तीजा – संजय काले

संस्करण विवरण

फॉर्मैट: ई-बुक | पृष्ठ संख्या: 35 | एएसआईएन: B07YQ46HDG

पुस्तक लिंक: अमेज़न

कहानी

प्रोफेसर माहोरकर इतिहास का प्रोफेसर था जो कि आजकल अजीब चीजों से दो चार हो रहा था। प्रोफेसर की माने तो उसे आजकल ऐसे लोगों की आवाजें सुनाई दे रही थीं जो वहाँ पर होते नहीं थे। यह आवाजें बसंती और गुणवंत की थीं। 

प्रोफेसर इन दोनों की आवाजों से परेशान था और किसी भी तरह उन आवाजों को शांत करना चाहता था। 

इन्हीं आवाजों को शांत करने के लिए वह डॉक्टर समीर के पास आया था। डॉक्टर समीर एक मनोचिकित्सक था जो कि माहोरकर की बात सुनकर अब पशोपेश में था। उसकी समझ में कुछ नहीं आ रहा था कि वह क्या करे?

आखिर प्रोफेसर माहोरकर को ये आवाजें क्यों सुनाई दे रहीं थीं? 

यह बसंती और गुणवंत कौन थे? 

प्रोफेसर ने डॉक्टर समीर को ऐसा क्या बताया कि वह परेशान हो गया?

विचार

संजय काले ऐसे लेखक हैं जिनको मैं काफी दिनों से पढ़ना चाह रहा था। इसका एक कारण फेसबुक मित्र धनपाल तोमर हैं जिन्होंने संजय जी की काफी तारीफ मुझसे की थी। धनपाल तोमर साहब का कहानियों में टेस्ट मुझसे काफी मिलता जुलता है तो मैं उनके द्वारा बताई गयी किताबों को पढ़ने में रुचि रखता हूँ। संजय काले साहब को भी पढ़ने की मैंने कोशिश की थी लेकिन उनके उपन्यासों में एक ऐसी कमी थी जिसके कारण मैं आगे नहीं बढ़ पा रहा था। ऐसे में जब धनपाल साहब ने उनकी लिखी इस 35 पृष्ठ की कहानी के विषय में बताया तो मैं इसे पढ़ने का लोभ संवरण नहीं कर पाया। उनके उपन्यासों वाली कमी, जिसका जिक्र लेख के अंत में मैंने किया है, मुझे इसमें भी मिली लेकिन चूँकि पेज कम थे तो मैं कहानी को पूरा पढ़ गया और पढ़ने के बाद उनके उपन्यासों को पढ़ने की इच्छा बलवती हो गयी है।

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कहानी पर अपनी बात मैं यह कहकर शुरू करना चाहूँगा कि जब से मनुष्य समाजिक प्राणी बना है तब से शायद कोई न कोई अंधविश्वास उससे जुड़ा हुआ है। हर समाज के अपने अंधविश्वास हैं जिनके ऊपर विश्वास करने के सबके अपने कारण होते हैं। कई बार कुछ ऐसे संयोग हो जाते हैं कि व्यक्ति इन पर विश्वास करने लगता है और फिर इन चश्मों से ही चीजों को देखने लगता है। वह इन्हीं अंधविश्वासों के हिसाब से अपने जीवन में घटित होने वाली घटनाओं की व्याख्या भी करने लगता है। 

संजय काले की प्रस्तुत कहानी ऐसे ही अंधविश्वास के इर्द गिर्द बुनी गयी है। मराठी समाज में ईजा बीजा तीजा नाम की कहावत है जिसका अर्थ होता है कि अगर एक जैसी चीजें दो बार हुई हैं तो उसका तीसरे बार होना भी अवश्यंभावी है। कई बार अंधविश्वास किस तरह से अच्छी खासी हँसती खेलती जिंदगी पर क्या असर डाल सकता है यही लेखक इस रहस्यकथा के माध्यम से सफलतापूर्वक दर्शा रहे हैं।

कहानी का कथावाचक एक मनोचिकित्सक है जो कि अपने एक मरीज के विषय में पाठक को बता रहा है। उसका यह मरीज प्रोफेसर माहोरकर इतिहास का प्रोफेसर है जिसे कुछ लोगों की आवाजें सुनाई देती हैं। जैसे जैसे कहानी आगे बढ़ती है पाठक को पता चलता है कि यह लोग कौन हैं और यह आवाजें प्रोफेसर को क्यों सुनाई दे रही हैं। कहानी के अलग-अलग किरदारों के वक्तव्यों के रूप में यह कहानी आगे बढ़ती है। हर एक किरदार का यह वक्तव्य कहानी को एक मोड़ दे देता है जो कि आगे जाकर पाठक को चौंकाने का कार्य करता है।

कहानी रोचक है और यह मुझे तो पसंद आई। कहानी के किरदार तीन आयामी लगते हैं। माहोरकर का किरदार को काफी अच्छे तरह से लिखा गया है। वह जो करता है वो क्यों करता है उसका एक कारण देकर लेखक पाठक को उससे जुड़ाव महसूस करवाने में सफल होते हैं। वहीं बाकी के किरदार कथानक के अनुरूप हैं और कहानी में रहस्य पैदा करने में मदद करते हैं। 

कहानी की कमी की बात करूँ तो कहानी कि मुख्य कमी इसमें मौजूद प्रूफरीडिंग की गलतियाँ हैं। यह गलतियाँ बहुत ज्यादा हैं और पढ़ने की गति में अवरोध का काम करती हैं। अगर इन गलतियों को किसी तरह आप नजरंदाज कर सकें तो कहानी का लुत्फ आप उठा पाएँगे। यही कमी उनके उपन्यासों में भी मुझे दिखी थी। अगर लेखक इस लेख को पढ़ रहे हैं तो मेरी उनसे यही दरख्वास्त रहेगी कि वह अपनी रचना को ढंग के प्रूफरीडर से प्रूफ करवाकर ही प्रकाशित करवाएँ। ऐसा न करना एक अच्छी रचना के साथ अन्याय करना होगा। 

कहानी का दूसरा कमजोर पहलू वह प्रसंग है जिससे कहानी में अचानक से ट्विस्ट आता है। उस ट्विस्ट को लेकर अगर एक दो लाइन की भूमिका भी एक विशेष किरदार (कहानी पढ़ेंगे तो आप समझेंगे) के व्यक्तव्य में दर्शायी जाती तो बेहतर होता। 

अंत में यही कहूँगा कि अगर आप रहस्यकथाओं के शौकीन हैं तो आपको इस कहानी को पढ़कर देखना चाहिए। 35 पृष्ठों की यह रहस्य कथा पठनीय है और अंत तक पाठक को बांधकर रखने में सफल होती है। उम्मीद है जितना मनोरंजन इसने मेरा किया उतना ही मनोरंजन यह आपका भी करने में सफल होगी। 

पुस्तक लिंक: अमेज़न

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About विकास नैनवाल 'अंजान'

विकास नैनवाल को अलग अलग तरह के विषयों पर लिखना पसंद है। साहित्य में गहरी रूचि है। एक बुक जर्नल नाम से एक वेब पत्रिका और दुईबात नाम से वह अपनी व्यक्तिगत वेबसाईट का संचालन भी करते हैं।

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2 Comments on “तीजा – संजय काले”

  1. The plot sounds very intriguing. And I really like reading (watching) stories of Begali and Marathi households. Adding it to my TBR. Thank you for this nice review.

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