अतिनाटकीय अंत और अपने कुछ कमियों के चलते एक औसत उपन्यास बनकर रह जाता है ‘मर गई रीमा’

संस्करण विवरण:

फॉर्मैट: पेपरबैक | पृष्ठ संख्या: 316 | प्रकाशक:  रवि पॉकेट बुक्स | शृंखला: रीमा राठौर 

समीक्षा: मर गयी रीमा - अनिल सलूजा

कहानी 

जज धनराज राय की बेटी का अपहरण हुआ तो उन्होंने रीमा राठौर को अपनी मदद के लिए बुलाया। धनराज राय की बेटी की मदद के लिए निकली रीमा को क्या पता था कि यह मामला उसकी ज़िन्दगी का आखिरी मामला होने वाला है। 

कोई था जो उसके लिए घात लगाकर बैठा था। और वह कोई सफल हो गया था। 

रीमा आखिरकार मर चुकी थी। 

आखिर जज धनराज राय की बेटी का अपहरण क्यों हुआ था?

रीमा की मौत का तम्मनाई कौन था?

वह क्यों रीमा को मारना चाहता था?

रीमा की मौत का मुम्बई और उसके अपराध जगत पर क्या असर पड़ा?

किरदार 

धनराज राय – जज
शीना – धनराज की बेटी
कमला – धनराज की पत्नी
सूरज – धनराज का बेटा जो वकालत की पढ़ाई के लिए अमेरिका गया हुआ था
अश्विनी कुमार – डिसिपी
अंगद महात्रे – डीसी पी
जोरावर – एक गुंडा
रीमा राठौर – एक वकील जिसने जोरावर को पकड़ा था
शूरा – जोरावर का भाई
हरिया, कबाड़ी कल्लू – दो गुंडे जो शूरा के साथ थे
नैना – एक लड़की जिसके भाई को रीमा ने जेल पहुंचाया था
सुलोचना – नैना की मां
कौशल – नैना का भाई जिसने रीमा की जान लेने की प्रतिज्ञा ली थी
सेवक राम – मंत्री
सुशीला – एक पार्षद
लवली – सुशीला की पड़ोसी जिससे लवली राजनीति के गुर सीखना चाहती थी
जगतार – सेवक राम का आदमी
हरिराम – सेवक राम का आदमी
दीनदयाल – एक व्यापारी
आंनद राज – एक वकील जो दीनदयाल का मामला देख रहा था
मेघना – आंनद राज की पत्नी
सिकन्दर ठाकरे – इंस्पेक्टर
सतीश – दीनदयाल का बॉडीगार्ड
रामू – दीनदयाल का नौकर
जगीरा – एक गुंडा
राहू – मंत्री सेवक राम का आदमी
शिवराम नाईक – एक कैदी
शेर सिंह – सेवक राम का आदमी जिसे उसने जेल भिजवा दिया था
कमलनाथ – राजनीति में सेवकराम का चेला जो कि उसकी ही पार्टी में था
रतन आमटे  – ठाकरे का मुखबिर
शंभु – शूरा का वजीर
जाकिर, फत्ता, कौड़ी – शूरा के आदमी
लीलाधर – शूरा का आदमी
अब्दुल रजाक – शूरा का सिक्योरिटी चीफ
जीवा – शूरा का आदमी
फर्नान्डो – सेवकराम का आदमी
अलफांसो – हीरा टापू में मौजूद सेवकराम का आदमी 
मदनमोहन – खुफिया विभाग का एजेंट
अलबर्ट पिंटो – अमनी द्वीप मदन मोहन का आदमी
जय प्रकाश – वह वैज्ञानिक को सेवकराम के लिए काम करता था

मेरे विचार

‘मर गयी रीमा’ लेखक अनिल सलूजा की रीमा राठौर शृंखला का उपन्यास है।  रीमा राठौर पेशे से एक वकील है जो कि अपराधियों से सख्त नफरत करती है और कई बार उनसे खुद ही दो चार हाथ कर लेती है। उसकी इसी फितरत के कारण पुलिस और जनता के बीच उसका दबदबा है। रीमा के यही मामले उपन्यास का कथानक बनते हैं। रीमा राठौर शृंखला का यह पहला उपन्यास था जिसे मैंने पढ़ा और इस शृंखला के दूसरे उपन्यास अब मैं जरूर पढ़ना चाहूँगा। 

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उपन्यास के कथानक की बात करूँ प्रस्तुत उपन्यास में एक कहानी नहीं अपितु तीन कहानियाँ किसी धारा के समान एक साथ चलती हैं जो कि आखिरकार समुद्र रूपी अंत में आकर मिल जाते है। जहाँ एक तरफ जज धनराज राय की बेटी का मामला है जिसे बचाने के लिए रीमा हाथ पैर मारती दिखती है वहीं दूसरी वह सेठ दीनदयाल नामक व्यापारी के मामले को भी देखती है जिन्हें बलात्कार के मामले में अंदर किया है और तीसरी तरफ कौशल और उसकी बहन नैना है जिन्होंने रीमा को मारने की कसम खा ली है। जज की बेटी का अपहरण क्यों हुआ, दीनदयाल ने क्या असल में अपराध किया था और कौशल और उसकी बहन क्यो रीमा की जान के पीछे पड़े थे? यह तीनों ही सवाल ऐसे हैं जिनके उत्तर पाठक को कथानक में प्राप्त होते है। ऊपर से भले ही यह तीनों मामले अलग-अलग दिखते हों लेकिन आगे जाकर यह एक ही जगह जुड़ जाते हैं।  कथानक तेजी से भागता है और एक के बाद एक ऐसी घटनाएँ होती है जिनके उत्तर आप जानना चाहोगे। उपन्यास में तीन कहानियाँ एक साथ चल रही हैं तो यह असल जिंदगी सा लगता है। रीमा जैसे किरदार का एक साथ कई मुसीबतों से जूझना लाजमी ही लगता है। यह एक थ्रिलर उपन्यास है जिसमें लेखक ने लेखक द्वारा एक रहस्य रखने की कोशिश भी की गई है लेकिन आपको पता होता है कि वह रहस्य क्या है और इसलिए उसके उजागर होते ही आप आश्चर्यचकित नहीं होते हैं।  वहीं मुंबई में शूरा के आदमियों द्वारा फैलाया गया आतंक पचाने में थोडी दिक्कत तो होती है लेकिन फिर भी उसे मैं झेल गया था। अचानक से कोई गिरोह ऐसे हमलावर हो जाए तो कानून व्यवस्था थोड़ा लचर हो ही जाएगी।

हाँ, कुछ चीजें अत्यधिक फिल्में लग सकती हैं लेकिन व्यक्तिगत तौर पर मुझे इन चीजों से फर्क नहीं पड़ता है। अगर आप यथार्थवादी थ्रिलर या अपराध साहित्य पढ़ने के शौकीन हैं तो हो सकता है यह कथानक आपको इसके कई जगह अतिनाटकीय होने के चलते इतना पसंद न आए।  

उपन्यास के किरदारों की बात करूँ तो चूँकि इसमें तीन कहानियाँ एक साथ चल रहीं हैं तो किरदारों की अधिकता भी है। उपन्यास में जज धनराज राय के किरदार के हश्र ने मुझे काफी दुखी किया। फर्ज की राह पर चलते हुए व्यक्ति के साथ कितना बुरा हो सकता है ये उनके हाल को देखकर मालूम हुआ। वह जानते थे उनके साथ ऐसा कुछ हो सकता है लेकिन वह फर्ज की राह से नहीं डिगे जो कि प्रेरक था। 

रीमा राठौर उपन्यास का मुख्य किरदार है और वह मुझे पसंद आई। कई बार तेज से तेज व्यक्ति भी गलती कर सकता है यह रीमा के इस उपन्यास से पता चलता है। रीमा भी इस उपन्यास में गलती करती न केवल दिखती है बल्कि अपनी गलती का अहसास होने पर माफी माँगने में भी नहीं झिझकती है। कथानक में रीमा के अलावा इन्स्पेक्टर ठाकरे का किरदार महत्वपूर्ण है। वह रीमा का करीबी है और उनकी बातचीत से ऐसा लगता है वह उसका दोस्त से कुछ अधिक रहा है। इन दोनों के बीच का समीकरण देखना रोचक रहता है। वहीं कौशल , सूरज के किरदार भी प्रभावी बने हैं। 

नैना का किरदार यह दर्शाता है कि एक बहन अपने भाई के लिये क्या क्या कर सकती थी लेकिन अच्छा होता कि वह अपराध का सहारा न लेकर हायर कोर्ट में अपील करती। एक पढ़ी लिखी युवती से यह उम्मीद तो की जा सकती है। यह चीज भी अटपटी रहती है कि उसका वकील उसे ऐसा करने की सलाह नहीं देता है और वह सीधे बदले की राह पर बढ़ने लगती है। 

उपन्यास के बाकी किरदार और खलनायक जैसे शूरा, सेवक राम, शंभू, राहू कथानक एक अनुसार ही हैं। इनमें से कई किरदार अत्यधिक हिंसक हैं और शूरा के कुछ प्रसंग तो हिंसा की अधिकता ही कहे जाएंगे। विशेषकर उसके भाई को सजा मिलने की खबर के बाद वाला प्रसंग ऐसा था जिसने मुझे थोड़ा असहज कर दिया था। अगर ज्यादा हिंसक चीजें आपको विचलित करती हैं तो कुछ चीजें इधर ऐसी हैं जो आपको विचलित कर सकती हैं। 

उपन्यास की कमी की बात करूँ तो उपन्यास में कुछ चीज़ें मुझे ऐसी दिखी जिनका न होना या बेहतर तरीके से लिखा होना उपन्यास को काफी अच्छा बना सकता था। 

सबसे पहले तो लेखक ने रीमा के जिस्म का कई जगह अनावश्यक विवरण किया है जो कि कथानक की माँग नहीं थी। साफ पता लगता है उन वाक्यों को केवल पाठक को टिटिलेट करने या कामोत्तेजना को जगाने के लिए इस्तेमाल किया गया है जिससे बचा जा सकता था। कहानी की माँग पर ऐसे दृश्य आएँ तो मुझे उनसे दिक्कत नहीं होती है लेकिन यहाँ जानबूझकर ऐसी बातें लिखी गई दिखती है। कभी फाइट सीन में, कभी फोन आने पर रीमा के फोन उठाने में ऐसे दृश्य ठूँसे गए हैं जो कि विरक्ति ही जगाते हैं। 

दूसरा उपन्यास शुरुआत में तो एक अच्छे थ्रिलर की तरह आगे बढ़ता है जिसके किरदार यथार्थ में फिट हुए दिखते हैं लेकिन अंत तक आते आते उपन्यास किसी फंतासी की शक्ल ले लेता है। उपन्यास का विलन एक राज्य स्तर मंत्री से एकदम किसी तानाशाह की ताकत का दिखने लगता है।  ऐसा लग रहा था जैसे लेखक अंत कुछ बढ़ा करना चाह रहे थे लेकिन जोश-जोश में होश खो बैठे। 

उपन्यास के खलनायक का अंत भी जैसे होता है वह निराश करता है। उससे ज्यादा रोमांचक तो ठाकरे और कौशल  से जुड़े कई प्रसंग थे। मसलन ठाकरे का और शंभू की भिड़ंत, ठाकरे का पुलिस वालों के साथ शूरा के अड्डे में हमला करना, कौशल के जेल में एक खूँखार कैदी के साथ दो-दो हाथ (पूरा फिल्मी था लेकिन मज़ा आया), कौशल के शूरा के आदनियों के साथ अलग अलग जगहों पर भिड़ंत इत्यादि । मुझे लगता है जब लेखक ने खलनायक को यूँ फंतासी जैसा विशाल दिखा दिया था तो अंत भी उसी तरह का रोमांचकारी होता तो बेहतर होता।

कौशल के किरदार का अंत भी जिस तरह से किया वह अटपटा लगा। ऐसा क्यों किया ये समझ नहीं आया। उसका अंत भी बेहतर हो सकता था।

मुझे हमेशा से लगता है कि लेखक द्वारा मास्क और मिमिक्री करना एक कमजोर कथानक की निशानी लगता है। एक बड़ी एजेंसी के सहयोग से कोई ऐसा भले ही कर सके लेकिन एक आम लड़की द्वारा आम गुंडे की सहायता से यह कर पाना अटपटा लगता है। ऐसा लगता है जैसे कोने में फँसकर लेखक ने आसान रास्ता लेने का फैसला कर दिया था। लेखक ने कई बार यहाँ मास्क का प्रयोग किरदारों द्वारा करवाया है। 

रीमा के मौत के रहस्य को भी अधपका ही पाठक को प्रस्तुत कर दिया जाता है। क्या पुलिस को रहस्य का पता था? यह बात नहीं बताई गई है। यह बताना जरूरी है क्योंकि जो कारण दिया गया था वह बिना पुलिस की सहायता के किर्यान्वित नहीं हो सकता था। फिर पुलिस को पता होता तो उसके लीक होने की संभावना भी होती तो वो कारण काफी झोलझाल वाला है। शायद लेखक भूल गए थे हत्या के मामले में पोस्ट मार्टम का होना अवश्यम्भावी है जिससे काफी कुछ पता चल जाता है।

उपन्यास में कई जगह वर्तनी की गलती है और कई बार वाक्य में फेर बदल भी हो जाता है जो कि खीर में आए कंकर की तरह महसूस होता है। उदाहरण के लिए यह देखिए:

सुलोचना उसे सांत्वना दे रही थी – मगर उसके अपने ही आँसू रुकने का नाम नहीं ले रहे थे। 

“मेरी एक सहेली के पापा वकील हैं। हम उनके पास जाते हैं।” बोली नैना – “वो तुम्हें छुड़ाने का कोई न कोई रास्ता जरूर निकाल लेंगे।”

“मगर उससे पहले हम थानेदार के पास जाएंगी।” सुलोचना बोली- “मैं उसके पैर अपने आँसुओ से धो दूँगी। और उसे यकीन करने पर मजबूर कर दूँगी कि मेरा भाई बेकसूर है।” (पृष्ठ 83 यहाँ भाई की जगह बेटा होना चाहिए था क्योंकि कौशल सुलोचना का बेटा था।)

“हमें जवाब दे रहा है हरामजादे! इसका अंजान जानता है तू?” साँप की तरह फुँफकारा शंभू (पृष्ठ 217) (अंजाम होना चाहिए था।)

उस वक्त डीसीपी अपने ऑफिस में बैठे थे – जब उनके पों की घंटी घनघनाई। 

डीसीपी ने रिवॉल्वर उठाया और बड़े ही धीमे स्वर में बोले – “यस!” (पृष्ठ 229)

यहाँ डीसीपी का रिसीवर उठाने के बजाए रिवॉल्वर उठाना देखकर एक बार तो मेरा दिमाग ही घूम गया था। यही नहीं इसके आगे एक प्रसंग आता है जिसमें यह डीसीपी विकास नगर के डीसीपी को झाड़ लगाता है। उस वक्त मैं यही सोच रहा था कि एक सेम रैंक वाला अफसर दूसरे अफसर को झाड़ कैसे लगा सकता है। लेकिन फिर यही डीसीपी आगे जाकर डीजीपी बना दिया जाता है। 

फोन की घण्टी बजते ही विकास नगर के डी सी पी ने रिसीवर उठाकर कान से लगाया। 

“हैलो।” 

“डी सी पी स्पीकिंग।”

दूसरी तरफ से आई आवाज को सुनकर डी सी पी ऐसे खड़ा हुआ जैसे डी सी पी उसके सामने आ खड़ा हुआ हो। 

“सर…।” वह तन कर बोला। (पृष्ठ 230,231)

करीब पाँच मिनट बाद इंस्पेक्टर खाटकर पर्दा हटाकर ऑफिस में दाखिल हुआ। 

डी.सी.पी का उतरा हुआ चेहरा देखकर वह हैरान हुआ। 

“खैरियत तो है सर?” वह एक कुर्सी सरकाकर उस पर बैठते हुए बोला – “बड़े मायूस नजर आ रहे हैं आप…”

गहरी साँस छोड़ते हुए डी सी पी ने पहलू बदला और बोला – “डी जी का फोन आया था।”

बुरी तरह चौंका खाटकर – “डी जी ने फोन किया?”

“हाँ।” डीसीपी ने पुनः एक गहरी साँस छोड़ी – “ऐसी बेइज्जती मेरी आज तक नहीं हुई – जैसी आज हुई।” (पृष्ठ 232 )

 

पीछे पीछे ठाकरे, कौशल और सेवक राम भागे। (यहाँ सेवक राम नहीं सूरज होना चाहिए। )  पृष्ठ 315 

अंत में यही कहूँगा कि उपन्यास के द्वीप वाले प्रसंग को छोड़ दिया जाये तो उपन्यास मुझे पठनीय लगा। अतिनाटकीय अंत और ऊपर लिखी कमियों के चलते यह एक औसत उपन्यास बनकर रह जाता है।  ऊपर लिखी हुई बातें अगर सम्पादन में सुधारी जाती तो उपन्यास और रोचक हो सकता था। हाँ, अगर आपको कामोत्तेजक विवरण और अत्यधिक हिंसा विचलित करती है तो उपन्यास से बचें। उपन्यास में लिखे कुछ दृश्य आपको विचलित कर सकते हैं।  

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2 Comments on “अतिनाटकीय अंत और अपने कुछ कमियों के चलते एक औसत उपन्यास बनकर रह जाता है ‘मर गई रीमा’”

  1. यही बड़ी बात है की आपने ऐसी फ़िल्मी औऱ हवाबाजी वाली किताब पूरी पढली…..पर्सनली मैं तो 2022 में ऐसी किताबों से relate ही नहीं कर पाता औऱ जल्दी बोर हो जाता हूँ.

    1. मैं तो एन्जॉयमेंट के लिए पढ़ता हूँ… हर तरह की कहानियों को इन्जॉय कर लेता हूँ… ये भी ठीक लगी… हाँ, कुछ सम्पादन होता तो और बेहतर होती…

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