कहानी: विधि का लिखा को मेटन हारा – महेश सिंह

कहानी: विधि का लिखा को मेटन हारा - महेश सिंह

यूँ तो इस आधुनिक और वैज्ञानिक युग में कर्मलेख और भाग्य को लोग कोरी बकवास ही कहते हैं,लेकिन कभी कभी हमारे आस पास कुछ ऐसा अघटित घट जाता है कि न चाहते हुए भी हमारे मुँह से बरबस ही निकल जाता है- ‘होनी को कौन टाल सकता है, होइ है वही जो राम रचि राखा।’

ऐसी ही एक घटना मेरे परम मित्र विनोद के साथ हुयी, जिसे याद करके आज भी आँखें नम हो जाती हैं।

विनोद का हँसता खेलता भरा पूरा परिवार था कि अचानक ही दुर्भाग्य की ऐसी आँधी आयी जो सब कुछ उड़ा ले गयी। वक्त के थपेड़ों ने ऐसी करवट बदली कि महकता आशियाना वीराने में तब्दील हो गया, लहरें मारता सागर मरुस्थल बन गया।

विनोद माँ बाप का इकलौता बेटा था। अपने से बड़े चार भाइयों में वह अकेला ही जीवित बचा था। उसके बड़े भाई बचपन मे ही भगवान को प्यारे हो गये थे। उससे बड़ी तीन बहनें थीं। सारा परिवार विनोद को बहुत प्यार करता था। वह सबकी आँखों का तारा था, माँ बाप के बुढापे का सहारा था।

विनोद के पिता के पास पूर्वजो द्वारा छोड़ी काफी जमीनें थीं जिनपर खेती होती थी जिससे घर का सारा खर्च निकल जाता था। क्योंकि तब विलासिता कम थी इसलिए खर्चे भी कम थे जिनके लिए खेती की आय ही पर्याप्त थी।

बीतते वक्त के साथ साथ विनोद की तीनों बहनों की एक एक कर शादियाँ होती गयीं और वह अपनी अपनी ससुराल चलीं गयीं।

विनोद अब ग्रेजुएशन कर रहा था। उसके माँ बाप चाहते थे कि उसकी भी शादी हो जाती तो वह अपने कर्तव्य से निजात पाते। बहू आ जाती तो घर संभालती, बुढ़ापे में सेवा करती और वह घर बहू बेटे को सौंपकर तीर्थ यात्रा पर निकल जाते।

आखिरकार वह शुभ दिन भी आ गया जब धूमधाम से विनोद का विवाह हुआ। विनोद के माँ बाप का सपना साकार हो गया। विनोद के तो मानो जमीन पर पाँव ही नहीं पड़ते थे। उसे सारी दुनिया बड़ी मासूम बड़ी हसीन लगती थी। उसे हर इंसान प्यारा, हर चेहरा प्यार करने के काबिल लगता था। आखिर लगता भी क्यों न! शीला जैसी खूबसूरत पत्नी सबको तो नहीं मिल जाती।

आज भी जब कभी शीला भाभी की याद आ जाती है तो अनायास ही ध्यान उस मनमोहक छबि की ओर चला जाता है।

साढ़े पाँच फिट से ऊपर निकलता हुआ बदन, गोरा रंग जैसे मक्खन में चुटकी भर सिंदूर मिला दिया हो, लंबी केशराशि,पतली कमर,कजरारी आंखें जो हमेशा जमीन को निहारतीं सी लगतीं थीं। वक्त जरूरत जब कभी मेरा सामना शीला भाभी से होता था तो वह नजरें नीची रखकर बात करतीं थीं। पता नहीं यह उनकी आदत थी या लज्जावश ऐसा करतीं थीं। मैंने कभी हकीकत जानने की कोशिश न की।

जिस साल विनोद की शादी हुई उसी वर्ष विनोद की नौकरी एक प्राइवेट कंपनी में लग गयी। इसका श्रेय भी शीला भाभी को दिया गया कि उनके आते ही नौकरी मिल गयी थी। विनोद का वेतन तो अधिक नहीं था फिर भी आवश्यक आवश्यकताओं के लिये पर्याप्त था। खेतों से अनाज तो आता ही था, सो कुल मिलाकर जिंदगी बहुत चैन से गुजर रही थी।

वक्त गुजरता रहा। इसी बीच विनोद दो खूबसूरत बच्चों का पिता बन गया था। उसके एक पुत्र और एक पुत्री थी। शादी को दस वर्ष बीत गये थे। बेटा सात वर्ष का और बेटी चार वर्ष की थी जिंदगी उसी पुराने ढर्रे पर चल रही थी। समय के साथ साथ विनोद के माँ बाप काफी बूढ़े हो चुके थे।

एक दिन विनोद ड्यूटी से घर लौटा तो उसे घर का माहौल कुछ तनावपूर्ण लगा। पत्नी से पूछने पर मालूम हुआ कि आज फिर विनोद की माँ और उसमें कहा सुनी हुई है। कुछ दिनों से अक्सर ही ऐसा होने लगा था। हालाँकि सास बहू में ताल मेल तो शुरू से ही नहीं बैठ रहा था लेकिन इधर कुछ दिनों से तल्खी कुछ अधिक ही बढ़ गयी थी। अक्सर ही दोनों में लड़ाई होती रहती थी। लड़ाई का मुख्य कारण अहम की भावना ही थी।

अक्सर सास बहू में तल्खी अधिकार भावनाओं को लेकर ही होती है। माँ सोचती है कि पुत्र को मैंने जन्म दिया, पाल पोसकर पढ़ा लिखा कर किसी काबिल बनाया इसलिए वह पुत्र पर उसका उतना ही अधिकार है जितना किसान का अपने बैलों की जोड़ी पर होता है। वह पुत्र, बहू और उसकी हर जिंस पर अपना हक समझती है। वह बेटे बहू को अपने बैलों की वह जोड़ी समझती है जो उसके बताये रास्ते पर ही चलते हैं। उधर बहू की धारणा भी कुछ ऐसी ही होती है। वह सोचती है कि जिस पति के लिए वह अपने माँ बाप भाई बहन और घर परिवार छोड़कर आयी है और जिसकी जीवन संगिनी बनी उस पर उसका एक क्षत्र अधिकार होना चाहिये। हकीकत में दोनों की धारणाएँ सच होते हुए भी गलत हैं क्योंकि पत्नी और माँ दोनों का हक तो बनता है लेकिन दोनों के अधिकार क्षेत्र में फर्क है। फिर जब कोई अपने अधिकार क्षेत्र की सीमा लाँघता है तो क्लेश पैदा होता है और यहीं से शुरू होती है पूर्वजों से चली आ रही सास बहू की लड़ाई।

यही विनोद के साथ हुआ। अब वह तनाव में रहने लगा। महंगाई बढ़ चुकी थी। आय के स्रोत सीमित थे। विनोद के पिताजी से अब खेती का काम नहीं संभलता था, सो जमीनें ठेके या बटाई उठा दीं थीं। विनोद ने तनाव के चलते अपनी लगी लगायी नौकरी भी छोड़ दी जिससे आर्थिक स्थिति और भी खराब हो गयी थी। पर, विनोद को सुकून था कि अब घर रहकर खेती बाड़ी करूँगा और घर रहने से सास बहू के झगड़े पर विराम लगेगा, आपसी तनाव कम होगा,परिवार में शांति स्थापित होगी।

लेकिन उसकी यह कोशिश भी बेकार गयी बल्कि तनाव और भी बढ़ गया। नौकरी छोड़ देने से आर्थिक संकट गहरा गया था और शीला भाभी भी विनोद को ताने मारने लगीं थीं। विनोद अक्सर मुझसे सुख दुख की बातें करता रहता था। वह अब फिर से नौकरी की तलाश में था और इधर-उधर धक्के खाता फिर रहा था। अब उसकी माँ बाप से कटुता बढ़ गयी थी। उन्होंने विनोद को अपने खेतों का अनाज खाने से भी रोक दिया था।

विनोद शीला भाभी और बच्चों को उनके मायके यह सोचकर छोड़ आया था कि नौकरी मिलते ही बुला लेगा लेकिन इस महंगाई में क्या नौकरी मिलना इतना ही आसान था? नौकरी तलाशने में कितनी मुसीबतें झेलीं विनोद ने? न जाने कितनी रातें उसने रेलवे प्लेटफार्मों पर ठंड में ठिठुरते हुए काट दीं, कितनी रातें परदेश में फाँकों पर बितायीं।


मैं कुछ दिनों के लिये बाहर चला गया था। वापस आकर जब मैं विनोद से मिला तो वह मुझे बूढ़ा सा नजर आ रहा था। तीस साल उसकी उम्र थी और लग वह चालीस के ऊपर रहा था। समय के थपेड़ों ने इस कदर तोड़ दिया था उसको। वह जिंदगी से हारा हुआ इंसान लगता था। अब उस पर पैसा कमाने की धुन सवार थी। वह पैसों के बल पर पुनः सुख शांति स्थापित करना चाहता था। सोचता था कि पैसे से टूटे दिलों को जोड़ देगा, रूठों को मना लेगा! कितना ना समझ था, विनोद। भला होनी को भी कोई टाल सका है।

काफी वक्त बीत गया लेकिन विनोद को किसी नजदीकी शहर में नौकरी न मिल सकी। आखिरकार उसे मेरठ के एक कारखाने में नौकरी मिली। वह दिहाड़ी जैसी नौकरी थी लेकिन मरता क्या न करता, रोजी रोटी के लिए उसने वह नौकरी स्वीकार कर ली। इस नौकरी से वह अपना पेट पालने के अलावा बीबी बच्चों को भी कुछ भेज सकता था।

शीला भाभी की जिंदगी अभावों से भरी थी। पीहर का रहना उन्हें रास नहीं आ रहा था। दूसरे भाभियों के ताने सुन सुन कर वह गुपचुप रोया करतीं थीं। माँ बाप उनके बहुत पहले ही गुजर चुके थे। उनकी जिंदगी बहुत कष्टदायक थी। वह चलती फिरती लाश बनकर रह गयीं थीं।

धीरे-धीरे विनोद को मेरठ रहते तीन साल बीत चुके थे। उसे घर की यादें आहत किये रहतीं थीं। वह घर जाने के लिये व्यथित था लेकिन उसकी घर जाने की हिम्मत नहीं हो रही थी। लौट कर कौन सा मुँह दिखाता अपने बीबी बच्चों को? कैसे सिर उठा पाता समाज के सामने? तीन साल में वह कुछ भी तो न बचा पाया था जो ले जाकर घर की बिगड़ी हुयी हालत को सँवार सकता। घर की सुख-शांति वापस लाकर टूटे हुये दिलों को फिर से जोड़ पाता।


कारखाने में काम के बाद रात में सेठ की ओर से मिले एक छोटे से कमरे में आराम के लिए वह लेटता तो उसके जीवन का घटना चक्र मस्तिष्क में चलने लगता जिसे वह अपनी डायरी पर उतारने लगता। वह न चाहते हुए भी अपनी आत्मकथा लिखता रहता। वह अपने जीवन की संघर्षमय कहानी के बारे में सोंचता तो उसकी आँखों से आँसू टपक पड़ते थे। ऐसे ही उसकी वह आत्मकथा एक वृहद रूप ले चुकी थी। उसके एक मजदूर मित्र ने उसकी वह आत्म कहानी पढ़ी तो उसे वह एक मार्मिक उपन्यास सी लगी। वह विनोद से बोला, “यार विनोद, तुमने तो एक अच्छा सा मार्मिक उपन्यास लिख डाला है। इसे छपवाते क्यों नहीं?”

विनोद को यह बात जँच गयी। विनोद ने खूब सोच कर उपन्यास को शीर्षक दिया ‘दुश्मन माँ’। उसने मेरठ के कई प्रकाशन संस्थाओं के चक्कर काटे लेकिन कोई भी प्रकाशक ‘दुश्मन माँ’ के नाम से उपन्यास छापने को तैयार न हुआ। कहानी तो सबको पसंद आयी लेकिन उनकी शर्त यही थी कि इसका नाम चेंज करो। उनका कहना था कि माँ भी कहीं दुश्मन होती है। इस नाम से तो कोई उपन्यास को हाथ भी नहीं लगायेगा। लेकिन विनोद नाम बदलने को राजी न हुआ।


समय चक्र अपनी गति से आगे बढ़ता रहा। अब विनोद के माता पिता भी काफी बूढ़े हो चुके थे। वह हर तरह से अब लाचार थे। विनोद के जाने का गम उन्हें खाये जा रहा था। औलाद का मोह है ही ऐसी चीज जो इंसान चाह कर भी नहीं छोड़ सकता। बेटियाँ आतीं थीं और हफ्ता दस दिन ठहरकर फिर अपने अपने घर चलीं जातीं थीं। माँ-बाप के पास उन्हें देने को अब था भी कुछ नहीं, फिर भला वह अपना परिवार छोड़कर क्यों सेवा करतीं माँ बाप की। वह कुछ न कुछ बहाना बनाकर चल देतीं। परंतु बुजुर्ग दंपति को बहू से चिढ़ अभी ज्यों की त्यों थी।

उधर शीला भाभी भी मायके में अपनी भाभियों के ताने सुन सुन कर तंग आ गयीं थीं। उन्होंने एक आखिकार निर्णय लिया कि अब वह मायके में और नहीं रहेंगी। वह ससुराल जाएँगी और अपना हक हासिल करके रहेंगी। वह विनोद को भी बुलाकर कहेंगी कि माँ बाप से कुछ जमीनें माँग ले और घर पर रहकर खेती बाड़ी करे जिससे जिंदगी किसी तरह गुजर सके। अब वह हर परिस्थिति से टकराने को तैयार थीं।

एक दिन शाम को मैंने देखा कि शीला भाभी आ गयीं हैं। उनके दोनों बच्चे भी साथ ही आये थे। मुझे बड़ी प्रसन्नता हुयी। मैंने सोचा काफी दिनों बाद सास बहू मिल रही हैं तो शायद दिलों के मैल मिट जाए और कटुता समाप्त हो जाये।  परंतु मेरा सोचना निरर्थक ही साबित हुआ। अगले दिन ही लड़ाई फिर शुरू हो गयी। विनोद की माँ ने अब एक नया अध्याय ही शुरू कर दिया था। “इस चुड़ैल के कारण ही मेरा बेटा मुझे बुढ़ौती में बेसहारा छोड़कर चला गया है।  मेरा बुढ़ापे का सहारा इस कुलटा ने ही छीन लिया है इसलिए अब मैं इसे घर में कदम नहीं रखने दूँगी।”, बहु को देखते ही सास चीखी थी। 

अब शीला भाभी के लिए बहुत मुश्किल हो गयी थी।  वह मायके वापस जाना नहीं चाहतीं थीं।  चारों ओर उन्हें अँधेरा ही दिखायी देता था। जब इंसान का आखिरी सहारा भी छिन जाता है तो वह अपना विवेक खो बैठता है। यही शीला भाभी के साथ हुआ।


कामिनी देवी एक प्रकाशन संस्था की मालकिन थीं। उनकी माँ बाप दोनों थे लेकिन माँ थी सौतेली। उनकी जननी उन्हें बचपन मे ही छोडकर भगवान को प्यारी हो गयी थी और उनकी सौतेली माँ ने उन्हें वह प्रताड़ना दी थी कि उन्हें माँ शब्द ही घिनौना लगने लगा था। वह स्वयं एक उच्च कोटि की लेखिका थीं और अक्सर अपने लेखों में माँ के दूसरे रूप का वर्णन प्रमुखता से करती रहतीं थीं। उन्हें सौतेली माँ का रूप बड़ा घिनौना लगता था क्योंकि उन्होंने माँ का ममतामयी रूप तो देखा ही नहीं था। उन्हें माँ का प्यार तो मिल ही नहीं सका था। उन्हें तो मिली थी सौतेली माँ की दुत्कार और उपेक्षा। कामिनी देवी ने विनोद की कृति का अध्यन किया तो झूम उठीं। बोलीं, “वाह! क्या नाम दिया है- ‘दुश्मन माँ’- बहुत ही वाजिब नाम दिया है आपने। इसको तो मैं जरूर छापूँगी।”

फिर ‘दुश्मन माँ’ का प्रकाशन हुआ और ‘दुश्मन माँ’ ने ऐसी धूम मचायी कि सारा संस्करण हाथों हाथ बिक गया। बल्कि दो कामिनी देवी को संस्करण और छापने पड़े। विनोद को बहुत पैसा मिला रॉयल्टी के रूप में और कामिनी देवी ने विनोद को अपने संस्थान का स्थायी लेखक का दर्जा दे दिया।

अब विनोद बहुत खुश था। पैसे की रिक्तता समाप्त हो गयी थी। सुनहरा भविष्य सामने था। अब वह अपने माँ बाप को खुश कर सकता था, अपने और उनके बीच बन गयी खाई को वह दौलत से पाट सकता था। अपनी अभावों से भरी पत्नी को खुश कर सकता था और अपने बच्चों का भविष्य सुधार सकता था। अब वह घर जाने की तैयारियों में लगा था। वह किसी दिन बस घर जाने वाला ही था।


एक दिन प्रातः काल ही कोलाहल सुनकर मेरी आँख खुली तो देखता हूँ कि सारा मोहल्ला विनोद के घर की ओर भागा जा रहा है। मेरा मन किसी अनिष्ट की आशंका से काँप उठा। मैंने भागते हुये राधेश्याम काका को रोककर पूछा, “क्या बात है काका?” तभी बाबादीन आ गया और आते ही बोला “अरे सुना तुमने! विनोद की बीबी ने जहर खा लिया और साथ ही दोनों बच्चों को भी खिला दिया। सभी मर गये।” मेरे मुँह से एक आह निकल गयी। मैं भागता हुआ विनोद के घर पहुँचा। विनोद के घर सारा मोहल्ला इकट्ठा था। तीनो लाशें एक ही तख्त पर पड़ीं थीं। यूँ लगता था जेसे सभी गहरी नींद में सो रहे हों। शीला भाभी के चेहरे पर अभी भी वह भोलापन दिख रहा था जो आज से बारह वर्ष पहले मैंने तब देखा था जब वह पहली बार दुल्हन के लाल लिबास में इस चौखट पर आयीं थीं। और आज उन्हें इसी चौखट से सफेद कपड़े में विदा होना था। मेरा गला रुँध गया। आँखें नम हो गयीं।

विनोद के पिताजी को बहुत सदमा पहुँचा था और उन्हें दिल का दौरा पड़ गया था। वह बेहोश थे और उनके बचने की कोई उम्मीद नहीं दिखायी दे रही थी। विनोद की माँ छाती पीट पीट कर रो रही थीं। मैंने शीला भाभी की मुट्ठी में एक कागज का टुकड़ा दबा हुआ देखा जिसे मैंने चुपचाप निकाल लिया। अंत पंत विनोद के पिताजी भी अचेतावस्था में ही स्वर्ग सिधार गये।

फिर पुलिस आयी लेकिन गाँव के रसूख वाले लोगों के हस्तक्षेप के कारण लाशों का पंचनामा बनाकर लाशें गाँव वालों के सुपुर्द कर दी गयीं।

गाँव वालों ने अंत्येष्टि की जिम्मेदारी उठायी। चार चिताएँ एक साथ जल रहीं थीं। सारा जनमानस द्रवित था। ऐसा हौलनाक नजारा किसी ने कभी नहीं किया था। ऐसा कोई व्यक्ति नहीं था जिसकी आँखों में आँसू न हों।

दूसरे दिन मुझे उस कागज के टुकड़े का ध्यान आया जो मैंने शीला भाभी की मुट्ठी से निकाला था। वह एक पत्र था जो शीला भाभी ने विनोद के नाम लिखा था।

प्रियतम,

अब मैं और अधिक इंतजार नहीं कर सकती। मैंने आपका बहुत इंतजार किया लेकिन आपने मेरी कोई सुध नहीं ली। अब मेरे सारे सहारे टूट चुके हैं। न रहने को घर और न खाने को दाना है। मैं भूखी रहकर भी आप का इंतजार कर लेती लेकिन इन मासूम बच्चों का क्या करूँ? इसलिए बहुत मायूसी में बहुत मजबूरी में आप का साथ छोड़ रही हूँ हो सके तो मुझ अभागन को माफ कर देना।

आपकी
शीलू

शीला भाभी का खत पढ़कर मैं बहुत दुखी हो गया था। विनोद का पता मैंने डायरी से तलाश किया और उसे तुरंत घर आने के लिए टेलीग्राम कर दिया। तीसरे दिन विनोद घर पहुँच गया मैंने शीला भाभी का खत विनोद को सौंप दिया जिसे पढ़कर विनोद फूट फूट कर रोया।

विनोद की माँ भी अब काफी बीमार थीं। उनकी भी साँसों का वक्त बहुत कम बचा था।  विनोद ने माँ को डबडबायी आँखों से देखा। माँ रोने लगीं, “बेटा, अब कुछ नहीं बचा।  मेरा सब कुछ लुट गया।  खुद मैंने ही आग लगा दी अपनी हरी भरी फुलवारी में।  मेरे ही कर्मो की सजा सबको भुगतनी पड़ी है। मैं माँ नहीं दुश्मन हूँ। हाँ, मैं एक दुश्मन माँ हूँ।  मुझे भी अब जीने का कोई हक नहीं है।  मैं जा रही हूँ।  बेटा, हो सके तो इस अभागन माँ को माफ कर देना।” यह कहकर उन्होंने एक हिचकी ली और उनकी गर्दन एक ओर लुढ़क गयी। 

विनोद चीख उठा, “मत जा माँ! अब मेरा बचा ही कौन है तेरे सिवा अपना कहने को। तू भी चली गयी तो मैं क्या करूँगा। अब मेरे तुम्हारे बीच मे कोई दीवार नहीं है। मैं सिर्फ तेरा बेटा हूँ और तू मेरी माँ और किसी दूसरे का हक नहीं है मेरे ऊपर। तू मुझे छोड़कर मत जा! तू दुश्मन सही लेकिन है तो मेरी माँ ही।  मत जा मत जा रे निष्ठुर।”

जाने ऐसे ही विनोद माँ से लिपटा कब तक बड़बड़ाता लेकिन वहाँ सुनने वाला कौन था। माँ के प्राण पखेरू तो कब के उड़कर अनंत आकाश में विलीन हो चुके थे। मैंने विनोद को खींचकर माँ के मृत शरीर से अलग किया। वह मुझसे लिपटकर रोने लगा। मैं भी बिना रोये न रह सका।

मैने विनोद को किसी तरीके से शांत किया। फिर क्रिया कर्म की व्यवस्था में लग गया। संध्या तक सब कुछ निपट गया था। फिर मैं विनोद को अपने साथ अपने घर ले आया। अकेले में वह बावरा जाने क्या कर बैठे यही चिंता मुझे हलकान कर रही थी। एक हारे और उजड़े हुये व्यक्ति से कुछ भी अपेक्षित होता है। उसका क्या भरोसा यही मैंने सोचा था। मैं आधी रात के बाद तक उसे ढाढ़स बँधाता रहा, फिर मैं सो गया।

अगले दिन जब मैं सोकर उठा तो विनोद मुझे अपने विस्तर पर न दिखायी दिया। मैंने सोचा कि वह नित्यकर्म से निवृत्त होने गया होगा,लेकिन ऐसा नहीं था क्योंकि तभी गाँव के एक व्यक्ति ने आकर मुझे वो हृदयविदारक बात बतायी। विनोद ने रात के किसी समय रेल के नीचे आकर अपनी इहलीला समाप्त कर ली थी। अपने आप को कोसता मैं भागता हुआ रेलवे लाइन पर पहुँचा।  विनोद की हालत देखकर मैं चीत्कार उठा। उसके शरीर के कई टुकड़े हो गये थे जो मांस के लोथड़े मात्र लग रहे थे। मैं अपना सर पकड़कर बैठ गया।  मैं विनोद को उसके निश्चित अंजाम से बचा न सका था। मात्र गलत सोच और नासमझी के कारण आज पूरा कुनबा समाप्त हो गया था।


आज दिवाली का पावन पर्व है। घर घर रोशनी की जा रही है। बच्चे पटाखे छुड़ा रहे हैं। सारे गाँव में खुशियों का कोलाहल है। मेरी दृष्टि अनायास ही खंडहर हो रहे विनोद के घर की ओर चली जाती है जहाँ एक अजीब सी शांति छायी हुयी है।  न कोई रोशनी न कोई आवाज।  एक चिरस्थायी शांति जिसे कोई भेद नहीं सकता।

अचानक ही मंदिर पर जलते हुये दियों में मुझे विनोद का चेहरा कौंधता है।  जैसे मुझसे कह रहा हो “देखा मित्र मेरे घर में  कितनी शांति है। मेरे घर में अब कोई क्लेश नहीं है। तभी वह चेहरा अपना रूप बदलता है। अब मैं शीला भाभी को देख रहा हूँ। वह उसी मनमोहक और लजीली मुद्रा में हैं जैसा मैंने अब से बारह साल पहले पहली बार देखा था। अचानक ही पास में फटे किसी पटाखे की तेज आवाज से मेरी तन्द्रा भंग हो जाती है और बरबस ही मेरे मुँह से निकल जाता है ‘विधि का लिखा को मेटन हारा’।


लेखक परिचय

नाम: महेश सिंह
जन्म: 31/07/1964
जन्मस्थान: सीतापुर यूपी
शिक्षा: स्नातक कानपुर विश्वविद्यालय

कहानी: विधि का लिखा को मेटन हारा - महेश सिंह

सीतापुर यूपी के रहने वाले महेश सिंह साहित्यानुरागी हैं। हर तरह का साहित्य पढ़ना उनका शौक है। साथ ही साथ वह अपने मन के भावों को शब्दों में पिरोते भी हैं।


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4 Comments on “कहानी: विधि का लिखा को मेटन हारा – महेश सिंह”

    1. कहानी आपको पसंद आयी यह जानकर अच्छा लगा। हार्दिक आभार, मनमोहन जी।

  1. कथा मे मौलिकता है लेकिन बहुत बड़े कथानक (प्लॉट) को बेहद संक्षिप्त मे लिखा गया है। कथाकार को चाहिए कि कथा का विस्तार कर पूरा उपन्यास लिखे।

    1. जी आभार। आपकी बात कथाकार तक पहुँचा दी है।

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