संस्करण विवरण:
फॉर्मेट: पेपरबैक | पृष्ठ संख्या: 176 | प्रकाशक: रवि पॉकेट बुक्स | श्रृंखला: देवराज चौहान
पहला वाक्य:
केशवपुरम में आपका स्वागत है।
कहानी:
देवराज चौहान और जगमोहन क़ानून से बचते बचते तंग आ गये थे। ऐसे में उन्होंने फैसला किया कि वो कुछ दिनों के कहीं दूर चले जायेंगे और दस बारह दिन चैन से रहेंगे। अपनी इसी निर्णय को अमलीजामा पहनाते हुए वे लोग देश की सीमा से लगे एक शहर केशवपुरम में पहुँच गये।
लेकिन वह दोनों ही नहीं जानते थे कि केशवपुरम में आकर उन्होंने कितनी बड़ी गलती कर दी थी।
केशवपुरम भारतीय सीमा से लगा एक छोटा सा शहर था जहाँ भारतीय सरकार का नहीं बल्कि गुण्डागर्दी डिपार्टमेंट का अधिकार था। गुजरे तीन सालों से इस शहर में गुण्डागर्दी डिपार्टमेंट अपनी अलग सरकार चला रहा था। इस डिपार्टमेंट के लोग किसी भी तरह का अपराध करने के लिए आज़ाद थे और यहाँ पुलिस एक मूक दर्शक बनी सब कुछ देखती रहती थी।
आखिर किसका था यह गुण्डागर्दी डिपार्टमेंट?
क्यों सरकार भी इस डिपार्टमेंट के आगे पंगु साबित हुई थी?
ऐसा क्या हुआ कि देवराज चौहान और जगमोहन क्यों इस गुण्डागर्दी डिपार्टमेंट से टकरा गये?
और इस टकराव का क्या नतीजा निकला?
ऐसे ही कई सवालों का जवाब यह उपन्यास आपको देगा।
लाला बनारसी दास – केशवपुरम का एक बड़ा व्यापारी
देवराज चौहान – डकैती मास्टर
जगमोहन – देवराज का दायाँ हाथ
कँवरपाल यादव – केशवपुरम में आया नया इंस्पेक्टर
गैंडाराम – एक हवलदार
रंजन जोशी – पुलिस सब इंस्पेक्टर
पिशोरीलाल – गुण्डा गर्दी डिपार्टमेंट का एक बड़ा औहदेदार
लाल साहब – पिशोरीलाल का बॉस
योगेश खन्ना – केशवपुरम का ए सी पी
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मेरे विचार:
गुण्डागर्दी देवराज चौहान श्रृंखला का शुरूआती उपन्यास है जिसे रवि पॉकेट बुक्स द्वारा हाल ही में पुनः प्रकाशित किया गया था। वैसे तो देवराज चौहान के अधिकतर उपन्यास डकैती और उसके बाद होने वाली जटिलताओं पर आधारित होते हैं लेकिन फिर भी यदा कदा लेखक अनिल मोहन ने देवराज और जगमोहन की जोड़ी को लेकर ऐसे उपन्यास लिखे हैं जिसमें डकैती के अलावा कुछ और कारनामे करते नजर आते हैं। कई बार वह क़ानून की मदद भी ऐसे मामलों में करते दिखते हैं जिन्हें कानून के दायरे में रहकर नहीं किया जा सकता है।
गुण्डागर्दी भी उन्हीं कुछ उपन्यासों में से है।
गुण्डागर्दी का घटनाक्रम केशवपुरम नाम के काल्पनिक शहर में घटित होता है। यह शहर भारतीय सीमा के नजदीक है और भारत में मौजूद हैं लेकिन इस पर गुण्डागर्दी डिपार्टमेंट नाम के संगठन ने अधिकार जमा लिया है। यहाँ इस संगठन के लोगों का दबदबा है और जो ये लोग चाहते हैं वही इधर होता है। उपन्यास पढ़ते हुए मेरे जहन में कई पुरानी फिल्मों के दृश्य घूम रहे थे क्योंकि इस प्लाट पर मिथुन और ऐसे ही कलाकारों को लेकर काफी पिक्चरें बनी हैं। ऐसी फिल्मों में अक्सर एक छोटे से शहर में खलनायक का राज होता था और फिर नायक उस राज को चुनौती देता था। मुझे लगता है शायद वही कहानियाँ इस उपन्यास की प्रेरणा रही हो।
वहीं एक दूसरा ख्याल भी पढ़ते हुए मन में आया था। काफी पहले उत्तर पूर्वी राज्यों में भी उग्रवादी संगठनों की समानांतर सरकार चला करती थी जहाँ वो चुंगी और दूसरे कर लोगों से अपने आन्दोलन में योगदान के तौर पर माँगते थे। चूँकि केशवपुरम भी सीमा पर ही मौजूद है तो कई बार पढ़ते हुए उत्तर पूर्वी राज्यों की परिस्थितयों का ध्यान भी मुझे आ रहा था। तो ये भी हो सकता है कि लेखक ने इससे कोई प्रेरणा ली हो।
खैर, केशवपुरम में एक समानांतर सरकार चलती है और यहीं केशवपुरम में देवराज जगमोहन के साथ कुछ दिन बिताने आ जाता है। वह यहाँ की परिस्थितयों से अनजान है और यहाँ आकर उनके साथ कुछ ऐसा हो जाता है कि उसे गुण्डागर्दी डिपार्टमेंट के खिलाफ हथियार उठाने पड़ जाते हैं। वह ऐसा क्यों करता है और इस टकराव का क्या नतीजा निकलता है यही उपन्यास का कथानक बनता है।
देवराज चौहान के उपन्यासों की खासियत तेज रफ्तार कथानक होता है और यही चीजें इधर भी देखने को मिलती हैं। यह उपन्यास शुरूआती है तो जगमोहन और देवराज के बीच के समीकरण में भी फर्क देखने को मिलता है। बाद में उपन्यासों में जगमोहन जब देवराज से बात करता है तो एक तरह का सम्मान का भाव उधर मौजूद रहता है लेकिन यहाँ उनके बीच बेतकल्लुफी ज्यादा है जो कि मुझे पसंद आई। वह इधर बराबरी के दोस्त अधिक लगते हैं। बाद में उपन्यासों में जगमोहन हमेशा देवराज का मातहत ज्यादा लगता है।
हाँ, जगमोहन और देवराज का पैसों को लेकर रवैये में जो फर्क है वह इस उपन्यास में भी दृष्टिगोचर होता है। जगमोहन का व्यवहार कभी कभी हँसा भी देता है।
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उपन्यास के बाकी किरदार कहानी के हिसाब से सही बन पड़े हैं। कँवरपाल यादव एक ईमानदार पुलिसवाला है जो कि सिस्टम के हाथों कैसे मजबूर है यह इधर दर्शाया गया है। अपराध अगर कहीं बढ़ता है तो पुलिसिया मदद के बिना नहीं बढ़ता है यही चीज इधर भी होती है। कँवरपाल यादव की बेबसी हर उस ईमानदार पुलिस वाले की बेबसी है जो कि ऐसे सिस्टम में फँसा हुआ है।
इस उपन्यास में गुण्डागर्दी डिपार्टमेंट की कल्पना जैसी अनिल मोहन ने की है वह मुझे पसंद आई। यह पूरे भारत में फैला संगठन है जिसका अध्यक्ष कौन है यह कोई नहीं जानता है। लेखक के तौर पर यह संगठन कहानियों का एक जखीरा लेखक के लिए साबित हो सकता था। मुझे नहीं पता कि लेखक ने इस डिपार्टमेंट का आगे कभी इस्तेमाल किया या नहीं लेकिन मुझे अच्छा लगेगा अगर एक बार फिर देवराज और उसके साथियों का इस संगठन के सदस्यों के साथ टकराव वो करायें। अगर ऐसे टकराव किसी उपन्यास में हो चुके हैं तो मैं उन्हें जरूर पढ़ना चाहूँगा। अगर आपको नाम पता हों तो जरूर बताइयेगा।
हाँ, इस संगठन को लेकर एक ही बात थी जो मुझे खली थी। वह यह कि इसका नाम रखने में ज्यादा मेहनत नहीं की गयी है। नाम अभी साधारण सा लगता है। जितना खतरनाक यह संगठन है उतना ही इसका नाम भी होना चाहिए था।
उपन्यास की कमियों की बात करूँ तो इसकी एक ही कमी है और वह है देवराज के लिए चीजो का बहुत आसान होना। एक रोमांचकथा में रोमांच तब बढ़ जाता है जब पाठको को यह लगे कि नायक की जान खतरे में है या वो हार जाएगा। लेकिन इधर ऐसा नहीं होता है। गुण्डागर्दी डिपार्टमेंट के लोग खतरनाक है यह बात बार बार बताई जाती है लेकिन उनकी सुरक्षा व्यवस्था में इतनी खामियाँ होती हैं कि देवराज को उन्हें मारने के लिए ज्यादा मुश्किल नहीं आती है।
उदाहरण के लिए:
सबसे पहले गुंडागर्दी डिपार्टमेंट के खिलाफ जो काम देवराज और जगमोहन करते हैं वो उनका जुआघर लूटना होता है। यहाँ वो लोग मैनेजर से जुएघर में रखी नगदी को लूट लेते हैं और उसे एक कमीज में बाँध कर ले जाते हैं। अब यह बात समझ आती है कि मैनेजर के दफ्तर में ज्यादा लोग नहीं थे तो उन्होंने उन पर काबू कर दिया। फिर चूँकि शहर पर अधिकार डिपार्टमेंट का है तो उन्होंने तिजोरी को अलग रखने का विचार नहीं किया। लेकिन जब देवराज और जगमोहन कमीज में बंधे रूपये ले जा रहे हैं तो उन्हें दरबान तक नहीं रोक रहा है तो थोड़ा हैरानी होती है। वहाँ पर चेकिंग कम से कम होनी चाहिए थी या देवराज और जगमोहन को इस बारे में बातें तो जरूर करनी चाहिए थी।
दूसरी बात यह है कि देवराज आसानी से गुंडागर्दी डिपार्टमेंट के हेडक्वार्टर में जाकर लोगों को मार गिराता है। यह बात समझ आती है कि अब तक उन्हें हेड क्वार्टर में सी सी टीवी कैमरे लगाने की जरूरत नहीं पड़ी थी क्योंकि उन्हीं का शहर में अधिकार था। लेकिन फिर इतना कत्लेआम होने के बाद गुण्डागर्दी डिपार्टमेंट के बड़े ओहदेदार उसी इमारत के बाहर लॉन में अपनी मीटिंग सजाते हैं तो उनकी अक्ल पर हैरानी जरूर होती है। ऐसी ही हैरानी शिव कुमार राणा वाला प्रसंग और फिर भट्टी वाले प्रसंग में होती है।
मुझे लगता है अगर उपन्यास के मुख्य किरदारों की परेशानियाँ थोड़ी ज्यादा खतरनाक होती तो उपन्यास और अधिक रोमांचक हो सकता था। अभी तो देवराज सभी को गाजर मूली की तरह काटता हुआ लगता है और उसको हल्की से खरोंच भी नहीं आती है।
अंत में यही कहूँगा कि गुण्डागर्दी एक बार पढ़े जा सकने वाला मनोरंजक उपन्यास है। कथानक तेज रफ्तार है तो आपको कहीं पर भी बोर नहीं करता है। हाँ, चूँकि देवराज के लिए चीजें लेखक ने काफी आसान कर दी थी तो उपन्यास में रोमांच की कमी थोड़ी दिखती है। अगर लेखक देवराज को अच्छे खलनायक देते तो उपन्यास और अधिक मनोरंजक बन सकता था। गुण्डागर्दी डिपार्टमेंट का कांसेप्ट अच्छा है और इसे लेकर और कथानक बन सकते हैं। अगर ऐसा होता है तो मैं उन उपन्यासों को जरूर पढूँगा।
इस किताब में उपन्यास के साथ आबिद रिज़वी द्वारा लिखा गया लघु उपन्यास खूबसूरती का कत्ल भी प्रकाशित किया गया है। लघु-उपन्यास की समीक्षा निम्न लिंक पर जाकर पढ़ी जा सकती है:
खूबसूरती का कत्ल
अमेज़न में मौजूद अनिल मोहन के उपन्यास:
अनिल मोहन
© विकास नैनवाल ‘अंजान’
बहुत अच्छी समीक्षा विकास जी ।
जी आभार सर…