शरतचंद्र चट्टोंपाध्याय, स्रोत: विकीपीड़िया |
आज से 145 वर्ष पूर्व 15 सितंबर 1876 को बंगाल के हुगली जिले के देवनन्द पुर नामक गाँव में शरत चंद्र चट्टोपाध्याय का जन्म हुआ था। उस वक्त किसे पता था कि मतिलाल चट्टोंपाध्याय और भुवनमोहिनी की यह सन्तान आगे चलकर एक प्रख्यात साहित्यकार बनेगी। शरत चंद्र के पिता एक मस्त मौला इंसान थे जो कि एक नौकरी पर टिककर नहीं रह पाते थे। यही कारण था कि उनकी आर्थिक स्थति ठीक नहीं थी और इसलिए शरत चंद्र का ज्यादातर जीवन अपने ननिहाल भागलपुर में बीता था। वहीं उनकी शिक्षा दीक्षा भी हुई थी।
1893 में जब वह हुगली कूल के विद्यार्थी थे तभी उनकी साहित्य में रुचि जागृत होने लगी थी। 1894 में उन्होंने एंट्रेस परीक्षा, जो कि दसवीं के बाद होने वाली सार्वजनिक परीक्षा होती थी, को द्वितीय श्रेणी में पास किया। इसी समय उन्होंने भागलपुर की साहित्य सभा की स्थापना की। यही वह समय था जब उन्होंने बासा (घर) नाम से अपना पहला उपन्यास लिखा जो कि कभी प्रकाशित नहीं हुआ था। आर्थिक स्थिति खराब होने के चलते उनकी कॉलेज की पढ़ाई भी बीच में ही रह गयी। लेकिन पढ़ाई छोड़ने के बाद भी वह साहित्य सेवा करते रहे और उनकी रचनाएँ प्रकाशित होने लगी।
उनकी पहली कहानी उनके मामा सुरेन्द्र नाथ गांगुली के नाम से 1903 में प्रकाशित हुयी थी और पहला लघु-उपन्यास बड़ी दीदी 1907 में एक स्थानीय पत्रिका में प्रकाशित हुआ था।
उनकी लेखनी में गाँव के जीवन की झलक, नारी के मन की कोमल भावनायें, समाज में नारी की स्थिति और तात्कालिक समाज की अच्छाई और बुराई सभी देखने को मिल जाती थी। अपनी लेखनी से चूँकि वह समाजिक मान्यताओं, ढकोसलों और रूढ़िवादी परंपराओं पर कुठाराघात भी करते थे इसलिए कई बार उन्हे विरोध भी झेलना पड़ा।
वैसे तो शरत चंद्र बांग्ला में लिखा करते थे लेकिन जितनी प्रिय वह बांग्ला भाषियों के बीच थे उतने ही लोकप्रिय वह हिंदी भाषियों के बीच रहे हैं। उन्होंने अपने जीवन में कई उपन्यास, कहानियाँ, नाटक और निबंध लिखे।
16 जनवरी 1938 को 61 वर्ष की उम्र में उनका स्वर्गवास हो गया था।
शरत चंद्र ने अपना जीवन एक खानाबदोश की तरह जिया था। जीवन के कई वर्ष उन्होंने बिहार और रंगून में काटे थे। अपनी लेखनी और अपने व्यवहार के चलते उन्होंने सामाजिक रूढ़ियों को तोड़ने का प्रयास किया था। शायद यही कारण था कि लेखक विष्णु प्रभाकर ने उन्हें आवारा मसीहा कहा था।
शरत बाबू की रचनाएँ जितनी उनके लिखे जाने के वक्त प्रासंगिक थी, उतनी ही आज भी प्रासंगिक हैं। उनकी कुछ रचनाएँ निम्न हैं:
चरित्रहीन
शरत चंद्र चट्टोपाध्याय का उपन्यास चरित्रहीन 1918 में प्रथम बार प्रकाशित हुआ था। कहते हैं जब 1903 में शरत चंद्र रंगून गए थे तो उधर वह एक विद्वान व्यक्ति बंगचंद्र के संपर्क में आए थे। वह व्यक्ति बहुत विद्वान तो था लेकिन शराबी और उच्छृंखल भी था। उसी को देखकर उनके भीतर इस उपन्यास का बीज पड़ा था। बर्मा में रहते हुए ही उन्होंने इस उपन्यास की रचना की थी। यह भी कहा जाता है कि जब उनके बर्मा के घर में आग लगी थी तो उस आग में उनके इस उपन्यास की 500 पृष्ठों की पांडुलिपि जलकर राख हो गयी थी। तब शरत बाबू को इसके खोने का बहुत दुख हुआ था और उन्होंने दोबारा इस उपन्यास को लिखा था।
शरत बाबु का यह उपन्यास उपेन्द्रनाथ , सावित्री, सतीश, किरणमयी, दिवाकर की कथा है। सतीश कभी सावित्री पर आकर्षित था और किरणमयी शादी शुदा होते हुए भी उपेन्द्रनाथ और दिवाकर पर आकर्षित हो गयी थी। यह आकर्षण कैसे पनपा और इस आकर्षण का क्या नतीजा निकलता है यही उपन्यास की कथा है। इस उपन्यास के माध्यम से लेखक ने उस वक्त के समाज का चित्रण किया है। पश्चिमी सभ्यता के बढ़ते असर और उसका बांग्ला समाज के साथ होते द्वन्द को भी दर्शाया है। स्त्री की भावनाओं को, उसके शोषण को और कैसे बात बात पर स्त्री को चरित्रहीन कहा जाता है यह भी दर्शाया है।
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कहते हैं जब शरतचंद्र ने यह उपन्यास लिखा था तो उन्हें इसके लिये लोगों का विरोध भी झेलना पड़ा था। कुछ ने इसे अपनी पत्रिका में प्रकाशित करने से भी इंकार कर दिया था।
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परिणीता
1914 में आया परिणीता ललिता और शेखर की कहानी कहता है। यह उपन्यास प्रेम की कहानी तो कहता ही है लेकिन साथ साथ उस वक्त के समाज पर भी टिप्पणी करता है। समाज के कड़े नियम किस तरह एक व्यक्ति को मजबूर कर देते है वह ललिता के मामा के किरदार के रूप में उन्होंने दर्शाया है। उपन्यास में गिरीन्द्र नामक किरदार है जो ब्रह्मो समाजी है। उस दौरान ब्रह्मों प्रगतिशील समझे जाते थे लेकिन कुछ मामलों में वह भी रूढ़िवादी थे, वहीं आम बांग्ला समाज और ब्रह्मों समाजियों के बीच किस तरह का द्वन्द होता था यह सब कुछ इस पात्र के माध्यम से लेखक ने दर्शाया है।
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देवदास
देवदास शायद शरत बाबू के सबसे प्रसिद्ध उपन्यासों में से एक है। 1917 में प्रकाशित हुए इस उपन्यास की कहानी देवदास नाम के ऐसे युवक की कहानी है जो समाजिक प्रतिष्ठा के चलते अपनी प्रेमिका को तो नहीं अपना पाता है लेकिन फिर इसी गम में अपनी जिंदगी बर्बाद कर देता है। यह उपन्यास अपनी नाटकीयता और भावुकता के चलते फ़िल्मकारों के बीच काफी प्रसिद्ध रहा है और इस पर अब तक चार से ज्यादा फिल्में समय समय पर बन चुकी हैं।
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श्रीकांत
श्रीकांत शरत चंद्र चट्टोंपाध्याय का सबसे वृहद उपन्यास है। चार भागों में बंटा यह उपन्यास आत्मकथात्मक शैली में लिखा गया है। श्रीकांत का पहला भाग 1917 में, दूसरा भाग 1918 में, तीसरा भाग 1927 में और आखिरी चौथा भाग 1933 में प्रकाशित हुआ था। एक बातचीत में शरत बाबु ने बताया था कि उपन्यास कुछ हद तक आत्मकथात्मक है और श्रीकांत के जीवन के कुछ अनुभव उनके खुद के अनुभव हैं। जब उनसे पूछा गया कि वो इस रचना को यात्रा वृत्तान्त कहेंगे, आत्मकथा कहेंगे या उपन्यास की श्रेणी में रखेंगे तो उन्होंने कहा कि यह बिखरी हुई स्मृतियों का ताने बाने के सिवा और कुछ नहीं है।
यह उपन्यास श्रीकांत नामक व्यक्ति की कहानी है जो कि मस्तमौला और खानाबदोश प्रवृत्ति का था। समाज में एक व्यक्ति को छोड़ उसका कोई अपना न था। यह व्यक्ति उसके बचपन की दोस्त राजलक्ष्मी थी। यह उपन्यास इन्हीं दोनों के जीवन के इर्द गिर्द बुना गया था।
श्रीकांत को शरतचंद्र के सबसे बेहतरीन कार्यों में से एक कहा गया है।
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देना पावना
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पथ के दावेदार
पथ के दावेदार 1926 में आया शरत बाबू का उपन्यास है। उन्होंने यह उपन्यास बंगाल क्रांति को आधार बनाकर लिखा था। उपन्यास पहले बंगवाणी नाम की पत्रिका में सिलसिलेवार छपा था। इसके बाद जब यह पुस्तकार रूप में प्रकाशित किया गया तो पहले तीन महीने में ही तीन हजार प्रतियों का संस्करण समाप्त हो गया था। इसके पश्चात ब्रिटिश सरकार ने उपन्यास को जब्त कर दिया था।
पथ के दावेदार सव्यसाची , भारती और अपूर्व के इर्द गिर्द घूमती है। उपन्यास का कथानक बर्मा में घटित होता है। सव्यसाची एक खतरनाक क्रांतिकारी है जिसने अंग्रेजी सरकार के नाक में दम किया हुआ है। भारती एक ईसाई लड़की है जिसकी शिक्षा दीक्षा मिशनरी स्कूल में हुई है लेकिन उसे अपने देश से प्यार भी है। जब उसके माता पिता की मृत्यु हो जाती है तो वह सव्यसाची के संपर्क में आ जाती है और उनके बीच भाई बहन का रिश्ता बन जाता है। वहीं अपूर्व एक अंग्रेजियत में डूबे पिता और परंपरागत ब्राह्मण माता का तीसरा लड़का है। उसके भीतर अपनी माँ के रूढ़िवादी संस्कार हैं । वहीं वह अत्यंत भावुक है और इसलिए देश से प्रेम करते होने के बावजूद अपनी भावुकता के चलते कमजोर चरित्र का व्यक्ति है। भारती जब अपूर्व के संपर्क में आती है तो उसे प्यार करने लगती है। इन अलग अलग किरदारों के आपस में मिलने से क्या होता है और इनके जीवन पर इसका क्या असर पड़ता है यही उपन्यास का कथानक बनता है।
इस उपन्यास के इन तीन किरदारों के माध्यम से लेखक ने जहाँ भारतीय समाज में फैली रूढ़िवादिता दिखलाई है, वहीं उस वक्त के क्रांतिकारियों का जीवन दर्शाया है और ब्रिटिश सम्राज्यवाद के ऊपर भी प्रहार किया है।
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शेष प्रश्न
शेष प्रश्न उपन्यास कमल नाम की स्त्री की कहानी है। कमल एक स्वतंत्र विचारों वाली स्त्री है जो हर बात पर प्रश्न करती है। ऐसे समाज में जहाँ स्त्री का बोलना ही निषेध है वहाँ कमल का होना उसके पति को खटकता रहता है। अपने इस व्यवहार के चलते कमल को क्या सहना होता है और इसका कमल के जीवन पर क्या असर होता है यह इस उपन्यास के माध्यम से शरत ने दर्शाया है। यह उपन्यास भले ही 1931 में प्रकाशित हुआ था लेकिन आज के समाज में भी यह उतना ही प्रासंगिक है। उपन्यास समाज के चरित्र पर एक चोट करता है।
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शुभदा
शरत चंद्र द्वारा लिखा गया उपन्यास शुभदा एक ऐसी स्त्री की कहानी है जिसका पति शराबी है। शुभदा अपने पति की कमियों के बावजूद उसके प्रति समर्पित है लेकिन इसके बावजूद वह अपने स्वाभिमान से समझौता नहीं करती है। शुभदा और उसकी बेटी के माध्यम से शरत ने उस वक्त के नारी के जीवन को और उनकी इच्छाओं और उनकी परेशानियों को दर्शाया है। उपन्यास 1938 में प्रकाशित हुआ था।
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तो यह थी शरत चंद्र चट्टोपाध्याय द्वारा लिखे गए कुछ प्रसिद्ध उपन्यास। इसके अलावा विष्णु प्रभाकर द्वारा लिखी गयी शरत चंद्र की जीवनी आवारा मसीहा भी एक बेहतरीन पुस्तक है। अगर नहीं पढ़ी है तो इसे पढ़ा जाना चाहिए।
आपने इन उपन्यासों में से कितनों को पढ़ा है। आपके पसंदीदा उपन्यास कौन से हैं? हमें बताना नहीं भूलिएगा।
सादर नमस्कार,
आपकी प्रविष्टि् की चर्चा शुक्रवार (17-09-2021) को "लीक पर वे चलें" (चर्चा अंक- 4190) पर होगी। चर्चा में आप सादर आमंत्रित हैं।
धन्यवाद सहित।
"मीना भारद्वाज"
जी चर्चा अंक में मेरी रचना को शामिल करने के लिये हार्दिक आभार।
शरदचंद्र चट्टोपाध्याय जी के बारे में बहुत ही सुंदर और विस्तृत जानकारी दी है आपने।
जी जानकारी आपको पसन्द आयी यह जानकर अच्छा लगा मैम।
बहुत-बहुत आभार आपका सराहनीय समीक्षा लिखी है आपने…
बार-बार पढ़ने का मन करता है।
सादर
जी आभार मैम…
अत्यंत विश्लेषात्मक सूक्ष्म समीक्षा।
मेरे प्रिय लेखकों में एक शरद जी कहानियाँ मन के सोये भावों को स्पर्श करती है।
चरित्रहीन,विराज बहू मुझे सबसे ज्यादा पसंद है।
जी हार्दिक आभार।
आवारा मसीहा को पढ़ते हुए शरदचंद्र जी के प्रति और श्रद्धा बढ़ गई । अति सुन्दर प्रस्तुति ।
लेख आपको पसंद आया यह जानकर अच्छा लगा, मैम।