही कारण है कि आपको पता होता है कि जल्द ही उपन्यास में यह माहौल बदलेगा और समस्याओं के काले बादल इस माथुर परिवार के ऊपर मंडराएंगे। ऐसा होता भी है और उपन्यास के शुरुआती आधे भाग में जहाँ मोना अपने प्रेमी से विवाह करने वाली होती है तब ही कुछ ऐसा होता कि मोना शादी का फैसला टालकर अपने परिवार पर आई मुसीबत के कारण को खोजने की ठानती है।
उपन्यास का दूसरा हिस्सा इसी बात को समर्पित है। माथुर परिवार दुखी है और मोना अब रिपोर्टर बनकर अपने पिता के नक्शेकदम पर चल रही है। इसी दौरान उसे संयोग से कुछ ऐसी बातें पता चलती है जो कि उसे उस व्यक्ति के समक्ष लाकर खड़ा कर देता है जिसने उसके परिवार पर मुसीबत का पहाड़ ढहाया था। वह कैसे और किसकी मदद से उससे पार पाती है और इस दौरान कौन से और राज फाश होते हैं यह सब मिलकर उपन्यास का अंत बनाते हैं।
उपन्यास में जहाँ शुरुआती हिस्से कथानक की भूमिका बांधने में सफल होता है वहीं इस कहानी का दूसरे भाग में लेखक ने रोमांच पैदा करने की कोशिश की है। उपन्यास को जल्द ही निपटाने के लिए ही लेखक ने संयोग का सहारा लिया है। मोना संयोग से उस व्यक्ति के विषय में जान लेती है जो कि उसके परिवार की बर्बादी का का कारण है। ये जुदा बात है कि उसे इस बात का काफी देर में पता चलता है। और इस तरह से बिना ज्यादा तहकीकात किए उपन्यास अपने अंत की तरफ बढ़ता है।
हाँ, जिस तरह से उपन्यास के अंत को लेखक ने निपटाया है वह भी इसे थोड़ा कमजोर मेरी नजर में बनाता है। इसके अलावा कुछ और चीजें थीं जो कि मेरी नजर में बेहतर हो सकती थीं।
मोना निशाना लगाने में तेज है, खेल कूद में सबसे आगे है और इससे लगता है शारीरिक बल में भी आम लड़कियों से ज्यादा ही होगी। लेकिन आखिर में वह खलनायक से भागती हुई दिखती है। उसके जैसी फितरत वाली लड़की को शायद पहले मुकाबला करना चाहिए था। वो उसके किरदार के अनुरूप होता। लेकिन यहाँ उसका अचानक से अबला नारी की तरह व्यवहार करना थोड़ा सा अजीब लगता है।
उपन्यास के केंद्र में मोना है लेकिन आखिर में बचाने के लिए उसे सुनील ही आता है। यह बात थोड़ी मुझे खटकी और शायद यही उपन्यास के पुराने होने का सबूत भी है। आज के वक्त में शायद कोई अगर स्त्री को केंद्र में रखकर कोई ऐसा कथानक लिखेगा जिसमें शुरू से लेकर अंत तक वह स्त्री ही महत्वपूर्ण हो तो अंत में वह उसी स्त्री को शायद उस मुसीबत से पार पाते हुए दिखायेगा।
उपन्यास के अंत में एक ट्विस्ट देने की कोशिश की गयी है लेकिन जिस तरह उसे लिखा गया है वह काफी कमजोर है। कहानी में एक खलनायक एक किरदार से लड़ते वक्त एक डायलॉग कहता है जो कि आपको सोचने के लिए मजबुर कर देता है कि वह खलनायक उस किरदार को इतना इज्जत क्यों दे रहा है। यही चीज काफी हद तक ट्विस्ट खोल देती है और जब वह ट्विस्ट आता है तो वह उतना प्रभावी नहीं रह जाता है। इससे बेहतर यह होता कि खलनायक उस किरदार को बिना कोई डायलॉग कहकर बेहोश कर देता या बंधक बना लेता। वह उसे बंधक बनाता भी है लेकिन उसका डायलॉग कहना रायता फैला देता है।
वहीं कहानी का अंत भी जल्दबाजी में लिखा गया प्रतीत होता है। यहाँ ट्विस्ट देने के लिए एक व्यक्ति को मुख्य खलनायक बनाया गया है और फिर सुखांत करने के लिए जो अंत रचा गया है वह उतना प्रभावी नहीं रह जाता है।
कहानी के अलावा इस संस्करण में कुछ वर्तनी की गलतियाँ हैं जिन्हे ठीक किया जाना चाहिए। एक आध जगह डायलॉग भी अधूरे हैं जिन्हें पूरा करना चाहिए।
कहानी का शीर्षक भी मुझे कथानक पर फिट बैठता नहीं लगा है। उपन्यास पर एक स्त्री का चित्र बना है जिससे जब आप शीर्षक पढ़ते हो तो आपको लगता है कि यह किसी स्त्री के पतन की कहानी है। पर ऐसा कुछ इधर नहीं है। ऐसे में क्या समाज की पतन की लेखक बात करना चाह रहे थे? या कुछ और मन्तव्य उनका था? यह बात साफ नहीं होती है। मेरे ख्याल से शीर्षक बेहतर हो सकता था।
इसके अलावा जो चीज खलती है वह यह कि उपन्यास में न कोई भूमिका है और न इसके अंत में लेखक की कोई जानकारी ही दी है। चूँकि यह उपन्यास एक पुराने उपन्यास का पुनः प्रकाशित संस्करण है तो भूमिका में पहले संस्करण की जानकारी होती तो पाठक इसे उस काल खण्ड के हिसाब से पढ़ता। अभी क्योंकि उसे पता नहीं है कि यह उपन्यास कब प्रकाशित हुआ था तो उपन्यास का कथानक जिस तरह बुना गया है वह उसे थोड़ा कालातीत लग सकता है। वहीं अगर लेखक की जानकारी इसमें होती तो बेहतर होता। जहाँ तक मेरा ख्याल है कि समीर एक ट्रेड नाम था
अंत में यही कहूँगा कि अगर आपको पुरानी 70-80 दशक की फिल्में पसंद आती थी जिसमें शुरुआती हिस्सा हीरो हीरोइन की नोक झोंक में बीत जाता था, बीच के हिस्से में कोई त्रासिदी होती थी और खलनायक की एंट्री होती थी और नायक नायिका उससे निपटना पड़ता था और आखिर में स्याह किरदारों का भी हृदय परिवर्तन हो जाता था तो आपको यह उपन्यास पसंद आएगा। 11 अध्यायों में विभाजित उपन्यास पठनीय है। अगर नहीं पढ़ा है तो एक बार पढ़ सकते हैं।
मुझे लगता था कि सामाजिक उपन्यास में ज्यादा रोना धोना या ज्यादा प्रेम इत्यादि के चित्रण होता होगा लेकिन अगर सामाजिक उपन्यास ऐसे ही होते हैं तो मैं ऐसे और उपन्यास पढ़ना चाहूँगा।
पुस्तक लिंक: अमेज़न
समीर का कभी कोई उपन्यास नहीं पढा। कारण बस यही था इन उपन्यासों में कहानी अर्थहीन होती थी।
वैसे रानू, राजहंस, कुशवाहा कांत के उपन्यास पढे हैं।
जी ये उपन्यास तो ठीक था। अर्थहीन नहीं था। फिल्म देखने सरीखा था। बाकी लेखकों के पढ़ने की अब मेरी इच्छा है। देखिए कब तक मौका लगता है।
Loved the fact that entire review is given in hindi so reading it literally feels like i am reading a book! Thanks a lot for sharing
Blogging Generation
thanks…