वक्त का मारा – अनिल सलूजा

रेटिंग : 3/5
उपन्यास 16 मार्च,2017 से 18 मार्च,2017 के बीच पढ़ा गया


संस्करण विवरण:

फॉर्मेट:
पेपरबैक | पृष्ठ संख्या: 286 | प्रकाशक: तुलसी पेपर बुक्सकिताब का स्रोत: मेरे दोस्त देव प्रसाद से पढने के लिए ली

पहला वाक्य :
“अरे सुना तूने- बिजली उस्ताद आ गया है।”

किशनपुर में बड़े शाह और छोटे शाह की इजाजत के बिना एक पत्ता भी नहीं खड़कता था। उनके आतंक के आगे सारे लोग अपने को बेसहारा महसूस करते थे और इसे अपनी नियति मान सब सहते रहते थे। लेकिन फिर एक दिन कुछ ऐसा हुआ कि कमल अरोड़ा नाम के  उस शख्स ने अपने को बड़े शाह के सामने खड़ा पाया। उसकी एक हरकत ने बड़े शाह की योजना के ऊपर पानी फेर दिया था।

फ्रंट कवर 

कमल को ये तो यकीन था कि इससे उसका अहित होगा लेकिन बड़ा शाह उससे ऐसे बदला लेगा ये वो सोच भी नहीं सकता था। अगर उसे पता होता तो वो अपने आप को उसी दिन खत्म कर देता।  बड़े शाह ने बदला भी लिया जिसका नतीजा ये हुआ कि कमल अरोड़ा जेल की सलाखों के पीछे पहुँच गया।

उसको उस गुनाह की सज़ा मिली जिसके विषय में वो सोच भी नहीं सकता था। वो बदला लेना चाहता तो वह  ‘वक्त का मारा’ बदला भी नहीं ले सकता था। सारा प्रशासन जो उसके खिलाफ था।

आखिर क्यों टकराया था कमल बड़े शाह से? ऐसा क्या किया बड़े शाह से कमल के साथ जो वो अपनी मौत की कामना करने लगा? आखिर किस गुनाह के लिए कमल को जेल में डाला गया था ?

ऐसे कई सवाल आपके मन में उठ रहे होंगे। जवाब हासिल करने का एक ही रास्ता है, उपन्यास पढ़िए।

अनिल सलूजा (Anil Saluja) के विषय में मुझे इससे पहले कुछ भी नहीं पता था। एक बार देव ने व्हाट्सएप्प पे तस्वीर भेजी कि देहरादून  की पलटन मार्किट से इसे खरीदा है और पढ़ रहा हूँ। कवर के ऊपर बने सुनील दत्त ने मुझे आकर्षित किया और मैंने उसी वक्त मन बना लिया था कि अगर मौका लगे तो देव बाबू से मिलकर इसे ले लूँगा और पढूँगा। हिंदी पल्प पढने का अपना मज़ा है और मैं इसमें लिखने वाले ऐसे लेखकों को ढूँढता रहता हूँ जिनके विषय में मुझे अधिक जानकारी नहीं होती है या जिनका नाम मैंने सुना नहीं होता है।  तो खैर, पढने का प्लान था ही और इसे मार्च में पूरा कर पाया।

बेक कवर
बैक कवर 

अब अगर किताब की बात करूँ तो उपन्यास का कथानक 90 के दशक में आने वाली फिल्मों जैसा है। शुरुआत जेल के एक सीन से होती है जिसमे हीरो की एंट्री वहाँ के दादा से लड़ते हुए होती है। फिर फ़्लैशबेक में कहानी चलती है जो कि हीरो के ऊपर हुई ज्यादतियों से पाठक का परिचय कराती है। कैसे किशनपुर के राज करने वाले बड़े शाह से वो भिड़ा था और कैसे उसी की सजा उसके पूरे परिवार को मिली और उसे जेल में बंद करवा दिया। उसके बाद हीरो  किस  तरह से अपने ऊपर हुए अत्याचारों का बदला लेता है और इसी बदले के रास्ते में चलते हुए दोबारा ज़िन्दगी जीने का मकसद पाता है। यही सब कहानी है।

 इस कहानी को आपने हमने कई बार पढ़ा  और देखा है। ये सबसे ज्यादा पोप्लुर फंतासी में से एक है जिसमे एक अंडरडॉग आखिर में अपने से कई गुना बड़े खलनायक से विजय पाने में सफल हो जाता है। भले ही असल ज़िन्दगी में ऐसा न होता हो लेकिन हम इसे होते हुए देखना चाहते हैं और इसलिए चाहे कितनी भी बार इस कहानी को पढ़े उसका आनन्द लेते है और हीरो की जीत में अपनी जीत देखते हैं।

उपन्यास का अंत आपको पता है कैसा होगा लेकिन लेखक ने कथानक को इतना कसा हुआ रखा है कि आप पढ़ते चले जाते हैं। उपन्सया में कहीं भी बोर नहीं होते। कई जगह आप कमल के दिमाग की तारीफ़ करने से खुद को नहीं रोक पाते हैं। यानी शुरुआत से लेकर अंत तक उपन्यास अपने मकसद में कामयाब होता है। ऐसे उपन्यासों का मकसद आपको मनोरंजन देना होता है और ये वो सफलता कर पाता है।

प्लॉट होल्स बहुत कम हैं  और आप इन्हें नज़रअंदाज कर सकते हैं। मुझे एक ही दिखा। कहानी में एक बार बड़े शाह के लड़के छोटे शाह को जेल हो जाती है। कुछ गवाह रहते हैं जो उसके खिलाफ गवाही देने जा रहे होते हैं। अब ऐसे में बड़ा शाह एक अजीब प्लान बनाता है। उसके आदमी छोटे शाह के नाम पर एक स्कूल को तभी गिरफ्त में ले लेते हैं  जब उन गवाहों का खून होता है। अब जब गवाहों का खून हो ही गया था तो उनको स्कूल हाई जैक करने की क्या जरूरत थी? अगर कोई भी दिमाग वाला होता तो ऐसा बेवकूफाना हरकत नहीं करता। इस स्कूल वाले मसले से ही नायक और खलनायक के बीच टकराव होता है। कहानी में इसका खाली ये कारण है। लेकिन इसे थोड़ा और ढंग से लिखा जा सकता था।  एक बार को ये भी कहा जा सकता है कि बड़ा शाह का एक प्लान अपने आप को सफ़ेद पोश सिद्ध करने का था लेकिन अगर ऐसा था तो भी इसे करने की जरूरत नहीं थी। ये मामला मुझे खटका था और थोड़ा इसके वजह से कहानी में थोड़ी कमी लगी।

ऊपर लिखे एक प्लॉट होल को छोड़कर मुझे ज्यादा कुछ कमी नहीं लगी। वैसे भी मैं कमी खोजने के लिए उपन्यास नहीं पढता हूँ। हाँ, पढ़ते हुए कुछ खटके तो उसके विषय में इधर लिख देता हूँ। बाकी हर किताब का अपना मकसद होता है। और अगर वो किताब उसे पूरी करती है तो मुझे ख़ुशी होती है।

अंत में केवल इतना ही कहूँगा कि किताब मुझे पसंद आई। अनिल जी के और उपन्यासों को पढने की कोशिश करूँगा। कोशिश इसलिए क्योंकि ये मिलते बड़ी मुश्किल से हैं।

अगर आपने कोई उपन्यास पढ़ा है और वो उपलब्ध भी है तो उसके विषय में जरूर बताइयेगा। 


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About विकास नैनवाल 'अंजान'

विकास नैनवाल को अलग अलग तरह के विषयों पर लिखना पसंद है। साहित्य में गहरी रूचि है। एक बुक जर्नल नाम से एक वेब पत्रिका और दुईबात नाम से वह अपनी व्यक्तिगत वेबसाईट का संचालन भी करते हैं।

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6 Comments on “वक्त का मारा – अनिल सलूजा”

  1. विकास जी आप अनिल सलूजा के भेडिया/रावण सीरीज के उपन्यास पढें।
    काफी रोचक हैं।

    1. जरूर अगर मिलते हैं तो मैं जरूर पढने की कोशिश करूँगा। हिन्दी पल्प के साथ दिक्कत ये है कि पुराने उपन्यासों के रीप्रिंट नहीं होते हैं जिससे पुराने उपन्यास नये पाठकों की पहुँच से बाहर हो जाते हैं।
      ये उपन्यास भी मेरे दोस्त को एक सेकंड हैण्ड किताबों की दुकान में मिला था।

  2. अभी अनिल सलूजा का उपन्यास 'कृष्ण बना कंस' पढा। एक प्रतिशोध की हल्की सी कहानी है। उपन्यास जिस बात को आधार बना कर लिखा गया वह अनुचित लगी।
    फिर भी अनिल सलूजा के अन्य उपन्यास पढने की इच्छा है।

    1. जी, मुझे भी। कहीं मिलते हैं तो ले लेता हूँ।

  3. अनिल सलूजा का आज एक उपन्यास पढा 'आदमखोर' वह भी एक फिल्मी गैंगवार की लडा़ई की तरह का उपन्यास था।
    कोई विशेष नहीं था।
    – गुरप्रीत सिंह
    राजस्थान

    1. जी ब्लॉग पर देखा मैंने। वैसे अनिल सलूजा के उपन्यास इतने आसानी से अब मिलते भी नहीं हैं और खोज-खोज कर ढूँढने का वक्त मेरे पास नहीं है। खैर, कभी मौका लगा और किताब दिखी तो जरूर लेकर पढूँगा।

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