कहानी: मालगोदाम में चोरी – गोपाल राम गहमरी

मालगोदाम में चोरी - गोपाल राम गहमरी

1

आज डुमराँव स्टेशन से राजप्रासाद तक बड़ी धूम है। ट्राफिक सुपरिटेंडेंट के दफ्तर से तार-पर-तार चल रहा है। दीनापुर से डुमराँव तक सिग्नेलरों का नाकोंदम है। एक खबर (मेसेज) फारवर्ड होते देर नहीं कि दूसरे के लिए तारबाबू टेलीग्राफ-इंस्ट्रूमेंट पर रोल करते हैं। डी.टी.एस. के ऑफिस से एक को मंसूख करने वाला, दूसरा फिर उसको कैंसल कर नेवाला, तीसरा, इसी तरह लगातार आर्डरों का तार लग रहा है। होते-होते कोई बीस घंटे के बाद ट्राफिक सुपरिटेंडेंट के यहाँ से स्टेशन मास्टर को तार आया कि मालगोदाम जैसे का तैसा बंद रखो, जासूस जाता है। बस अब सब लोग अपने मन की घबराहट मन ही में दबाये जासूस की राह देखने लगे।

इधर नगर में कोलाहल मचा है। बिसेसर हलवाई अपनी दूकान पर बैठा पंखे के मगदल को मक्खी हाँकता हुआ कहने लगा—“दादा, इसी टेशन में मिठाई बेचते बाल पके, लेकिन ऐसी चोरी किसी बड़े बाबू के बखत में नहीं हुई। ताला-चाभी सब बंद-का-बंद और भीतर से गाँठ गायब!”

मगदल खरीदने वाला कहता है, “कहो बिसेसर! जब चाभी बाबू के पास रही, तब दूसरा कौन चुरा सकता है?”

हलवाई—“चाभी रहती है तो क्या बाबू पहरा देते हैं? अरे, जब गाड़ी आयी, पसिंजर से पार्सल उतरा, तभी खलासी चाभी उनसे माँग लाता है और आप खोलकर पार्सल रखता और बंद करके चाभी बाबू के हवाले करता है। खलासी अगर निकाल ले, तो बाबू लोग क्या करेंगे?”

ग्राहक—“लेकिन भई, लोग कहते हैं मन भर से भी कम की गठरी थी, तब उसमें पाँच हजार के कपड़े कैसे बंद थे?”

दूकान के सामने ही कड़ाही मलता हुआ मुसवा कहार आँख बदलकर और हाथ मटका कर कहता है—“अरे तुम भी घच्चू हो कि आदमी! गाँठ में हमारे-तुम्हारे वास्ते खारुआँ मारकीन थोड़े रहा। महाराज के घर सादी है, कलकत्ता से रेशमी कपड़ा, साल दुसाला, लोई अलुयान उसमे चालान हुआ रहा कि खेल है। कितने ही हजार का तो उसमें रेसम भरा रहा.”

हलवाई—“अरे हज़ार-लाख पर कुछ अचरज नहीं न चोरी जाना अचरज है। बात यह कि बाहर ताला बंद-का-बंद और भीतर गाँठ नदारद है! उस रोज बाबू कहते है रात की पसिंजर से एक संदूक और गाँठ दो ही तो उतरा था। उस घर में और कोई माल नहीं था। लेकिन सवेरे देखा गया तो उसमें से कपड़े की गाँठ नदारद है और संदूक जैसी की तैसी जहाँ की तहाँ पड़ी है। जहाँ गाँठ थी, वहाँ कुछ खर, कुछ ईंट और एक लम्बा पत्थर पड़ा मिला है।”

इतने में एक दाई माथे पर जल भरा घड़ा लिए हलवाई की दूकान में आयी और सिर से उतारते-उतारते बोली—“ऐ दादा, कवन सा पूलुसवाला बड़ा साहब आया है। सब सिपाही दरोगा उसके आगे हाथ जोड़ कर सलाम करने गए हैं। कुलदिपवा कहत रहा कि कलकत्ता से पूलुस का बड़ा साहब आया है। यही सब का मालिक है। उधिर महल में मारे अमला फैला के खमख़म हो रहा है।”

बिसेसर—“अरे नहीं रि पगली! जासूस आने को रहा वही आया होगा। अभी मालगाड़ी गयी है न, उसी में आया होगा। कल सवेरे ही उसके आने की खबर आई रही।”

ग्राहक—“जासूस कैसा?”

बिसेसर—“जासूस लोग यही पुलिसवाले होते हैं। यहाँ की यह पुलिस जैसी वर्दी पहनती है, यह लोग वैसा नहीं पहनते। वह बिलकुल सीधे सादे रहते हैं। उनका चपरास भी कमर में होता है। कोई देख कर नहीं पहिचान सकता कि वह लोग पुलीसवाले हैं। देख रे सुखना ज़रा दूकान देख, तो मैं भी देख आऊँ।”

इतना कहता हुआ हलवाई अपने लड़के सुक्खन को दूकान सौंपकर स्टेशन को चला। वहाँ मालगोदाम के दरवाज़े पर लोगों की बड़ी भीड़ देखी। दो कानिस्टबिल बाहर के लोगों को अलग करने में लगे हैं। मालगोदाम का दरवाज़ा खुला है। स्टेशन-मास्टर चौकीदार और चार खलासियों के साथ भीतर एक बाबू को सब दिखा रहे हैं।

वह बाबू मालगाड़ी से अभी उतरा है। गाड़ी से उतरते ही मालगोदाम में जाकर देखा तो वहाँ एक ओर कुछ पयार पड़ा है, कुछ ईंट और एक पत्थर की पटिया पड़ी है।

मालगोदाम भीतर बहुत साफ़ है। अभी दो ही रोज हुए, ऊपर सफेदी की गयी है। कमर से ऊपर ऊँचाई तक चारों ओर की दीवारों में अलकतरा पोता गया है। अब वह सूख चला है। धरती पर खूब साफ़ है, लेकिन जहाँ पत्थर, ईंट और खर पड़ा है, वहाँ सफाई नहीं है। बाबू ने कमरे को अच्छी तरह देखकर स्टेशनमास्टर से कहा—“अच्छा आप अपने आदमियों के साथ बाहर जाइये। मैं थोड़ी देर तक इस गोदाम का दरवाज़ा बंद करके भीतर बैठूँगा।”

यही बाबू ट्राफिक सुपरिटेंडेंट के भेजे हुए जासूस हैं। जैसा उन्होंने कहा, स्टेशनमास्टर ने वैसा ही किया। सब खलासी और चौकीदारों के साथ वह बाहर हो गए। बाबू ने दरवाज़ा लगाकर भीतर देखना शुरू किया। मकान की एक-एक ईंट पर सनीचर की दीठ से देखने लगे!

देखते-देखते दीवार पर एक जगह नज़र पड़ी। जान पड़ा कि वहाँ का रंग किसी ने पोंछ लिया है। बाबू ने पास जाकर देखा तो मालूम हुआ कि थोड़ी जगह का रंग किसी ने कपड़े से पोंछा है। उसके दाहिने-बाएँ भी पाँचों उँगलियों के दो जगह निशान मिले। बाबू ने अचकचाकर देखा। चेहरे का रंग बदल रहा था, थोड़े देर बाद आप ही आप बोल उठे-“चोर शाला जल्दी में दीवार पर गिरा है। पीठ उसका रंग में चफन गया है। उसको संभालने के वास्ते उसने दोनों हाथ से दीवार का सहारा लिया है, इसी से उँगलियों के साथ हथेली दीवार पर जोर से पड़ी है और दोनों हाथों का निशान बीच में कमर के दाहिने-बाएँ उखाड़ आया है।“ वहीं बड़ी देर तक खड़े-खड़े बाबू साहब देखते रहे। खूब अच्छी तरह देखने पर मालूम हुआ कि उसके बाएँ हाथ की सबसे छोटी उँगली टूटी है या कट गयी है। उसका निशान बहुत छोटा है। बाकी सब उँगलियों के निशान ठीक हैं।

बाबू ने जेब से एक पॉकेटबुक निकालकर यह बात नोट कर ली। फिर उसकी नजर आगे-पीछे दाहिने-बाएँ चलने लगी। दरवाजे के सामने की ही दीवार में दूसरा दरवाजा है। स्टेशन मास्टर से मालूम हुआ कि वह सदा बंद रहता है। इस वक्त रोशनी आने के लिए बाबू ने उसी को खोल रखा है। उसी की रोशनी में बाबू यह सब देख रहे हैं। नोट करने वाली पेंसिल एक हाथ में और नोटबुक दूसरे हाथ में अभी मौजूद है। बाबू की नजर बंद दरवाजे पर पड़ी, तो एकदम चेहरा खुश हो गया। किवाड़ के पास जाकर देखा तो एक पर दो जगह पाँच उँगलियों का अलकतरा पोंछा गया है। दूसरे पर धोती का रंग घिसा गया है। कितना ही घिसा जाए, लेकिन छूटा नहीं है; तो भी बाएँ हाथ की उँगलियों का निशान देखने से बाबू का चेहरा खिल उठा। उसने देखा तो उसमें भी छोटी (कनिष्ठा) उँगली का छोटा-सा निशान है।

डिटेक्टिव ने मन में कहा-“चोर चाहे जो हो, लेकिन जो वहाँ दीवार पर गिरकर दोनों हाथों से संभला है, उसी ने अपनी धोती और दोनों हाथ का अलकतरा दीवार पर पोंछा है और उसके बाएँ हाथ की उँगली कटी या टूटी है।”

बस, इसके सिवा उस गोदाम में और कुछ भी काम की चीज जासूस ने नहीं पायी। ईंट पर कोई खास निशान नहीं, न पत्थर से चोर का कुछ पता चलने वाला था। खर जो बहुत-सा पड़ा था, उसको इधर-उधर पलटा तो उसमें दो कागज पाया। एक पोस्टकार्ड और एक हिंदी अखबार।

अखबार का नाम ‘भारत मित्र’ देखकर डिटेक्टिव ने आप ही आप कहा-“यह खबर का कागज कलकते का है।” और पोस्टकार्ड पढ़ा तो हिंदी में लिखा था। लिखने वाले ने बनारस शिवाला डाकघर से छोड़ा था। उस पर डाकखाने की मुहर थी। कलकता पहुँचने की तारीख जब मुहर में डिटेक्टिव ने देखी तब उसने कहा-“चिट्ठी देखने में जैसी पुरानी मालूम होती है, तारीख से वैसी नहीं है।” पते की तरफ पढ़ा तो ‘लच्छन कहार, c/o सुगनचंद सोहागचंद, नं 37, कॉटन स्ट्रीट, कलकत्ता’ लिखा था, लेकिन चिट्ठी मुड़िया (मारवाड़ी) में लिखी थी, बंगाली बाबू से पढ़ी नहीं गयी। अब उसे जेब में रखकर उस बड़े कागज को देखने लगे। ऊपर ही बड़े-बड़े अक्षरों में ‘भारतमित्र’ छपा देखा। उसी के नीचे हाथ से किसी ने लाल रोशनाई से ‘भारतमित्र’ छोटे-छोटे हरफ़ों में लिखा था। डिटेक्टिव ने उलट-पलट कर अच्छी तरह देखा, लेकिन और कुछ भी काम की बात उसमें नहीं पायी। निराश होकर चाहता था कि मोड़कर उसे भी जेब के हवाले करे, लेकिन मोड़ने से पहले ही कागज पर एक ऐसी जगह जासूस की नजर गयी, जहाँ हाथ से अंग्रेजी में कुछ लिखा हुआ दिख पड़ा। मालूम हुआ कि किसी ने उस पर भी ‘सुगनचंद सोहागचंद, नं 37, कॉटन स्ट्रीट, कलकत्ता’ लिखा है। “जिसकी चिट्ठी है, उसी का अखबार भी है। लेकिन अंग्रेजी जिसकी लिखी है वह अभी हरफ़ बनाना सीखता है।” कहते हुए जासूस ने कागज भी जेब के हवाले किया। अब गोदाम में और कुछ काम की चीज न पाकर वह बाहर आया।


2

बाहर स्टेशन मास्टर बेंच पर बैठे डिटेक्टिव की राह ताकते थे। जासूस ने उनको पाकर पूछा-“आप कहते हैं कि रात को गोदाम में दो पार्सल थे; सो संदूक कहाँ है?”

स्टेशन मास्टर-“संदूक तो जिसकी थी, वह ले गया।”

जासूस-“उसकी डेलीवरी आप ही ने की है?”

स्टेशन मास्टर-“नहीं, असिस्टेंट स्टेशन मास्टर ने की है। लेकिन उसमें कुछ संदेह की बात नहीं है। जैसा ताला बंद था, वैसा ही पाया गया है। चाभी स्टेशन मास्टर ऑन ड्यूटी के पास ही थी। उसी संदूक की डेलीवरी देने के लिए गोदाम खोला तो संदूक मिली, लेकिन कपड़े की गाँठ नहीं थी। उसकी जगह पर ईंट-पत्थर मिला। न जाने गाँठ को कोई भूत उठा ले गया, या जिन उड़ा ले गया!”

जासूस-“हाँ, उस जिन को तो मैं समझ चुका हूँ। आप अपने स्टेशन के सब नौकरों को बुलाइए, मैं सब की सूरत देखूँगा।”

तुरंत ही स्टेशन मास्टर ने हुक्म दिया; खलासी, सिग्नलमैन, चौकीदार, असिस्टेंट, सब जासूस के सामने हाजिर हुए। सब के कपड़े और उँगली देखने पर उस टूटी उँगलीवाले का पता नहीं चला। तब सब को छोड़कर जासूस स्टेशन मास्टर को अलग ले गए और पूछा-“आपके स्टेशन में ऐसा कोई आदमी आता है, जिसके बाएँ हाथ की उँगली टूटी हो?”

स्टेशन मास्टर-“नहीं साहब, ऐसा तो कोई आदमी यहाँ नहीं आता।“

जासूस ने उनसे अपने मतलब की कोई बात पाने का भरोसा न देखकर असिस्टेंटों का पीछा किया। जिसकी ड्यूटी में पार्सल आए थे और जिसने डेलीवरी दी, उनसे अलग-अलग दो बार मिलकर सब बातें पूछने से मालूम हुआ कि कपड़े की गाँठ पार्सल में और संदूक लगेज में आयी थी। संदूक बड़ी लंबी-चौड़ी और खूब ऊँची थी। लगेज रसीद लेकर दूसरे दिन जो आदमी माल छुड़ाने आया था वह एक भले आदमी की सूरत का था। उसको बाबू ने पहले कभी डुमराँव में देखा था, सो याद नहीं है। कभी की मुलाकात न होने पर भी बड़ी भलमनसाहत और नरमी से बोलता था। एक बैलगाड़ी पर कई कुलियों से अपना माल चढ़ाकर ले गया। ‘संदूक बहुत लम्बी-चौड़ी है’ कहने पर कुलियों से उसने बयान किया-‘मुसाफिर आदमी है। सब कपड़ा-लत्ता, अरतन-बर्तन इसी में रखता है। इसी से इतनी बड़ी संदूक है।”

जिन कुलियों ने संदूक गोदाम से ले जाकर बैलगाड़ी पर चढ़ाई थी, उनसे घूमा फिराकर पूछने पर मालूम हुआ कि-

वह सन्दूक वाला डुमराँव में पहले पहल आया था। राजा साहब के यहाँ नौकरी करने के इरादे से दूसरे रोज दरबार में जायेगा। अभी कोई किराये का मकान लेकर ठहरेगा। संदूक बहुत बड़ी है। सब सामान साथ में रखता है। अगर जल्दी कोई किराये का मकान भी नहीं मिले तो बस्ती में किसी पेड़ के नीचे ठहरकर दो-एक दिन काट सकता है। कुलियों ने यह भी कहा कि नहीं, ऐसी तकलीफ नहीं होगी। यहाँ लोगों को ठहरने के वास्ते सराय बनी है। वह वहाँ चाहे तो ठहर सकता है।

इतना हाल मालूम करने पर जासूस मन-ही-मन सब बातों पर विचार करने लगा। उसके मन में इतनी बातें उठीं—

बड़ा पेचदार मामला है। गोदाम के दोनों दरवाजे बंद हैं, कहीं कोई खिड़की-जंगला भी नहीं है, फिर चोर कहाँ से आया? चोर नहीं आया तो क्या छोटे बाबू ने चुराया? लेकिन उस गोदाम की चाभी उसी के पास थी। जो उसका मालिक है, जिस पर उसकी जवाबदेही है, जिसके पास उसकी चाभी है, वह तो कभी चुरा नहीं सकता। चोर तो भीतर जरूर घुसा है। उसके बाएँ हाथ की छोटी उँगली टूटी थी, यह भी मालूम हुआ। लेकिन किधर से घुसा और किधर से गया? फिर गाँठ-की गाँठ उड़ा ले गया! और अचकचाहट की बात यह है कि गाँठ के बदले ईंट-पत्थर और खर रख गया। यह अजब गोरखधंधे की बात है। चोर अपने साथ ईंट-पत्थर और पयार कहाँ से और क्यों लाया था? और माल चुराकर यहाँ रख जाने का क्या सबब है? पयार में दो कागज मिले। दोनों सुगनचंद सोहागचंद से मतलब रखते हैं। लेकिन कार्ड पर ‘लाच्छन लाल, केयर ऑफ सुगनचंद सोहागचंद लिखा है। क्या जाने, यह महाजन कुछ इसका भेद जानता हो। लेकिन इस गाँठ का भेजनेवाला यही सुगनचंद सोहागचंद है, तब वह चोर नहीं सकता। अगर सुगनचंद सोहागचंद ही चोर हो, तो गाँठ क्या जादू की थी, जो यहाँ तक आयी और मालगोदाम से गायब हो गयी? इसका भेद कुछ नहीं मिलता। संदूक का मालिक तो इसमें कुछ चालाक नहीं मालूम देता। कुली से लेकर बाबू तक उसकी बड़ाई करते हैं। वह पहले-पहल डुमराँव में आया है, इतनी बात कुछ संदेह की है। लेकिन इसके वास्ते इस सुगनचंद महाजन को हाथ से छोड़ना ठीक नहीं है। पहले उस महाजन को देखना और फिर लच्छन लाल की चिट्ठी पढ़ाना चाहिए। क्या जाने, उससे कुछ काम बने। यह काम महाजन का तो नहीं है, क्योंकि भेजने वाला वही है। अगर गाँठ में ईंट-पत्थर भेजकर महाराज को ठगना चाहता, तो मालगोदाम से गाँठ गायब होने का क्या मतलब है? किसी तरह महाजन पर संदेह नहीं जाता। लेकिन लच्छन अलबत्ते लच्छनदार मालूम होता है। चोर चाहे कोई हो, वह भेदू है। गाँठ का हाल जानता था। बाहर का चोर हरगिज नहीं आया। लेकिन जासूस चोर बाबू के सिवाय और किसी को नहीं कह सकता और ऐसी हालत में बाबू को चोर समझते भी कलेजा काँपता है। जो हो, बात बड़ी पेंचदार है, चोर बड़ा ही चालाक है। उसने अपनी चतुराई से मामले के चारों ओर ऐसी मोरचेबंदी की है कि बुद्धि को घुमाने की साँस नहीं दिखती।

इसी तरह आगे-पीछे-दाहिने-बायें सब सोच-विचार करके पीछे जासूस स्टेशन मास्टर से मिला और उसने मन की मन में दबाकर कहा-“अब हम जावेंगे।“

स्टेशन मास्टर ने कहा-“जाने के वास्ते तो डाकगाड़ी बक्सर छोड़ा है। आप उसी में जा सकते हैं। लेकिन इस चोरी का कुछ कूलकिनारा आपने पाया या अँधेरे का अँधेरे ही में रहेगा?”

जासूस-“अभी आप इसकी कुछ बात मत पूछिए। एक जरूरी काम के वास्ते मैं कलकत्ते जाता हूँ। वहाँ से लौटकर आपसे मिलूँगा।”

स्टेशन मास्टर-“अच्छा आप जाइए! लेकिन बाबूसाहब! इतना हम कहेंगे कि स्टेशन मास्टरी में मैं बूढ़ा हो गया। अब मरने का दिन पास आया, लेकिन ऐसी चोरी कभी देखी न सुनी।”

जासूस- “हमको यह चोरी कुछ चक्करदार मालूम होती है, लेकिन इतना हम कहते हैं कि चोरी करने वाला कोई पक्का खिलाड़ी है। वह भेदी है। भीतर का हाल जानता था। बाहर से चोर नहीं आया।”

स्टेशन मास्टर- “लेकिन गाँठ की जगह ईंट-पत्थर कहाँ से रख गया। वह भी ऐसे कि इस तरफ की ईंटों से नहीं मिलती। पत्थर पर भी पेटेंट-स्टोन खुदा हुआ है। ऐसा पत्थर भी हमने कभी नहीं देखा था।”

जासूस- “आप कभी कलकत्ते नहीं गए?”

स्टेशन मास्टर- “नहीं कलकत्ते तो नहीं गया। कई पुश्तों से मैं भैमारी ही में रहता हूँ।”

जासूस- “इसी से पत्थर आपके लिए नया मालूम हुआ। ऐसी ईंटें भी कलकत्ते में बहुत काम आती हैं।”

स्टेशन मास्टर- “तो कलकत्ते से क्या गाँठ में बंद करके यही सब आया था?”

जासूस- “यह सब अभी आप मत पूछिए। लौटकर मैं सब बतलाऊँगा।“

स्टेशन मास्टर- “अच्छा, आप और सब लौटकर बतलाइएगा, लेकिन यह जो कहा कि चोर बाहर से नहीं आया, इसका मतलब मैंने नहीं समझा। बाहर से आपका क्या मतलब? चोर स्टेशन के आदमियों से बाहर का नहीं है या गोदाम के बाहर से नहीं आया?”

जासूस- “यह भी गूढ़ बात है। अब गाड़ी आती है। बाकी बात लौटने पर।”

इतने में घंटी बजी। गाड़ी इनसाइट हुई। उसी पर सवार होकर जासूस कलकत्ते को रवाना हुआ।


3

कलकत्ता पहुँचकर जासूस सुगनचंद सोहागचंद से मिला। महाजन से मालूम हुआ कि वह अखबार ‘भारतमित्र’ मँगाया करता है। लेकिन उसको पढ़ लेने के बाद कौन कहाँ ले गया, इसकी खबर नहीं रखता। पोस्टकार्ड भी कब आया, किसके पास आया, इसका कुछ हाल मालूम नहीं है। लच्छन नाम का एक कहार उस कोठी में नौकर है। वह कई रोज से बीमार होकर अपने चाचा के यहाँ गया है। उसका चाचा कहाँ रहता है, इसका पता महाजन से नहीं मालूम हुआ।

जासूस ने मन में कहा कि लच्छन को जो डुमराँव ही में मैंने लच्छनदार समझा था, सो सचमुच यही चोर है क्या! फिर थोड़ी देर तक कुछ सोचकर महाजन से पूछा- “तो उस कहार का काम कौन करता है?”

महाजन- “काम के वास्ते तो उसी ने अपने जान-पहचान के एक आदमी को यहाँ कर दिया है। यह भी उसका कोई नातेदार ही है। लेकिन आप यह सब क्यों पूछते हैं, सो तो कहिए!”

जासूस- “मेरे पूछने का मतलब आप नहीं जानते। आपके यहाँ से कुछ माल डुमराँव को चालान हुआ है?”

महाजन- “हाँ, चालान तो हुआ है। लेकिन सुनते हैं, वह तो गाँठ-की-गाँठ ही किसी ने चुरा ली है।”

जासूस- “हाँ, चुरा तो ली है। और उसकी जगह पर ईंट-पत्थर रख गया है।”

महाजन- “यह तो बड़े अचरज की बात है। डुमराँव में भी कलकत्ते के बदमाश पहुँच गए हैं क्या?”

जासूस- “देखिए, कहाँ का बदमाश गया है, सो तो मालूम ही हो जाएगा। लेकिन चोर बड़ा चालाक है।”

महाजन- “हम भी इस चोरी का सब हाल सुनकर अकचका गए। ताला बंद-का-बंद और गाँठ गायब। डुमराँव का स्टेशन भी तो कलकत्ता हो रहा है।”

अब पोस्टकार्ड पढ़ाने से मालूम हुआ कि लच्छन के बाप का लिखा है। पंदरह दिन में रुपया भेजने को कहता है।

“अच्छा, अब जाता हूँ। फिर जरूरत होने पर मिलूँगा।“ कहकर जासूस कोठी से उतरकर चलता हुआ।

डेरे पर पहुँचकर जासूस ने चिट्ठी बाँटने वाले पोस्ट-पियून का रूप बनाया। कमर में चपरास और सिर पर दुरंगी पगड़ी रखी। कंधे में तोबड़ा लटकाकर खासा डाक‑पियून बन गया। हाथ में छाता लिए ग्यारह बजते-बजते सुगनचंद सोहागचंद की कोठी पर जा पहुँचा। इस बार ऊपर न जाकर नीचे ही रहा। पानी के कल पर वह कहार बरतन मलता मिला। सामने दो कनस्तरों में पानी भरा था।

चिट्ठी बाँटने वाले का रूप बनाए हुए जासूस ने उस कहार से पूछा—“क्योंजी, लच्छन कहार तुम्हारा ही नाम है?”

कहार- “काहे को, कोई चिट्ठी है?”

डाक-पियून- “चिट्ठी तो नहीं है, रुपया उसके नाम बनारस से आया है।”

कहार- “तो दीजिए न!”

डाक-पियून- “तेरा ही नाम लच्छन है?”

कहार- “नहीं, वह हमारा ही छोटा भाई है। बनारस में उसका बाप रहता है। वह हमारा चाचा होता है, उसी ने भेजा होगा।”

डाक-पियून- “उसका नाम क्या है?”

कहार- “नाम बुधई है। हमारे बाप और वह सगे भाई हैं।”

डाक-पियून- “तुम्हारे बाप का नाम क्या है?”

कहार- “हमारे बाप का तो खेमई नाम है।”

डाक-पियून- “अच्छा, तो वह लच्छन कहाँ है?”

कहार- “वह तो बीमार होकर डेरे पर पड़ा है।”

डाक-पियून- “कहाँ डेरा है?”

कहार- “डेरा तो मछुआबाजार में है।”

डाक पियून- “अच्छा, अगर तुम चल सको, तो साथ चलो। नहीं तो हम रुपया लौटा देंगे तो फिर नहीं मिलेगा।”

“अच्छा जी, रुपया मत लौटाओ, हम चलते हैं।“- कहकर कहार ने झटपट बरतन धो डाला और चट अपने एक साथी को सौंपकर डाक-पियून के साथ चलता हुआ। जब दोनों मछुआबाजार में पहुँचे, तो एक मकान में जाकर कहार ने एक आदमी को दिखा दिया। उसको देखते ही डाक-पियून ने कहा- “क्यों लच्छन, डुमराँव से कब आया?”

लच्छन ने कहा- “मैं तो डुमराँव गया ही नहीं। चाचा से कई बार कहा, वह नहीं जाने देते। जब से जनम हुआ तब से एक बार भी बाप-दादे का डीह नहीं देखा।“

डाक-पियून- “अरे यार, हमसे क्यों छिपाते हो? अभी परसों ही डुमराँव में देखा था और कहते हो गए नहीं!”

लच्छन- “तुम भी अच्छे गप्पी मिले। हम सात-आठ दिन से तो इसी चारपाई पर पड़े हैं, परसों तुमने हमको डुमराँव में कैसे देखा था?”

अड़ोस-पड़ोसवालों से भी जासूस को पता मिला कि लच्छन एक अठवाड़े से बीमार पड़ा है। बीमार भी ऐसा कि चारपाई से किसी तरह उठे तो उठे, लेकिन बाहर नहीं जा सकता। कमजोरी के मारे दस कदम चलने के लायक भी नहीं है।

अब जासूस के अकचकाने की बारी आयी। बात क्या है, कुछ जान नहीं पड़ता। यह लच्छन तो इस लायक नहीं है कि डुमराँव जा सके। तब कुछ देर तक यही मन में विचारकर जासूस ने लच्छन का कार्ड निकालकर कहा- “अच्छा लो, यह तुम्हारी चिट्ठी आयी है।“

लच्छन ने हाथ में लेकर देखा और पढ़कर कहा- “अरे, यह तो पुरानी चिट्ठी है। इसी महीने में आयी थी।“

डाक-पियून- “क्या पहले भी तुमको यह मिल चुकी थी?”

“हाँ, यह तो बहुत दिन की आयी है।“ अब लच्छन को अकचकाते देख कर डाक-पियून ने कहा-“तुमको मिली थी, तो तुमने किसको दे दिया था? यह तो हमको डाक में मिली है।“

लच्छन- “डाक में मिली है, तो क्या रूपचन मामा ने कहीं डाक के बम्बे में तो नहीं छोड़ दिया।”

डाक-पियून- “रूपचन मामा कौन?”

लच्छन- “एकठो आए थे। हम लोग तो नहीं जानते, हमारे काका भी नहीं पहचानते, लेकिन कहते थे कि मामा हैं। हमारी माँ तो मर गयी, इसीलिए पहचान नहीं सका।”

“यह कागज भी तुमने उसी को दिया था?” जासूस ने ‘भारतमित्र’ दिखाकर पूछा।

लच्छन ने कहा- “हमने तो नहीं दिया था। हमारी कोठी में आता है। खबर का कागज है। यहीं हमारे डेरे में रखा था, लेकिन मालूम नहीं, इसको आपने कहाँ से पा लिया?”

डाक-पियून- “वह मामा क्या इसी जगह ठहरे थे?”

लच्छन- “हाँ, ठहरे तो यहीं थे, लेकिन कोठी में बराबर जाते थे। रात को यहीं रहते थे। दिन को न जाने कहाँ-कहाँ जाते थे। मालूम नहीं है।”

डाक-पियून- “वह कब से तुम्हारे यहाँ ठहरे रहे?”

लच्छन- “हमारे बीमार पड़ने से सात दिन पहले ही आए थे।“

डाक-पियून- “तुम्हारे बीमार पड़ने पर भी वह कोठी में बराबर जाते रहे?”

लच्छन- “हाँ, कोठी में तो बराबर ही जाते रहे।”

डाक-पियून- “यहाँ से कब गए?”

लच्छन- “यहाँ से तो हमारे बीमार पड़ने के दो ही दिन बाद चले गए।”

डाक-पियून- “तुमने उनको और भी पहले कभी देखा था?”

लच्छन- “नहीं, और तो पहले कभी नहीं देखा था।”

डाक-पियून- “तुम घर चलोगे? अगर चलो तो मैं तुमको बेखर्चा के ले चलूँगा?”

लच्छन- “हम से चला कहाँ जायगा? चारपाई से उतरने में तो दम फूलने लगता है।”

डाक-पियून- “हम तुमको यहाँ से बग्घी पर ले चलेंगे। वहाँ से बराबर गाड़ी पर डुमराँव चलना होगा। तुमको पैदल तो चलना नहीं होगा।”

लच्छन- “सो तो है। लेकिन चाचा नहीं जाने देंगे।”

इतने में एक आदमी उसी कमरे में आया। उसको देखते ही लच्छन ने कहा- “चाचा तो आ गए।” फिर चाचा से कहा- “काहे चाचा! घर जाएँ?”

चाचा- “अरे, अभी खरचा कहाँ है!”

लच्छन- “खरचा यह देते हैं।”

चाचा- “इनको क्या काम है?”

अब डाक-पियून ने लच्छन के चाचा को अलग ले जाकर बहुत कुछ समझाया और दस रुपये का एक नोट देकर कहा-“तुम इसको जाने दो, घर जाएगा तो वहाँ बीमारी भी दूर हो जायेगी। देश का हवा-पानी लगेगा तो सब रोग भाग जाएगा।”

जब खेमई ने लच्छन से सब हाल सुना तब उसे डाक-पियून को सौंप दिया।

अब डाक-पियून उसे अपने साथ बग्घी में बिठाकर वहाँ से चलता हुआ।


4

दूसरे दिन डुमराँव से कोस-डेढ़ कोस की दूरी पर दह में धोबी आछो:-आछो: करके कपड़े धो रहे थे। किनारे पर दूर तक सुंदर सुथरे कपड़े फैले पड़े थे। एक बूढ़ा धोबी हाथ में कपड़ा सरियाकर गा रहा था—

जेहि दिन राम के जनमवा ए भाइजी,

बाजेला अवधवा में ढो..ओ..ल ।

थर-थर काँपेला गरबी रवनवाँ पा-

मुँदई जनमलन मो…ओ…र ।

बिरहा खतम होते-होते दो आदमी एक्के पर सवार दह के पास पहुँच गए। किनारे से थोड़ी दूर पर इक्का खड़ा हुआ। दोनों सवार उतरकर किनारे पर टहलने और कपड़ा देखने लगे।

एक सवार कद का बड़ा, न बहुत छोटा है। बदन का हट्टा-कट्टा जवान है। सिर पर टोपी नदारद है, बदन में कमीज के ऊपर काले सर्ज का कोट है। बड़ी-बड़ी मुरेरदार मूँछों से चेहरा वीर का जान पड़ता है। चौड़े ललाट और शांत गंभीरता व्यंजक नेत्रों से बुद्धिमानी की आभा फूटी पड़ती है। काली किनारी की साफ-सुथरी धोती बदामी बूट पर शोभा दूनी कर रही है। हाथ में चांदी मढ़ा मल्लाका बेंत की छड़ी है। उमर इस बाबू की 40 बरस की होगी। दूसरा कद में उससे लंबा, बदन का दुबला है, उमर कोई 50 बरस की होगी। दाढ़ी और मूँछ के एक बाल भी काले नहीं हैं। सिर ऊँचे और घेरेदार मुरेठे से ढँका है। भाव से बाबू का पुराना नौकर मालूम देता है। बाट-बात में ‘हुजूर!’ कहकर उस बाबू की ताज़ीम करता है।

धोबी-धोबन अकचकाने लगे कि यह दो आदमी कौन एक्के पर आए हैं, न दह के पार जाते हैं, न पीछे लौटते हैं। इसी की भावना में सब सिर झुकाए अपना कपड़ा पात पर पीटने लगे। बिरहा गाने वाले ने अपने बगलवाले से कहा-“मालूम होता है डुमरी के साहु के कोई हैं, वहीं जाते हैं।”

उसने कहा-“डुमरी जाते हैं तो अबेर काहे करते हैं?”

तीसरे ने कह-“नहीं कहीं जाना नहीं है। कोई बड़े आदमी हैं, टहलने आए होंगे। मालूम होता है, भोजपुर में किसी के घर पाहुने आए हैं।”

इतने में एक्केवान उनके पास आ गया। उससे धोबियों ने पूछा-“डुमरी जावोगे का भैया?”

एक्केवान ने कहा-“नहीं हो, हियें तक घूमे आए हैं। हवा खा के टेशन को लौट जाहें।”

बस सब के मन की उकताहट मिट गयी। उधर दोनों आदमी चहलकदमी करते और किनारे का एक-एक कपड़ा देखते जाते थे। एक जगह एक धोती फैली पड़ी थी, उसे दिखाकर टहलनेवाले ने कहा-“क्यों लच्छन! वह काले दागवाली धोती तुम पहचान सकते हो, किसकी है?”

लच्छन ने कहा- “हाँ, यह तो हमारे मामा की ही है। यह पहनकर वह कलकत्ते गए थे, लेकिन इसमें जो काल दाग है सो नहीं था।”

चतुर पाठक पहचानते होंगे, यह वही जासूस है, जो डाक-पियून बनकर मछुआबाजार में लच्छन के घर गए थे और उसे साथ लेकर डेरे पर आए। वहाँ से एक भले आदमी का रूप बनाया और साथ में लच्छन को बूढ़े के रूप में लेकर उसी दिन हावड़ा आए। गाड़ी में सवार होकर दूसरे दिन सवेरे डुमराँव पहुँचे और एक्के पर सवार होकर वहाँ से दह देखने को आए हैं। उसके पीछे जो हो रहा है, सो पाठक जानते हैं।

लच्छन की बात सुनकर जासूस ने कहा-“तुमने कभी मामा का बायाँ हाथ अच्छी तरह देखा था?”

लच्छन-–“अच्छी तरह देखा तो था। कानी (कनिष्ठिका) उँगली सदा बाँधे रहते थे। जब तक रहे, तब तक उनकी उँगली में दरद रहा।”

जासूस ने मन में कहा–“ठीक है। वही बदमाश यहाँ तक आया है। फिर पूछा–“यह तुम कैसे जानते हो कि यह धोती वही है?”

लच्छन– “यही है साहब। इसकी किनारी में बँगला लिखा है। एक ओर का आँचर फटा हुआ है। देखिए, इसमें भी आँचर एक ही ओर है, लेकिन यह काला दाग नहीं था। हम बराबर उनकी धोती फींचते रहे, लेकिन काला दाग कभी नहीं देखा।”

“अच्छा ठीक है”–कहकर जासूस वहाँ से धोबी के पास आया। उसी बिरहा गानेवाले बूढ़े से पूछा- “क्योंजी, वह कपड़े किसके हैं?”

धोबी–“आप भी अच्छा पूछते हैं। वह कपड़े क्या एक आदमी के हैं?”

जासूस– “अरे वह उधरवाली किनारीदार धोती, जिस पर काला दाग लगा है और एक ओर का आँचर नहीं है।”

धोबी–“वह एक मुसाफिर की है। पहचानते हैं, लेकिन नाम नहीं जानते।”

जासूस–“अच्छा, नाम नहीं जानते तो घर पहचानते हो?”

धोबी–“घर भी नहीं पहचानते। आज ही कपड़ा देने का वादा है। यहीं वह कपड़ा दे गया था और यहीं से ले भी जाएगा।”

जासूस–“कब ले जाएगा?”

धोबी–“अब आता ही होगा। दोपहर के बाद आने को बोला था।”

जासूस–“अच्छा भाई, जाने दो। उससे कुछ मत कहना। यह धोती बहुत बढ़िया है। इसी से हम मालिक का नाम जानना चाहते थे। उससे पूछते कि ऐसी बढ़िया धोती कितने दाम पर कहाँ से खरीदी गयी है! मालूम होता तो हम भी लेते। इसकी किनारी पर बड़े रसीले दोहे लिखे हुए हैं।”

धोबी–“क्या लिखा है बाबू, हमको भी बतला दीजिए तो वह रसीला दोहा याद कर लें। हमको भी इन बातों से शौक है। कविता, चौपइया हम बहुत याद करते हैं।”

जासूस–“अच्छा, तुमको चाह है तो लो, बतलाये देते हैं उस पर दोहे लिखे हैं।”

और जासूस ने मैथिल कवि विद्यापति के पद सुना दिए।

धोबी–“वाह बाबू जी, वाह! यह तो खूब रसीला दोहा है।”

इतने में सामने से एक अकड़बेग आता हुआ दिखाई दिया। धोबी ने कहा-“देखो बाबू, वही आदमी धोतीवाला आता है।”

बस, इतना सुनते ही दोनों टहलनेवाले वहाँ से दूर हट गए–मानो मुसाफिर हैं, धोबी से कुछ बातचीत नहीं है। उधर वह आदमी भी पास आ गया। उसका पहनाव‑पोशाक भले आदमी का है। मलमल का खूब बढ़िया कमीज है। बूताम चाँदी के लगे हैं। कड़कड़ाते हुए चिकने कफ़ और प्लेट देखने से विलायती माल मालूम देता है। कमर से नीचे आसमानी रंग की लहर मारती हुई फरसडांगा की काली किनारीवाली धोती है। पाँव में काला वार्निश का चमचमाता लैसदार जूता है। हाथ में सींग की काली छड़ी है। सिर पर रेशमी मुरेठा है। आबताब से एक बड़े घर का जवान मालूम देता है। पास आ जाने पर जासूस ने देखा तो उसकी दसों उँगली सही सलामत हैं। लच्छन ने भी जासूस के कान में कह-“यह तो हमारे मामा नहीं हैं।”

जासूस ने “चुप रहो” कहकर उसका मुँह बंद किया और टहलते-टहलते धोती के पास आए। अकड़बेग ने भी धोबी से आते ही कहा–“क्यों बे धोबी! धोती तैयार है?”

धोबी–“हाँ सरकार, सूखती है।“

अकड़बेग– “अरे सूरज डूबता है तौ भी सूखती ही है?”

धोबी– “का करें बाबू, तैयार तो बड़ी देर से है। आजकल का घाम ही तेज नहीं, नहीं तो अब तक कभी की सूख गयी होती।”

अकड़बेग– “हम तो स्टेशन पर से आते हैं। गाड़ी आने का वक्त हो गया। फिर कैसे बनेगा?”

धोबी– “तो बाबूजी! आप ले न जाइए, सूख भी तो गया। गाड़ी के वास्ते तो आप ही देर करके आए हैं। आते ही हम अगर आपको हाथ में दे देते तौ भी आप गाड़ी नहीं पा सकते थे!”

धोबी इतना कहता हुआ पानी में से निकला और उसकी धोती सरिया कर दे दी। उसने देखकर कहा– “अजी तुमने यह दाग छुड़ाया ही नहीं।”

धोबी– “वह तो बाबूजी अलकतरा का दाग है। हम धोते-धोते थक गए, लेकिन नहीं छूटा।”

अकड़बेग– “तो फिर तुम्हें इनाम कैसे दें?”

धोबी– “कोई धोबी इस दाग को छुड़ा दे बाबूजी, तो हम टाँग की राह से निकल जाएँ। हमलोग राजदरबार का कपड़ा धोनेवाले हैं, दूसरे का तो काम ही नहीं करते।”

अकड़बेग–“ तो लो, दो पैसे अपनी धुलाई ले लो। अगर दाग छुड़ा देते तो हम इनाम भी देते। तुमने दाग नहीं छुड़ाया, इसी से हमारी तबीयत खुश नहीं हुई।”

इतने में जासूस ने घड़ी निकालकर देखी और कहा– “देखो जी लच्छन! चलो जल्दी, अब गाड़ी आया चाहती है।”

लच्छन एक्केवाले को पुकारने गया। इधर जासूस से अकड़बेग ने कहा– “क्यों जनाब, आप लोग भी गाड़ी ही पर जावेंगे क्या?”

जासूस- “हाँ साहब, गाड़ी ही पर जाना है।”

अकड़बेग– “मैं भी तो साहब, गाड़ी ही पर जानेवाला था। हमारा एक साथी स्टेशन पर बैठा है। हम दोनों आदमी तैयार होकर स्टेशन पर आए, तब धोबी की याद आयी। वहाँ से एक्के पर आता था। भोजपुर के नाले में आकर घोड़े ने ठोकर ली। एक्का भी गिरा, पहिया टूट गया। एक्केवाले को भी बड़ी चोट आयी। भगवान की दया से मुझे चोट नहीं आयी। जब देखा कि एक्का अब काम का नहीं रहा, तब उस नाले पर से पैदल आया हूँ। आप अपने एक्के पर मुझे बिठा लें तो बड़ी दया करें। मैं पैदल चलकर गाड़ी नहीं पा सकूँगा।”

जासूस तो चाहता ही था। पहली बार मंजूर करके कहा–“कुछ परवाह नहीं। आप आइए। शरीफ की इज्जत शरीफ ही समझता है। फिर हमको भी तो उसी गाड़ी पर जाना है।”

इतना कहकर उसको भी उसी एक्के पर चढ़ा लिया। अब तीनों आदमियों को बिठाकर एक्केवान ने घोड़ा हाँका। सड़क कच्ची लेकिन ठीक थी। बीच में दो-तीन नाले पड़े; उनको पार करके कोई आधे घंटे में एक्का सब सवारों को लादे डुमराँव के स्टेशन पर आ दाखिल हुआ।

एक्का ज्योंही स्टेशन के सामने खड़ा हुआ, अकड़बेग उतर पड़ा। जासूस भी लच्छन के साथ उतरा। तीनों मुसाफिरखाने में गए। अकड़बेग ने अपने साथी से कहा-“यार, बड़ी आफत में पड़ गए। एक्का बीच रास्ते ही में जाकर टूट गया। मैं तो वहाँ पैदल गया था। लेकिन लौटती बेर यह बाबू मिल गए; इन्हीं ने हमको अपने एक्के पर यहाँ पहुँचाया है। नहीं तो गाड़ी नहीं मिलती।”

लच्छन ने खूब घोपदार दाढ़ी-मूँछ पहना था। इसी से अकड़बेग के साथी ने उसको नहीं पहचाना। लेकिन लच्छन ने झट पहचानकर सिर हिलाया और जासूस से आँखों का टेलीग्राम करके कह दिया कि यही हमारे मामा साहब हैं।

अँधेरा हो चला था। सूर्यदेव पच्छिम में छिप चुके थे, संध्या की तिमिर-वरणी छाया गहरी होती जाती थी। इतने में दूसरी घंटी बजी। गाड़ी दिख पड़ी। हरहराती हुई पसिंजर डुमराँव के स्टेशन में आ खड़ी हुई। लच्छन के मामा पहले से टिकट ले चुके थे, या क्या, झट इंटर-क्लास में दोनों जा बैठे। जासूस ने भी भीतर जाकर इंटर‑क्लास के दो टिकट लिए और उसी गाड़ी में उन दोनों के पास वाले कमरे में जा बैठे। टन टन टन, टन टन टन, टन टन टन, घंटा बजा। गाड़ी सीटी देकर चलती हुई।


5

गाड़ी दिलदारनगर में पहुँचकर कोई बीस मिनट खड़ी रही। इतने में एक लीला हुई। देखा तो मुसाफिरों की भीड़ में बाबू सबसे टिकट ले रहे हैं। रेलवे पुलिस का एक कॉनिस्टबल “अरे कोई बैरन है, भाई, बैरन?” कहकर पुकारता है। बाबू–“यह बैरिंग है यह”, कहकर गाँठ लादे और गोद में लड़का लिए मुसाफिरों को उनके हवाले किए जाते हैं। जब सब मुसाफिर चले गए, चार रह गए; तीन हावड़े से आते हैं, एक के साथ एक छोटा सा लड़का था। एक के पास बत्तीस सेर, दूसरे के पास अड़तीस सेर, तीसरे के पास साढ़े तैंतीस सेर माल है। सब से तीन-तीन रुपये लेकर स्टेशनवालों ने छोड़ दिया। यह लड़केवाला हुगली से आता है। सो हुगली का पूरा महसूल उससे लिया गया।

वह बारहा चिल्लाया–“बाबू जी, दस बरस का लड़का है,” लेकिन बाबू ने कहा–“चुप रहो सूअर, वहाँ बाबू को रुपया देकर बिना टिकट आया है।”

मुसाफिर ने कहा–“तब तो बाबू जी, आप बड़ा धरम करते हैं, एक रुपया वहाँ भी दिया, पूरा महसूल आप लेते हैं तो कितना पड़ गया?”

बाबू ने कहा–“यह इस वास्ते है कि तुम फिर ऐसा नहीं करोगे।”

इतने में बाबू ने “ऑलराइट सर” कहा। गार्ड ने झंडी दी। गाड़ी सीटी बजाकर चलती हुई। पूछने पर मालूम हुआ कि सकलडीहा से कोई मालगाड़ी आती थी, इसी वास्ते पसिंजर उसके आने तक ठहरी रही।

गाड़ी जब सकलडीहा स्टेशन में पहुँची, मोगलसराय जब एक ही स्टेशन रह गया, लच्छन के मामा अपने साथी को जगाकर आप बेंच पर सो गए थे–जासूस ने घात पाकर उसके जेब में हाथ डाला। उसमें दो रुपये छींट की एक रुमाल में बँधे रखे थे। जासूस ने उसको अपनी जेब के हवाले किया। फिर हाथ दूसरी ओर के जेब में डाला। वह कुछ नीचे दबा था। हाथ डालते ही लच्छन के मामा अकचका कर उठे और झट जासूस का हाथ पकड़ लिया। कहा–“क्यों रे पाजी! चोर कहीं का, जेब में हाथ डालता है?”

जासूस ने काँपती जीभ से कहा–“नहीं सरकार, हम चोर नहीं हैं।“

लच्छन के मामा–“ठीक है, ठीक। मैं समझ गया, तू चोर है। तभी डुमराँव के राह से पीछा किया है। मैंने ठीक पहचाना नहीं, एक्के पर चढ़ के वहाँ तक आया, तूने घात नहीं पाया, यहाँ सो जाने पर जेब टटोलता है। तू कलकत्ते का गिरहकट है।”

जासूस–“नहीं सरकार…”

इतने में मामा ने अपने दूसरे जेब में हाथ डाला तो रुपया बँधी रुमाल नदारद! अब तो जकड़कर जासूस को पकड़ा। इतने में गाड़ी मोगलसराय के स्टेशन में जा खड़ी हुई। मामा जोर से ‘चोर-चोर’ चिल्लाने लगे। रेलवे पुलिस के कानिस्टबल आए, सब-इन्स्पेक्टर पहुँचे। देखा, तो गाड़ी में एक जवान भले आदमी की पोशाकवाले को दो आदमी पकड़े ‘चोर-चोर’ चिल्ला रहे हैं। एक चौथा बूढ़ा बगल में चुपचाप बैठा है। सबको पुलिस ने उतारा। पूछने पर बूढ़े ने कहा–“हाँ साहब, इन्होंने उसके जेब में हाथ डाला था।”

जामा तलाशी लेने पर उसके जेब से रूपचन मामा का माल मिला। अब पुलिसवालों ने उस गिरहकट को उसी दम पकड़ लिया और मुद्दई को भी दोनों गवाहों के साथ रोक रखा। जब कानिस्टबल चोर को गारद में बंद करने के लिए ले गया, तब भीतर जाकर चोर ने उससे कहा–“देखो जी, हम चोर नहीं, पुलिस के आदमी हैं। चोर वही दोनों हैं। वह बूढ़ा मेरा साथी है। तुम जाकर दारोगा साहब को यहाँ भेज दो।”

कानिस्टबल ने कहा–“क्या खूब! आप चोर औरों को बनावें। दारोगा और हम तुम्हारे नौकर हैं रे बदमाश?”

इतना कहकर कानिस्टबल ने आँख बदली। कुछ और मुँह से बकना चाहता था कि चोर ने अपनी कमर में एक चीज दिखाई। कानिस्टबल ने उसे देखते ही पीछे हटकर सलाम किया। कमर में जासूस का निशान देखकर कानिस्टबल ने पहचान लिया और आदाब से सलाम करके दरोगा साहब को बुलाया। दरोग़ा ने गारद में आकर कहा–“क्यों जनाब, क्या मामिला है?”

उसने कहा– “मामिला ऐसा है कि दोनों डुमराँव स्टेशन से पाँच हजार का माल चुराकर भागे जाते हैं। मैं अकेला इन दो-दो पहलवानों से पार नहीं पाता और इन्होंने रास्ते में सकलडीहा स्टेशन से ही उतरने का इरादा किया था। तब मैंने यही सोचा कि इसका कुछ चुराना चाहिए। बस, रुमाल चुरा ली। उसमें रुपये बँधे थे। जब नहीं जागा, तब दूसरे पॉकेट में हाथ डालकर जगाया। जो बूढ़ा बैठा था, वह मेरा कहार है।”

“ओफ, तब तो आपने कमाल किया। माफ कीजिए, कहिए, अब क्या करना चाहिए?”

“अब उन दोनों को हथकड़ी भर दो। माल जो दो गठरी में लिए हुए हैं, वही माल मसरूका है। उसमें शॉल, दुशाले, लोई, अलवान और रेशमी कपड़े हैं। सब पाँच हजार की गठरी महाराज के वास्ते कलकत्ते से आयी थी। उसी को गोदाम से इन्होंने उड़ा लिया है।”

दारोग़ा ने कहा–“हाँ हाँ, कई रोज हुए तार आया था। वही माल तो नहीं कि ताला बंद का बंद ही था और गठरी गायब हो गयी है?”

“हाँ, हाँ ! वही है।” कहकर चोररूपधारी जासूस ने कहा–“उनको जल्दी गिरफ्तार करो।” चोर बड़े मजबूत थे। दस कानिस्टबल दो हथकड़ी लिए उनके पास गए और सब इंस्पेक्टर के आँख देते ही दोनों को हथकड़ी भर दी। गारद से चोर साहूकार बनकर बाहर आया, जो साहूकार बने थे, वह चोर हुए। अपराध की ऐसी तुंबाफेरी यहीं देखने में आयी।

अब दोनों गिरफ्तार होकर गारद में बंद हुए। दोनों की गठरी खोली गयीं तो दोनों में शॉल, दुशाले और रेशमी कपड़े भरे थे। तार देकर सुगनचंद सोहागचंद को बुलाया गया। महाजन ने अपने गुमाश्ते के साथ आकर माल पहचाना। एक कपड़ा भी नहीं गया था। सब फ़िहरिश्त के मुताबिक मिल गया।

अब जासूस ने गारद में अकेले जाकर पूछा–“देखो, अब तो सब माल मिल गया। तुमलोग माल के साथ ही पकड़े गए। अब सच्चा हाल कह दो, कैसे चुराया था?”

कुछ भरोसा देने पर लच्छन के मामा ने कहा– “देखो बाबू, हमने जिस तरकीब से चोरी की, उससे तो तुम्हारा पकड़ना और बढ़कर है। हम लोगों को सपने में भी पकड़े जाने का डर नहीं था। अगर ऐसा समझते तो और तरकीब कर डालते। लेकिन खैर, अब तो पकड़े ही गए। नहीं कहने से भी नहीं छूट सकते। सुनो, सब हाल बयान करते हैं।”


6

अब लच्छन के मामा ने बयान किया–

हम लोग बनारस के रहने वाले हैं। चोरी ही का रोजगार करने कलकत्ते पहुँचे थे। सुना था कि वहाँ पुलिसवाले बड़े चतुर होते हैं। सो यही देखने गए थे। कलकत्ते जाकर लच्छन के यहाँ पहुँचे। लच्छन का बाप बनारस में रहता है। बनारस से चलते ही उससे लच्छन का हाल, उसका मशहूर महाजन सुगनचंद-सोहागचंद के यहाँ नौकरी करना, मालूम हो गया था। बस वहाँ जाकर लच्छन के मामा बन गए। सुगनचंद-सोहागचंद की कोठी में बराबर आना-जाना रहा। सब खबर नौकरों से मिलती रही। एक रोज मालूम हुआ कि डुमराँव के राजा ने पाँच हजार का शॉल, दुशाला, लोई, अलवान और रेशमी कपड़े माँगे हैं। मैं बराबर भेद लगाता रहा। दो दिन पहले से मालूम हो गया कि माल परसों जाएगा और माल वहाँ से आदमी बाली ले जाएगा, वहाँ से पार्सल में रवाना होगा। हम दो साथी थे। एक धर्मशाला में ठहरा था। उसी ने खूब लम्बी-चौड़ी संदूक तैयार कराई, उसमें ऊपर से बंद करने का निशान था, लेकिन भीतर से बंद होता था। मैं उसी में बैठ गया और दो-चार ईंट, एक पत्थर का टुकड़ा उसमें रखकर नीचे पयार बिछाकर लेटा। ऊपर से भी साथी ने पयार भर दिया कि मुझे चोट न लगे। मेरे साथी ने बाबू को एक रुपया देकर उसी कपड़े के पार्सल के साथ अपना लगेज चढ़वा दिया। आप लगेज रसीद लेकर उसी गाड़ी में सवार हुआ। रात को गाड़ी डुमराँव पहुँची। लगेज रात को नहीं लिया। गोदाम में संदूक और पार्सल (कपड़े की गाँठ) दोनों रखे गए; वहाँ अँधेरा था। बाहर से ताला बंद था। भीतर से मैं संदूक खोलकर बाहर निकला और कपड़े की गाँठ उसमें रखकर ईंट-पत्थर, पयार सब निकाल दिया। फिर आप भीतर बैठकर अंदर से चाभी बंद कर ली। हमारा साथी सधा था ही। आकार उसने रसीद दी और पार्सल छुड़ा ले गया। बाबू लोगों ने कुछ नाह-नूह की, लेकिन उन्हें भी एक रुपया दिया। बोझा भारी कहकर बाबू ने वजन कम करने का बखेड़ा लगाना चाहा था, लेकिन मेरे साथी ने दो रुपया उसके वास्ते अलग नजर किया। अब कुछ भी रोकटोक नहीं हुआ। कुलियों को मुँहमाँगा देकर संदूक छुड़ा ले गया। बाहर भोजपुर के पास नाले में जाकर गाड़ीवाले को हम लोगों ने विदा कर दिया। जब वह अपनी आशा से दूना इनाम पाकर चला गया तब मैं बाहर हुआ और संदूक को वहीं तोड़-फोड़कर डाल दिया।

“गठरी के दो हिस्से करके दोनों आदमी ने कंधे पर लिया और डुमराँव की सराय में जा ठहरे। गोदाम में मेरी धोती अलकतरे से चफन गई थी, उसको धोबी को दे दिया। वह धोती हमारी समहुत की थी, इसी से उसके लिए डुमराँव में ठहरे रहे। किसी ने कुछ भेद तो नहीं पाया, लेकिन मैं मन में डरता था कि यहाँ की देरी अच्छी नहीं है, सो ही हुआ। न जाने आपने कैसे पता पा लिया।”

जासूस–“गोदाम में तुमने धोती का रंग और हाथ किवाड़ में पोंछा था?”

चोर–हाँ, जब मैं गिरा तब दोनों हाथ और पीठ में अलकतरा चफन गया था। हाथ भी किवाड़ में पोंछा था। जब छूटने का भरोसा नहीं दिखा, तब संदूक में जा बैठा था।”

बनारस के कोतवाल ने आकर देखा तो पहचाना और कई बार का सजा पाया हुआ पुराना चोर कहा।

जासूस माल के साथ दोनों को गिरफ्तार करके डुमराँव ले गया। डेलीवरी करने वाले बाबू ने चोर के साथी को पहचाना, फिर उसका बयान लेकर जासूस माल के साथ दोनों को कलकत्ते ले गया। वहाँ कानून के अनुसार, इन दोनों पर मुकद्दमा हुआ। अदालत से अपराध उनका साबित होने पर पुराना चोर होने के कारण दोनों दस-दस बरस को कैद हुए। जासूस को महाजन की ओर से 500 इनाम और सरकार से प्रशंसापत्र मिला। अब जासूस खुश होकर दूसरे मुकद्दमे में तैनात हुआ।


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6 Comments on “कहानी: मालगोदाम में चोरी – गोपाल राम गहमरी”

  1. गोपाल राम गहमरी जी का साहित्य बहुत कम पढा है।
    आपका यह प्रयास सराहनीय है।
    धन्यवाद।

    1. जी आभार। कहानी आपको पसंद आयी यह जानकार अच्छा लगा। हार्दिक आभार।

  2. अच्छी कहानी है, हो सके तो गोपाराम गहमरी जी की और जासूसी कथाएं डाले।

    1. जी और कहानियाँ लाने की कोशिश रहेगी।

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