स्वेच्छा | ओल्गा | आर शांता सुंदरी

संस्करण विवरण

फॉर्मैट: पेपरबैक | पृष्ठ संख्या: 138 | प्रकाशक: राष्ट्रीय पुस्तक न्यास | अनुवादिका: आर शांता सुंदरी | मूल भाषा: तेलुगु

पुस्तक लिंक: अमेज़न

कहानी 

अरुणा को लगता है कि उसके घर में  मौजूद लोगों का एक काम उसको टोकना ही रह गया है। वह कुछ भी करे लेकिन उनका उसको टोकना जरूरी है। अपनी इच्छा से वह साँस भी नहीं ले सकती है। 
अब अरुणा की एक ही इच्छा है कि वह स्वेच्छा से अपना जीवन जी सके।
क्या उसकी यह इच्छा पूरी होती है? 
वह अपनी इस इच्छा की पूर्ति के लिए क्या करती है? 
अपने निर्णय के कारण उसके जीवन में क्या बदलाव आते हैं?

मुख्य किरदार 

अरुणा – कथा नायिका 
जानकीरमैया – अरुणा के पिता
सीतम्मा – अरुणा की माँ 
गोपालराव – अरुणा का भाई
सुशीला – अरुणा की भाभी
उमा – अरुणा की दोस्त
कनकम्मा – अरुणा की विधवा बुआ जो उनके घर ही रहती थी
प्रकाशम् – अरुणा का प्रेमी 
कमलम्मा – अरुणा की सास प्रकाशम् की माँ
केशवराव – अरुणा का सहकर्मचारी 
कृष्णमूर्ति – एक शिक्षक जो कि उजाला पत्रिका का संपादक भी था 
सुजाता, भारती – बी ए की छात्राएँ जो कि पत्रिका में सहयोग देती थीं
सुधीर – उमा का प्रेमी 

मेरे विचार

मनुष्य की मूलभूत इच्छाओं की बात की जाए तो स्वतंत्रता से जीना भी उसकी एक इच्छा में शामिल होता है। व्यक्ति चाहता है कि वह अपनी मर्जी से अपने मन मुताबिक जितना हो सके जी सके। परंतु भारतीय रूढ़िवादी परिवार, जहाँ पर अक्सर इज्जत की टोकरी औरतों के सिर पर रख दी जाती है, में देखा गया है कि एक उम्र के बाद एक स्त्री की स्वतंत्रता पर लगाम कस दी जाती है। उसके हँसने बोलने, पढ़ने लिखने, घूमने-फिरने को लेकर टोका टाकी अक्सर होने लगती है। फिर यह टोकाटाकी अक्सर शादी, जिसमें भी अक्सर परिवार की मर्जी चलती है, के बाद भी लगी रहती है। ऐसे माहौल में एक स्त्री का छटपटाना लाजमी है। हम लोग शहरों में रहते हैं और सोचते हैं कि यहाँ स्त्रियाँ तुलनात्मक रूप से अधिक आजाद हैं लेकिन अगर सही से देखें तो ऐसा न हो। वह भी आजादी के लिए छटपटाती होंगी। 

स्त्री की इसी छटपटाहट को तेलुगु लेखिका पी ललिता कुमारी ने मुख्य रूप से अपने प्रस्तुत उपन्यास ‘स्वेच्छा’ में दर्शाया है। यह उपन्यास प्रथम बार 1987 में प्रकाशित हुआ था। पी ललिता कुमारी अपने लेखकीय नाम ओल्गा/वोल्गा (हिन्दी संस्करण में नाम ओल्गा दिया है और अंग्रेजी में वोल्गा) से लिखती हैं। मूल रूप से तेलुगु में लिखे इस उपन्यास का हिंदी अनुवाद आर शांता कुमारी ने किया है और अनुवाद अच्छा हुआ है। पढ़ते हुए यह अहसास कम होता है कि यह एक अनुवाद है।  

उपन्यास की बात की जाए तो यह अरुणा की कहानी है। अरुणा का जीवन में एक ही सपना है और वह यह कि वह अपने हिसाब से अपनी इच्छा अनुसार जीवन जी सके। 

जब तक अरुणा घर में होती बुआ उसकी हर एक हरकत पोर नजर रखती। यह देखकर अरुणा को बहुत बुरा लगता था। 

स्कूल खत्म करके कॉलेज में दाखिला लेने के बाद कनकम्मा की यह बीमारी, घर के अन्य सदस्य – माँ-बाप, भाई-भाभी सको लग गई। 

अरुणा का साँस लेना, चलना, नहाना, पाउडर लगाना, हर एक बात से किसी न किसी को आपत्ति होती थी। 

और किसी एक विषय में एकमत हो या अन हो, पर अरुणा को सताने में, उस पर रोक-टोक लगाने में, उसे सीख देने में, सब एकमत हो जाते थे। (पृष्ठ 4)

पर ऐसा होता नहीं है। उपन्यास में हम देखते हैं कि कैसे पहले उसके घर वाले उसके जीवन में रोक टोक करते हैं और फिर जब वह आजादी की उम्मीद से अपने प्रेमी प्रकाशम् से अपने घर वालों की इजाजत के बिना विवाह भी करती है तो यह रोक टोक प्रकाशम् के रूप में चालू रहती है। आखिर स्वेच्छा से जीने के आपने सपने को वह किस तरह पाती है यही उपन्यास में दर्शाया गया है। 

अक्सर हमें जब प्रेम होता है तो हम समझते हैं कि हमें प्रेम मिल जाए तो सब कुछ मिल जाएगा। ऐसे में प्रेमी अक्सर अपने जीवन के नजरिए में मौजूद फर्क को भी ताक में रखकर अपने प्रेम को पाने के लिए कुछ भी कर गुजरते हैं लेकिन फिर जब प्रेमी मिल जाते हैं तो जीवन को जीने के नजरिए का यही फर्क टकराव की वजह बनता है। अरुणा ने जब प्रकाशम् से शादी की थी उसे लगा था कि वह उसका प्रेमी है, पढ़ा लिखा है और उसकी आजादी का पक्षधर है और इस कारण शादी करके उसे अपने घर के घुटनभरे वातावरण से आजादी मिलेगी लेकिन जब विवाह हो जाता है तो वह पाती है कि प्रकाशम् उसकी आजादी को तब तक ही सहन कर सकता है जब तक कि वह उसके बनाए दायरे में रहे। अगर वह उस दायरे से बाहर जाने की कोशिश करती है या ऐसा कुछ करना चाहती है जो कि प्रकाशम् नहीं चाहता तो उसे यह बर्दाश्त नहीं होता है। 

यहाँ पर कुछ कुछ गलती शायद अरुणा की भी है जिसका अहसास उसे आगे चलकर होता दिखता है। साथ जीवन जीने के लिए मेरे ख्याल से यह जरूरी होता है कि जो लोग साथ जीवन जीने का फैसला कर रहे हैं उनके जीवन को लेकर नजरिया एक समान हो। अगर बिल्कुल समान न भी तो उनमें इतनी परिपक्वता हो कि वह एक दूसरे को अपने नजरिए के बंधन में न बांधे और इतनी स्वतंत्रता दें कि व्यक्ति को जकड़न महसूस न हो। 

“मेरा मीटिंग में जाना तुम्हें क्यों पसंद नहीं है?”

“इन सब बातों से हमारा जीवन अशांति से भर जाएगा, अरुणा! हमारे जीवन में उन विषयों का होना मुझे पसंद नहीं है जिनसे मेरा कोई संबंध न हो। तुम, मैं, हमारे बच्चे और हमारा घर! ऐसा जीवन, जिसमें कोई भी कमी न हो। ये सब मुझे चाहिए। तुम्हारा जीवन मेरे लिए और हमारे बच्चों के लिए हो और मैं तुम्हारे लिए जिऊँ। बस! इससे बाहर के विषयों से तुम सबंध रखो, जिससे मेरा कोई नाता न हो, या मेरे जीवन का कोई ऐसा पहलू हो जिससे तुमहरा संबंध न हो, यह बिल्कुल नहीं होना चाहिए। अरुणा! मेरी बात मान जाओ, ये मीटिंग-वीटिंग छोड़ो!” प्रकाशम् ने विनती करते हुए कहा।  (पृष्ठ 91)

“बोलो! बोलती क्यों नहीं? मैं इन झमेलों को और सह नहीं सकता। ये सब बंद करोगी या नहीं?”

प्रकाशम् उसे छोटी बच्ची की तरह डाँट रहा था, उसी को स्थिर दृष्टि से देखते हुए अरुणा ने कहा, “बंद नहीं करूँगी!” 

“नहीं करोगी?” प्रकाशम् का हाथ उठ गया। 

कमलम्मा ने प्रकाशम् का हाथ पकड़कर, “बस करो! चलो, हटो!” कहकर उसे कमरे में धकेला। 

मुन्नी घबराई हुई खड़ी थी। उसे कमलम्मा ने गोद में उठा लिया। 

“बेटी! तुम तो बड़ी जिद्दी हो! यह ठीक नहीं हैं। जो काम् उसे पसंद नहीं है, वह करती क्यों हो? यह झगड़ा क्यों मोल लेती हो?” अरुणा कमलम्मा की बातों की अनसुनी करके वहीं जमीन पर बैठ गई। 

“मारने को तैयार हो गया!”

उसकी मर्जी के खिलाफ काम् करने पर नाराज होता है, गाली देता है और मारता है। 

किसी न किसी तरह से वह काम् बंद कराने की कोशिश करता है। (पृष्ठ 102)

हमें अक्सर लगता है कि कम पढ़े लिखे लोग ही रूढ़िवादी होते हैं लेकिन ऐसा नहीं है। अरुणा के जीवन में पढे लिखे और अनपढ़ दोनों तरह से लोग आते हैं। उदाहरण के लिए अरुणा की बुआ और उसकी सास दोनों ही कम पढ़ी लिखी  हैं लेकिन जहाँ अरुणा की बुआ उसके जीवन में बंदिश लगाने से बाज नहीं आती है वहीं उसकी सास उसे समझती है। उसकी सास ने दुनिया से लड़कर अपने परिवार वालों का भरण पोषण किया है और इसलिए वह आजादी की कीमत जानती हैं और उसके आस-पास के पढे लिखे लोगों से भी कई गुना ज्यादा अरुणा की छटपटाहट समझती हैं।वह अपने लड़के को तो समझाती ही हैं साथ में अरुणा का साथ भी देती हैं। वहीं कई जगह बच्ची की खुशी के लिए अपनी बहु को भी समझाती दिखती हैं।  ऐसी सास अगर सब बहुओं को मिलें तो शायद सास बहु के विषय में जो पूर्वाग्रह प्रचलित हैं वह दूर हो जाएँ। 

“मेरी माँ तुम्हारी आदत खूब बिगाड़ रही है!”, प्रकाशम् बोला। 

“क्या कह रहे हो, बेटे?”

“देवी जी कॉलेज से आकर तेरी सेवा नहीं करती, उल्टे तुम उसकी सेवा करती हो।”

“सेवा कैसी? मेहनत का काम करती है। घर आने पर कोई एक प्याला चाय बनाकर दे दे तो कितना अच्छा लगता है! तेरा भाई जब पढ़ रहा था, तो मैं खेत पर जाती थी। जब लौटती तो तो तुम सब लोग मेरे इंतजार में बैठे होते थे। तुम सब का काम् निपटाकर, गर्म पानी से नहाकर कॉफी पीने में कभी-कभी आठ बज जाते थे। तुम लोग खाने के लिए इंतजार करते थे। मैं सोचती थी कि काम् करके घर लौटने पर कोई एक प्याली कॉफी बनाकर पीला देता तो कितना अच्छा हो!” कमलम्मा ने बेटे दिन याद किए। (पृष्ठ 45) 

इसके अतिरिक्त अरुणा के जीवन में केशवराव जैसे पढ़े लिखे लोग भी आते हैं जो कि आजाद ख्याल लोगों  को पसंद तो करते हैं लेकिन खुद की घर की औरतों के लिए वह आजादी उन्हें पसंद नहीं है। वहीं कृष्णमूर्ति जैसे लोग भी है जो कि दुनिया बदलने की बात तो करते हैं लेकिन जब असल में कुछ करने का मौका आता है तो वह बस मूकदर्शक बन जाते हैं। वह चाहते हैं कि अगर औरतें कुछ कर रही है तो उसमें उसके घर वालों की इजाजत हो और अगर इजाजत न हो तो वह न करें। 

अरुणा की साँस रुकने लगी। यह सब क्या है?

बाहर हो रहे अत्याचार से इतना परेशान होने वाला केशवराव अपनी पत्नी का ख्याल क्यों नहीं करता?

उनके बारे में पत्नी को क्यों नहीं बताया? उसे मीटिंग में क्यों नहीं लाया?

अगर पत्नी को इन सब बातों में दिलचस्पी न हो तो वह अलग बात है। पर वह खुद अपने काम् के बारे में पत्नी को नहीं बताता। अपने अनुभवों को उसके साथ नहीं बाँटता – कितने दुख की बात है!

केशवराव ने कभी कहा था कि दुनिया के बारे में और लोगों के बारे में जानना बड़ा अच्छा लगता है!

उसे सारी दुनिया की बातों में शरीक होना है, पर उसकी पत्नी के लिए तो सारा संसार पति ही होना चाहिए! ऐसा सोचने पर अरुणा के मन में केशवराव के लिए जो आदर का भाव था, वह लुप्त हो गया। 

प्रकाशम्भी चाहता है कि मैं परिवार को छोड़कर बाहर की किसी बात में दिलचस्पी न लूँ। 

पर… 

वह भी यही चाहता है कि पत्नी और बच्ची को छोड़कर उसके लिए कोई दूसरी दुनिया न हो। वह सिर्फ अपने परिवार के लिए ही जीना चाहता है। 

केशवराव तो प्रकाशम् से भी गया गुजरा है! (प्रश्न 108)

 

“मेरा वहाँ जाना उन्हें अच्छा नहीं लगा। मुझसे खूब झगड़ा किया! अब मुझे क्या करना चाहिए- बोलिए?”

केशवराव उधेड़बुन में पड़ गया। 

“छोड़ देना ही शायद अच्छा होगा?”

“क्या छोड़ देने की सलाह देते है?”

“वे जब तक जारी होकर मान नहीं लेते, तब तक काम बंद कर लीजिए। उन्हें मनाने की कोशिश कीजिए।”

“वे कभी नहीं मानेंगे!”

“तो क्या कर सकती हैं? छोड़ दीजिए!”

अरुणा के आश्चर्य की सीमा नहीं रही। (पृष्ठ 123)

उपन्यास में अरुणा की दोस्त उमा भी है। उसे भी अपनी स्वतंत्रता प्यारी है और वह एक बार अरुणा को उसके शादी के निर्णय पर टोकती है। ऐसा नहीं है कि उमा के जीवन में प्रेम नहीं है लेकिन उसने ऐसा तरीका अपनाया है कि वह प्रेम उसका बंधन नहीं बन सकता है। लेकिन मेरे ख्याल से यह दो डरे हुए युवाओं का तरीका है जो कि प्रेम तो नहीं कहलाएगा। क्योंकि अगर प्रेम होता तो शायद शादी या साथ रहने से वह बदलता नहीं। 

अरुणा के व्यक्तिगत जीवन के अतिरिक्त जिस समाज से वह आती है वहाँ की बातें भी इस कहानी के माध्यम से हमें पता लगती है। जातिवाद किस तरह शिक्षण संस्थानों में मौजूद है यह भी दिखता है। शिक्षण संस्थानों में शिक्षकों के साथ तनख्वाह को लेकर कैसा व्यवहार होता है यह भी इधर दिखता है। लोगों के दकियानूसी सोचें, मेरिटल रेप (वैवाहिक बलात्कार) के बिन्दु को भी यह उपन्यास उठाता है।  

कॉलेज पहुँचकर देखा कि वहाँ बहुत भीड़ थी, उसकी यह कमजोरी और बढ़ गई। 

इतने सारे लोगोज आए हैं! मुझे यह नौकरी मिलेगी क्या?

अपने दो क्लास मेट्स को वहाँ देखकर, उन्हीं के पास जा बैठी। 

“तुम आ गई तो अब हम जा सकती हैं,” उनमें से एक लड़की ने कहा। 

“ऐसा क्यों?” अरुणा ने पूछा। 

“यह कॉलेज तो आपकी बिरादरी का है, हमें नौकरी क्यों देंगे?”

अरुणा को यह बात अच्छी नहीं लगी। वह चुप होकर बैठी रही। 

यह बात सच है कि नौकरियाँ जात-पात के आधार पर दी जाती हैं। पर अरुणा को मालूम नहीं था कि इस कॉलेज को चलाने वालों की जात कौन सी है। वह लड़की कैसी बात कह गई है! (पृष्ठ 19)

मुझे बहुत बुरा लगा। 

अपने कुल से बाहर किया गया विवाह अब भी देश में बवंडर खड़ा कर देता है। 

प्रकाशम् की बहनें नजीन आईं। बड़ी बहन को गुस्सा इस बात का था कि प्रकाशम् ने उसकी बेटी से शादी नहीं की (आंध्रा प्रदेश में भांजी से विवाह करने की प्रथा है।)। पता है दूसरी बहनें क्यों नहीं आईं? उन्होने सपने सँजोये थे कि प्रकाशम् की शादी में उन्हें रेशमी साड़ियाँ और ग्राइंडर मिलेंगे!

वे हमेशा प्रकाशम् से कहती थीं कि तुम किसी से भी शादी कर लेना पर हमें रेशमी साड़ी और ग्राइंडर जरूर दिलवा देना। वर्ना हम शादी में नहीं आएँगे।

बड़े अजीब लोग हैं न? सचमुच एक भी व्यक्ति शादी में नहीं आया। (पृष्ठ 25)  

वैसे तो यह उपन्यास 1987 में लिखा गया था लेकिन आज भी महिलाओं की स्थिति ऐसी ही है। अरुणा की खुद की स्वतंत्रता को पाने की इस यात्रा से कई युवतियाँ आज भी जुड़ाव महसूस कर पाएँगी। आज भी कई जगह प्रश्न बस यही है कि अपनी ज़िंदगी के कुछ फैसले अपनी मर्जी से ले सकें, अपना कमाया हुआ धन का कुछ हिस्सा अपनी मर्जी से खर्च कर सकें। ऐसे में यह पुरुषों की भी जिम्मेदारी बनती है चाहे अनचाहे आप उनकी स्वतंत्रता पर रोक न लगाएँ। वहीं अगर आप प्रेमिका के साथ विवाह करना चाहते हैं तो जीवन के प्रति उसके नजरिए को भी जान लें और तभी विवाह करें जब वह नजरिया आपके समान हो या फिर आपके और आपकी प्रेमिका के  अंदर इतनी परिपक्वता हो वह अपना नजरिया एक दूसरे पर न थोपे और आपसी स्वतंत्रता का अतिक्रमण न करें।

इसके अतिरिक्त उपन्यास में उठाए गए कई अन्य विषय आज भी प्रासंगिक हैं।  

अगर आपने इस उपन्यास को नहीं पढ़ा तो एक बार पढ़कर देख सकते हैं। उपन्यास पठनीय है। किरदार जीवंत हैं।  भाषा सरल सुलभ है। बिंबों से सजी सँवरी नहीं है। अगर आप लच्छेदार या काव्यात्मक भाषा पसंद करते हैं तो शायद इसका गद्य आपको इतना रास न आए लेकिन अगर मेरी तरह आपके लिए गद्य का काव्यात्मक होना जरूरी नहीं है तो आपको यह उपन्यास जरूर पसंद आएगा। 

लेखिका की अन्य रचनाओं को मैं जरूर पढ़ना चाहूँगा। 

पुस्तक लिंक: अमेज़न

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About विकास नैनवाल 'अंजान'

विकास नैनवाल को अलग अलग तरह के विषयों पर लिखना पसंद है। साहित्य में गहरी रूचि है। एक बुक जर्नल नाम से एक वेब पत्रिका और दुईबात नाम से वह अपनी व्यक्तिगत वेबसाईट का संचालन भी करते हैं।

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2 Comments on “स्वेच्छा | ओल्गा | आर शांता सुंदरी”

  1. Wonderful review. I have a book by Volga (The Liberation of Sita) and liked it. This one sounds interesting. Thank you. These days, my reading pace is very slow.

    1. Glad you like it. Will try to get my hands on The liberation of Sita.

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