जन्म, जरा और मृत्यु ये जीवन के कटु सत्य हैं। इसमें जीवन का सबसे स्वर्णिम काल बचपन है। जवानी उमंगों-तरंगों इच्छाओं महत्वाकांक्षाओं में गुजरती है तो बुढ़ापा इन सबसे हटकर। उसमें बचपन की आदतें, जवानी की जिद और बुढ़ापे का भुलक्कड़पन शामिल हो जाता है। यह जीवन की वह महत्वपूर्ण वयस है जिसे समयानुकूल जी पाना सभी भाग्यशालियों के भाग्य में नहीं होता। कुछ भाग्यशाली होते हैं तो चुटकियों में गिने जा सकते है। उन्हीं मे से एक है हमारी अम्मा।
बढ़ती उम्र के साथ-साथ अम्मा की आदतें भी बदल गयी थीं। जीवन में एक बार चाय पीने वाली अम्मा अब सिर्फ चाय की ही रट लगाये रहती। नाश्ता करके वे एक झापकी ले लेती और हाथ के इशारे से चाय का संकेत कर देती।
पत्नी कहती–”अम्मा चाय नाश्ता करके सोई थीं”
अम्मा कहती–“अभी तुमने हमें चाय कहाँ दी।”
समय की उन्हें परवाह न रहती। चाहे घड़ी में दिन के बारह वजे हो या एक, इससे उन्हें कोई सरोकार नहीं था। वे तो गुटखा तम्बाकू खाने वाले लोगों की लत की तरह, चाय के लिए तड़प उठती।
पत्नी झइल्ल्लाकर उन्हें गिनती गिनाती, “अम्मा चार दफा चाय पीली अब बाथरूम जाओगी और कपड़े खराब करोगी।”
कभी पत्नी पूरा प्याला भर देती–”लो जी भर कर पीलों चाय अब न माँगना….।”
पर अम्मा के कानों में जू न रेंगती। रेंगती भी कैसे? उम्र के तकाजे ने कानों की श्रवण शक्ति छीन ली थी। परंतु आँखें रोशनी से पुरनूर थी। सौ का आँकड़ाँ पार कर लेने के बाद भी अम्मा सीधी कमर किए विना लाठी के सहारे चलती। उन्हें इस तरह चलता देख, देखने वाले दाँतों तले उँगली दबा लेते- “सही कहते हैं बड़े-बूढ़े, अम्मा ने पुराना देसी घी और शुद्ध अनाज खाया है बिना मिलावट का, जो आज भी दिखाई दे रहा है। यहाँ देखों 55-60 के बाद ही हडिडयाँ चरमराने लगी हैं। आँखों में मोतियाविंद ऑपरेशन के वाद लैंस डल चुके है। कई सज्जन कानों में मशीन लगा कर सुन पाते हैं।”
अम्मा के बारे में लोगों के कमेंट सुन मेरा सीना गर्व से फूल जाता– “हाँ भई हमारी खिदमत भी तो रंग लायी है। क्या नजाल जो अम्मा की खिदमत में रंचमात्र कोताही हो जाये। पूरा घर उनकी सेवा में लगा रहता है।”
“अरे भई! आपके कथन की सच्चाई सामने दिख रही है।” लोग कहते…
इस वयस में भी अम्मा हर बीमारी से आजाद थी। गले की नसें कमजोर हो जाने की वजह से स्वर ग्रंथियों से स्वर फुसफुसाहट वाले निकलते। जिन्हें परिवार के सभी मेम्बर आसानी से समझ लेते। हाँ बरसों से ब्लडप्रेशर की दवा खाते-खाते अब वे उसे भूल गयी थीं। छोटे बच्चे की तरह उन्हें दवा हाथों से खिलानी पड़ती पर अम्मा उस छोटी सी गोली से भी उकता गयी थीं– “बचवा कब पीछो छूट है ई दवाई से।”
कभी कभी नजर फेरते ही वे झट गोली मुँह से निकाल, कुर्ते की जेब में रख लेती। अम्मा ने गोली नहीं खायी इसकी गवाही शाम होते-होते उनका लाल चेहरा दे देता। फिर गोली की ढुँढाई शुरू होती। कभी अम्मा की जेब से तो कभी तकिये के नीचे रखी मिल जाती।
अब गोली खिलाने का जिम्मा मैंने स्वयं लेने के साथ-साथ बड़े बेटे को भी सौंप दिया था। दोनो एक दूसरे से तसदीक कर दवा देते और जब तक अम्मा गोली हलक से नीचे न गुटक लेती पानी का गिलास लिए खड़े रहते।
अम्मा के मुख पर खिचीं अनुभवों की असंख्य रेखाएँ उन्हें सामने वाले के व्यवहार से क्षण भर में अवगत करा देतीं, वे चेहरे के हाव-भाव से ताड़ जाती कौन गुस्से में बोल रहा है, कौन अम्मा की बातों का रस ले रहा है, कौन उन्हें घूर रहा है। वे माथे से हाथ लगा उंगलियाँ छिटक देती– “मुआ सब पीछे पड़े रहत ई दवा के लाने, अब दवा नहीं खाने, ऊपर वाले से लौ लग गयी अब…”
“नहीं अम्मा! तुम्हें अबे नहीं जाने बड़े पोते को विवाह कर पुत बहू देख के जाने है।” मेरे कथन से अम्मा फिक्क से पोपले मुँह से हँस पड़ती।
दोपहर में भोजन के बाद जब सबके आराम का समय होता अम्मा चुपके से उठ किचन मे चली जातीं। लाइटर से गैस जला चाय बना लेती। चुपके से चाय पीकर किचन में ही बैठ जाती जिससे बहू के आराम में दखल न हो।
पर अम्मा की यही चुपके वाली आदत एक दिन बवाल बन गयी। अम्मा ने गैस का बटन ऑन कर गैस जलाया दुर्भाग्य से या बूढ़े हाथों की हड्डियों से गैस न जला।
बेचारी अम्मा थक हारकर वही किचन में बैठ गयी। गैस का बर्नर ऑन छोड़ दिया। ईश्वर को होनी टालना थी कि उस रोज अचानक ही एक फाइल लेने मैं घर आया। किचन से आ रही गैस की बदबू से मेरे छक्के छूट गए। मैं भागता हुआ किचन में घुसा। बर्नर बंद कर सारी खिड़कियाँ खोल दीं। सामने अम्मा तपेली में दूध लिए बैठी थीं। उस हादसे के बाद से गैस का रेगुलेटर नीचे से बंद किया जाने लगा। इसमें जरा भी कोताही न बरती जाती। अब दोपहर में अम्मा चाय बनाने जातीं। लाइटर से गैस चटर-पटर कर लौट आतीं।
मैं लंच टाइम में घर आता – “भैया गैस खतम हो गयी।”
“हाँ अम्मा…। अभी आ जाएगी या चार बजे तक आयेगी” मैं दिलासा दे देता।
भोली अम्मा मेरी बात सच मान दो बजे से उठकर बैठ जाती और चार बजे तक टकटकी लगाये घड़ी देखती रहती। उन्हें भूख से ज्यादा चाय की तलब व्यथित कर देती। उनके मुख पर आते-जाते कर भावों से महसूस होता। उनका एक-एक क्षण घंटों में बीत रहा है। उन्हें घड़ी का काँटा भी देर से खिसकता हुआ लगता। वे मन ही मन बुदबुदाती– ‘मुआ अबे तक चार नहीं बजे। जा घड़ी कित्ती धीरे चल रही है।’ उनके लिए मानो समय थम सा जाता।
उनकी तड़प देख मुझसे रहा नहीं गया। मैं दोपहर में ऑफिस से लंच टाइम घर आने लगा। उन्हें चाय बनाकर दे देता। मुझे आता देख उनकी बाँछें खिल जातीं। पोपले मुख से सैकड़ो आशीष बुदबुदाती रहतीं। एक कार्य मैंने और किया। अगर कभी मैं ऑफिस से न आ सका तो बड़े बेटे की ड्यूटी अम्मा को चाय बनाकर देने की लगा दी। उस रोज से यह नियम बाकायदा लागू हो गया।
वर्षों वाद बचपन का सहपाठी दिनेश मुझसे मिलने आया। वह अच्छी कमाई के चक्कर में विदेश चला गया था। पर मैं अपने नगर में ही छोटी सी नौकरी पाकर संतुष्ट हो गया था। कारण था मेरी अकेली अम्मा जिन्होंने पिता की मौत के बाद बचपन से ही माँ और पिता दोनों का स्नेह दिया था। दूसरों के घरों में काम कर अम्मा ने मेरी पढ़ाई में विघ्न न आने दिया था। पढ़ाई पूरी कर मैं छोटी-मोटी नौकरी पाने के लिए प्रयास करने लगा। अम्मा आगे पढ़ने को कहती। पर बचपन से माँ को दूसरे घरों में मशीन की तरह कार्य करते देख मेरे जमीर ने यह गँवारा न किया। मैं तो बस अम्मा की लाठी बनना चाहता था। सो ईश्वर की कृपा और माँ की दुआओं से बिना मशक्कत किये पोस्ट ऑफिस में डाकिये की पोस्ट पर लग गया। धीरे-धीरे तरक्की होती गयी और मैं पोस्ट मास्टर बन गया।
अचानक दिनेश को आया देख मैं औचक्का सा रह गया। न चिट्ठी, न पत्री, न फोन। हम दोनों यहाँ वहाँ की गपशप में मशगूल हो गए। एकाएक वाणी को विराम दे मैं खड़ा हो गया- “एक मिनट दिनेश बस मैं अभी अम्मा को चाय देकर आया।”
“क्या तुम्हारी अम्मा जीवित है?” दिनेश की आश्चर्य से आँखें फैल गयीं।
“हाँ… भई…. । सौ का आँकड़ा पार कर गयीं”
“क्या!” दिनेश औचक्क सा खड़ा हो गया। उसे अपने कानों पर एकाएक विश्वास नहीं हुआ, “तुम सच कह रहे हो…।”
“और आंटी…। वो तो अम्मा से काफी छोटी थीं। वो कैसी हैं?”
“अब वे कहाँ इस दुनिया…।”
“अरे कब हुआ ऐसा! तुमने बताया नहीं…।”
“कैसे बताता”, दिनेश की निगाहे बुझ गयीं। “मैं कमाने के चक्कर में विदेश चला गया। मेरी अनुपस्थिति में पत्नी उन्हें वृद्धाश्रम छोड़ मायके रहने चली गयी। वृद्धाश्रम में हि माँ का देहांत हो गया।”
“ओह… आई सी..। माफ करना दोस्त। पर मेरी माँ के बिना मेरा घर सूना है। अम्मा की सेवा में सबकी ड्यूटी लगी है। पत्नी सारा काम करके दोपहर में आराम करती है। उसके आराम में खलल न हो इसलिए अम्मा के लिए तीन बजे की चाय मैं खुद बनाता हूँ। दो बरस के बच्चे के बराबर रोटी का आधा टुकड़ा खाने वाली अम्मा की भूख प्यास सब आधा कप चाय की प्याली है।”
“क्या मैं अम्मा से मिल सकता हूँ।”
“हाँ… हाँ क्यों नहीं मैं यहीं लाता हूँ उन्हें।”
मैं माँ को लेकर आया।
दिनेश माँ के चरण छूने झुका तो उसके नेत्रों से अविरल अश्रुधारा बह निकली। “तू सचमुच भाग्यशाली है। तेरे पास माँ है। मैं अभागा…।”
“अरे नहीं ये भी तो तेरी माँ है। बस हमारी अम्मा हम सबकी सेवा और आधी प्याली चाय से जीवित है जो उनकी बूढ़ी हड्डियों को ऊर्जा देती है।”
समाप्त
(यह कहानी लेखिका के कहानी संग्रह ‘एक प्याली चाय ‘से उनकी इजाजत से ली गयी है।)
लेखिका परिचय
डॉ रुखसाना सिद्दीकी टीकमगढ़ मध्य प्रदेश की रहने वाली है। उन्होंने हिंदी साहित्य में पी एचडी की है और शिक्षिका हैं। ‘तुम स्वयं सिद्धा हो’ (कहानी संग्रह), खिली धूप (लघु-कथा संग्रह), ‘एक प्याली चाय’ उनकी अब तक प्रकाशित पुस्तकें हैं। इसके अतिरिक्त विभिन्न पत्र पत्रिकाओ में उनके लेख, कहानियाँ और कविताएँ प्रकाशित होती रहती हैं।