काम्बोजनामा: किस्सा किस्सागो का | राम ‘पुजारी’ | नीलम जासूस कार्यालय

संस्करण विवरण

फॉर्मैट: पेपरबैक | पृष्ठ संख्या: 338 | प्रकाशक: नीलम जासूस कार्यालय 

पुस्तक लिंक: अमेज़न  

काम्बोजनामा: किस्से किस्सागो के | राम 'पुजारी' | नीलम जासूस कार्यालय

वेद प्रकाश कांबोज कौन हैं? अगर यह बात आप मुझसे आज से सात आठ (2014-15) साल पहले पूछते तो शायद ही मुझे पता होता। मैंने हिंदी लोकप्रिय लेखन उसी वक्त पढ़ना शुरू किया था और उस दौरान मार्केट में वेद प्रकाश शर्मा, अनिल मोहन और सुरेन्द्र मोहन पाठक के उपन्यास ही मौजूद रहते थे। ऐसे में वेद प्रकाश कांबोज का नाम न जान पाना कोई हैरत की बात नहीं थी। लेकिन धीरे धीरे जब लोकप्रिय लेखन के विषय में जाना तो अहसास हुआ कि वेद प्रकाश कांबोज हिंदी लोकप्रिय लेखन के वो सितारे हैं जिन्होंने लोकप्रिय लेखन के नभ पर अट्ठारह वर्ष की उम्र में (1957) टिमटिमाना शुरू कर दिया था और फिर दो दशकों तक ऐसा चमका कि उसके प्रकाश से लोकप्रिय लेखन का नभ चौंधिया गया। इन दो दशकों में उसने 450 के करीब उपन्यास लिखे जो कि अपराध साहित्य और सामाजिक विधा के थे। 

हिंदी लोकप्रिय लेखन में ऐसे कई अनेक सितारे हुए है जिन्होंने अपने समय में धूम मचाई है लेकिन अंग्रेजी की तरह उनका दस्तावेजीकरण नहीं किया गया है। उनके उपन्यास समय की रेत में खो गए क्योंकि वो रचनाक्रम में इस तरह डूबे रहे कि खुद उन्हें भी उन्हें संरक्षित करने के विचार नहीं आया। वहीं चूँकि लेखकों और लेखन को दोयम दर्जे का समझा जाता था तो उसका भी कोई दस्तावेजीकरण नहीं ही हुआ। लेकिन अब यह काम हो रहा है और कांबोजनामा इसी शृंखला की एक और कड़ी है। 

राम पुजारी द्वारा लिखी गई कांबोजनामा वेद प्रकाश कांबोज की जीवनी नहीं है बल्कि वह उनके लेखकीय जीवन के कई महत्वपूर्ण पड़ावों को दर्शाती हुई किताब है। लेखक पुस्तक की शुरुआत में लिखते भी हैं:

ये पुस्तक न तो कोई जीवनी है और न ही कोई उपन्यास। ये तो बस वरिष्ठ लेखक वेद प्रकाश कांबोज जी के साथ उनके दोस्तों मित्रों, साथी लेखकों-प्रकाशकों, बुजुर्ग एवं युवा पाठकों के साथ उनके भाइयों और पारिवारिक सदस्यों से हुई बातचीत के आधार पर कांबोज जी के लेखकीय और व्यक्तिगत जीवन में झाँकने की और लेखन से संबंधित उनकीर मानसिक आवारगी को समझने की कोशिश भर है। 

ऐसे में आप समझ  सकते हैं कि इसमें लेखक के जीवन के हर पहलू को नहीं दर्शाया गया है। उनके लेखकीय जीवन से जुड़े लगभग सभी पहलू इधर आते हैं। अट्ठारह वर्ष की उम्र से शुरू हुई अपनी लेखकीय पारी को अभी 81 वर्ष की उम्र तक निभाते निभाते लेखक वेद प्रकाश कांबोज का लेखकीय जीवन कैसा रहा यह इस पुस्तक को पढ़कर जाना जा सकता है।

यह पुस्तक छः खंडों में विभाजित है जिसमें हर खंड छोटे छोटे अध्यायों में विभाजित हैं जो कि वेद प्रकाश कांबोज के लेखकीय जीवन पर तो रोशनी डालते ही हैं साथ ही उस वक्त के उनके विभिन्न प्रकाशकों, लेखकों और यारों के साथ के किस्सों को भी पाठक के सामने उजागर करते हैं। पढ़ते हुए ऐसा लगता है कि आप वेद से वेद प्रकाश, वेद प्रकाश से वेद प्रकाश कांबोज, वेद प्रकाश कांबोज से कांबोज और कांबोज से कांबोज जी बनने के सफर को देख रहे हैं। अगर आप लेखन की इस विधा में रुचि रखते हैं तो यह किस्से आपकी इस विधा, इस विधा को रचने वालों के जीवन और इस विधा के एक महत्वपूर्ण लेखक के जीवन के विषय में आपकी जानकारी का इजाफा करेंगे। इसके साथ साथ यह भी दर्शाएँगे कि कैसे लेखन के क्षेत्र में एक विस्तृत फलक आपके पास होता है और अपने आप को बांध कर रखने की मजबूरी आपके पास नहीं होती है।

पुस्तक की भाषा आपको बाँध कर रखती है और आप कहानी में बह से जाते हैं। इस यात्रा में आप लेखकों की अड्डे बाजी देखते हैं, लेखकों के प्रेरणा स्रोतों से मिलते हैं, लेखक के जवाहर चौधरी जैसे यारों से मिलते हैं जो लेखन तो नहीं करते लेकिन लेखक को सही दिशा देने की कुव्वत जरूर रखते हैं। आप इस पुस्तक के माध्यम से उन किस्सों को जान पाते हैं जिन्हें कभी वेद प्रकाश कांबोज जी को उनके गुरुओं  और साथियों ने सुनाया था और साथ ही ऐसे गुरु मंत्रों से भी वाकिफ़ होते हैं जो कि आज के लेखक के लिए भी उतने ही कारगर हैं जितने उस वक्त वेद प्रकाश कांबोज के लिए थे। 

लेखन में राम पुजारी द्वारा एक प्रयोग किया गया है जिसमें उन्होंने वेद प्रकाश और उनके साथियों द्वारा लगने वाली अड्डेबाजी को को लेखकों के किरदारों के माध्यम से दर्शाया है। यह प्रयोग भी रोचक रहा है और पढ़ते हुए मेरा मन कर रहा था कि ऐसी मंडली में शामिल होने का मुझे भी मौका मिलता तो मैं हर हफ्ते इसमें शामिल होने पहुँच जाता। 

 किताब की कमी की बात करूँ तो कुछ बातें ऐसी थी जो कि किताब में होती तो शायद किताब और बेहतर होती। जैसे:

लेखक ने किताब का खंड चार लेखक के ऐतिहासिक घटनाक्रम को दर्शाती रचनाओं को दिया है जहाँ इन रचनाओं का जिक्र काफी गहराई से करते हैं जो कि पाठक के लिए वेद प्रकाश कांबोज के जीवन के इस हिस्से को समझने के लिए जरूरी होगा लेकिन शुरुआती भाग में लेखक इतने विस्तृत नहीं होते हैं। मसलन कंगूरा के प्रकाशन की बात तो वो करते हैं लेकिन उसके लिखने के अनुभव पर कोई रोशनी नहीं डालते हैं। मुझे लगता है कंगूरे लिखने के अनुभव पर और लिखा जा सकता था। जैसे उसकी कहानी बुनने का विचार कैसे आया? कहाँ कहाँ पर दिक्कत आयी? किधर किधर बदलाव किये? इत्यादि। 

ऐसे ही कांबोज जी ने कई अपराध कथाएँ और सामाजिक उपन्यास लिखे हैं। इनमें से चुनिंदा उपन्यासों की रचना प्रक्रिया पर भी बात हो सकती थी। मसलन, उनके विचार कहाँ से आए? क्या कोई विशेष घटना थी जिससे प्रेरित होकर उन्होंने उन्हें लिखा था? 

ऐसे ही लेखन में वेद जी द्वारा रचे विजय और ठाकुर साहब के पीछे की प्रेरणाओं पर तो बात होती है लेकिन किसी और किरदार पर इतनी बातचीत नहीं होती है। मुझे लगता है उनके सामाजिक और अपराध साहित्य के कुछ विशेष किरदारों और उनको बनाने की प्रक्रिया पर बातचीत होती तो बेहतर होता। इससे न केवल आज के पाठक भी उन किरदारों के विषय में उत्सुक होते लेकिन वो लोग जो लेखन करना चाहते वो भी कुछ सीख पाते। 

एक लेखक के जीवन में अच्छे और बुरे दोनों अनुभव होते हैं। इस तरह की किताबों में अगर कटु अनुभव हो तो वह नवीन लेखकों के लिए सीखने का जरिया बन सकती है लेकिन लेखन के व्यापार से जुड़े ऐसे अनुभव कम ही देखने को मिलते हैं।

मसलन,  पुस्तक में एक जगह वेद प्रकाश कांबोज द्वारा प्रकाशन की शुरुआत करने का जिक्र है लेकिन बंद करने के कारणों में फोकस नहीं किया गया है। उसे बस निपटा दिया गया है। प्रकाशन का कार्य कई लेखकों ने करने की कोशिश की है लेकिन अधिकतर इसमें फेल ही हुए हैं। वो क्या परेशानी होती हैं जो कि व्यवसाय में आती हैं इस सबका जिक्र होता तो कई लोगों के लिए वह एक सीख ही होती। 

पुस्तक की एक और कमी है इस पुस्तक में एक शख्स के जिक्र से बचने की कोशिश करना। कांबोजनामा लेखक वेद प्रकाश कांबोज के लेखकीय जीवन के किस्से हैं और इस लेखकीय जीवन में उन्होंने अपना पहला गुरु पन्नालाल पाठक को कहा है लेकिन लेखक राम पुजारी पन्ना लाल पाठक के सुपुत्र लेखक सुरेन्द्र मोहन पाठक के जिक्र से बचते हुए दिखते हैं। यह चीज पुस्तक में छपी तस्वीरों के चयन में भी देखने को मिलती है। 

जो लोग हिन्दी लोकप्रिय लेखन की दुनिया से वाकिफ हैं तो उन्हें ज्ञात होगा कि जबसे लेखक सुरेन्द्र मोहन पाठक की आत्मकथा आई थी तभी से उसमें मौजूद कुछ चीजों को लेकर लेखक वेद प्रकाश कांबोज जी और कांबोज जी के प्रशंसक लेखक सुरेन्द्र मोहन पाठक से नाराज से हो गए थे। हालत ये तक थी कि दोनों लेखकों के प्रशंसक एक दूसरे के प्रिय लेखक पर तंज कसते हुए नजर आते थे। कई तो आज भी करते हैं। मैंने चूँकि आत्मकथा नहीं पढ़ी है तो मुझे नहीं पता है कि उसमें क्या लिखा था लेकिन मुझे व्यक्तिगत तौर पर दोनों प्रशंसकों का रवैया बचकाना ही लगता था। आज भी कई बार सुरेन्द्र मोहन पाठक और वेद प्रकाश कांबोज के प्रशंसक व्हाट्सएप ग्रुप्स में भिड़ते हुए दिख जाते हैं और यह चीज बचकानी होती है। खैर वो तो सोशल मीडिया की बात है लेकिन ये पुस्तक है  और पुस्तक लिखना एक जिम्मेदारी का कार्य होता है।  ऐसे में ऐसे व्यक्ति का न होना जिसके साथ वेद प्रकाश कांबोज की 11 वर्ष से मित्रता थी पुस्तक में थोड़ा सा अधूरेपन का अहसास दिलाता है। मसलन पुस्तक में एक जगह लिखा है:

जनप्रिय ओम प्रकाश शर्मा, जिन्हें कांबोज जी अपना गुरु मानते हैं, के सानिध्य में आने के बाद वेद के लेखकीय जीवन में क्या-क्या क्रांतिकारी परिवर्तन आए, ये जानने से पहले एक और अत्यंत ही महत्वपूर्ण व्यक्ति की चर्चा करना आवश्यक है जिनके बारे में कांबोज जी का मानना है कि उनके लेखकीय जीवन को ठोस आधार प्रदान करने का सबसे पहला प्रयास उन्होंने ही किया है। वह सज्जन थे – बाबू पन्नालाल पाठक। हिन्दी जासूसी साहित्य के लेखक सुरेन्द्र मोहन पाठक के पिता श्री। जिनके घर में वेद का  11-12 साल की उम्र से ही आना जाना था। किन्तु आमना-सामना होने पर कभी भी नमस्ते से आगे का कोई सिलसिला नहीं बना। जबकि परिवर के अन्य सदस्यों से वेद खूब खुला हुआ था। 

यह पढ़कर आप सोच में पढ़ जाते हो कि लेखक वेद प्रकाश कांबोज जिस वजह से पाठक जी के यहाँ थे वो यहाँ क्यों नहीं है। ऐसे ही जब आप लेखक वेद प्रकाश कांबोज के युवावस्था से ही लेखन और साहित्य के विषय में पढ़ते हैं तो आपको इस पुस्तक में उनके हम उम्र दोस्तों की कमी सी दिखती है। यह पुस्तक के एक अधूरेपन का अहसास कराता है। 

पुस्तक के कई अंश पढ़कर लगता है कि कांबोज परिवार को उनके दोस्त ने ठेस पहुंचाई है और उनका आहत होना लाजमी भी है लेकिन यह पुस्तक एक बड़े मकसद के लिए लिखी गई थी। ऐसे में राम पुजारी की जिम्मेदारी केवल पुस्तक को बेहतर बनाने के ऊपर होनी चाहिए थी। मेरी व्यक्तिगत सोच यही है कि लेखक राम पुजारी को इधर से दोस्त को यूँ गायब नहीं करना चाहिए था। उन्हें वस्तुनिष्ठ होकर कांबोज जी के लेखकीय जीवन और दोस्त के साथ लेखकीय जीवन से जुड़े किस्सों को दर्ज करना चाहिए था। इससे उनकी पुस्तक की गुणवत्ता और वस्तुनिष्ठता ही बढ़ती। 

यहाँ मैं पुस्तक में दिए गए गुरु मंत्र का जिक्र करना चाहूँगा जिसमें जवाहर चौधरी वेद जी को समझाते हुए कहते हैं:

बल्कि मैं तो कहूँगा कि हर आदमी के नजरिए को ध्यान से समझने की कोशिश करो कि वह अगर ऐसा सोच रहा है है या कह रहा है तो उसका कारण क्या है। साथ ही एक लेखक के रूप में तुम्हारा यह फर्ज बनता है कि तुम किसी खास नजरिए के खूँटे से न बंधने पाओ। एक लेखक के लिए आवश्यक है कि वह अपनी दृष्टि को विशाल रखे और हर प्रकार की संकीर्ण सोच से स्वयं को बचा कर रखें। तभी वह अपने लेखन के साथ न्याय कर पाएगा। 

यह गुरुमंत्र मूल रूप से वही बात कह रहा है जो मैंने कहने की कोशिश की है। 

इसके अतिरिक्त पुस्तक पढ़ते हुए मेरे मन में भी दो-तीन प्रश्न थे जो कि मैं वेद जी से पूछता। 

पहला ये कि  खंड चार में हम लेखक वेद प्रकाश कांबोज की उस यात्रा के विषय में जानते हैं जिसमें वह साहित्यिक लेखन की ओर मुड़ गए थे और ऐतिहासिक महापुरुषों के ऊपर लेखन करने लगे थे। इसके अतिरिक्त भी कुछ उपन्यासों के हार्डकवर संस्करण आए थे लेकिन इनके पेपरबैक संस्करण नहीं आए। मुझे कभी भी इस बात का तुक समझ नहीं आया और न इस पुस्तक में इसका जिक्र है। अगर मेरे बस में होता तो मैं यह प्रश्न अवश्य करता कि वेद प्रकाश कांबोज जी का यह साहित्यिक लेखन पेपरबैक में क्यों नहीं आता और क्या लेखक ने इस विषय पर कांबोज जी से बात की? अगर की तो इसका क्या जवाब मिला? ऐसा इसलिए क्योंकि साहित्य जब महंगा होता है तो वह कम लोगों तक ही पहुँच पाता है। 

दूसरा ये कि जब वेद जी ने साहित्यिक लेखन करने की ठानी तो उन्होंने क्या अपने समय के समाज को केंद्र में रखकर भी कुछ लिखने की कुछ सोची। क्योंकि साहित्य केवल ऐतिहासिक महापुरुषों पर लिखना ही नहीं होता बल्कि अपने समय के समाज को दर्शाना होता है। ऐसे में मैं प्रश्न जरूर करता कि क्या वेद प्रकाश कांबोज पाठकों को कुछ ऐसा पढ़ने को देंगे जो कि आज के वक्त से जुड़ा हुआ हो?

तीसरा प्रश्न यह था कि जब उन्होंने लेखन किया तो वो 18 वर्ष के थे और लगभग दो दशक तक उन्होंने जासूसी और समाजिक उपन्यासों की रचना की। इस दौरान उनकी लेखन प्रक्रिया में क्या बदलाव आया? मसलन  भाषा, विषय वस्तु का चुनाव या लेखन करने के तरीके में उन्होंने अपने अंदर कुछ बदलाव महसूस किया या नहीं? अगर किया तो वो बदलाव क्या थे?

अंत में यही कहूँगा कि कांबोजनामा लोकप्रिय लेखन के प्रशंसक के लिए एक जरूरी दस्तावेज है जो कि हिंदी लोकप्रिय लेखन के जरूरी हस्ताक्षर वेद प्रकाश कांबोज के साथ आपका परिचय करवाता है। इसे पढ़कर न केवल आप कांबोज जी के लेखकीय जीवन के विभिन्न पड़ावों के विषय में जानकारी पाते हैं बल्कि उनके लेखकीय जीवन से जुड़े कई और रोचक लोगों की जानकारी पाते हैं। ऊपर कुछ बातों का जिक्र है जो पुस्तक में होती तो यह पुस्तक अच्छी से और अच्छी बन जाती लेकिन उनके बिना भी यह पुस्तक लोकप्रिय लेखन में रुचि रखने वाले लोगों द्वारा एक बार पढ़ी जानी चाहिए। 

 पुस्तक लिंक: अमेज़न 


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About विकास नैनवाल 'अंजान'

विकास नैनवाल को अलग अलग तरह के विषयों पर लिखना पसंद है। साहित्य में गहरी रूचि है। एक बुक जर्नल नाम से एक वेब पत्रिका और दुईबात नाम से वह अपनी व्यक्तिगत वेबसाईट का संचालन भी करते हैं।

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4 Comments on “काम्बोजनामा: किस्सा किस्सागो का | राम ‘पुजारी’ | नीलम जासूस कार्यालय”

  1. संशोधित संस्करण पर काम चालू है।
    आपके उठाए गए सवाल वाज़िब हैं।
    आपने पुस्तक पर इतना विस्तृत लेख लिखा उसके लिए आभार।

    1. जी आभार। संशोधित संस्करण की प्रतीक्षा रहेगी। 🙏🙏🙏

  2. राम पुजारी द्वारा लिखित 'काम्बोजनामा' एक मील का पत्थर रचना है। लोकप्रिय साहित्य में ऐसा काम
    बहुत कम देखने को मिला है।
    राम पुजारी जी प्रशंसा के पात्र हैं जो इस क्षेत्र में सराहनीय कार्य कर रहे हैं।
    प्रस्तुत रचना में बहुत कुछ बाकी रह गया। वहीं कहीं कहीं यह भी प्रतीक होता बहुत कुछ जानबूझ कर छोड़ दिया गया है।
    फिर भी एक अच्छी रचनापर अच्छी समीक्षा ।
    धन्यवाद

    1. जी सही कहा। ऐसी रचनाओं की जरूरत है। कई और लेखक हैं जिनके विषय में लिखा जाना बाकी है। लेख आपको पसंद आया यह जानकर अच्छा लगा। आभार।

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