बिच्छू का खेल – अमित खान

संस्करण विवरण:

फॉर्मैट: ई बुक | प्रकाशन: बुक कैफै प्रकाशन | पृष्ठ संख्या: 266 | एएसआईएन: B08R9MZG71 | प्रथम प्रकाशन: 1994

पुस्तक लिंक:अमेज़न 

समीक्षा: बिच्छू का खेल | Book Review: Bicchoo ka khel - Amit khan

कहानी 

अखिल श्रीवास्तव के पिता का एक ही सपना था कि उनका बेटा वकील बने। अपने इस सपने को पूरा करने के लिए वह कुछ भी कर सकते थे। 
पर फिर कुछ ऐसा हुआ कि श्रीवास्तव परिवार की जिंदगी ही बदल गयी। उनके ऊपर मानो दुखों का पहाड़ टूट पड़ा। जिस पिता ने अखिल को कानून का प्रहरी बनाने का सपना देखा था उसी के ऊपर कानून की गाज गिर गयी। 
अखिल, जिसे उसके जानने वाले बिच्छू के नाम से जानते थे, ने जब यह सब देखा तो उसने एक फैसला कर लिया। एक खतरनाक खेल खेलने का फैसला। एक खतरनाक खेल कानून के साथ और अपने दुश्मनों के साथ। 
आखिर अखिल बिच्छू के नाम से क्यों जाना जाता था? 
अखिल के पिता पर कानून की गाज क्यों गिरी?
श्रीवास्तव परिवार का दुश्मन कौन था और अखिल ने उससे बदलना लेने के लिए क्या खेल खेला?
इस खतरनाक खेल का क्या नतीजा निकला?

मुख्य किरदार 

अखिल श्रीवास्तव – उपन्यास का मुख्य किरदार 
आभा श्रीवास्तव – अखिल की माँ 
बाबू श्रीवास्तव – अखिल के पिता 
रश्मि चौबे – अखिल की दोस्त 
कुण्ठा – रश्मि के कॉलेज का दोस्त 
उस्मान भाई – बनारस का डादा 
निकुंज तिवारी – पुलिस इन्स्पेक्टर 
सुरेन्द्र भाई तोलानी – वकील 
रजनीबाला – पब्लिक प्रोसीक्यूटर 
शहनाज बानो – उस्मान की पत्नी 
डॉक्टर लिंगनाथन – एक डॉक्टर (पैथोलॉजिस्ट) 
रेहाना – शहनाज बानो की दासी 
जगन – शराबखाना चलाने वाला 
रेवती प्रकाश – जगन का साला 
प्रशांत शुक्ला – पुलिस का डीआईजी 
मिट्ठन लाल – कबाड़ी वाला 
सुमन – एक लड़की 

मेरे विचार 

बिच्छू का खेल लेखक अमित खान के प्रसिद्ध उपन्यासों में से एक है। यह उपन्यास पहली बार 1994 में प्रकाशित हुआ था और तब से लेकर 2021 तक इसके चार संस्करण (1994,1999,2010, 2021) आ चुके हैं। हाल ही में इसके ऊपर एक वेब सीरीज बिच्छू का खेल आई है और इस कारण से यह उपन्यास चर्चा के केंद्र में आ चुका है।
जब भी हम लोग न्याय व्यवस्था के विषय में सोचते हैं तो कानून की देवी का चित्र हमारी मन में अपने आप उभर आता है। कानून की देवी एक महिला की प्रतिमा है जिसकी आँखों में पट्टी बंधी है और जो एक तुला हाथ में लिए न्याय करती है। वैसे तो आँखों में पट्टी यह दर्शाता है कि कानून के समक्ष सभी बराबर हैं और वह बिना किसी भेद भाव के सबूतों के आधार पर न्याय प्रदान करती है। पर सभी जानते हैं कि असल में ऐसा नहीं है। मुझे लगता है अब तो आँख में बंधी पट्टी ये दर्शाती है कि आप अगर सक्षम हैं तो आप कानून के साथ खिलवाड़ कर सबूतों की हेरा फेरी करते रहेंगे और कानून सब कुछ होते देखता रहेगा। इस उपन्यास के कथानक से लेखक ने इसी मुद्दे को उठाने की कोशिश की है। 
उपन्यास के केंद्र में अखिल श्रीवास्तव है जिसके पिता उसे वकील बनाना चाहते हैं पर हालात ऐसे बन जाते हैं कि जिस कानून की पहरेदारी के लिए वह अपने बेटे को नियुक्त करना चाहते थे वह उसी की धज्जियाँ उड़ाने का फैसला कर लेता है। ऐसा क्यों होता है और वह ये सब करने के लिए क्या योजना बनाता है यही उपन्यास का कथानक बनता है। कथानक ऐसा रचा गया है कि जैसे जैसे यह आगे बढ़ता चला जाता है वैसे वैसे आप इसे पढ़ते चले जाने के लिए उत्सुक हो जाते हैं। पढ़ते हुए कई बार आपको कुछ चीज़ें अपेक्षित लगती हैं, कुछ चीजें बचकानी भी लगती हैं लेकिन फिर लेखक कहानी में ऐसा ट्विस्ट दे देते हैं कि आप चौंकने के लिए विवश हो जाते हैं। जैसे जैसे कथानक अपने अंत के करीब आता जाता है वैसे वैसे ये मोड़ भी कथानक में आते हैं जो कि आपको उपन्यास पढ़ते चले जाने के लिए विवश कर देते हैं। 
उपन्यास के किरदारों की बात करूँ तो मुख्य किरदार बिच्छु यानि अखिलेश श्रीवास्तव  है जो कि आम हीरो जैसा नहीं है। वह एक तेज दिमाग युवक है जो ताकत से ज्यादा दिमाग से काम करने को तरजीह देता है। ऐसा नहीं है कि उससे गलती नहीं होती है लेकिन जब उससे गलती होती है तो वह दिमाग लगाकर उससे निकलने का माद्दा भी रखता है। यह उपन्यास नब्बे के दशक में आया था जब नायक एक सुपर हीरो जैसा व्यक्ति हुआ करता था जो अपनी ताकत के बल पर दुश्मन के दाँत खट्टे कर देता था। ऐसे में लेखक का ऐसा नायक लाना जो ताकत के बजाय दिमाग को तरजीह दे उस वक्त अलग फैसला रहा होगा जिसके कारण शायद उस वक्त भी पाठकों ने इसे सराहा होगा। 
उपन्यास में बाबू श्रीवास्तव का किरदार भी मुझे अच्छा लगा। आज के वक्त में उसे ऐसे पिता के रूप में देखा जाएगा जो कि अपनी इच्छा अपने बेटे पर थोपता है लेकिन जब आपको उसके ये सब करना का कारण पता चलता है उसके लिए आपको सहानुभूति भी होती है। लेखक ने इस किरदार के माध्यम से यह भी दर्शाया है कि कैसे न्यायिक प्रक्रिया में कई बार मासूम भी सजा पाते हैं और इसलिए फाँसी की सजा से बचा जाना चाहिए। कई बार सबूत जो दर्शाते हैं वह सच नहीं होता है और एक सभ्य न्याययिक व्यवस्था में फाँसी की सजा तभी किसी को देनी चाहिए जब उसके ख़िलाफ़ अकाट्य सबूत हों और वो एक बहुत जघन्य अपराध हो। 
उपन्यास में रश्मि नाम का किरदार है जो कि प्यार में धोखा खाई लड़की है। अक्सर ऐसी लड़कियाँ खुद धोखे की शिकार होती हैं लेकिन समाज धोखे बाजो को कुछ न कहकर इन्हें प्रताड़ित करता रहता है। कई बार ऐसी लड़कियाँ ज़िंदगी से हार मान लेती हैं, कई बार वो समाज से लड़ती हैं और कई बार समाज उन्हें जैसे देखता है वैसे ही बन जाती है। रश्मि तीसरी तरह की लड़की है जो जैसा समाज उसे देखता है वैसे बन जाती है। पर जब अखिलेश से प्यार मिलता है तो वह उसकी बनकर रह जाती है। 
उपन्यास में इंस्पेक्टर तिवारी और उसके सहायक के डायलॉग भी रोचक है। ये संवाद काफी फिल्मी हैं और उपन्यास में हास्य का तड़का लगाते हैं। 
उपन्यास की कमियों की बात करूँ तो इसमें एक प्रसंग आता है जिसमें एक व्यक्ति को ये पूछा जाता है कि उसने बैंक से पैसे कब निकाले और वह इसका जवाब नहीं दे पाता है और यही चीज किताब में एक मुख्य मोड़ आने का कारण बनती है। लेकिन इस प्रसंग में कोई भी बैंक में जाकर पैसे निकालने की जानकारी हासिल करने के लिए नहीं कहता है। अगर ऐसा होता तो गवाह झूठा साबित न होता और मुलजिम मुजरिम न बनता।  यह एक ऐसा साधारण सा पॉइंट है जो कि रोज अपराध के मामलों से जूझ रहे जजों और वकीलों के दिमाग में आना चाहिए था लेकिन जब नहीं आता है तो यह कथानक की कमजोर कड़ी बन जाता है। 
उपन्यास में बाबू के पास एक लाख कहाँ से आए ये बताने के लिए वो बहुत टाइम लगाता है। वह काफी मिन्नतों के बाद भी उनका स्रोत नहीं बताता है लेकिन जब उसके स्रोत का पता चलता है तब ऐसा लगता है जैसे बिना वजह ही इतना सस्पेंस खड़ा किया गया था। वह कारण ऐसा नहीं था जिसे ऐसे छिपा कर रखा जाए। 
उपन्यास में ट्विस्ट हैं जो आपको चौंकाते जरूर हैं लेकिन उपन्यास के अंत में आप ये सोचते  जरूर हो कि कान इतना घुमाकर पकड़ने की क्या जरूरत थी। व्यक्ति ने एक पॉइंट प्रूव करने के लिए अपने नजदीकी व्यक्ति को भी इतना दुख दिया। ये बात भी समझ नहीं आती है। इस कारण उपन्यास अतिनाटकीय भी लगता है। 
अंत में यही कहूंगा कि अगर आप लेखक की बसाई हुई दुनिया पर पूरी तरह विश्वास करके इसे पढ़ेंगे तो उपन्यास का अधिक लुत्फ ले पाएंगे। कथानक तेज रफ्तार है, इसमें काफी ट्विस्ट्स और यह पाठक की रुचि अंत तक बनाये रखता है। उपन्यास एक बार पढ़ा जा सकता है।
पुस्तक लिंक:अमेज़न 

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About विकास नैनवाल 'अंजान'

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2 Comments on “बिच्छू का खेल – अमित खान”

  1. आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (01-10-2021) को चर्चा मंच         "जैसी दृष्टि होगी यह जगत वैसा ही दिखेगा"    (चर्चा अंक-4204)     पर भी होगी!–सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार करचर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।

    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'   

    1. चर्चा अंक में मेरी पोस्ट शामिल करने के लिए हार्दिक आभार।

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