संस्करण विवरण:
फॉर्मेट: पेपरबैक
पृष्ठ संख्या: 191
प्रकाशक – रवि पॉकेट बुक्स
शातिर ख़ूनी – अश्विन कुमार |
पहला वाक्य:
उनतीस नवम्बर की रात, लगभग रात के नौ बज रहे थे।
कैलाश ओझा ने अपने फार्म हाउस पर बहुत दिनों बाद एक पार्टी रखी थी। कुछ दिनों से वो अपनी व्यापरिक परेशानियों से जूझ रहा था इसलिए ज़िन्दगी का लुत्फ़ नहीं ले पा रहा था। वरना अक्सर ही कैलाश और उसके दोस्त राजेश और केतन फार्म हाउस में आकर पार्टी करते थे।
लेकिन अब सब ठीक था और इसीलिए कैलाश ने अपने लंगोटियाँ मित्रो को पार्टी के लिए बुलाया था। राजेश और केतन दोनों बहुत उत्साहित थे।
लेकिन जब केतन और राजेश फार्म हाउस पर पहुँचे तो उनके पैरों तले जमीन खिसक गई। फार्म हाउस में कैलाश की लाश पड़ी थी। उसे किसी ने गोली मारी थी। यही नहीं उसके करीब एक और लाश थी जिसके सीने में चाकू पेवस्त किया गया था।
इस दृश्य ने दोनों की ही घिग्घी बाँध दी थी। उन्हें शक था कि अगर वो पुलिस को कॉल करेंगे तो पुलिस कहीं उन्हें ही न इस मामले में लपेट ले। यही कारण था कि उन्होंने सी आई डी की टीम को बुलाने का फैसला किया।
सी आई डी की टीम उधर पहुंची तो उन्हें यह जानकर हैरानी हुई कि कोई भी दूसरी लाश के पहचान के विषय में कुछ नहीं जानता था। सभी ने उस शख्स को पहली बार देखा था। फार्म हाउस के चौकीदार की माने तो कैलाश ओझा अकेले ही फार्म हाउस में दाखिल हुआ था। फार्म हाउस ऐसा बना हुआ था कि किसी का भी दीवार फांद कर आना या जाना मुश्किल था।
तो आखिर कत्ल कैसे हुआ था ? वो दूसरी लाश किसकी थी? और ये कत्ल क्यों हुए थे? और इन दो कत्लों के बाद कातिल रुक गया था या उसकी योजना में कुछ और लोगों का भी नाम था?
इन्ही सब प्रश्नों का उत्तर सी आई डी की टीम को तलाशना था। ए सी पी माणिक और इंस्पेक्टर विनय,विकास,संजना और राहुल की टीम क्या इस गुत्थी को सुलझा पाई?
यह सब तो आपको इस उपन्यास को पढकर ही पता चलेगा। तब तक के लिए आप उपन्यास के प्रति मेरे विचार पढ़िये।
मुख्य किरदार:
कैलाश ओझा – एक व्यापारी जिसका उसके फार्म हाउस में कत्ल हो गया था
राजेश मित्रा, केतन – कैलाश के दोस्त
तुकाराम – फ़ार्म हाउस का चौकीदार
माणिक – सी आई डी का इंस्पेक्टर
राहुल,विकास,विनय और संजना – सी आई डी की बाकी टीम
विनायक – कैलाश ओझा की कम्पनी में काम करने वाला एक व्यक्ति
कांता – विनायक की माँ
नागेश – कांता का मुँह बोला भाई
आवेश कपूर – कैलाश ओझा का जनरल मेनेजर
रीटा – आवेश की बेटी
विश्वनाथ – विनायक का पिता
मनोज और साधना – एक युगल जिससे सी आई डी की टीम तहकीकात के दौरान मिली थी
शातिर खूनी उपन्यास एक मर्डर मिस्ट्री और थ्रिलर है। उपन्यास में मर्डर का यह केस सी आई डी की टीम सुलझा रही है। उपन्यास शुरुआत से ही अपनी पकड़ बनाकर चलता है। कुछ न कुछ रहस्य हमेशा से ऐसे रहते हैं जो पाठक को उपन्यास पढ़ते जाने पर मजबूर करते हैं। एक रहस्य सुलझता है तो उसकी स्थान पर दूसरा रहस्य आ जाता है। जैसे जैसे कथा कि परतें खुलती हैं तो वैसे वैसे उपन्यास में घुमाव भी आते जाते हैं। यह पाठक की रूचि अंत तक बनाकर रखती है। रहस्य भी अंत तक बरकरार रहता है।
उपन्यास में सी आई डी टीम है जो कि टी वी सीरियल वाले सी आई डी जैसी ही है। थोड़े बहुत नाम बदल दिये हैं। लेखक उनसे काफी प्रभावित हुए हैं और यह छाप उपन्यास पर देखने को मिलती है। पाँच लोगों की टीम से तहकीकात करवाते हुए यह ध्यान रखना होता है कि सबको कुछ न कुछ करने को हो तो यह काम लेखक ने बखूबी किया है। हाँ, इससे ये नुकसान हुआ है कि टीम में माणिक,जो कि हेड है, को छोड़कर कोई भी किरदार कोई ख़ास छाप नहीं छोड़ पाता है। इस श्रृंखला में अगर दूसरे उपन्यास होंगे तो शायद टीम के बाकी सदस्यों का व्यक्तित्व उभर कर आये।
उपन्यास के बाकी किरदार कथानक के हिसाब से सही हैं और कोई भी अटपटा नहीं लगता है।
उपन्यास में थोड़ी बहुत कमियाँ जो मुझे लगी वो निम्न हैं:
माणिक के फोन की ट्यून साईं ओम साईं ओम है लेकिन पृष्ठ 108 में वो हरि ओम हरि ओम हो जाती है और आगे चलकर फिर साईं ओम साईं ओम हो जाती है।
उपन्यास में माणिक अपनी पूरी टीम के साथ आवेश कपूर के पीछे जाता है जबकि उसे राहुल का कॉल आता है कि उसे कुछ ऐसी जानकारी मिली है तो तहकीकात में नई रोशनी डालती है। यह सुनकर वो आवेश का पीछा छोड़ सीधे वापस मुड़ जाता है। उसके साथ पूरी टीम भी वापस हो लेती है। यह मुझे जमा नहीं। अगर कोई समझदार एसीपी होगा तो वो कुछ इस तरह से काम करेगा कि दोनों चीजें हों । अगर उसका सबूत देखना जरूरी था तो वो टीम के दो सदस्यों को आवेश के पीछे भेज सकता था। इससे केस जल्दी सुलझ जाता।
किताब में कई बार ज्यादा नाटकीयता है। पुलिस वाले छोटी छोटी बातों पर चिहुँक रहे हैं। उनकी आँखें बड़ी हो रही है। इसके आलावा कई बार बातों का दोहराव है। यह उस चीज को अंडरलाइन करे जाने के लिए की गई लगती है जो कि मेरे ख्याल से जरूरी नहीं था।
बला की फुर्ती के साथ ही आर्टिस्ट ने क्षण भर में ही स्केच के भीतर बने चेहरे पर से दाढ़ी मूँछ हटा दी और फिर जो चेहरा सामने नज़र आया उसे देख मानो दोनों के मष्तिक पर बल सा गिर गया।
मानो ऊपर की साँस ऊपर और नीचे की साँस नीचे ही रह गई।
आँखें जैसे अविश्वास से फैलने लगी।
बुत का पुतला बने दोनों उस चेहरे को एक-टूक देखे जा रह थे।
(पृष्ठ 131)
इधर जिन दो लोगों के विषय में बोला जा रहा है वो सी आई डी इंस्पेक्टर हैं। हैरान होना ठीक है लेकिन उसके बाद उसी चीज को दो तीन तरह से ऐसे दिखा रहे हैं जैसे न जाने क्या हो गया। बीच की दो पंक्तियाँ नहीं भी होती तो कोई ज्यादा फर्क नही पड़ता। मुझे व्यक्तिगत तौर पर ज्यादा नाटकीयता नहीं पसंद है तो यह मेरे विचार हैं। हो सकता है जिन्हें यह पसंद आती हों उनके लिए यह प्लस पॉइंट हो।
उपन्यास के लेखक ने केवल टीम ही सी आई डी की नहीं चुनी है बल्कि हाव भाव भी वैसे ही रखे हैं। इधर एसीपी का डायलॉग ‘कुछ समझे’,’कुछ गड़बड़ है’ भी हैं, यहाँ दरवाजे भी टूटते हैं और आखिर में थप्पड़ भी पड़ता है जिससे मुजरिम सब बताने को तैयार हो जाता है। इससे चीजें कई बार हास्यास्पद हो जाती हैं। सी आई डी सीरीज का मजाक भी इसी कारण से उड़ता है तो लेखक को इससे बचना चाहिए था। इसी कारण से कई बार यह सी आई डी का फेन फिक्शन भी लगने लगता है।
कहानी अच्छी थी लेकिन इसमें हमशक्ल आदमी का प्रयोग इसे मेरी नज़र में थोड़ा बहुत कमजोर बनाता है। उसके बिना काम होता तो सही रहता।
उपन्यास में बीच में एक घड़ी का जिक्र था जिसे टीम शुरुआत में काफी तगड़ा सबूत मान रही थी लेकिन बाद में उसके विषय में सब भूल जाते हैं।
यह छोटी मोटी चीजें थी जिनके ऊपर लेखक को ध्यान देना चाहिए था।
अंत में यही कहूँगा उपन्यास रोचक और पठनीय है। उपन्यास सी आई डी सीरियल से बहुत प्रभावित है। आगे के उपन्यासों में लेखक को दोहराव और अति नाटकीयता से बचना चाहिए। इससे भले ही पृष्ठ कम हो लेकिन कथानक में कसाव रहता है और उपन्यास रोमांचक रहता है। मेरे ख्याल से इस उपन्यास से भी 20-30 पृष्ठ आराम से हटाए जा सकते थे।
मेरी रेटिंग: 2.5/5
अगर आपने इस उपन्यास को पढ़ा है तो आपको यह कैसा लगा?
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रवि पॉकेट बुक्स
उपन्यास के विषय में अच्छा लिखा है, यह उपन्यास मेरे पास उपलब्ध है। समय मिलते ही पढूंगा।
– गुरप्रीत सिंह
जी शुक्रिया। पढ़कर अपने विचारों से अवगत जरूर करवाईयेगा।