एक रात का मेहमान – जनप्रिय लेखक ओम प्रकाश शर्मा | नीलम जासूस कार्यालय

संस्करण विवरण

फॉर्मैट: पेपरबैक | पृष्ठ संख्या: 136 | प्रकाशक: नीलम जासूस कार्यालय 

पुस्तक लिंक: अमेज़न 

कहानी 

मकसूद अहमद बँटवारे के बाद ही पाकिस्तान चला गया था। वहाँ जाकर वह एक ऊँचा अफसर बन गया और अब पच्चीस वर्षों बाद काम के सिलसिले में उसका भारत आना हुआ था।
मकसूद दिल्ली आया था तो मेरठ का नौचंदी का मेला लगना शुरू ही हुआ था। उसके मन में नौचंदी के मेले देखने और अपने बड़े भाई से मिलने की इच्छा जागृत हो गई।
और वह निकल पड़ा मेरठ की ओर। मकसूद अब अपने भाई के यहाँ एक रात का मेहमान था। 
इस एक रात में उसके साथ क्या अनुभव हुए?

मुख्य किरदार 

मकसूद अहमद – पाकिस्तानी पोस्ट एण्ड टेलेग्राफ मिनिस्ट्री का सेक्रेटरी
श्याम सुंदर – भारतीय अफसर 
महबूब अहमद – मेरठ में रहने वाले हकीम और मकसूद के बड़े भाई 
जीनत बेगम – महबूब की पत्नी 
शमीम , आयशा, अनीस – महबूब के बेटे 
लाला गोपालचंद – महबूब के पड़ोसी और मित्र
प्रदीप – लाला गोपालचंद का बेटा
निर्मला – प्रदीप की सहपाठी 
सुंदर – निर्मला का ममेरा भाई 
दीपा – प्रदीप की बहन
फिदा हुसैन – खराद का व्यापारी और मकसूद का जानपहचान वाला 

मेरे विचार

भारत और पाकिस्तान जब से बने हैं तब से भारत और पाकिस्तान के संबंधों में तनाव ही रहा है। धर्म के आधार पर भारत से पाकिस्तान जरूर कटा था लेकिन कई ऐसे मुस्लिम लोग भी थे जिन्होंने भारत में ही रहना चुना। यह दो देश जब बने तो इनका बनना हिंसा से भरा हुआ हुआ था और आज भी इनके संबंधों में खटास बनी हुई है। शांति की कोशिशें की जाती हैं लेकिन वो विफल हो जाती हैं। भारत और पाकिस्तान के लोग भले ही साझी संस्कृति से आते हों लेकिन अभी भी दोनों देशों के नागरिकों के मन में एक दूसरे के प्रति कुछ पूर्वग्रह मौजूद हैं। मेरे ख्याल से राजनीतिक स्वार्थों के अतिरिक्त ये पूर्वग्रह  भी  भारत और पाकिस्तान के बीच शांति उत्पन्न करने के रास्ते में रोड़ा स्थापित करते हैं। प्रस्तुत उपन्यास की बात करें तो नीलम जासूस कार्यालय (Neelam Jasoos Karyalay) द्वारा प्रकाशित जनप्रिय लेखक ओम प्रकाश शर्मा (Om Prakash Sharma) यह उपन्यास ‘एक रात का मेहमान’ (Ek Raat Ka Mehman) भी एक व्यक्ति के एक ऐसे ही पूर्वग्रहों को दर्शाने का काम करता है। यह उपन्यास 1970 में भले ही लिखा गया था लेकिन  इसमें लिखी बातें अभी भी उतनी  प्रासंगिक हैं जितना कि उस वक्त रही होंगी। 

उपन्यास की शुरुआत पाकिस्तान के कुछ अफसरों के हिंदुस्तान आने से होती है। संचार संबंधी कुछ विवादों के निपटारे के लिए पाकिस्तान से आठ अफसरों का एक समूह भारत आता है। यह समूह दिल्ली रुका हुआ है। इसी समूह में मौजूद हैं मकसूद अहमद जो कि मूलतः मेरठ के है। चूँकि मेरठ में नौचंदी का मेला चल रहा होता है तो वह भारतीय अफसर श्याम सुंदर से मेरठ जाने की इच्छा जाहिर करते हैं। मेरठ में ही मकसूद अहमद के बड़े भाई महबूब अहमद रहते हैं। मकसूद की इच्छा है कि वह वहाँ जाकर अपने भाई से भी मिल आयें जिनसे वो चौबीस सालों से नहीं मिले हैं। 

श्याम सुंदर मकसूद अहमद के मेरठ जाने का इंतजाम करते हैं। मकसूद मेरठ पहुँचते हैं और एक रात के लिए अपने भाई के मेहमान बनते हैं। इस एक रात की मेहमानवाजी के बाद वह  मेले से ही वापस दिल्ली के लिए निकल जाते हैं। वह एक रात मेरठ और नौचंदी में बिताते हैं। इस एक रात में उनके साथ क्या होता है। वह भारत के बारे में क्या सोच रखते हैं और बाकी लोग उनकी इस सोच का क्या जवाब देते हैं। अपने अनुभवों से वह क्या सीखते हैं? यही सब उपन्यास का कथानक बनता है।

उपन्यास में मकसूद अहमद की कहानी तो है ही साथ में प्रदीप और निर्मला की कहानी भी चलती है। प्रदीप और निर्मला प्रेमी युगल हैं जिनके बीच में पिछले नौचंदी के मेले में कुछ गलतफहमी हो गई थीं। इस गलतफहमी के कारण निर्मला ने प्रदीप से रिश्ता ही तोड़ दिया है। इस नौचंदी के मेले में क्या इनके रिश्ते में कुछ बदलाव आएगा यह भी पाठक देखते हैं। 

उपन्यास के कथानक की बात करूँ तो उपन्यास का कथानक आपको बाँधकर रखता है। लेखक ने नौचंदी के मेले का वर्णन इस तरह से किया है कि आपके मन में भी नौचंदी का मेला देखने की इच्छा कुलबुलाने लगती है। मैंने आजतक नौचंदी का मेला नहीं देखा है लेकिन ये उपन्यास पढ़ने के बाद अब नौचंदी का मेला एक बार देखना चाहूँगा। नौचंदी के मेले के अतिरिक्त मेरठ से जुड़ी कुछ रोचक बातें भी लेखक पाठकों से साझा करते हैं।

चूँकि उपन्यास का शीर्षक एक रात का मेहमान है और इस कहानी में यह मेहमान मकसूद अहमद है। कहानी के केंद्र में भी मकसूद और उसके भाई ही हैं। मकसूद और महबूब दो भाई जरूर हैं लेकिन उनकी सोचों में जमीन आसमान का फर्क है। मकसूद पाकिस्तान जाने से पहले वकालत की पढ़ाई कर रहा था और पाकिस्तान जाकर भी  पढ़ लिखकर बड़ा अफसर बन गया है लेकिन जब भीतर जहर हो और आँखों में पूर्वग्रह का पर्दा पड़ा हो तो ऊँची से ऊँची तालीम का भी कोई फर्क नहीं पड़ता यह उसके माध्यम से उपन्यास में देखने को मिलता है। वहीं दूसरी और मकसूद का बड़ा भाई महबूब एक हकीम है लेकिन वो मोहब्बत को तरजीह देता है और यही चीज उसे लोगों और पाठकों की आँखों में सम्मान के काबिल बना देती है। उपन्यास का एक हिस्सा महबूब और उसके पड़ोसी के खानदान के रिश्ते के ऊपर भी है। यह हिस्सा दर्शाता है कि आपसी सौहार्द ही सबसे महत्वपूर्ण होता है। अगर ये न हो तो कुछ भी नहीं है।

जैसा कि ऊपर मैंने बताया कि कहानी में दो प्रसंग एक साथ चलते हैं। मकसूद अहमद के मेरठ आने का और नौचंदी घूमने का और नौचंदी में ही प्रदीप और निर्मला के प्रेम का। चूँकि मेरी रुचि मकसूद वाले प्रसंग में थी तो यह प्रेमप्रसंग से जुड़ी बातें जब आती थीं तो मुझे थोड़ा बोरियत होती थी लेकिन अंत तक आते आते आपको पता चल जाता है कि इनका यहाँ होना बिना किसी कारण नहीं है। प्रदीप और निर्मला के प्रसंग से लेखक एक जरूरी चीज रेखांकित करना चाहते हैं और इस कारण ये उपन्यास का एक बहुत जरूरी हिस्सा बन जाता है।  

उपन्यास में बाकी सब किरदार कहानी के हिसाब से फिट बुने गए हैं। मकसूद मेले घूमने के दौरान इन कई किरदारों से मिलते हैं और उनके बीच बातचीत होती है। यह बातचीत ऐसे मुद्दों पर होती है जिन्होंने आज भी प्रासंगिकता नहीं खोई है। 

इसके अतिरिक्त निर्मल के ममेरा भाई का किरदार सुंदर बड़ा रोचक है। उसका होना चेहरे पर मुस्कान ले आता है। कहानी में हास्य का पुट रहे तो कहानी पढ़ते हुए मज़ा आ जाता है और सुंदर इस मामले में फिट बैठता है। यहाँ जरूरी यह भी है कि आप सुंदर पर नहीं बल्कि उसके साथ हँसते हैं। हास्य के मामले में शमीम, टेसू और दीपा के बीच का समीकरण भी रोचक बन पड़ा है। इनकी बातचीत और आपसी खींचतान भी आपके चेहरे पर मुस्कान ले आती है।  

उपन्यास की भाषा सरल और सहज है। अलग-अलग किरदारों को दर्शाने के लिए अलग तरह की भाषा, जिसमें कुछ गालियों का भी प्रयोग है, की गई है। हाँ, भाषा खड़ी बोली ही रखी गई है। मेरे एक दो जान पहचान के लोग मेरठ के हैं और वो जैसी देसी भाषा का प्रयोग करते हैं वो इधर नहीं की गई है। अगर उस भाषा का प्रयोग भी  किया जाता तो बेहतर होता। 

कथानक के बीच-बीच में लेखक राजनीति, प्रेम, धर्म  और इंसानियत के ऊपर ऐसी टिप्पणियाँ करते हैं जो आज से लगभग साठ साल पहले लिखे होने के बावजूद आज भी प्रासंगिक है। 

हम जनता के लोग… यह नहीं समझते कि अफसर कैसे होते हैं और राजनीतिज्ञ कैसे?

राजनेता युद्ध की घोषणा करता है, अफसर उसकी घोषणा को व्यवस्थित करते हैं। राजेन्ट सुलह का प्रस्ताव करता है और अफसर नेताओं की बातचीत के मुद्दे और सुलहनामें की शर्ते तैयार करते हैं। 

दंगा-फसाद करना, शत्रु देश को गालियाँ बकना… हम जनता का काम है। मोर्चे पर सेना लड़ती है, परंतु जब अफसर, सैनिक अफसर, अथवा राजनेता सुलह के लिए बैठते हैं… तो सगे भाई अथवा रिश्तेदारों की तरह बातें करते हैं। पढे लिखे समझदार होते हैं न!

यूँ कहा जा सकता है कि कहावत की बी जमालों भुस में आग लगा कर दूर खड़ी रहती है। यह वर्ग उस जमालो को भी मात देकर आग भी किसी दूसरे से लगवाते हैं, और उस ओर देखते भी नहीं। बुझाने के मौके पर पहुँचकर वाह-वाही जरूर लूट लेते हैं। (पृष्ठ 11-12)

ऐसा सदा ही होता आया है। नई पीढ़ी जमाने का प्रतिनिधित्व करती है। वह पीछे मुड़कर नहीं देखती। जमाना अपनी राह बनाता हुआ सदा आगे बढ़ता है। (पृष्ठ 32) 

मकसूद सोच रहा था भारत के विषय में। काफिरों का देश था उसकी दृष्टि में यह… और पीड़ित थे, सताये हुए थे यहाँ के मुसलमान। मकसूद को यहाँ के मुसलमानों से हमदर्दी थी। उसकी दृष्टि में इस्लाम इस देश में सुरक्षित नहीं था… यह जुदा बात थी कि सालों गुजर जाते थे उसे नमाज पढ़े बिना, किसी मस्जिद में जाए बिना! (पृष्ठ 32) 

प्यार का अंकुर अक्सर संदेह के तेज झंझावात से नष्ट हो जाता है! प्यार नाजुक पौधा है, और झगड़ा… कुकुरमुत्ते की तरह बढ़ने वाला प्रकृति प्रदत्त पौधा। (पृष्ठ 34)

बात यह नहीं है… मैंने कहा न, हर मुल्क और हर कौम में कुछ हरामी बिना बोए ही उपज आते हैं… उन्हीं की वजह से दंगे होते हैं। इस तरह के हरामी हिंदुओं में भी होते हैं और मुसलमानों में भी। यह लोग कहावत की बी जमालो की तरह होते हैं। अफवाहों की आग लगाई और अलग। बेगुनाह जख्मी होते हैं… मारे जाते हैं। (पृष्ठ 52)  

दुर्भाग्य यह है कि इस बँटवारे से किसी भी समूह ने यह सबक नहीं लिया कि उनका सबसे बड़ा शत्रु राजनीति का अवसरवाद है। 

वास्तव में हम संपूर्ण भारत उप महाद्वीप की जनता राजनैतिक अवसरवाद के जाल में फँसी मछली के समान है। (पृष्ठ 90)

जीना मुश्किल है, और कहा जाता है कि दोनों देशों में अल्पसंख्यक का जीना मुश्किल है। 

सवाल यह है कि अल्पसंख्यक हैं कौन?

क्या हिंदुस्तान में मुसलमान?

क्या पाकिस्तान में हिंदू?

मेरा ख्याल है कि दोनों देशों में अल्पसंख्यक न हिंदू हैं न मुसलमान। अल्पसंख्यक हैं इंसान! (पृष्ठ 91)

अंत में यही कहूँगा कि एक रात का मेहमान एक पठनीय उपन्यास है। यह उपन्यास मुझे पसंद आया। अगर आपने नहीं पढ़ा है तो आपको इसे पढ़ना चाहिए। 

136 पृष्ठ में फैले इस उपन्यास में लेखक ने सफलतापूर्वक उन बिंदुओं को रेखांकित किया है जो भारत पाकिस्तान के बीच की मुश्किलें बनी है। मकसूद अहमद जैसे लोग दोनों ही देशों और दोनों ही धर्मों में मौजूद हैं और दुख की बात है कि आज के वक्त में ऐसे लोगों की तादाद बढ़ती जा रही है जबकि मकसूद अहमद की जगह  महबूब अहमद बनने की हमें ज्यादा जरूरत है। उपन्यास में मकसूद को तो अंत तक आते आते अक्ल आ जाती है लेकिन इन लोगों को अक्ल आने में शायद अभी समय लगेगा। जब लेखक उपन्यास में कहते हैं कि ‘दोनों ही देशों में अल्पसंख्यक न हिंदू हैं और न मुसलमान। अल्पसंख्यक हैं इंसान!’ तो आप जानते हैं कि उनकी यह बात सच्चाई से इतनी दूर नहीं हैं। हमें याद रखना होगा कि  युद्ध, नफरत और धर्मांधता न केवल हमारी पीढ़ी को बर्बाद करेंगे बल्कि हमारी आने वाली पीढ़ी को भी बर्बाद कर देंगी।  जितना जल्दी हम यह समझ जाते हैं उतना ही हमारे लोगों और हमारे देशों के लिए अच्छा होगा। 

पुस्तक लिंक: अमेज़न 


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About विकास नैनवाल 'अंजान'

विकास नैनवाल को अलग अलग तरह के विषयों पर लिखना पसंद है। साहित्य में गहरी रूचि है। एक बुक जर्नल नाम से एक वेब पत्रिका और दुईबात नाम से वह अपनी व्यक्तिगत वेबसाईट का संचालन भी करते हैं।

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2 Comments on “एक रात का मेहमान – जनप्रिय लेखक ओम प्रकाश शर्मा | नीलम जासूस कार्यालय”

  1. शानदार……. 👌👌👌👌👌👌👌
    महबूब अहमद का किरदार और उनका पडोसी और उसके परिवार के प्रति प्रेम भी उल्लेखनीय है….. 🥰🥰🥰🥰🥰🥰🥰

    1. जी सही कहा। लेख में ये बिंदु जोड़ दिया है।

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