चाँद का पहाड़ लेखक बिभूतिभूषण बंदोपाध्याय के बांग्ला उपन्यास चांदेर पहाड़ का हिंदी अनुवाद है। उपन्यास का अनुवाद जयदीप शेखर जी द्वारा किया गया है। 1937 में प्रकाशित यह किशोर उपन्यास लेखक के सबसे प्रसिद्ध उपन्यासों में से एक है। यह एक रोमांचकथा है जो कि पाठक का भरपूर मनोरंजन करती है।
किताब परिचय
यह गाथा है 1909 के एक भारतीय किशोर शंकर रायचौधरी की, जो साहसिक जीवन जीना चाहता था। संयोगवश वह जा पहुँचता है अफ्रीका, जिसे उन दिनों ‘अन्ध महादेश’ कहा जाता था, यानि जिसके अधिकांश हिस्सों तक मनुष्य के चरण अभी नहीं पहुँचे थे! वहाँ संयोगवश ही उसकी मुलाकात पुर्तगाली स्वर्णान्वेषी दियेगो अलवरेज से हो जाती है। दोनों मध्य अफ्रीका की दुर्लंघ्य रिख्टर्सवेल्ड पर्वतश्रेणी में स्थित पीले हीरे की खान की खोज में निकल पड़ते हैं, जिसके बारे में मान्यता थी कि एक भयानक दैत्य ‘बुनिप’ उसकी रक्षा करता है!
कैसा रहा यह अभियान? क़्या वे सफल हो सके?
पुस्तक लिंक: अमजेन | साहित्य विमर्श
पुस्तक अंश
एक महीना बीता। पश्चिमी अफ्रिका की वर्षा ऋतु शुरू हुई मार्च के पहले हफ्ते में। क्या भयानक वर्षा थी वह! इसकी एक झलक तो शंकर को रिख्टर्सवेल्ड पार होते समय मिल ही गयी थी! ऊँचे-ऊँचे पर्वतों से उतरने वाली झरनों की जलधराओं में घाटी मानो डूब ही गयी। तम्बू तानने लायक जगह तक नहीं। एक रात की भीषण वर्षा में उनके तम्बू के सामने बह रही क्षीण जलधारा ने ऐसा रौद्र रूप धारण किया कि वे तम्बू सहित उसमें बह जाते- अलवरेज की सजग निद्रा के कारण यह विपत्ति टली थी।
कहते हैं कि दिन बीत जाते हैं, तो पल नहीं बीतते। जंगल में एक दिन शंकर एक घोर विपत्ति में पड़ ही गया। यह विपत्ति जरा अद्भुत किस्म की थी।
उस दिन अलवरेज तम्बू के अन्दर अपनी राइफल की सफाई कर रहे थे। यह काम खत्म होने के बाद खाना पकाना तय था। शंकर अपनी राइफल हाथ में लिये शिकार की खोज में निकला हुआ था।
अलवरेज ने उसे बता रखा था कि जंगल में वह काफी सावधानी के साथ घूमना-फिरना करे और उसकी बन्दूक की मैगजीन में कारतूस हमेशा भरा हुआ रहे। एक और मूल्यवान सुझाव उन्होंने दे रखा था कि जंगल में निकलते समय कम्पास को वह अपनी कलाई पर बाँध ले और जिस रास्ते से वह आगे बढ़े, उसके किनारे के पेड़-पौधों पर कोई निशान बनाता जाय, ताकि लौटते समय उन्हीं निशानों की मदद से वह सकुशल वापस लौट सके। ऐसा नहीं करने पर विपत्ति आनी ही है।
उस रोज शंकर स्प्रिंगबक हिरण की खोज में ज्यादा ही घने जंगलों में प्रवेश कर गया। सुबह ही निकला था वह। घूमते-फिरते थक गया, तो एक स्थान पर एक बड़े पेड़ के नीचे थोड़ा सुस्ताने के लिए वह बैठ गया।
उस स्थान पर चारों तरफ बड़ी-बड़ी वनस्पतियों का मेला लगा हुआ था। उन सभी पेड़ों के तनों एवं उनकी डालियों से एक प्रकार की लतायें लिपटी हुई थीं और इन लताओं की छोटी-छोटी पत्तियों ने तनों एवं डालियों को इस तरह जकड़ रखा था कि तनों का अपना रंग दिख ही नहीं रहा था। पास ही एक छोटे-से जलाशय के किनारे झाड़ियों में मारिपोसा लिली के फूल खिले हुए थे।
कुछ देर बैठने के बाद शंकर को कैसी एक बेचैनी-सी महसूस हुई। बेचैनी किस बात की थी, वह खुद समझ नहीं पाया- हालाँकि वहाँ से उठ कर जाने का उसका मन भी नहीं कर रहा था। उसे बेचैनी भी महसूस हो रही थी और वह जगह उसे आरामदेह भी लग रही थी।
लेकिन यह हुआ क्या उसे? उसके सारे शरीर में यह अवसाद कहाँ से चला आ रहा है? मलेरिया बुखार तो नहीं हो गया?
अवसाद से छुटकारा पाने के लिए जेब टटोल कर उसने एक सिगार निकाल कर सुलगाया। हवा में कैसी एक मीठी-मीठी-सी खुशबू तैर रही थी, शंकर को यह अच्छी लग रही थी। थोड़ी देर में जमीन पर से दियासलाई उठा कर जेब में रखने के क्रम में उसे महसूस हुआ जैसे उसके हाथ उसके नहीं- किसी और के हैं, उसकी इच्छा के अनुसार ये हाथ हिलना नहीं चाहते।
धीरे-धीरे उसका सारा शरीर ही एक आरामदायक अवसाद से आच्छन्न होकर शिथिल पड़ने लगा। क्या होगा व्यर्थ भटक कर- मरीचिका के पीछे व्यर्थ भाग कर! लता-वितान की ऐसी नैसर्गिक घनी छाया के नीचे आराम से लेट कर मीठे स्वप्न देखते हुए जीवन बिता देने से ज्यादा सुखमय भला और क्या हो सकता है?
एक बार उसके मन में आया कि दिन चढ़ने तक तम्बू में लौट चला जाए, नहीं तो उसके साथ कुछ बुरा घटने वाला है। एक बार उसने उठने की कोशिश भी की, लेकिन अगले ही पल उसके देह-मन व्यापी अवसाद की जीत हुई। यह अवसाद नहीं, मानो एक मृदु एवं मधुर आनन्द का नशा था। सारा जगत उसके सामने तुच्छ था। यह नशा ही धीरे-धीरे उसके सारे शरीर को शिथिल कर रहा था।
शंकर पेड़ की एक उभरी हुई जड़ पर सिर रख कर अच्छे से सो गया। विशाल कॉटनवुड पेड़ों की छाया घनी थी। पास ही कहीं जंगली उल्लू की पुकार काफी देर से सुनायी पड़ रही थी, वह धीरे-धीरे क्षीण से क्षीणतर होने लगी। इसके बाद क्या हुआ, शंकर को याद नहीं।
बहुत खोज-बीन के बाद अलवरेज ने जब कॉटनवुड के जंगल में शंकर को खोज निकाला, तब दिन ढलने में ज्यादा समय नहीं बचा था। पहले अलवरेज को लगा- निश्चित ही सर्पदंश का मामला है, लेकिन शरीर की जाँच में सर्पदंश का कोई चिह्न नहीं मिला। अचानक पेड़ से लिपटी लता-गुल्मों और आस-पास की झाड़ियों पर नजर पड़ते ही अनुभवी भ्रमणकारी अलवरेज सब समझ गये। वहाँ चारों तरफ एक किस्म की बहुत ही जहरीली लताओं की बहुतायात थी। अफ्रिका के बहुत-से आदिवासी इन लताओं के विष का प्रयोग अपने तीरों की नोक को जहरीला बनाने में किया करते थे। इन लताओं से होकर बहने वाली हवाओं में एक प्रकार की मीठी सुगन्ध तैरती थी, जिसे थोड़ी ज्यादा मात्रा में साँसों के साथ अन्दर खींच लेने से कई बार पक्षाघात का खतरा रहता था; मृत्यु हो जाना भी आश्चर्य की बात नहीं थी।
तम्बू में शंकर दो-तीन दिनों तक बिस्तर पर पड़ा रहा। सारा शरीर फूल कर ढोल हो गया था। सिर तो मानो फटा जा रहा था और हर वक्त प्यास के मारे कण्ठ सूखा जा रहा था। अलवरेज ने बताया कि अगर वह रात भर वहीं पड़ा रह जाता, तो सुबह उसे बचाना मुश्किल हो जाता।
एक दिन एक झरने की जलधारा के बालूमय किनारे पर शंकर को पीले रंग का कुछ दिखा। अलवरेज पक्के प्रॉस्पेक्टर थे। उन्होंने धोकर रेत में से सोने के कण निकाले जरूर, लेकिन इससे वे खास उत्साहित नहीं हुए। सोने का परिमाण इतना कम था कि मजदूरी भी नहीं निकल पायेगी- एक टन रेत को धोने के बाद तीनेक आउन्स सोना मिलने की उम्मीद थी।
शंकर बोला, “बैठे रहने से तो अच्छा है कि यही सोना निकाला जाय, तीन आउन्स सोने का दाम भी तो कम नहीं है।”
जिस चीज को शंकर बड़ी खोज समझ रहा था, अभिज्ञ प्रॉस्पेक्टर अलवरेज के लिए इसका मोल कुछ नहीं था। इसके अलावे, मजदूरी बोल कर शंकर जो समझ रहा था, वह अलवरेज की समझ से अलग था। अन्ततः शंकर को भी यह काम छोड़ना पड़ा।
इस बीच महीने भर तक वे जंगल के विभिन्न अंचलों में भटकते रहे। आज यहाँ दो दिनों के लिए तम्बू डाला, फिर यहाँ से किसी दूसरी जगह के लिए रवाना हो गये। कुछ दिनों में वहाँ का चप्पा-चप्पा छान मारने के बाद फिर किसी और जगह के लिए रवाना हो गये।
उस दिन एक नये स्थान पर आकर उन लोगों ने डेरा डाला था। शाम को शंकर बन्दूक से दो-एक चिड़ियों का शिकार कर जब तम्बू में लौटा, तो पाया अलवरेज चुरुट का कश लगा रहे थे। उनका चेहरा देख कर लगा कि वे खासे उद्विग्न और चिन्तित थे।
शंकर ने कहा, “मैं तो कहता हूँ अलवरेज कि जब आप ही उस जगह को नहीं खोज पाये, तो चलिये, लौट चलते हैं।”
अलवरेज बोले, “अब वह नदी गायब होने से तो रही। इन्हीं पर्वतों-जंगलों के किसी न किसी हिस्से में वह निश्चित रूप से मौजूद है।”
“फिर हम लोग उसे खोज क्यों नहीं पा रहे हैं?”
“हमारी खोज ठीक से नहीं हो पा रही है।”
“क्या कहते हैं अलवरेज, छह महीनों से हम जंगल का चप्पा-चप्पा छान रहे हैं, खोजना और किसे कहते हैं?”
अलवरेज गम्भीर आवाज में बोले, “लेकिन मुश्किल कहाँ हुई है, जानते हो शंकर? तुम्हें अब तक बताया नहीं था कि कहीं सुन कर तुम हिम्मत न हार बैठो, या डर नहीं जाओ। अच्छा चलो, तुम्हें एक चीज दिखाता हूँ, आओ मेरे साथ।”
अधीर आग्रह और कौतूहल के साथ शंकर उनके पीछे-पीछे चला। मामला क्या था?
कुछ दूरी पर एक बड़े पेड़ के नीचे खड़े होकर अलवरेज बोले, “शंकर, हमने आज ही इस स्थान पर डेरा डाला है, ठीक है न?”
चकित होकर शंकर बोला, “इसका क्या मतलब? आज नहीं तो और कब आये हैं यहाँ?”
“ठीक है, अब नजदीक आकर इस तने को देखो जरा।”
शंकर ने आगे बढ़ कर देखा- तने की नर्म छाल पर चाकू से कुरेद कर किसी ने ‘D.A.’ लिख रखा था- लेकिन लिखावट ताजा नहीं थी, अन्ततः महीने भर पुरानी रही होगी।
शंकर को मामला समझ में नहीं आया। प्रश्नवाचक दृष्टि के साथ वह अलवरेज के चेहरे की ओर देखता रहा। अलवरेज बोले, “नहीं समझ पाये? मैंने ही महीने भर पहले इस पेड़ के तने पर अपने नाम के पहले अक्षरों को कुरेद कर लिखा था। उस वक्त मेरे मन में सन्देह हुआ था। तुम तो नहीं समझते, तुम्हारे लिए तो सारे जंगल एक जैसे हैं। अब इसका मतलब समझ रहे हो? हम लोग जंगल में एक गोल घेरे में घूम रहे हैं। जब सारी चीजें एक जैसी हों, तो इनसे पार पाना बड़ा कठिन होता है।”
अब जाकर शंकर को मामला समझ में आया। बोला, “आप कहना चाहते है कि महीने भर पहले हमलोग इस स्थान पर आ चुके हैं?”
“बिलकुल। बड़े जंगल और रेगिस्तान में ऐसा होता है। इसे ‘डेथ-सर्कल’ कहते हैं। मेरे मन में महीने भर पहले यह सन्देह हुआ था कि हमलोग डेथ-सर्कल में पड़ गये हैं। इसे जाँचने के लिए ही मैंने इस पेड़ की छाल पर दो अक्षर खोद रखे थे। आज जंगल में घूमते समय अचानक यह नजर आ गया।”
शंकर ने पूछा, “फिर हमारे कम्पास का क्या? कम्पास होते हुए रोज-रोज ऐसी गलती क्यों?”
अलवरेज बोले, “मुझे लगता है कम्पास खराब हो गया है। रिख्टर्सवेल्ड पार होते समय जो भयानक आँधी-तूफान आया था, उसी दौरान बिजली की कड़क से इसकी चुम्बकीय शक्ति किसी तरह से नष्ट हो गयी होगी।”
“इसका मतलब हुआ, हमारा कम्पास अब बेकार है।”
“मुझे तो यही लगता है।”
शंकर ने पाया कि मामला गम्भीर है। मैप गलत, कम्पास बेकार; ऊपर से वे लोग घने एवं दुर्गम जंगलों के अन्दर मृत्यु-वृत्त में फँस गये हैं। कहीं कोई आदमजात नहीं, भोजन का ठिकाना नहीं, पानी भी नहीं कहने से ही चलेगा- क्योंकि जहाँ-तहाँ का पानी पीने योग्य नहीं था। जो था, वह एक अज्ञात एवं भयानक मृत्यु का भय। जिम कार्टर ने इस अभिशप्त जंगल में रत्न की लालच में अपने प्राण त्यागे थे, लगता है- यहाँ किसी का मंगल नहीं हो सकता।
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मध्य रात्रि में शंकर की नींद टूटी। घने जंगलों के बीच कुछ आवाजें हो रही थीं, कोई काण्ड घट रहा था जंगलों में। अलवरेज भी उठ कर बैठे। दोनों ने कान खड़े कर के सुना- बड़ा विचित्र मामला था! हो क्या रहा है बाहर?
शंकर जल्दी से टॉर्च लेकर बाहर निकलने जा रहा था, अलवरेज ने मना किया। बोले, “इन अनजाने जंगलों में रात के समय तुरन्त तम्बू के बाहर मत जाया करो। तुम्हें कई बार चेताया है मैंने। बिना बन्दूक के ही क्यों जा रहे हो?”
तम्बू के बाहर धुप्प अन्धेरा था! दोनों ने टॉर्च जला कर देखा- वन्यप्राणियों के झुण्ड झाड़ियों आदि को फलांगते-रौंदते उन्मत्त होकर पश्चिम वाले जंगलों से निकल कर पूर्व के पहाड़ की ओर भाग रहे थे! हायना, बेबून, जंगली भैंसे। दो चीता तो उनके बिलकुल करीब से गुजर गये। और भी आ रहे थे- झुण्ड के झुण्ड आ रहे थे। कोलोबस बन्दरों की मादायें बच्चों को सीने से चिपकाये भाग रही थीं। सभी मानो किसी आकस्मिक विपत्ती के डर से प्राण बचा कर भाग रहे थे! इसी के साथ कहीं बहुत दूरी पर एक विचित्र आवाज भी हो रही थी- शक्तिशाली मगर दबी हुई मेघगर्जना के समान; या फिर, जैसे बहुत दूर कहीं हजारों ढाक एक साथ बज रहे हों!
मामला क्या था? दोनों ने एक दूसरे की तरफ देखा। दोनों ही चकित थे! अलवरेज बोले, “शंकर, आग को ठीक से जला दो, नहीं तो जंगली जानवरों के ये झुण्ड हमें तम्बू सहित रौंदते हुए चले जायेंगे।”
वन्यप्राणियों की संख्या तो बढ़ती जा रही थी! सिर के ऊपर पक्षियों के झुण्ड भी घोंसला छोड़ भाग रहे थे। स्प्रिंगबक हिरणों का एक बहुत बड़ा दल उनसे दस गज की दूरी पर आ पहुँचा, लेकिन सारा मामला देख वे ऐसे आश्चर्य-चकित थे कि इतने नजदीक पाकर भी वे गोली चलाना भूल गये। जाहिर था, ऐसा दृश्य उन दोनों ने जीवन में कभी नहीं देखा था!
शंकर अलवरेज से कुछ पूछने जा रहा था कि- उसी समय प्रलय हुआ। अन्ततः शंकर को तो यही लगा। धरती हिल कर ऐसी काँपी कि दोनों जमीन पर गिर गये। और इसी के साथ मानो एक हजार वज्रपात एक साथ पास ही कहीं हुआ। ऐसा लगा, धरती फट गयी हो और आसमान भी फट पड़ा हो।
अलवरेज जमीन से उठने की कोशिश करते हुए बोले, “भूकम्प!”
लेकिन अगले ही पल वे यह देख कर विस्मित रह गये कि रात के इस धुप्प अन्धेरे में दूर कहीं पचासों हजार बिजली के बल्ब एक साथ जल उठे थे। यह क्या था?
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लेखक परिचय
बिभूतिभूषण बंदोपाध्याय बांग्ला के प्रसिद्ध उपन्यासकारों में से एक हैं। 24 अक्तूबर, 1894 ई. को घोषपाड़ा-मुरतीपुर गाँव में उनका जन्म हुआ था। एक मेधावी छात्र के रुप में उन्होंने बनगाँव हाई स्कूल से एण्ट्रेन्स एवं इण्टर की पढ़ाई की; सुरेन्द्रनाथ कॉलेज (तत्कालीन रिपन कॉलेज) से स्नातक बने, मगर कोलकाता विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर की पढ़ाई वे अर्थाभाव के कारण पूरी नहीं कर पाये और जंगीपाड़ा (हुगली) में वे शिक्षण के पेशे से जुड़ गये। आजीविका एवं परिवार की जिम्मेवारी निभाने के लिए वे और भी कई पेशों से जुड़े रहे।
बिभूतिभूषण बंदोपाध्याय की रचनाओं में अक्सर ग्राम्य जीवन की झलक मिलती है। उनकी पहली कहानी उपेक्षिता 1921 में प्रवासी नामक पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। 1925 में उन्होंने पाथेर पांचाली लिखना शुरू किया जो कि 1928 में प्रकाशित हुआ। यह उनकी सबसे प्रसिद्ध कृतियों में से एक है।
उनकी कुछ रचनाएँ:
अपराजिता (1931), मेघमल्हार (1931), मयुरीफूल (1932), यात्राबादल (1934), चाँदेर पाहाड़ (1937), किन्नरदल (1938), अरण्यक (1939), आदर्श हिन्दू होटल (1940), मरणेर डंका बाजे (1940), स्मृतिर रेखा (1941), देवयान (1944), हीरा-माणिक ज्वले (1946), उत्कर्ण (1946), हे अरण्य कथा कह (1948), इच्छामति (1950), अशनि संकेत , विपिनेर संसार, पथ चेये, दुई बाड़ी, अनुवर्तन, आह्वान, तृणांकुर, दृष्टि प्रदीप, मिसमिदेर कवच, अभियात्रिक, इत्यादि।
अनुवादक परिचय
जयदीप शेखर ने बीस वर्ष भारतीय वायु सेना में तथा दस वर्ष भारतीय स्टेट बैंक में सेवा की है। अभी वे ‘राजमहल की पहाड़ियों’ (सन्थाल-परगना, झारखण्ड) के आँचल में बसे कस्बे बरहरवा (जिला- साहेबगंज) में रहते हुए कुछ ऐसी बांग्ला रचनाओं को हिन्दी भाषी पाठकों के समक्ष लाने का कार्य कर रहे हैं, जो बांग्ला में तो लोकप्रिय हैं, मगर दुर्भाग्यवश, हिन्दी भाषी साहित्यरसिक इनसे अपरिचित हैं। ‘बनफूल’ की कुछ कहानियों, एक लघु उपन्यास (भुवन सोम) और एक वृहत् एवं विलक्षण उपन्यास (डाना) का अनुवाद वे कर चुके हैं। सत्यजीत राय रचित जासूस फेलू’दा के कारनामों और वैज्ञानिक प्रोफेसर शंकु के अभियानों का भी वे अनुवाद कर रहे हैं (फेलू’दा के कुल 35 कारनामों और प्रो. शंकु के कुल 38 अभियानों की रचना सत्यजीत राय ने की है)। भविष्य में उपन्यासकार निमाई भट्टाचार्य और भ्रमणकथा लेखक शंकु महाराज की कुछ लोकप्रिय रचनाओं के हिन्दी अनुवाद का इरादा रखते हैं।
उनकी अपनी कुछ स्वरचित रचनाएँ भी हैं, जिनमें से ‘नाज़-ए-हिन्द सुभाष’ का उल्लेख किया जा सकता है, जिसमें कि नेताजी सुभाष से जुड़ी 1941 से ’45 तक के घटनाक्रमों को तथा उनके अन्तर्धान रहस्य से जुड़ी बातों को रिपोर्ताज की शैली में प्रस्तुत किया गया है। भारतीय बाल-किशोरों के लिए यह एक पठनीय पुस्तक है।
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नोट: ‘किताब परिचय’ एक बुक जर्नल की एक पहल है जिसके अंतर्गत हम नव प्रकाशित रोचक पुस्तकों से आपका परिचय करवाने का प्रयास करते हैं। अगर आप चाहते हैं कि आपकी पुस्तक को भी इस पहल के अंतर्गत फीचर किया जाए तो आप निम्न ईमेल आई डी के माध्यम से हमसे सम्पर्क स्थापित कर सकते हैं:
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जयदीप जी के द्वारा हम हिंदी पाठकों को बंगला साहित्य के खजाने के कुछ मोती प्राप्त होंगे……….. 😊😊😊😊😊😊…. भविष्य में उनसे समरेश बसु, ताराशंकर बन्दोंपाध्याय जैसे अन्य लेखकों के बंगला नॉवेल के हिंदी अनुवाद प्राप्ति की अपेक्षा रहेगी……… 🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏
उम्मीद है प्रकाशक अन्य लेखकों की तरफ भी ध्यानाकर्षित करेंगे…
बढ़िया….! ऐसे प्रकाशन के लिए प्रकाशक सराहना और प्रशंसा के हकदार….!
जी सही कहा। प्रकाशक ने कोशिश की है। अब पाठकों पर निर्भर है। वो इस किताब को सफल बनायेंगे तो आगे की किताबों के लिए राह खुलेगी। आभार।