संस्करण विवरण:
फॉर्मैट: पेपरबैक | पृष्ठ संख्या: 150 | प्रकाशक: नीलम जासूस कार्यालय | शृंखला: तहकीकात
पुस्तक लिंक: अमेज़न
जहाँ पत्रिकाओं के दिन प्रति दिन बंद होने की खबरें आती रहती हैं, वहीं नीलम जासूस कार्यालय की पत्रिका ‘तहकीकात’ के अंक लगातार आ रहे हैं। यह सराहनीय है। तहकीकात का तीसरा अंक जनवरी में आ गया था लेकिन मुझे पढ़ने का मौका अब जाकर लगा है। इस अंक को आपने की भी एक अलग कहानी है। मैं अक्टूबर तक अपने गृह कस्बे पौड़ी में था और अक्टूबर के अंत में गुरुग्राम आ गया था। जब पत्रिका आई तो प्रकाशक ने उसे गुरुग्राम के बजाय अक्टूबर में भिजवा दिया। यह मेरी आर्टिस्ट कॉपी थी क्योंकि मेरे द्वारा अनूदित एक उपन्यासिका इसमें प्रकाशित हुई थी। ऐसे में जब प्रकाशक को यह बताया कि मैं तो गुरुग्राम हूँ तो उन्होंने बिना किसी देरी के पत्रिका की एक दूसरी प्रति मुझे गुरुग्राम भिजवा दी। इसके लिए मैं उनका आभारी हूँ।
पत्रिका की बात करूँ तो प्रस्तुत अंक में 9 गद्य रचनाएँ प्रकाशित हुई हैं। इसके अतिरिक्त पाठकों की चिट्ठियाँ, संपादक का पत्र, अहमाद फराज की गजलें, और हास्य रस के तहत छोटे छोटे चुटकुले पत्रिका में शामिल हैं।
तहकीकात पत्रिका से आप वाकिफ हैं तो यह दो भागों में विभाजित होती है। पत्रिका का एक हिस्सा लोकप्रिय साहित्य की रचनाओं के लिए होता है और दूसरा भाग सत्यबोध परिशिष्ट गंभीर साहित्यिक रचनाओं, कविताओं, गज़लों, व्यंग्यों , समीक्षाओं और लेख इत्यादि के लिए सुरक्षित रहता है।
मुख्य भाग
पाठकों के लिए मुख्य भाग में अहमद यार खाँ की ‘साजिश’ और मलिक सफ़दर हयात की ‘भयानक प्रतिशोध’ के रूप में सत्य कथाएँ मौजूद हैं। यह सत्यकथाएँ ब्रिटिश हुकूमत के दौरान इन अफसरों ने जो अपराधी मामले सुलझाएँ थे उनमें से एक-एक मामले को दर्शाती हैं। अगर पुलिस की कार्यशैली में आपकी दिलचस्पी है तो यह रचनाएँ आपको पसंद आएगी। मैंने साजिश और भयानक प्रतिशोध के विषय में विस्तृत तौर पर लिखा है। आप निम्न लिंक पर मेरे विस्तृत विचार पढ़ सकते हैं:
सत्यकथाओं के अतिरिक्त पुस्तक में लेखक योगेश मित्तल की उपन्यासिका
कान का बुंदा मौजूद है। इससे पूर्व उन्होंने तहकीकात के दूसरे अंक में एक किरदार अनिल कुमार चक्रवर्ती को लेकर एक कहानी
सुपर मॉडल का कत्ल लिखी थी। अनिल कुमार चक्रवर्ती को लेकर ही उन्होंने यह दूसरी कहानी लिखी है जिसमें अनिल किराने की दुकान के मालिक के कत्ल का पता लगाता है। उपन्यासिका पठनीय है और अनिल की व्यक्तिगत ज़िंदगी के रूप तफ़सील से रोशनी डालती है। इस उपन्यासिका के विषय में भी मैंने विस्तृत तौर पर निम्न लिंक पर लिखा है:
पत्रिका में इसके पश्चात आता है स्वर्गीय लेखक ओम प्रकाश शर्मा की आत्मकथा ‘खुद अपनी नज़र् में’ का पहला अंश। इस अंश में जनप्रिय लेखक ओम प्रकाश शर्मा ने अपने शुरुआती जीवन, अपने पिता और अपने लेखन से अर्जित पाठकीय परिवारों के किस्से दिए हैं जो कि जनप्रिय लेखक के जीवन को समझने में काफी कारगर होते हैं। ओम प्रकाश शर्मा जी के पिता के मित्र राधे श्याम पंडित का जिक्र मुझे बहुत रोचक लगा। ऐसे मित्र मिलना मुश्किल है। इसी अंश में चाय की लत को को किस तरह से जन मानस के बीच फैलाया गया यह भी दिखता है। साथ ही एक लेखक किस तरह से विभिन्न पाठकों के जीवन में बदलाव लाता है यह भी दृष्टिगोचर होता है। आत्मकथा के अन्य भागों की भी प्रतीक्षा रहेगी।
इन सब रचनाओं के अतिरिक्त पत्रिका में प्रसिद्ध अमेरिकी अपराध लेखक डाशील हैमेट की लिखी उपन्यासिका आर्सन प्लस भी प्रकाशित हुई है। इसका अनुवाद मैंने किया है। यह कॉन्टिनेन्टल डिटेक्टिव एजेंसी के जासूस को दर्शाती डाशील हैमेट की पहली कहानी है। इसी किरदार को लेकर लेखक ने आगे चलकर 28 कहानियाँ और दो उपन्यास लिखे। अनुवाद कैसा हुआ यह तो अन्य पाठक ही बताएँगे।
सत्यबोध परिशिष्ट
तहकीकात के सत्यबोध परिशिष्ट की बात की जाए तो चार गद्य रचनाएँ हैं।
इस परिशिष्ट की पहली रचना एक व्यंग्य है। प्रसिद्ध व्यंग्यकार डॉ ज्ञान चतुर्वेदी का व्यंग्य शादी नृत्य निर्देशिका भारतीय बारात में किये जाने वाले नृत्य पर एक पठनीय व्यंग्य है। शादी में जितने प्रकार के नृत्य लोग करते हैं और उन्हें जिस तरह किया जा सकता है उसे लेकर लेखक ने यह मनोरंजक व्यंग्य लिखा है। आप अगर बारातों में शामिल हुए हैं तो इस दौरान आपको तरह तरह से नाचने वाले जितने लोग दिखे होंगे उनके चेहरे यह व्यंग्य पढ़कर आपकी नज़रों के सामने दिखने लगेंगे। एक रोचक पठनीय रचना है जिसे बार बार शादी के सीजन में तो पढ़ा ही जा सकता है।
इस परिशिष्ट में दूसरी रचना
कांबोजनामा के लेखक राम ‘पुजारी’ की
‘आजकल वेद प्रकाश कांबोज जी’ है। इस रचना में उन्होंने वेद जी से अपनी हालिया मुलाकात और उनकी दिन चर्चा का सजीव वर्णन किया है। जीवन के इतने वसंत देखने के पश्चात भी वह जिस तरह ऊर्जा से भरे हैं वह यह लेख पढ़कर देखा जा सकता है।
परिशिष्ट की अगली रचना गुरप्रीत सिंह द्वारा लिखी कांबोजनामा की समीक्षा है जिसमें उन्होंने कांबोजनामा के मुख्य बिंदुओं को रेखांकित करते हुए लिखा है। समीक्षा पुस्तक के प्रति उत्सुकता जगाने का कार्य करती है।
परिशिष्ट की आखिरी गद्य रचना रोशनलाल सुरीरवाला की कहानी ‘बोझ’ है। बोझ राम गोपाल की कहानी है जो जब रिटाइर होते हैं तो पाते हैं कि उन्हें घर में अब अनचाही व्यक्ति के रूप में समझा जा रहा है। उनके रहते हुए घर में क्लेश बढ़ते जाते हैं और उन्हें लगता है कि किसी को भी उनका मूल्य नहीं है। अक्सर व्यक्ति रिटाइर होने से पहले एक नियमित रूटीन अपनाता है। वह सोचता है कि रिटाइर होने के बाद वह अपना कार्य करा करेगा। आराम किया करेगा लेकिन कुछ ही समय बात उसे ऐसी ही दिक्कतें आने लगती हैं जैसे राम गोपाल को आती हैं। घर के लोग जो उसके ऑफिस जाने के बाद घर को अपनी तरह से चलाते थे उनको अब उस व्यक्ति का घर में रहना और उन्हें कुछ कहना खलता है। बच्चे जो अभी तक उस पर निर्भर थे और उसकी बात को ब्रह्मवाक्य समझते थे वो अब स्वतंत्र होकर अपने तरह से जीना चाहते हैं। ऐसे में उन्हें भी उस व्यक्ति की बातें चुभने लगती है। यह सब देखकर वह व्यक्ति राम गोपाल जैसा ही परेशान हो सकता है। कहानी इसी परेशानी और पीड़ा को दर्शाती है। आखिर में जो राम गोपाल निर्णय लेता है वह मन को दुखी कर जाता है। यहाँ मैं यही कहूँगा कि व्यक्ति भले ही नौकरी से रिटायर हो जाए लेकिन उसे अपने आपको व्यस्त रखना चाहिए। हो सके तो अपना शौक पूरे करने चाहिए या कुछ ऐसा करता रहना चाहिए ताकि वह व्यस्त रहे। आदमी व्यस्त रहता है तो वह खुश रहता है और लोगों पर बोझ भी नहीं बनता है। वहीं घर वालों को भी ऐसे व्यक्ति को समझना चाहिए। वह ज़िंदगी भर बाहर जीवन खपाता रहता है। उसके पास घर में समय बिताने के लिए वक्त नहीं था और वह चाहकर भी ये जिम्मेदारी नहीं निभा सकता था। अब उसे वक्त मिला है तो उसे यह चीज देखनी चाहिए। परिवार एक दूसरे के साथ मिलकर रहने से ही चलता है क्योंकि समय का चक्र बलवान है। जो बलशाली है वो निर्बल भी होता है। जो जवान है वो बूढ़ा भी होता है। जहां पर हमारे बुजुर्ग हैं वहाँ पर हमें भी जाना है। व्यक्ति ये भूल जाता है लेकिन उसे यह नहीं भूलना चाहिए। उन्हें बुजुर्गों को अपने जीवन में शामिल करना चाहिए। उनसे चीजें पूछनी जाँचनी चाहिए। वहीं बुजुर्गों को भी यह समझना होगा कि एक समय के बाद उन्हें बच्चों को उनके हिसाब से छोड़ देना चाहिए। अगर उन्हें जरूरत होगी तो मदद माँग लेंगे। रोशनलाल सुरिवाला की यह कहानी प्रासंगिक है जो कि सोचने के लिये काफी कुछ दे जाती है।
अंत में यही कहूँगा कि तहकीकात का यह तीसरा अंक रोचक एवं पठनीय है। इसमें लोकप्रिय साहित्य के अतिरिक्त गंभीर साहित्य में रुचि करने वाले लोगों के लिए सामग्री मौजूद है। हाँ, सत्यबोध परिशिष्ट में गद्य रचनाएँ थोड़ा और अधिक बढ़ाई जा सकती है और समीक्षाओं की बात हो तो नीलम् जासूस कार्यालय से इतर प्रकाशित पुस्तकों की समीक्षाओं को भी संपादक को स्थान देना चाहिए।
तहकीकात के अगले अंक की प्रतीक्षा रहेगी।
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बेहतरीन निष्पक्ष समीक्षा, पत्रिका दिलचस्पी जगाने वाली है।
जी पत्रिका पर लिखा ये लेख आपको पसंद आया यह जानकर अच्छा लगा। पत्रिका निश्चय ही रोचक है। आभार।