राधेमोहन नाम का वह ब्लैकमेलर जब सुनील के पास आया तो सुनील ने उसकी मदद करने से मना कर दिया। सुनील क्या जानता था कि उसे इसी मामले में हाथ डालना पड़ जाएगा।
डरपोक अपराधी लेखक सुरेन्द्र मोहन पाठक (Surender Mohan Pathak) द्वारा लिखित सुनील शृंखला (Sunil Series) का 27वाँ उपन्यास है। यह उपन्यास प्रथम बार 1969 में प्रकाशित हुआ था।
आज एक बुक जर्नल पर पढ़िए इसी उपन्यास का एक छोटा सा मगर रोचक अंश।
*****
उस आदमी ने होंठ बिगाड़ कर उसकी ओर देखा और फिर बिना कुछ बोले द्वार की ओर बढ़ गया।
सुनील के होंठों पर एक मुस्कराहट दौड़ गई। उस आदमी की दाईं जेब में से आधा बाहर झाँकता हुआ लिफाफा सुनील के हाथ में पहुँच चुका था। सुनील ने जल्दी से उस लिफाफे को दौहरा करके अपने कोट की भीतरी जेब में रखा और फिर बियर का बिल चुका दिया। उनसे मुश्किल से बियर के दो-तीन घूँट ही पिये थे।
फिर वह भी तेजी से बाहर निकल गया।
वह आदमी फुटपाथ पर एक ओर चला जा रहा था।
अंधकार हो चुका था, सड़क की और दुकानों की बत्तियाँ जल चुकी थीं और सड़क पर लोगों की भीड़ भी बढ़ गई थी।
उस भीड़ में सुनील उस आदमी का पीछा करता रहा।
शायद शराब के नशे में उस आदमी को थोड़ा लापरवाह बना दिया था। उसने एक बार भी पीछे घूमकर नहीं देखा था। उसे इस बात का अहसास नहीं था कि सुनील फिर उसका पीछा कर रहा था।
वह आदमी भीड़ भरी सड़क को छोड़कर एक अन्य सड़क पर दाईं ओर घूम गया। उस सड़क पर ट्रेफिक कम था। बहुत कम लोग आते जाते दिखाई दे रहे थे।
सुनील ने उस सड़क पर घूमने से पहले उसे काफी आगे निकल जाने दिया। फिर वह अपने आपको एक निश्चित फासले पर रख पूर्ववत उसका पीछा करने लगा।
काफी आगे चलकर वह आदमी फिर दाईं ओर घूम गया और सुनील की दृष्टि से ओझल हो गया।
सुनील तेजी से चलता हुआ उस रास्ते के मुँह पर पहुँचा जिधर उसने उस आदमी को जाते देखा था। वह दोनों ओर बने बंगलों की लंबी कतार में से गुजरता हुआ एक रास्ता था जिसके दोनों और पेड़ उगे हुए थे। रास्ते के मुँह के पास के एक बिजली के खंबे पर बल्ब जल रहा था। आगे के तीन चार खंबों का बिजली का बल्ब उस रास्ते की पूरी लंबाई का अंधकार दूर करने के लिए अपर्याप्त था।
सुनील को उस लगभग अँधेरी गली में वह आदमी कहीं दिखाई नहीं दिया। रास्ता एकदम सुनसान पड़ा था।
सुनील दाएँ-बाएँ देखता हुआ सावधानी से आगे बढ़ने लगा।
शायद वह आदमी उन बंगलों में से किसी एक में प्रविष्ट हो गया था। सुनील आगे बढ़ रहा था और उचक-उचक कर दाएँ-बाएँ के बंगलों के भीतर झाँकता जा रहा था इस आशा में कि शायद कहीं उसे वह आदमी दिखाई दे जाये।
वह रास्ता आगे से बंद था इसलिए यह बात तो निश्चित ही थी कि वह आदमी उन बंगलों में से ही किसी एक में प्रविष्ट हुआ था।
सुनील जानता था कि अंत में उसे यही करना पड़ेगा कि वह उस गली में खड़ा तब तक प्रतीक्षा करता रहे जब तक कि वह आदमी जहाँ गया है वहाँ से बाहर न निकल आये।
वह पूर्ववत आगे बढ़ता रहा।
फिर एकाएक सुनील को यूँ लगा, जैसे उस पर पहाड़ टूट पड़ा हो।
इससे पहले कि वह स्थिति को समझ पाता वह जमीन चाट रहा था।
जमीन पर पड़े-पड़े एक क्षण से भी कम का समय उसे अपने आक्रमणकारी पर दृष्टिपात करने का मिला।
वह वही बदमाश था जिस का पीछा करता हुआ यहाँ तक आया था। शायद वह किसी पेड़ के पीछे छुपा हुआ था और सुनील के वहाँ से गुजरते ही उसने पीछे से सुनील पर छलाँग लगा दी थी।
इससे पहले कि सुनील संभल पाता, उस आदमी के भारी बूट वाले पाँव की भरपूर ठोकर सुनील के पेट में पड़ी।
सुनील के मुँह से एक घुटी हुई चीख निकली और वह फुटबाल की तरह दूसरी ओर उछल गया।
उस आदमी के पाँव की दूसरी ठोकर फिर उसके पेट में पड़ी। वह उसे संभलने का कतई मौका नहीं दे रहा था।
यह सोचना सुनील की गलती थी कि वह आदमी उसके प्रति एकदम लापरवाह था। शायद उसे ‘क्वालिटी’ से निकलने के बाद से ही मालूम था कि सुनील उसका पीछा कर रहा था। इसलिए शायद वह जान-बूझकर ऐसे रास्ते पर पहुँच गया था जहाँ वह अकस्मात सुनील पर आक्रमण कर सके।
उस आदमी का पाँव पूरी तेजी से हवा में घूमा। इससे पहले की उसके पाँव की ठोकर सुनील के शरीर से टकरा पाती सुनील ने दोनों हाथ फैलाए और झपट कर उसका पैर पकड़ लिया। लेकिन उसका इच्छित फल सुनील को नहीं मिला। न तो उस आदमी का बैलेंस बिगड़ा और न ही सुनील की पकड़ बरकरार रह सकी। उसका पाँव छूटते ही फिर सुनील की छाती से टकराया।
वह आदमी तनिक लड़खड़ाया और फिर संभल गया।
उस एक क्षण में सुनील उछल कर अपने पैरों पर खड़ा हो गया।
सुनील ने अपनी पूरी शक्ति से उस आदमी पर अपने दाएँ हाथ का घूँसा चलाया। वह आदमी हाथ उस आदमी के सिर के ऊपर से हवा को चीरता हुआ गुजर गया।
वही एक अवसर था जब सुनील को उस आदमी पर प्रहार- निष्फल प्रहार – करने का अवसर मिला था। उसके बाद उस आदमी ने सुनील को घूँसों पर धर लिया।
उस आदमी के घूँसे तब तक सुनील के शरीर के विभिन्न भागों पर बरसते रहे जब तक सुनील का शरीर निश्चेष्ट होकर उस रास्ते की पथरीली जमीन पर लोट नहीं गया।
उस आदमी ने सुनील की टाँगे पकड़ी और फिर उसे घसीट कर रास्ते के किनारे दो समीप-समीप उसे पेड़ों के पीछे डाल दिया।
फिर वह लम्बे डग भरता हुआ वापिस चला गया।
*****
पुस्तक विवरण:
पुस्तक: डरपोक अपराधी | लेखक: सुरेन्द्र मोहन पाठक | प्रथम प्रकाशन: 1969 | शृंखला: सुनील सीरीज | पुस्तक लिंक: किन्डल
नोट: एक बुक जर्नल पर प्रकाशित उपन्यासों के अंशों का उद्देश्य पाठकों के मन में उपन्यासों के प्रति उत्सुकता जागृत करना है। अगर आप भी अपने पुस्तकों के अंशों को इस पटल पर साझा करना चाहते हैं तो अपनी पुस्तक का 1000-1500 शब्दों का अंश हमें contactekbookjournal@gmail.com पर मेल कर सकते हैं।
यह भी पढ़ें
- जनप्रिय लेखक ओम प्रकाश शर्मा के उपन्यास ‘नूरजहाँ का नैकलेस’ का एक रोचक अंश
- राज भारती के इन्द्रजीत शृंखला के स्टंट थ्रिलर ‘पराई आग’ का एक रोचक अंश
- अजिंक्य शर्मा के उपन्यास ‘द ट्रायो’ का एक रोचक अंश
- विभूतिभूषण बंदोपाध्याय के उपन्यास ‘चाँद का पहाड़’ का एक रोचक अंश
- संतोष पाठक के उपन्यास ‘मौत की दस्तक’ का एक रोचक अंश
रोचक अंश. उपन्यास पढने की इच्छा जागृत हो गयी।
अंश आपको पसंद आया यह जानकर अच्छा लगा। आभार।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार 15 अगस्त, 2022 को "स्वतन्तन्त्रा दिवस का अमृत महोत्सव" (चर्चा अंक-4522)
पर भी होगी।
—
कृपया कुछ लिंकों का अवलोकन करें और सकारात्मक टिप्पणी भी दें।
—
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
—
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
चर्चा अंक में पोस्ट शामिल करने हेतु हार्दिक आभार।