‘नूरजहाँ का नैकलेस’ जनप्रिय लेखक ओम प्रकाश शर्मा का वह उपन्यास है जिसमें उनका प्रसिद्ध पात्र जगत पहली बार पाठकों के समक्ष आता है। जगत एक ठग है और जनप्रिय लेखक की रचनाओं में वह अक्सर दिखाई दे जाता है। आज एक बुक जर्नल में पढ़िए नूरजहाँ के नैकलेस का एक छोटा सा अंश। उम्मीद है यह अंश पुस्तक के प्रति आपकी उत्सुकता जागृत करेगी और पुस्तक क्रय कर उसे पढ़ने के लिए आपको प्रेरित करेगी।
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अंचला ने उसकी ओर सिगरेट का डिब्बा बढ़ाया। कुछ अनमने भाव से युवक ने एक सिगरेट लेकर होंठों में लगा ली। अब उसने भी एक सिगरेट अपने होंठों में दबाकर लाइटर जलाया। पहले युवक की और फिर अपनी सिगरेट जलाकर कहा – “कमबख्त बंबई तो एकदम ड्राई है। पिछली बार बड़ी दिक्कत हुई थी। इसलिए अबकी बार साथ ही लाई हूँ। पियोगे?”
– “तुम जानती हो कि मैं शराब का आदि नहीं हूँ।”
– “यह भी जानती हूँ कि न पीने की कसम भी नहीं है। फिर चमकती बिजली, गरजते बादल… यह तो पीने का मौसम है। तुम पियो और मैं पिलाऊँगी।’ अंचला ने अपनी दोनों बाहें आगे बढ़ा कर कहा – “यह हाथ पिलाने के लिए और यह बाँहें गले का हार बनने के लिए आतुर हैं।”
वह मुस्कराया – “तुम्हारा तो हर महीने नाम बदलता है। बात समझ में आ गई है कि अगस्त महीने का नाम अंचला है… परंतु मेरा नाम विजय कब से हो गया?”
– “जुलाई की अठारह तारीख से।”
-”खैरियत तो है?”
– “खैरियत ही तो है। मैंने निश्चय किया है कि अब व्यर्थ की भाग-दौड़ में अपने आपको परेशान नहीं करूँगी। तुम्हें अपना जीवन-साथी बनाऊँगी और बाकायदा घर की रानी बन कर रहूँगी।”
युवक, जिसे अब विजय कहना ही उचित होगा उठ कर इस सुंदरी के निकट आ गया और दोनों हाथ उसके खूबसूरत कंधों पर रख कर बोला – “मुझको उल्लू बनाने की कोशिश मत करो। साफ-साफ बताओ कि तुम स्वयं बंबई क्यों आई हो और मुझे क्यों बुलाया है?”
– “तुम्हें अपना बनाने के लिए। सदा के लिए…।”
– “अगर मैं भूलता नहीं हूँ तो अब से पहले अठारह अभागों को तुमने अपना बनाया था। उनमें से कोई आत्महत्या करके मर गया, कोई फाँसी खाकर मर गया और कई जेलों में सड़ रहे हैं। मुझ बेचारे ने क्या गुनाह किया है जो मुझे सदा के लिए अपना बनाने की सजा दी जा रही है?”
– “मुझे शिकायत है कि तुम मुझे समझ नहीं पाए।”
– “और मेरा दावा है कि जितना मैं तुम्हें समझता हूँ उतना तुम्हें कोई दूसरा नहीं समझता। लगता है अकेली आई हो। राजकुमार भूपेन्द्र क्या बिल्कुल दिवालिया हो गए?”
सुंदरी अंचला ने विजय के गले में बाँहें डाल दीं। आँखें उठीं – “तुम्हारे उलहाने आज नए तो नहीं सुन रही हूँ। मुझे मज़ा आता है तुम्हारे मुँह से गालियाँ सुन कर। परंतु आज से, इसी क्षण से मैं तुम्हारी हुई। मेरी बाँहें जयमाला बनकर आज तुम्हारे गले में पड़ी हैं।”
विजय झुका। अंचला के अधरों के रसपान में उसने कुछ क्षण के लिए अपनी वास्तविकता को भुला दिया… जिसके अनुसार कथित अंचला एक मायावी चरित्र की नारी थी।
परंतु कुछ क्षणों बाद उस सुंदरी को बाँहों में पुनः भरकर उसने फिर अपना प्रश्न दोहराया-”अब कहो, क्यों बुलाया है?”
-”कल सुबह हम दोनों लंदन के लिए प्रस्थान करेंगे। पासपोर्ट, वीजा आदि का सब प्रबंध मैंने कर लिया है। पासपोर्ट के अनुसार मेरा नाम अंचला और तुम्हारा नाम विजय है। हम दोनों पति-पत्नी हैं।”
– “तो यह कोई नया जाल है? किसे फाँसने जा रही हो लंदन…?”
– “लंदन पहुँचकर तुम मेरी अंतिम महत्वाकांक्षा पूरी करोगे और मैं सदा के लिए तुम्हारी हो जाऊँगी।”
– “सुनो ठग को ठगने की चेष्टा मत करो। जो बात है वह साफ-साफ बताया दो।”
– “कैसे अविश्वासी हो तुम भी!” युवक के कंठ से अपने होंठ सटाते हुए उसने कहा-”जो सदा के लिए किसी के नाम का सिंदूर अपनी माँग में भर रही हो… क्या उसे अपने देवता से एक उपहार माँगने का भी अधिकार नहीं है? मुझे नूरजहाँ का नैकलेस चाहिए।”
विस्मय से विजय ने अंचला को निहारते हुए कहा, “कहाँ मिलेगा?”
– “लंदन में।”
– “कितने मूल्य का है?”
– “तुम मूल्य पूछ रहे हो?”
– “बेशक! लंदन का मामला है। स्कॉटलैंड यार्ड पुलिस के नाम से अच्छे-अच्छे पानी माँग जाते हैं।”
– “सुना है तीन लाख रुपये का नीलाम होगा।”
-“अपने राजकुमार भूपेन्द्र से कहो न!”
– “तुमसे कह रही हूँ।”
– “मेरे बूते की बात नहीं।”
-”अभी तुमने उन अठराह अभागों को याद किया था जो जेल में सड़ रहे हैं, फाँसी पा चुके या आत्महत्या करके अपना खेल समाप्त कर गये। मेरा ख्याल है तुम उन्नीसवें बनना पसंद नहीं करोगे… दस साल भी अगर जेल में रहे तो जवानी गल कर पानी हो जायेगी।”
– “तुम मुझे धमकी दे रही हो?” विजय ने अंचला को एक ओर धकेल कर जेब से पिस्तौल निकाल ली।
दूर खड़ी अंचला अब भी मुस्करा रही थी। पुरुषों पर मोहिनी डाल कर वश में कर लेना जैसे विधाता ने उसे वरदान में दिया हो!
शांत व विवेकपूर्ण मुस्कराहट से उसने कहा – “चाहो तो गोली चला सकते हो। लेकिन, यह साधारण-सा काम तुम्हारे लिए कठिन नहीं है। धनुष तोड़ कर सीता को पा जाना केवल राम को शोभा देता था। इसी प्रकार…।”
जाने वह कैसा जादू था जिसने विजय को पिस्तौल पुनः जेब में रखने के लिए मजबूर कर दिया।
वह बढ़ा और उसने सुंदरी को बाँहों में ऐसे कसा कि वह कराह उठी।
-”तुम मुझे डस कर रहोगी नागिन। तुम्हारे लिए अगर मर मिटना ही लिखा है तो यही सही। चलूँगा… लंदन क्या अगर जहन्नुम में भी ले चलोगी तो वहाँ भी चलूँगा।”
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पुस्तक विवरण:
किताब: नूर जहाँ का नैकलेस | लेखक: जनप्रिय लेखक ओम प्रकाश शर्मा | प्रकाशक: नीलम जासूस कार्यालय | पुस्तक लिंक: अमेज़न
नोट: एक बुक जर्नल में प्रकाशित इस छोटे से अंश का मकसद केवल पुस्तक के प्रति उत्सुकता जागृत करना है। आप भी अपनी पुस्तकों के ऐसे रोचक अंश अगर इस पटल से पाठकों के साथ साझा करना चाहें तो वह अंश contactekbookjournal@gmail.com पर उसे हमें ई-मेल कर सकते हैं।