किताब 16 अक्टूबर 2020 से 17 अक्टूबर 2020 को पढ़ी गयी
संस्करण:
फॉर्मेट: ई-बुक | प्रकाशक: बुक कैफ़े पब्लिकेशन | पृष्ठ संख्या: 209 | एएसआईएन: B086MN8N89
दस जनवरी की रात – परशुराम शर्मा |
पहला वाक्य:
कार के ब्रेकों के चीखने का शोर इतना तीव्र था कि अपने घोंसलों में सोते पक्षी भी फड़फड़ाकर उड़ चले।
कहानी:
रोमेश सक्सेना मुंबई का नामी वकील था जिसके विषय में दो बातें प्रसिद्ध थीं। पहली कि वह किसी अपराधी का केस नहीं लेता था और दूसरी यह कि जिसका केस वह ले लेता था उसे वह रिहा करवाकर रहता था। रोमेश ने आजतक एक भी मामले में हार का मुँह नहीं देखा था।
इंस्पेक्टर विजय कानून का वह सिपाही था जिसे देखकर अपराधी थर थर काँपते थे। सभी को पता था कि विजय न तो किसी अपराधी का धौंस खाता था और न ही वह अपनी ईमानदारी पर कोई आँच आने देना चाहता था।
वैसे तो इंस्पेक्टर विजय और रोमेश दोनों गहरे दोस्त थे लेकिन हालात ने उन्हें एक दूसरे के सामने खड़ा कर दिया था।
रोमेश ने यह ऐलान किया था कि वह दस जनवरी की रात को पूर्व सी एम जनार्दन रेड्डी का कत्ल करके रहेगा और वहीं इंस्पेक्टर विजय को जनार्दन रेड्डी की सुरक्षा का जिम्मा सौंपा गया था।
इस दस जनवरी की रात को कई जिंदगियों की किस्मत का फैसला होना तय हो चुका था।
आख़िर ऐसा क्या हुआ था कि रोमेश ने जनार्दन जैसे नेता का खून करने का फैसला कर लिया था?
क्या रोमेश अपने इस कथन को सच बना पाया?
रोमेश के इस कदम का क्या नतीजा निकला?
दस जनवरी की रात मुंबई में कैसा तूफ़ान ले आई?
मेरे विचार:
‘दस जनवरी की रात’ नब्बे के दशक में लिखा गया परशुराम शर्मा का उपन्यास है जिसे बुक कैफ़े प्रकाशन ने हाल में ही पुनः प्रकाशित किया गया है।
दस जनवरी की रात मूलतः एक अपराध कथा है जिसके केंद्र में एक वकील रोमेश सक्सेना है।
वकील शब्द जब भी मैं सुनता हूँ तो अकबर इलाबाहदी का यह शेर मेरे जहन में अपने आप उभर जाता है:
पैदा हुआ वकील जो शैतान ने कहा
लो आज हम भी साहिब ए औलाद हो गये
यह शेर वकीलों के प्रति ज्यादती लग सकता है लेकिन कई बार यह शेर उन पर फिट भी बैठता है। वकील एक ऐसा मार्गदर्शक होता है जो कि क़ानून के गलियारों में चलने में आपकी सहायता करता है। कानून के सभी दाँव पेंचों से वाकिफ यह मार्गदर्शक जहाँ एक तरफ चाहने पर कानून के पंजों को मजबूत भी बना सकता है तो वहीं दूसरी तरफ अगर वह चाहे तो क़ानून के इन मजबूत पंजों में से ऐसी जगह भी निकलवा सकता है जिससे की अपराधी आराम से छूट जाए। और यह इस समाज का दुर्भाग्य है कि क़ानून के पंजों में ऐसी जगह बनवाने के लिए ही वकीलों को अकूत सम्पत्तियाँ दी जाती हैं।
वही वकील सफल कहलाते हैं जो कि सच को झूठ और झूठ को सच बनाकर अपने मुवक्किल को बाइज्जत बरी करवाने का हुनर वकील रखते हैं। क़ानून के भीतर रहकर कानून से खिलवाड़ कैसे किया जा सकता है कानून के इसी पहलू को इस उपन्यास में दर्शाया गया है।
कहानी के केंद्र में रोमेश सक्सेना नाम का एक काबिल वकील है जो वैसे तो ईमानदार है लेकिन फिर एक मामले के चलते उसकी जाती जिंदगी में ऐसा भूचाल आता है कि जिस कानून की रक्षा करने का उसने प्रण लिया था वह उसे ही चकमा देने का मन बना लेता है। यह वह कैसे करता है और यह करने के बाद उसके जीवन में क्या हलचल होती है यह पढ़ने के लिए पाठक उपन्यास पढ़ता चला जाता है।
कहानी फ़िल्मी है लेकिन आप पर पकड़ बनाकर रखती है। रोमेश जिस तरह से अपनी बिसात बैठाते हुए दिखता है उससे आप यह जानने के इच्छुक हो जाते हैं कि वह आखिर अपने हाथ में लिए गये काम को किस तरह पूरा करता है?
कहानी में रोमेश के सामने जो व्यक्ति खड़ा है वह इंस्पेक्टर विजय है। विजय एक ईमानदार पुलिस अफसर है पर अक्ल में रोमेश से कम ही है। यह बात शुरू में ही स्थापित कर दी जाती है। इसलिए इनके दाँव पेंच देखने में मजा आता है क्योंकि आपको यह देखना है विजय रोमेश से कैसे पार पायेगा।
वहीं सिस्टम की नाकामियाँ भी इस उपन्यास में उजागर हो जाती हैं। विजय जानता है कि जिस पूर्व सी एम की सुरक्षा का कार्यभार उसे सौंपा गया है वह गुनाहगार हैं लेकिन चूँकि वह ताकतवर नेता है और सिस्टम को चलाना जानता है तो विजय को उसकी सुरक्षा करनी पड़ती है। चूँकि वह ईमानदार है तो कई बार उसे अपने सीनियर अफसरों और साथियों का भी असहयोग झेलना होता है क्योंकि वो या तो बिके हुए हैं या उनके ऊपर ऐसे नेताओं का दबाव है जो कि बिके हुए हैं। लेकिन इन सबसे वह हार नहीं मानता है और यह साबित करके रहता है कि अगर क़ानून का सिपाही चाहे तो सामने कितना भी बड़ा मुजरिम हो वो उसे सजा दिला सकता है।
कहानी में कई और पात्र हैं जो कि वक्त के अनुसार रंग बदलते दिखते हैं। उनके द्वारा दिए गये धोखे पाठक को आश्चर्यचकित करते हैं और ऐसे ट्विस्टस का काम करते हैं जो कि कथानक में रूचि बनाये रखते हैं।
हाँ, कहानी के अंत में रोमेश को फाँसने के लिए जिस ट्रिक का इस्तेमाल किया जाता है वह मुझे कमजोर लगी। रोमेश जैसे तेज तर्रार व्यक्ति का उस चाल में फँसना थोड़ा अटपटा लगता है। अगर उसके लिए बेहतर जाल बुना जाता तो पाठक के रूप में मुझे ज्यादा संतुष्टि होती। वहीं शुरुआत में रोमेश को तेज तर्रार दर्शाने के लिए उससे एक मर्डर केस भी सुलझाया जाता है। वह जिस तरह यह करता है वह भी मुझे इतना ख़ास नहीं लगा। वहाँ पुलिस की पूरी टीम रहती है और उन्हें उसके आने तक एक पतली डोरी नहीं दिखाई देती है यह थोड़ा अटपटा लगता है। यह मामला थोड़ा और पेचीदा होता तो बेहतर होता।
कहानी में एक विफल प्रेम कहानी भी है। प्रेम करते हुए कई बार व्यक्ति भूल जाता है कि प्रेम में समझोते विशेषकर अपने चरित्र के साथ समझोते करने को कोई कह रहा है तो वह आपसे प्रेम नहीं करता वह आपका इस्तेमाल ही कर रहा है। यह बात जब तक उस व्यक्ति को समझ आती है तब तक काफी देर हो चुकी होती है और वह उसके हाथों का खिलौना बनकर इस्तेमाल कर लिया जा चुका होता है।
मैंने इस उपन्यास का ई-संस्करण पढ़ा था तो उसमें मुझे थोड़े बहुत प्रूफ की गलतियाँ मिली थी लेकिन वह इक्का दुक्का ही हैं तो मुझे उनसे कोई शिकायत नहीं है।
अंत में इतना ही कहूँगा कि यह उपन्यास एक बार पढ़ा जा सकता है। उपन्यास मुझे औसत से अच्छा लगा। जहाँ एक तरफ तो इसमें यह दर्शाया गया है कि एक तेज तर्रार वकील अगर चाहे तो कैसे कानून को छका सकता है वहीं दूसरी तरफ उपन्यास के अंत तक पहुँचते पहुँचते आप यह भी जान जाते हैं कि मुजरिम चाहे कितना भी शातिर क्यों न हो पर अंत में वह क़ानून के पंजों में आ ही जाता है।
रेटिंग: 2.5/5
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पेपरबैक | किंडल
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© विकास नैनवाल ‘अंजान’
बहुत ही रोचक समीक्षा. उपन्यास पढ़ने की इच्छा तीव्र हो गई. मैंने परशुराम शर्मा जी का शायद एक ही उपन्यास पढ़ा था, जिसमें डायना थी. हालाँकि बहुत पहले पढ़ा ता इसलिए याद नहीं. उस उपन्यास को भी दोबारा पढ़ना चाहूँगा.
जी जरूर पढ़िएगा। आभार।
बहुत अच्छी समीक्षा लिखी है आपने विकास जी । यह जानकर भी अच्छा लगा कि वस्तुतः यह नब्बे के दशक में लिखे गए उपन्यास का नवीन संस्करण है । ऐसे उपन्यास तो अब दुर्लभ ही हो गए हैं । उस ज़माने में मैंने परशुराम शर्मा के कुछ उपन्यास पढ़े थे जो कि मुझे मनोरंजक लगे थे । यह वह समय था जब परशुराम शर्मा, विनय प्रभाकर, टाइगर, राज और संजय गुप्ता जैसे लोग (वास्तविक या छद्म नाम वाले) भी अच्छे जासूसी उपन्यास लिखा करते थे । अब तो उनके ऐसे किसी उपन्यास की पुरानी प्रति तुक्के से ही मिल जाए तो मिल जाए वरना तो नहीं मिलती । इसलिए बुक कैफ़े प्रकाशन के इस काम को मैं सराहनीय ही कहूंगा ।
जी परशुराम शर्मा के हाल फिलहाल में काफी उपन्यास पुनः प्रकाशित हुए हैं जिनमें से काफी मैंने ले लिए हैं। सूरज पॉकेट बुक्स ने भी उनके कम से कम पन्द्रह उपन्यास (अगिया बेताल, कोरे कागज का कत्ल, आग श्रृंखला के पाँच, इंका श्रृंखला के पाँच, खून बरसेगा, बंगला नम्बर 420, बाज, पुकार, क़ानून की आँख) निकाले हैं। वहीं बुक कैफ़े भी निकाल रहा है। पुराने लेखकों के अनुपलब्ध उपन्यासों का यूँ उपलब्ध होना वाकई सराहनीय कदम है। उम्मीद है बाकी लेखकों के भी जल्द ही मिलेंगे।
माफ़ कीजियेगा आग श्रृंखला के तीन उपन्यास हैं।