संस्करण विवरण:
फॉर्मेट: पेपरबैक | पृष्ठ संख्या: 108 | प्रकाशक: साहित्य अकादेमी | आईएसबीएन: 9788172015237 | पुरस्कार: 1991 साहित्य अकादेमी | अनुवाद: सिद्धेश
सादा लिफाफा – मति नंदी |
पहला वाक्य:
उसने सामने दीवार घड़ी की तरफ देखा, फिर अपनी हाथ-घड़ी की तरफ नज़र डाली।
कहानी:
प्रियव्रत को तनख्वाह मिली है और उसे पता है हर महीने की तरह फणीपाल उससे मिलने उसके ऑफिस आयेगा। हर महीने जब भी प्रियव्रत को तनख्वाह मिलती है, फणीपाल उसके दफ्तर पहुँच जाता है। इस दिन प्रियव्रत फणीपाल को एक सादा लिफाफा देता है जिसे लेकर फणीपाल चला जाता है। पिछले पच्चीस सालों से यह क्रम बिना किसी रुकावट के इस तरह चलता रहा है अब प्रियव्रत के सहकर्मियों को भी फणीपाल की आने इन्तजार रहता है।
आज भी प्रियव्रत को फणीपाल का इन्तजार है। प्रियव्रत ने फणीपाल के लिए लिफाफा तैयार करके रखा है।
आखिर कौन है प्रियव्रत? आखिर कौन है फणीपाल?
फणीपाल क्यों प्रियव्रत के दफ्तर हर महीने पहुँच जाता है? प्रियव्रत उसे लिफाफे में क्या देता है?
वह क्यों उसे लिफाफा देता है?
मति नंदी का उपन्यास सादा लिफाफा इन्हीं सवालों के उत्तरों को पाठक के सामने रखता है।
मुख्य किरदार:
प्रियव्रत नाग/अतुलचन्द्र घोष – कहानी का नायक
तिनकौड़ी – प्रियव्रत के बचपन में उसका एक सहपाठी
फणीपाल – एक बुजुर्ग जो हर महीने प्रियव्रत के पास आता है
भौमिक, स्वदेश सरकार, सुविनय – प्रियव्रत के सहकर्मचारी
शिवप्रसाद दास उर्फ़ खुदीकेलो – प्रियव्रत का पड़ोसी
हितव्रत – प्रियव्रत का बेटा
निरुपमा उर्फ़ नीरू – खुदीकेलो की बेटी
तरुलता, अरुणा, वरुणा और सरला – खुदीकेलो की बेटियाँ
मंगला – प्रियव्रत की पत्नी
तिलु – प्रियव्रत का नौकर
मेरे विचार:
‘सादा लिफाफा’ मूल रूप से बांग्ला में लिखे गये उपन्यास ‘सादा खम’ का हिन्दी अनुवाद है। मति नंदी जी को अपने इस उपन्यास के लिये 1991 में साहित्य अकेदमी पुरस्कार दिया गया है। उपन्यास का अनुवाद सिद्धेश ने किया है। अनुवाद अच्छा हुआ है और पढ़ते हुए लगता नहीं है कि आप अनुवाद पढ़ रहे हैं।
उपन्यास की बात करूँ तो यह उपन्यास प्रियव्रत नाग नाम के व्यक्ति को केंद्र में रखकर लिखी गयी है। उपन्यास की शुरुआत में पाठक को प्रियव्रत फणीपाल नाम के व्यक्ति का इंतजार करते हुए दिखता है। पाठक को पता चलता है कि फणीपाल पिछले पच्चीस सालों से हर महीने प्रियव्रत के पास आता है और एक सादा लिफाफा लेकर चला जाता है। कहानी की शुरुआत उस दिन से होती है जब यह क्रम टूटता है। जैसे जैसे कहानी आगे बढती है पाठक को प्रियव्रत के जीवन के विषय में पता चलता है। उसका फणीपाल से क्या सम्बन्ध था और इस सम्बन्ध का उस पर कैसा असर हुआ यह आपको दिखलाई देता है।
कई बार आप मजबूरी के चलते कुछ ऐसा कर देते हैं कि फिर उसको छुपाने के लिए आपको बहुत कुछ ज्यादा दे देना पड़ता है। प्रियव्रत की कहानी भी ऐसी है। उपन्यास पढ़ते हुए मैं सोच रहा था कि क्या अच्छा नहीं होता कि जो निर्णय उसने इतने वर्षों बाद उपन्यास के अंत में लिया वो शुरुआत में ही ले लेता? अगर ऐसा होता तो शायद उसकी ज़िन्दगी और बेहतर होती। लेकिन फिर मनुष्य कई बार डर जाता है। डर से उभारने के लिये उसे किसी उत्प्रेरक(कैटेलिस्ट) की जरूरत होती है जो कि कई बार बहुत देर से आता है। कई बार आता भी नहीं है।
प्रियव्रत एक आम सा व्यक्ति है और इस कारण जितना मैंने प्रियव्रत को जाना उतना मुझे अपने जीवन के कुछ अंश उसके जीवन में दिखाई दिए। प्रियव्रत और खुदीकेला बचपन के दोस्त हैं। दोनों पड़ोसी भी हैं और कभी उनके बीच गहरी दोस्ती भी रही होगी। लेकिन फिर घड़ी की सुइयाँ बढ़ी और वो दूर होते चले गये। इन दोनों के रिश्ते को देख मुझे अपने कई ऐसे दोस्तों की याद आई जो अब दूर हो गये हैं। आपके साथ भी ऐसा ही हुआ होगा। कभी वो दोस्त मेरे बेहद नजदीकी थे लेकिन अब वो मेरे लिए उतने ही अनजान हैं जितना कि सड़क पर चलता कोई ऐसा व्यक्ति जिससे मेरी जान पहचान नहीं है। वह झिझक जो खुदीकेलो और प्रियव्रत महसूस करते हैं वह मैंने भी महसूस की है। शायद आपने भी की हो। कभी कभी मैं यही सोचता हूँ कि जीवन में हम आगे बढ़ते हैं तो कितना कुछ पीछे छूट जाता है। कितना कुछ समेटने को होता है जो कि हम नहीं समेट पाते हैं। फिर उस छूते हुए के लिए दुखी होने के सिवाय कुछ कर नहीं सकते क्योंकि जानते हैं कि अब भले ही कितनी भी कोशिश हम कर लें लेकिन उस छूटे हुए को पा नहीं सकते हैं।
उपन्यास में प्रियव्रत के रिश्तेदारों का जिक्र भी है जो उसके घर के नजदीक रहते हैं और उनकी उससे नहीं बनती है। उसे पढकर यही लगा कि हर जगह हाल ऐसा ही है। नजदीक में रिश्तेदार रहें तो बंगाल हो या उत्तराखंड खटराग हर जगह होता ही है। इसलिए एक उचित दूरी होना जरूरी है।
उपन्यास पढ़ते हुए पाठक प्रियव्रत के जीवन के कई दूसरे पहलुओं से भी वाकिफ होते हैं। उसकी पत्नी का देहांत हुए पन्द्रह वर्ष से ऊपर हो चुके हैं तो इस कारण उसका एकाकीपन भी उपन्यास पढ़ते हुए आपको महसूस होता है। वह शादी करता सकता था लेकिन शादी नहीं करता है। इसके पीछे का कारण क्या है यह भी आपको पता चलता है। उसका बेटा बड़ा हो चुका है और अब इस बेटे से वह किस तरह बात करे इस संशय को भी आप उपन्यास पढ़ते हुए जान पाते हैं। जब आप देखते हैं कि अपने बेटे के नज़रों में प्रियव्रत का स्टेटस लगभग एक ऐसे असफल व्यक्ति का जिसे जीवन जीना नहीं आया तो उसके लिए सहानुभूति भी आपके मन में उत्पन्न होती है।
उपन्यास में निरुपमा का प्रसंग भी है जो कि कभी क्रोध और कभी बेबसी का अहसास कराता है। समाज की हकीकत वही है जो निरुपमा के सन्दर्भ में दर्शाई गयी है। न जाने निरुपमा जैसी कितनी ही लड़कियाँ इस देश में है। उनके ऊपर कितना दबाव रहता है यह हम और आप शायद समझ भी न पाएं। मेरा मानना रहा है कि एक खुशियों से भरा जीवन हर व्यक्ति का अधिकार होना चाहिए। ज्यादातर व्यक्ति बहुत सरल होते हैं और खुश रहने के लिए उन्हें ज्यादा कुछ चाहिए भी नहीं होता है। लेकिन फिर भी उन्हें ख़ुशी नही मिलती और यह देख दुःख ही होता है।
उपन्यास चूँकि बंगाल में बसा है उसकी गलियाँ, वहाँ का मौसम और उधर के जीवन की झलक देखने को मिलती है। ऐसी गलियाँ दिल्ली में पुरानी दिल्ली में आपको देखने को मिलेंगी। दो वर्ष पहले जब मैं दुर्गा पूजा देखने बंगाल गया था तो बंगाल की कई गलियों में घूमा था। उपन्यास पढ़ते हुए वह यादें भी मेरी ताजा हो गयी थी।
उपन्यास जिस जगह खत्म होता है वह मुझे पसंद आया। इतना तो पाठक के रूप में आपको पता चल जाता है कि अब जो होगा वो बेहतर ही होगा। कम से कम जिस घुटन से प्रियव्रत गुजर रहा था उस घुटन का तो खात्मा होगा।
उपन्यास में ऐसा कुछ तो नहीं है जो मुझे नापसंद आया हो लेकिन एक दो बातें मुझे थोड़ी अटपटी लगी। प्रियव्रत को फणीपाल से दफ्तर में मिलने की कोई जरूरत नहीं थी। वह उससे बाहर भी मिल सकता था या लिफाफा घर भी भेज सकता था। मैं होता तो शायद ऐसा ही करता। प्रियव्रत की पत्नी के देहांत को 15 साल हो चुके थे। उस वक्त उसका बेटा 12-13 साल का रहा होगा। इतने वर्षों में वह अपने पिता के दफ्तर न आया यह बात थोड़ी अटपटी लगती है। अगर पिता फ़ौज में हो तो यह बात एक बार को समझ भी आती लेकिन अगर ऐसा नहीं है और पिता की नौकरी एक ही शहर में है और ऊपर से पिता विधुर है तो घर में पिता के अलावा कोई और नही है तो बेटे के दफ्तर आने की सम्भावना काफी बढ़ जाती है। इसलिए प्रियव्रत की स्थिति से हितव्रत का अनभिज्ञ होना थोड़ा अटपटा लगता है। यह मुमकिन हो सकता है। लेकिन अटपटा लगता है।
उपन्यास मुझे पसंद आया। सादा लिफाफा एक ऐसे व्यक्ति की कहानी है जो कि अपनी एक गलती के चलते जीवन भर घुट घुट कर रहता आया है। आप इस घुटन को महसूस कर सकते हैं। उपन्यास दिखलाता है कि गलतियों को स्वीकार करके उनका दंड भुगतना अक्सर बेहतर होता है। अगर आप यह करते हैं तो आप जीवन में आगे बढ़ जाते हैं नहीं तो आप जिंदगी भर इस घुटन के वातावरण में ही जीने के लिए शापित हो जाते हैं। और इस शाप से आप ही नहीं अपितु आपके जीवन में मौजूद आपके प्रिय भी प्रभावित होते हैं।
उपन्यास एक बार पढ़ा जा सकता है।
अगर आपने इस उपन्यास को पढ़ा है तो आपको यह कैसा लगा? अपने विचारों से मुझे जरूर अवगत करवाईयेगा।
बांग्ला से हिन्दी में अनूदित मैंने दूसरे उपन्यास भी पढ़े हैं। उनके प्रति मेरी राय आप निम्न लिंक पर जाकर पढ़ सकते हैं:
बांग्ला से हिन्दी
दूसरी भाषाओ से हिन्दी में अनुवाद मैं पढ़ता रहता हूँ। इन कृतियों के प्रति मेरी राय आप निम्न लिंक पर जाकर पढ़ सकते हैं:
हिन्दी अनुवाद
©विकास नैनवाल ‘अंजान’