संस्करण विवरण:
फॉर्मैट: हार्डकवर | प्रकाशन: सत्साहित्य प्रकाशन | पृष्ठ: 25
पुस्तक लिंक: अमेज़न
कहानी
नलिनी सत्येन्द्रकुमार की दूसरी पत्नी थी। नलिनी जब शादी करके घरआई तो उसे मालूम चल गया था कि सत्येन्द्र के मन में एक बोझ है जिसे उसे भी ताजिंदगी उठाना पड़ेगा।
लेकिन फिर ऐसा क्या हुआ कि सत्येन्द्र ने नलिनी को हमेशा के लिए मायके भेज दिया?
ऐसा क्या बोझ था जिसने उनके रिश्ते को तबाह कर दिया?
किरदार
सत्येन्द्रकुमार मित्र – हरदेव का एकलौता पुत्र
कामाख्याचरण चौधरी – दिलजानपुर के जमींदार
सरला – कामाखीयचरण चौधरी जिसके साथ सत्येन्द्रकुमार मित्र का विवाह हुआ था
सुशीला – सरला की बड़ी बहन
नलिनी – सत्येन्द्रनाथ मित्र की दूसरी पत्नी
गोपिकांत राय – पावना के बड़े वकील जिनका नलिनी और सत्येन्द्र से गहरा नाता था
हेमांगनी – गोपिकान्त राय की बेटी और नलिनी की दोस्त
उपेन्द्रनाथ बाबू – हेमांगनी के पति जो कि वकील थे
मातंगनी उर्फ मातु – नलिनी के घर से आई नौकरानी
नरेंद्रबाबू – नलिनी के बड़े भाई
विचार
बोझ शरतचंद्र चट्टोपाध्याय की उपन्यासिका है जिसे सत्साहित्य प्रकाशन द्वारा प्रकाशित चंद्रनाथ के साथ संकलित किया गया है। यह उपन्यासिका आठ अध्यायों में बँटी हुई है। दाम्पत्य जीवन में अपने साथी की तुलना किसी और से करना और दंपति के बीच का अहम दंपति के जीवन पर क्या प्रभाव डाल सकता है यह इस उपन्यासिका के किरदारों के जीवन से जाना जा सकता है।
उपन्यासिका के केंद्र में सत्येन्द्र, सरला और नलिनी है। सत्येन्द्र एक युवा है जिसकी तीन शादियाँ होती हैं। उसकी यह तीन शादियाँ किन हालातों में होती है यही उपन्यास का कथानक बनता है।
मनुष्य एक जटिल प्राणी है जो कि अपने अनुभवों से मिलकर बनता है। कई बार यह अनुभव उसे समझदार बना देते हैं लेकिन कई बार यह अनुभव उसके विचारों को संकुचित करने लगता है। इस अनुभव की गठरी को हम अपने ताजिंदगी अपने साथ लेकर चलते हैं और कई बार इस बोझ के कारण ऐसी चीजों से भी वंचित रह जाते है या उन चीजों का मूल्य नहीं समझ पाते हैं जो कि हमारे अब तक के अनुभव से अलग हैं।
इस उपन्यासिका का एक मुख्य पात्र सत्येन्द्र भी ऐसा ही व्यक्ति है जिसकी जब पहली शादी सरला से होती है तो वह प्रेम का पहली बार अनुभव करता है। जब दुर्भाग्यवश उसकी पहली पत्नी गुजर जाती है और उसके घर वाले उसकी दूसरी शादी करते है तो नई पत्नी की तुलना गुजरी पत्नी से करने लगता है और इस कारण इस तुलना के बोझ के तले उसकी यह दूसरी गृहस्थी भी तबाह हो जाती है। इस गृहस्थी के तबाह होने का एक कारण अहम भी होता है। रिश्ते बड़े कोमल होते हैं और जब अहम इनमें आ जाता है तो आसानी से चटक जाते हैं। कई बार अगर रिश्ता जरूरी हो तो आदमी को झुकना भी पड़ता है लेकिन जब व्यक्ति अपने अहम के चलते ऐसा नहीं करता है तो ऐसा कुछ हो जाता है कि वह बाद में हाथ मलते रह जाता है। उपन्यासिका में भी यही होता है। सत्येन्द्र की अहम के कारण इस रिश्ते के टूटने की शुरुआत होती है और नलिनी के अहम के चलते इस रिश्ते का टूटना तय हो जाता है। दुख की बात यह रहती है कि गलती न होते हुए भी नलिनी ही वो रहती है जो कि इस गलती बड़ी सजा भुगतती है।
सत्येन्द्र की पहली पत्नी सरला है जो कि एक प्यारी सी बालिका है। उससे पाठक ज्यादा वकिफ़ भले ही नहीं हो पाते हैं लेकिन सत्येन्द्र का उसके प्रति प्रेम देखकर जो सरला के साथ होता है वह दुखदायी रहता है।
नलिनी सत्येन्द्र की दूसरी पत्नी है। जब उसकी शादी होती है तो वह केवल 16 वर्ष की रहती है। आज के वक्त में देखा जाए तो वह एक बच्ची ही कही जाएगी लेकिन जिस तरह से वह माहौल को समझ कर अपनी गृहस्थी बसाती है उसे देखकर उसकी समझदारी पर आश्चर्य तो होता ही है साथ में उसके प्रति सम्मान भी उपजता है। वहीं आखिर में सत्येन्द्र की तीसरी शादी को लेकर उसकी प्रतिक्रिया रहती है उससे एक तरफ तो उससे खीझ उठती है और दूसरी तरफ उसके प्रति सम्मान का भाव और गहरा हो जाता है। खीज इसलिए क्योंकि उसने सत्येन्द्र की तीसरी शादी का विरोध न किया और जब विरोध न करना था तो क्यों कष्ट भोगे। वहीं जिस तरह का व्यवहार वह सत्येन्द्र की तीसरी पत्नी के प्रति करती है वह भी उसे आम महिला से अलग बना देता है। आम महिला होती तो वह अपना गुस्सा सौत पर निकालती लेकिन नलिनी उसकी स्थिति से वाकिफ है। वह जानती है कि जैसे वह बेबस है वैसे ही वह भी होगी इसलिये उससे कोई शिकायत उसे नहीं रहती है।
शरत चंद्र चट्टोपाध्याय अपनी रचनाओ के माध्यम से अपने तात्कालिक समाज में टिप्पणी भी करते हैं और इस रचना में भी उन्होंने ऐसा किया है। यह बात वह कई प्रसंगों के माध्यम से करते हैं। वैसे तो यह उपन्यास काफी पहले लिखा गया था लेकिन इसमें माँ बाप की जो प्रवृत्ति दर्शाई गयी है उसमें आज भी ज्यादा बदलाव नहीं हुआ है। सत्येन्द्र के माँ बाप उसकी इच्छा के बिना ही उसकी शादी नलिनी से कर देते हैं। वहीं सत्येन्द्र भी ये शादी माँ बाप के दबाव में आकर कर देता है लेकिन उनकी इस जिद का खामियाजा नलिनी को भुगतना पड़ता है। आज भी ऐसी सोच समाज में व्याप्त है जिसके चलते माँ बाप अपने बच्चों की शादी बिना मर्जी के करवाते देते हैं और उनके साथी को फिर भुगतना पड़ता है। यह चीज लड़कियों को ज्यादा भुगतनी पड़ती है क्योंकि बाद में लड़के के घर वाले भी अपने लड़के को संभालने की जिम्मेदारी भी बहु पर डाल देते हैं और कई बार उसके बिगड़ने का श्रेय भी उसके ही माथे पर मढ़ देते हैं।
लेखक ने अपने समाज में स्त्री की स्थिति पर भी इस उपन्यासिका के माध्यम से टिप्पणी करी है। एक तरफ जिस तरह से नलिनी को दूध में पड़ी मक्खी की निकाला जाता है उससे उस वक्त की पत्नियों की स्थिति पर लेखक ने टिप्पणी की है। वहीं दूसरी तरफ एक माँ अपने पति के जाने के बाद घर में किस तरह बेबस हो जाती है उसे भी सत्येन्द्र और उसकी माँ के बीच उस वार्तालाप से दर्शाया गया है जो कि सत्येन्द्र की तीसरी शादी से पहले होता है।
उपन्यासिका में मुख्य किरदारों के विवाह को बाल विवाह ही कहेंगे लेकिन जब यह उपन्यास लिखा गया उसे देखते हुए इस पर कुछ कहना जरूरी नहीं रह जाता है। हाँ, आज की कहानी में यह दर्शाया जाता तो जरूर वो चिंता का विषय होता है।
उपन्यासिका बांग्ला का हिंदी अनुवाद है और अनुवाद अच्छा हुआ है। पढ़ते हुए कहीं भी नहीं लगता है कि यह अनूदित है। रचना की भाषा शैली कई बार काव्यात्मक हो उठती है और कई वाक्य सूक्तियों के तरह प्रयोग में लाए जा सकते हैं।
रचना की कमी की बात करूँ तो चूँकि यह उपन्यासिका ही है तो कुछ बातें तेजी से घटित होती दर्शायी हैं। जैसे नलिनी की शादी चौथे अध्याय में होती है और फिर सीधे पाँचवे अध्याय में दो वर्ष बीतने के बाद का कथानक चल निकलता है। इन दो वर्षों को बस कुछ पंक्तियों में निपटाया गया है। मुझे लगता है अगर इस दो वर्ष के बीच हुई कुछ प्रमुख घटनाएँ भी दर्शाई होती बेहतर होता। अभी सब कुछ जल्दबाजी में हुआ लगता है। आप नलिनी और सत्येन्द्र को ज़्यादा गहराई से नहीं जान पाते हो। उदाहरण के लिए उपन्यास के अंत में नलिनी के एक बालक होकर मरने की बात कही गयी है जो कि शायद इन दो वर्षों में ही हुआ होगा लेकिन वो बात आखिर में ही पता लगती है। इस घटना से इन दोनों व्यक्तियों के रिश्ते पर कुछ तो प्रभाव पढ़ा ही होगा। वह प्रभाव क्या था और इस घटना ने इनके रिश्ते को कैसे बदला? यह देखना रोचक रहता। ऐसी और भी घटनाएँ दर्शाई जाती तो शायद पाठक नलिनी और सत्येन्द्र से और जुड़ पाते।
इस चीज के अलावा ऐसा कुछ नहीं था जो कि रचना में मुझे खटका हो।
अंत में यही कहूँगा कि यह उपन्यासिका पठनीय है और एक बार पढ़ी जा सकती है। उपन्यासिका में दिखलाई गयी परेशानियाँ ऐसी है जिससे मनुष्य हर कालखण्ड में जूझता रहा है और इस कारण यह अपनी प्रासंगिकता नहीं खोती है। अगर आपने इसे नहीं पढ़ा है तो पढ़ें।
उपन्यासिका की कुछ पंक्तियाँ जो मुझे पसंद आईं:
दुखिया का यदि कोई व्यथा भागी हो, कष्ट में यदि कोई सहानुभूति प्रकट करे, दुखी की कहानी को कोई आग्रहपूर्वक सुने- तो शायद उस जैसा हितू इस संसार में और कोई नहीं है।
जो जिस चीज को जबरदस्ती लेना जानता है, वह उसे रखना भी जानता है।
मनुष्य जिसे पा नहीं सकता – वही वस्तु उसकी प्रिय सामग्री बनकर खड़ी रहती है। मनुष्य का चरित्र ऐसा ही है। तुम अशान्ति में हो, शांति ढूँढने को घूम रहे हो – मैं शांति भोग रहा हूँ, तो भी कहीं से जैसे अशान्ति को खींच लाया करता हूँ।
दुनिया में प्रायः ही देखा जाता है – किसी सामान्य कारण से ही गुरुतर अनिष्ट की उत्पत्ति होती है। शूर्पणखा का किंचित् चित्तचांचल्य ही सोने की लंका ध्वंस होने का हेतु बना। छोटी-सी रूप लालसा के लिए ट्रॉय नगर ध्वस्त हो गया। महानुभाव, राजा हरीशचंद्र सामान्य कारण से ही ऐसे विपत्तिग्रस्त हुए, कि संसार में वैसा दृष्टांत दूसरा नहीं है।
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अति उत्तम
आभार आपका…