विकास सी एस झा हॉरर, रहस्य और रोमांच विधाओं में लिखते रहे हैं। हाल ही में उनका उपन्यास संचिता मर्डर केस सूरज पॉकेट बुक्स द्वारा प्रकाशित किया गया है। यह उपन्यास अश्विन ग्रोवर शृंखला का दूसरा उपन्यास है।
उनके इस नवप्रकाशित उपन्यास के ऊपर एक बुक जर्नल ने उनके साथ एक बातचीत की है। यह बातचीत उनके लेखन और नवप्रकाशित उपन्यास पर केंद्रित रही है। उम्मीद है आपको यह बातचीत पसंद आएगी।
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नमस्कार विकास, एक बुक जर्नल में आपका स्वागत है। सबसे पहले तो आपको अपनी नवप्रकाशित पुस्तक ‘संचिता मर्डर केस’ के लिए हार्दिक बधाई। सर्वप्रथम तो पाठकों को कुछ अपने विषय में बताएँ। आप कहाँ से से हैं? पढ़ाई लिखाई कहाँ से हुई और भारतीय लेखकों को पूछे जाने वाला क्लासिक सवाल लेखन तो करते हैं लेकिन कार्य क्या करते हैं?
नमस्कार विकास नैनवाल। आपका एवं एक बुक जर्नल की पूरी टीम का बहुत-बहुत धन्यवाद।
खुद के बारे में बताने के लिए ज्यादा कुछ नहीं है। फिर भी पाठकों को अपने लेखक के बारे में जानने की उत्सुकता तो रहती ही है, लिहाजा मैं बताना चाहूँगा कि मेरी जन्मभूमि बिहार और कर्मभूमि मुम्बई है, जहाँ मैं पिछले बीस सालों से हूँ। मैं भागलपुर से हूँ और मेरी शिक्षा बिहार में ही हुई है। रोजगार की तलाश में एक बार जो मुम्बई आना हुआ फिर यहाँ का ही होकर रह गया।
नैनवाल साहब, भारतीय लेखकों के बारे में आपका नज़रिया बिल्कुल सही है कि लेखन से उनका घर नहीं चलता, मेरा भी नहीं चलता है। मगर वक्त बदल रहा है। आज की दौर के कई ऐसे लेखक हैं जिन्होंने बेशुमार दौलत और शोहरत सिर्फ अपनी लेखनी के बल पर ही कमायी है। यह जरूर है कि ऐसे नाम उँगलियों पर गिने जा सकते है।
अगर खुद की बात करूँ तो तकरीबन अठारह साल फार्मास्यूटिकल एवं इन्शुरन्स की कई राष्ट्रीय एवं बहुराष्ट्रीय कंपनियों में अपनी सेवा देने के पश्चात अब मेरा खुद का एक स्टार्टअप है। इस वक्त मैं दवा के व्यवसाय में हूँ। मेरी एक फार्मास्यूटिकल डिस्ट्रीब्यूशन की कंपनी है जिसे आगे बढ़ाने का प्रयास जारी है।
साहित्य के प्रति रुचि आपकी कब जागृत हुई? क्या बचपन से ही आप पढ़ते थे? अगर हाँ, तो आपके पसंदीदा लेखक कौन-कौन से थे?
जनाब, पढ़ने की रुचि मुझे बचपन से ही रही है। यूँ समझ लीजिए ये शौक मुझे विरासत में मिला है। पिताजी मेरे प्रोफेसर तो थे ही साथ में एक उम्दा कवि और शायर भी थे और माताजी को उपन्यास पढ़ने का बेहद शौक था, लिहाज़ा घर में ही पठन-पाठन का उम्दा माहौल मौजूद था।
जब छोटे थे तो कॉमिक्स के प्रति लगाव जुनून की हद तक था फिर बाल उपन्यासों के प्रति झुकाव पैदा हुआ। वो भी क्या दिन थे! स्कूल और ट्यूशन जाने के रास्ते में पाँच-दस मिनट बुक स्टाल के ऊपर खड़े रहकर वहां आई नई किताबों के बारे में दुकानदार से जानकारी इकट्ठा करना फिर ललचाई निगाहों से दुकान में सजी किताबों को देखना और उन्हें पाने का जुगाड़ सेट करना।
उस दौर के लेखकों की अगर बात करूँ तो श्री एस. सी. बेदी की राजन-इकबाल सीरीज और रायजादा साहब की राम-रहीम सीरीज मुझे सर्वाधिक प्रिय थी। कॉमिक्स का कोई भी करैक्टर ऐसा नहीं होगा जिसे मैंने नहीं पढ़ा होगा। चाचा चौधरी मेरे सबसे प्रिय कॉमिक करैक्टर थे। सुरेंद्र मोहन पाठक साहब की किताबें भी मैंने खूब पढ़ी।
आज मैं सोचता हूँ तो ऐसा लगता है कि लेखक के तौर पर मेरे निर्माण की प्रक्रिया का वो एक स्वर्णिम काल था।
नैनवाल साहब, ये वो वक्त था जब युवाओं एवं बच्चों को पढ़ने का शौक हुआ करता था जो बाद के समय में धीरे-धीरे कम होता चला गया। या तो लोगों तक उम्दा किताबें नहीं पहुँच पा रही थीं या फिर लोगों के लिए मनोरंजन का साधन अब टेलीविज़न और इंटरनेट हो गया था। लोग किताबों से दूर होते चले गए।
मगर ऐसा लगता है कि एक बार फिर से किताबों और कहानियों का स्वर्णिम युग वापस आ रहा है। आज यह देखकर अति प्रसन्नता होती है कि युवाओं में फिर से किताबों-कहानियों के प्रति प्रेम जागृत हो रहा है।
लेखन के प्रति आपका झुकाव कैसे हुआ? क्या कोई विशेष घटना जिसने लिखने को आपको मजबूर किया? क्या आप उसके विषय में कुछ बताना चाहेंगे?
विकास भाई, जैसा कि मैंने अभी बताया कि पढ़ना मुझे जुनून की हद तक पसंद है, मगर लेखक बनने की चाहत दिल में कभी न थी। यह बात अलग है कि स्कूल के दिनों से ही मुझे कविता गढ़ने का छोटा-मोटा शौक रहा है, या यूँ समझ लीजिए कि ये सब महज तुकबंदी तक ही सीमित था और शब्दों को पन्नों तक आने का फक्र कभी हासिल न हुआ। सब जुबानी कारोबार था।
मेरी नानी माँ मेरी पहली प्रसंसक थी। घर पर कोई मेहमान आ जाता तो नानी माँ लाकर मुझे सामने खड़ा कर देती कि ज़रा सुनाओ इनको कि क्या बनाये हो, और मैं शुरू हो जाता। ये सब बचपन की बातें हैं। अब सोचता हूँ तो हँसी आती है।
मगर अभी कुछ साल पहले की बात आपको बताता हूँ। उपन्यासों का दौर एक बार फिर से शुरू हो चुका था। नए-पुराने सभी लेखकों की किताबें मार्केट में बड़ी संख्या में पढ़ने के लिए उपलब्ध थीं। मैंने सबको खूब पढ़ा। मगर कहते हैं न कि जब आपके दिमाग के अंदर कहानियाँ और कहानियों के शब्द आपकी जरूरत से ज्यादा मात्रा में हो जाते हैं तो वो ओवरफ्लो होने लगते हैं। यही वो वक्त था जा मुझे लगा कि मुझे भी लिखना है। अंदर की बेचैनी बढ़ती गई। लिखकर पन्ने फाड़ने का कार्य शुरू हो चुका था। फिर एक दिन अंदर के लेखक की बेचैनी अपने चरम पर थी। छुट्टी का दिन था। मैं घर पर ही था तो ठान ली कि आज इस पार या उस पार। अपने कमरे का दरवाजा अंदर से बंद किया और कलम-कॉपी लेकर पिल पड़े। घंटे-दो घंटे यूँ ही बीत गए। फिर बाहर से दरवाजे पर जोर-जोर से जब दस्तक दी जाने लगी तब जाकर मुझे होश आया कि भाई ये तो मैंने पंगे मोल ले लिए। बाहर श्रीमती जी अपने रौद्र रूप में थीं। “क्या हो रहा है इतनी देर से अंदर?” उन्हें लगा कि ये शायद किसी बाहरी हसीना का चक्कर-वक्कर है और मैं किसी महिला मित्र के साथ चैटिंग-वैटिंग में मसरूफ हूँ।
मैंने भरपूर सफाई दी, पर वो मानने को तैयार नहीं थीं। दोनों बच्चे भी अपनी माँ के साथ मुतमइन नजर आ रहे थे। आखिर मरता क्या न करता ? वो जो दो-तीन पन्ने मैंने लिखे थे और इस वक्त मेरी जान और अस्मत के दुश्मन बने हुए थे, उनके हवाले कर दिए।
बीवी ने कहानी पढ़ी और उसे बेहद पसंद आई और इस प्रकार एक लेखक के जन्म हुआ। ये अलग बात है कि उनके ऊपर एक रोमांटिक कविता लिखने की उनकी ख़्वाहिश आज भी अधूरी है।
आपकी कुछ रचनाएँ हॉरर रही हैं और ज्यादातर उपन्यास अपराध कथाएँ ही रही हैं? इन दोनों विधाओं में आपको क्या आकर्षित करता है?
सही कहा आपने। मेरी अबतक पाँच प्रकाशित किताबों में से चार तो सस्पेंस थ्रिलर ही है। अबतक जो भी लघु कथाएं मैंने लिखी है, वो सब हॉरर विधा में लिखी गई है। एक पाठक के तौर पर भी सस्पेंस थ्रिलर और हॉरर विधा की किताबें मुझे सदा आकर्षित करती रही हैं। जहाँ हॉरर लिखने के लिए कल्पनाशीलता की आवश्यकता होती है वहीं सस्पेंस थ्रिलर लिखने के लिए कल्पनाशीलता के साथ-साथ तार्किकता की भी आवश्यकता पड़ती है। ये दो ऐसी विधा है जहाँ पाठकों का मनोरंजन कर पाना बेहद कठिन माना जाता है। आपकी एक चूक पूरी कहानी का मज़ा बिगाड़ देती है। सस्पेंस-थ्रिलर किताबों का लेखन मेरे खयाल से बेहद चुनौतीपूर्ण कार्य है, क्योंकि आप कहानी के अंदर जो भी तानाबाना बोते हो, कहानी के आखिरी में उन सब बातों को न्यायोचित ठहराना बेहद जरूरी होता है। आप कोई भी तार कहानी के अंदर यूँ ही खुला नहीं छोड़ सकते। सस्पेंस-थ्रिलर राइटर के तौर पर आप पाठकों के साथ एक जंग लड़ रहे होते हो कि है दम तो बताओ कौन है ‘वो’, और अगर उस ‘वो’ की मालूमात पाठकों को कहानी के बीच में ही हासिल हो गई, फिर समझिए लेखक के तौर पर आपकी कोशिश नाकाम रही। कार्य काफी चुनौतीपूर्ण है मगर मुझे अजीज है।
अभी आपकी दो सीरीज चंद्रशेखर त्यागी और आश्विन ग्रोवर सीरीज साथ चल रही है? इन दो किरदारों के विषय में बताइए? इनकी रचना करने का विचार कैसे आया और क्या ये किसी पर आधारित हैं?
नैनवाल साहब, बात ऐसी है कि अगर आप अपने किरदारों को उम्दा तरीके से गढ़ते हो तो पाठकों को उनसे मुहब्बत हो जाती है, फिर वो उन्हें बार-बार पढ़ना पसंद करते हैं। मैंने जब अपना पहला सस्पेंस-थ्रिलर उपन्यास लिखने का मन बनाया तो जो सबसे अहम सवाल जो मेरे जेहन में था वो ये था कि कहानी का मुख्य पात्र किस प्रकार को हो। बहुत सोच-विचार के बाद ये तय हुआ कि कहानी में लीडिंग रोल एक सुपर कॉप का होगा जो क्राइम ब्रांच के लिए काम करता है। फिर बाद में उस किरदार को नाम देने के ऊपर काफी जद्दोजहद हुई। तब जाकर चंद्रशेखर त्यागी का किरदार वजूद में आया। यह अपने आप में एक अनूठा और हरदिलाज़िज़ पात्र है जो उपन्यास दर उपन्यास पाठकों के दिल में जगह बनाता जा रहा है।
अब मेरे किरदार अश्विन ग्रोवर की बात करता हूँ जो एक प्राइवेट डिटेक्टिव है। प्राइवेट डिटेक्टिव को मुख्य किरदार बनाना मर्डर मिस्ट्री लेखन में एक पुरानी परंपरा रही है जो आज भी जारी है, ये लोभ आज तक कोई भी मिस्ट्री लेखक संवरण नहीं कर पाया। मैं भी अपवाद नहीं था। मुझे भी शौक था कि मेरे पास भी एक जासूस हो। फिर इस तरह अश्विन ग्रोवर का किरदार तैयार हुआ। किताब दर किताब मैं इस चरित्र को निखारने में प्रयासरत हूँ।
इन दोनों के लिए जब आप कहानी लिखते हैं तो उनमें क्या समानताएँ और क्या फर्क रखते हैं?
भाई, दोनों ही एक दूसरे से जुदा करैक्टर है। एक पूरब है तो दूसरा पश्चिम, एक उत्तर है तो दूसरा दक्षिण। मगर एक बात जो दोनों में समान है, वो है जेहनियत, जिसमें दोनों अव्वल हैं।
जहाँ चंद्रशेखर त्यागी एक धीर-गंभीर क्राइम ब्रांच ऑफिसर है वहीं अश्विन ग्रोवर एक प्राइवेट जासूस है जो औरतों का रसिया है।
इन दोनों किरदारों को लिखते वक्त एक खास बात जो हर वक्त जेहन में रखनी पड़ती है कि त्यागी है तो अनुसाशन और गंभीरता वहीं अश्विन ग्रोवर है तो मस्तिखोरी। दोनों किरदारों को लिखने का अनुभव एवं आनंद बिल्कुल जुदा-जुदा है।
आपका नवीन उपन्यास संचिता मर्डर केस है। यह भी अपराध कथा है। क्या यह एकल उपन्यास है या किसी सीरीज का भाग है?
जनाब, संचिता मर्डर केस अश्विन ग्रोवर सीरीज की दूसरी किताब है जो अपने आप मे एक संपूर्ण कहानी है। संचिता मर्डर केस एक मर्डर मिस्ट्री है जिसके कुछ पात्रों को मैंने वास्तविक जीवन में बनते और बिगड़ते हुए देखा है।
उपन्यास का ख्याल आपके मन में कब आया? कोई विशेष बात जिसने उपन्यास लिखने के लिए आपको प्रेरित किया हो?
मेरी तीन किताबें सूरज से आ चुकी थीं: जाल, मोहरा और जुनून। अब मैं एक तीसरे कथानक की तलाश में था। एक दिन यूँ ही गूगल सर्च इंजिन पर सर्फिंग करते हुए किसी अखबार की पुरानी खबर की ओर मेरी तवज्जो गई। खबर ऐसी थी कि किताब लिख दी जाए। इस प्रकार मुझे मेरी कहानी का प्लॉट मिल गया था। फिर कुछ वास्तविक, कुछ काल्पनिक पात्रों का सृजन कर जो एक कहानी वजूद में आई वो थी ‘संचिता मर्डर केस’।
उपन्यास का कोई ऐसा किरदार जिसके साथ आप दोस्ती करना चाहते हों और कोई ऐसा किरदार जिससे आप असल जीवन में जितना दूर हो सके उतना दूर जाना चाहते हों?
भाई , सब मेरे ही बनाये हुए किरदार है, लिहाज़ा नफरत तो मुझे किसी से भी नहीं है। सब के सब अजीज़ हैं मुझे। जो सबसे अज़ीज़ है, वो है अश्विन ग्रोवर, बेहद आला दिमाग, हाज़िर जवाब एवं रंगीनमिजाज। एक बार कभी अगर उससे मिलने का मौका हासिल हो तो ये जरूर पूछूँगा कि हसीनाओं पर आखिर जादू क्या चलाते हो तुम ?
क्या आप अपने उपन्यासों के लिए कोई विशेष रिसर्च भी करते हैं? प्रस्तुत उपन्यास के लिए आपने क्या रिसर्च की थी?
विकास भाई, अमूमन किसी उपन्यास के लेखन के पहले मुझे कथानक के हिसाब से कई जानकारियों की दरकार होती है जिसके लिए मैं गूगल भाई साहब की शरण लेता हूँ। मगर संचिता मर्डर केस का कथानक चूँकि मेरे प्रोफेशनल लाइफ से संबंध रखता हुआ विषय था और कुछ किरदार मेरे जाने-पहचाने थे, लिहाजा ज्यादा रिसर्च की जरूरत नहीं पड़ी। कहानी खुद-ब-खुद आगे बढ़ती चली गई।
आपके लिए एक शीर्षक कितना मायने रखता है? क्या आप शीर्षक पहले निर्धारित करते हैं या बाद में करते हैं? प्रस्तुत उपन्यास के शीर्षक के विषय में बताइए?
मेरी नज़र में कहानी का शीर्षक ऐसा होना चाहिए जो पाठकों को किताब के करीब ले आये। अमूमन मैं पहले कहानी का तानाबाना बुनता हूँ फिर एक उम्दा शीर्षक तैयार करता हूँ। इस कहानी के साथ भी ऐसा ही था। मगर जब कहानी अपने शीर्षक के साथ प्रकाशक तक गई तो मुझे प्रकाशक की ओर से ये मैसेज आया कि इस टाइटल से एक किताब प्रकाशन द्वारा पहले ही प्रकाशित की जा चुकी है तो कृपया कहानी का टाइटल कुछ और तैयार करें।
फिर कहानी का टाइटल चेंज हुआ और जो कहानी अब किताब के रूप में सामने है, उसका नाम हुआ ‘संचिता मर्डर केस’।
मुझे अब ऐसा लगता है कि पुराना टाइटल तो इस नए टाइटल के सामने कुछ भी नहीं था।
मुझे व्यक्तिगत तौर पर हॉरर या पारलौकिक तत्वो (सुपरनैचुरल एलिमेंट्स) का इस्तेमाल कर लिखी गई कहानियाँ पसंद आती है। आपने भी कुछ पारलौकि कहानियाँ लिखी हैं। ऐसे में क्या हम आपसे जल्द ही किसी ऐसे उपन्यास की अपेक्षा भी कर सकते हैं?
सस्पेंस-थ्रिलर और हॉरर, ये ऐसी दो विधाएँ हैं जो हमेशा से मुझे भी प्रिय रही हैं। अपने लेखन की शुरुआत भी मैंने हॉरर कहानियों के लेखन से ही की थी जो पाठकों को बेहद पसंद आई थी। हॉरर विधा में उपन्यास लेखन की सोच तो काफी अरसे से दिल में आती रही है, जिसपर अमल अब तक नहीं हो पाया है। कभी कोई अच्छा सा प्लॉट जेहन में आया तो जरूर लिखूँगा।
जहाँ तक पारलौकिक तत्वों या शक्तियों की बात है, उन्हें सिर्फ भूत-प्रेत, चुड़ैल आदि तक ही सीमित मान लेना सर्वथा अनुचित होगा। मेरी नज़र में पारलौकिक शक्ति वो ईश्वरीय शक्ति है जो इस पूरे ब्रम्हांड को नियंत्रित करती है और मेरी इसमें असीम श्रद्धा है। रही बात इन विचारों को लेकर किसी उपन्यास के लेखन की, तो अभी मेरा ज्ञान अपरिपक्व है, जिंदगी और अनुभवों के साथ मेरे प्रयोग अपरिपक्व हैं। लेकिन ऐसी किसी किताब के लेखन को लेकर मैं प्रयासरत जरूर हूँ।
आपके आने वाले प्रोजेक्ट्स क्या है? क्या आप पाठकों को कुछ बताना चाहेंगे?
अगर मेरे आने वाली किताबों की बात करूँ तो ‘संचिता मर्डर केस’ के बाद जो मेरी अगली किताब आएगी, वो भी सस्पेंस-थ्रिलर ही होगी। फिलहाल कहानी, कहानी का टाइटल और कहानी के मुख्य किरदार के बारे में कुछ भी बता पाना थोड़ी जल्दबाजी होगी, मगर पाठकों के भरपूर मनोरंजन के लिए दिमागी कसरत ज़ोरशोर से जारी है।
सस्पेंस-थ्रिलर लेखन के साथ-साथ जिन तीन किताबों का लेखन मेरी प्राथमिकता में है उनमें से पहली कहानी एक वास्तविक घटना पर आधारित है। कहानी का प्लॉट बेहद उम्दा है और उसपर लिखने के लिए मैं बेहद रोमांचित हूँ।
इसके बाद जो दूसरी कहानी लिखने की बात जेहन में आई है, उसका सब्जेक्ट स्पिरिचुअल रहने वाला है, जिसे लिखने के लिए काफी रिसर्च और दैवी प्रेरणा की आवश्यकता होगी।
विकास भाई, आपने अभी अपने पिछले प्रश्न में पारलौकिक तत्वों का जिक्र किया था। मैं बताना चाहूँगा कि इस विषय पर भी एक किताब लिखने की मेरी योजना है जिसपर फिलहाल काम जारी है। विषय काफी गूढ़ है, लिहाज़ा काफी तैयारी और रिसर्च करने की आवश्यकता है अभी।
आखिर में आप पाठकों को कुछ संदेश देना चाहेंगे?
मैं मेरे तमाम पाठकों का हृदय से आभार व्यक्त करता हूँ। उनके दिए गए प्यार, मोहब्बत और हौसलाफ़ज़ाई की बदौलत ही मैं खुद को एक लेखक के तौर पर निखार पाने में सक्षम हो पाता हूँ। उनका प्यार मुझे यूँ ही मिलता रहे और मैं यूँ ही नई-नई किताबें उनके लिए लिखता रहूँ, ऊपर वाले से बस यही गुज़ारिश है।
धन्यवाद।
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तो यह थी लेखक विकास सी एस झा से हमारी बातचीत। यह बातचीत आपको कैसी लगी हमें टिप्पणियों के माध्यम से अवश्य बताइएगा। आपकी टिप्पणियों की प्रतीक्षा रहेगी।
लेखक विकास सी एस झा की पुस्तक ‘संचिता मर्डर केस’ सूरज पॉकेट बुक्स से रिलीज हो चुकी है। पुस्तक आप सूरज पॉकेट बुक्स की साइट से निम्न लिंक पर जाकर ऑर्डर कर सकते हैं:
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Fantastic Interview . Good Job Ek Book Journal.
जी धन्यवाद।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (03-09-2022) को "कमल-कुमुद के भिन्न ढंग हैं" (चर्चा अंक-4541) (चर्चा अंक-4534) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
चर्चा अंक में पोस्ट को स्थान देने हेतु हार्दिक आभार।