अनोखी चोरी | अनुराग कुमार ‘जीनियस’ | कहानी

संस्करण विवरण:

फॉर्मैट: ई-बुक | पृष्ठ संख्या: 22 | प्रकाशन: बुकेमिस्ट | एएसआईएन: B08X3Q24DL

पुस्तक लिंक: अमेज़न

समीक्षा: अनोखी चोरी | अनुराग कुमार जीनियस

कहानी

मिस्टर विजाया एक एनआरआई थे जिनका ग्रीन एरिया नाम की एक पॉश कालोनी में अपना घर था। उस दिन जब फिल्म देखकर वह अपने घर लौटे तो घर आते ही उनके होश उड़ गए। 
उनकी गैरमौजूदगी में उनके फ्लैट पर किसी ने चोरी कर ली थी और वह उनकी तिजोरी से 50 लाख तक का सामान ले उड़ा था। फ्लैट में खून की कुछ बूंदे पड़ी हुई थी और एक कमरे की खिड़की टूटी थी जिसके बाहर से एक रस्सी लटक रही थी। 
उन्होंने पुलिस को फोन किया तो इंस्पेक्टर कुलदीप सावंत इस मामले की तहकीकात के लिए उनके घर आए। 
क्या इंस्पेक्टर सावंत इस मामले को सुलझा पाया? 
आखिर किसने की थी मिस्टर विजाया के घर में चोरी? 
और क्यों यह चोरी इंस्पेक्टर के लिए अनोखी चोरी बनकर रह गयी। 

किरदार 

मिस्टर विजाया – एक एनआरआई जो व्यापार के सिलसिले में  भारत आते जाते थे 
टोनी – मिस्टर विजाया के बेटे 
इंस्पेक्टर कुलदीप सावंत – पुलिस इंस्पेक्टर जो इस मामले की तहकीकात कर रहा था 
राजवीर मराठा – हवलदार 
मानवेंद्र – मिस्टर विजाया का ड्राइवर 
बिजली – मानवेंद्र की प्रेमिका 
गगन – मानवेंद्र का दोस्त
विजय राज – शहर का एक प्रसिद्ध प्राइवेट डिटेक्टिव 
वैशाली – एक युवती 
मनोहर – एक युवक 

मेरे विचार 

अनोखी चोरी लेखक अनुराग कुमार जीनियस द्वारा लिखी गयी कहानी है जिसे सूरज पॉकेट बुक्स के इम्प्रिन्ट बुकेमिस्ट द्वारा किंडल पर प्रकाशित किया गया है। 

अनोखी चोरी मूलतः एक पुलिस प्रोसीजरल कहानी कहलाएगी। पुलिस प्रोसीजरल कहानियाँ अक्सर वह अपराध कथाएँ होती हैं जिनमें मामले की तहकीकात करने वाले पुलिस वाले होते हैं और वह लोग अपने प्रोटोकॉल का पालन करते हुए मामले को सुलझाते हैं। प्रस्तुत कहानी  के केंद्र में इंस्पेक्टर कुलदीप सावंत है जिसके ऊपर एक एनआरआई के घर में हुई चोरी को सुलझाने की जिम्मेदारी है। वह इस मामले को कैसे सुलझाते है और मामले की तहकीकत करते वक्त क्या दिक्कत, क्या संयोग और क्या ट्विस्ट आते हैं यही कहानी बनती है। 

लेखक अनुराग कुमार जीनियस के कहानी बुनने का तरीका लेखक वेद प्रकाश शर्मा की याद दिलाता है। जिस प्रकार वेद प्रकाश शर्मा अपने कथानकों में ट्विस्ट लाया करते थे वैसे ही लेखक अनुराग कुमार जीनियस भी कथानक में ट्विस्ट लाते हैं। इस कहानी के आखिर में भी एक के बाद एक ट्विस्ट आते हैं। इनमें से कुछ ट्विस्ट आपको चौंकाते भी हैं। 

कहानियों की कमियों की बात करूँ तो इसमें कुछ चीजें ऐसी थी जो मुझे खटकी और कुछ ऐसी थीं जिन पर काम किया जा सकता था। यह बातें निम्न हैं:

इस कहानी में एक किरदार है जिस पर पुलिस को चोरी का शक होता है और कहानी में उसी किरदार का कोई अपहरण कर देता है। ऐसे में जब वह लोग उसे एक होटल में छोड़ते हैं तो वह वहाँ से भागने के बजाए खाना खाने लगता है। यह बात मुझे अटपटी लगी। आम आदमी की प्रतिक्रिया तो वहाँ से निकलकर जल्द ही दूसरी जगह जाने की होगी क्योंकि जिन्होंने अपहरण किया उन्हें पता था कि वह चोरी में शामिल था। ऐसे में अपहृत व्यक्ति को इतना अंदाजा तो होगा कि कोई उसे फँसवा भी सकता है और इसलिए आम बात है कि वह वहाँ से भागना चाहेगा। पर वह ऐसा करता नहीं है। 

कहानी में एक प्राइवेट डिटेक्टिव का किरदार भी है। यह किरदार दो बार इन्स्पेक्टर की मदद करता है। एक पुलिस इंस्पेक्टर का डिटेक्टिव के पास जाना अटपटा लगता है क्योंकि इनके अपने मुखबिर होते हैं। वहीं कहानी में डिटेक्टिव को हम कोई विशेष चीजें करते नहीं देखते हैं जिसके लिए उनका होना जायज ठहराया जा सके। जो काम डिटेक्टिव ने किया था वह पुलिसिया मुखबिर कर सकते थे। या पुलिसिया तहकीकात (उन लोगों के जानकारों से पूछताछ, आस पास के सी सीटीवी फुटेज इत्यादि की जाँच करके) के जरिए आसानी से पता लगाई जा सकती थी। 

कहानी में चोरी का मामला इंस्पेक्टर को सुलझाना होता है लेकिन वह कोई ऐसी खास तहकीकात करता दिखता नहीं है। केस जितना भी आगे बढ़ता है वह गुमनाम कॉलर के बदौलत बढ़ता है। कहानी में एक बिन्दु ही ऐसा है जहाँ पर डिटेक्टिव से हासिल जानकारी जरूरी साबित होती है लेकिन वह जानकारी भी ऐसी थी जो गुमनाम कॉलर के दूसरे फोन कॉल के पश्चात इतनी खास महत्वपूर्ण नहीं रह जाती है।  

कहानी में एक बिन्दु है जहाँ पर इंस्पेक्टरअसली मुजरिम को होटल के कमरे के बाहर पकड़ता है। वह उसे होटल से थाने लेकर चला जाता है जहाँ किसी दूसरे व्यक्ति से उसे बाकी बातें पता चलती हैं। लेकिन वह अगर कमरे के अदंर मौजूद लोगों से पता करता तो मामला काफी पहले खुल सकता था और कनफेशन की जरूरत नहीं रह जाती। लेकिन वह ऐसा करता नहीं दिखता है।

कहानी के अंत में काफी मोड़ आते हैं जो पाठक को चौंकाते जरूर हैं लेकिन अंत में आप ये सोचने को मजबूर हो जाते हो कि जिसने भी ये कार्य किया और करने का जो कारण बताया गया है उसके चलते उस व्यक्ति ने अपने मकसद को पाने के लिए कोई आसान रास्ता क्यों न चुना। ऐसा रास्ता जिसमें किसी सरकारी संस्था से जुड़े व्यक्ति को बुलाने की जरूरत ही न रहती और जो मकसद था वह भी पूरा हो जाता। अभी तो जो रास्ता अख्तियार किया है वह ये नहीं करता है। अभी इतना ही बताऊँगा कि अगर मुझे अपने किसी नजदीकी को कुछ सिखाना हो तो मैं ऐसा रास्ता नहीं चुनूँगा जिससे उस नजदीकी को जेल की हवा खानी पड़े। और इसलिए मेरी ये कोशिश रहेगी कि पुलिस वालों को तो मैं इस योजना में शामिल नहीं ही करूँगा। अगर मेरे बस में होता तो मैं लेखक को इंस्पेक्टर के बजाय किसी प्राइवेट डिटेक्टिव से इस मामले के लिए सुलझवाने के लिए कहता क्योंकि तब इसका अंत उतना अटपटा न रह जाता। वैसे भी एक प्राइवेट डिटेक्टिव उन्होंने इस्तेमाल किया ही था। 

इसके अलावा एक जरूर बात भी है जिस पर मैं बात करना चाहूँगा। मैंने अक्सर देखा है कि लेखक स्वयं प्रकाशन (सेल्फ पब्लिशिंग) को बहुत ही ज्यादा लापरवाही से लेते हैं। न वह किताब को संपादित करवाते हैं और न ही इसे प्रूफ रीड करवाते हैं। मैं यह बात मानता हूँ कि आप चाहें जितना भी प्रूफरीड करवा लो इक्का दुक्का गलतियाँ रह जाती हैं लेकिन जब हर पृष्ठ में गलती निकलने लगे तो वह लापरवाही ही कहलाएगी। 

यह कहानी पढ़कर भी ऐसा लगता है जैसे लिखने के बाद लेखक तक ने दोबारा इसे नहीं पढ़ा है। कहानी में वर्तनी की काफी गलतियाँ हैं जिन्हे शायद वह एक बार पढ़ते तो खुद ही सुधार कर सकते थे। इसके अलावा कई वाक्यों के विन्यास भी ऐसे हैं जो इतने अनुभवी लेखक की कलम से निकले हुए नहीं लगते हैं। कई वाक्यों को पॉलिश करके बेहतर बनाया जा सकता था। अभी यह गलती दाल में आए कंकर की तरह प्रतीत होती हैं और कहानी के जायके को बेकार कर देती है। मैंने खुद इस कहानी को डाउनलोड काफी पहले कर दिया था लेकिन पढ़ते हुए जब गलतियाँ और अधपके वाक्य दिखते तो कुछ प्रतिशत पढ़कर छोड़ देता था। इस बार अपनी पूरी इच्छा शक्ति लगाकर ही इसे इसे खत्म किया। 

 इस किताब को पढ़कर मैंने जब खत्म किया तो सच कहूँ तो मुझे लग रहा था कि यह स्वयं प्रकाशित की गयी है। इस लेख को लिखने की तैयारी करते हुए ही पता चला कि इसे सूरज पॉकेट बुक्स के बुकेमिस्ट द्वारा प्रकाशित किया गया है। ऐसे में यह सोचनीय बात है कि प्रकाशन द्वारा क्यों इतना गैर जिम्मेदाराना रवैया अपनाया गया। प्रकाशन को इस पर ध्यान देना चाहिए और सुनिश्चित करना चाहिए कि अपना नाम अगर वह किसी रचना पर लगा रहे हैं तो वह कम से कम एक एक बार उसे पढ़कर और प्रूफ की ज़्यादतर गलतियाँ सुधार कर ही उसे प्रकाशित करें। वरना यह उनकी छवि को ही धूमिल करेगा।  प्रकाशन को इसके ई संस्करण को अपडेट कर कम से कम वर्तनियों की गलतियों को तो दूर करना ही चाहिए। 

अंत में यही कहूँगा कि लेखक ने एक घुमावदार कथानक लिखने की कोशिश की है। कुछ हद तक वो उसमें कामयाब भी हुए हैं। कहानी एक बार आप शुरू करते हो तो वर्तनियों की गलतियों को नजरंदाज कर दें तो खत्म करके ही उठते हैं। परन्तु फिर कहानी खत्म करने के पश्चात आप ये जरूर सोचते हो कि कान को इतना घुमाकर पकड़ने की क्या जरूरत थी? 

फिलहाल कहानी एक बार पढ़ी जा सकती है। अगर आपने इसे पढ़ा तो अपनी राय से टिप्पणियों के माध्यमों से जरूर अवगत करवाइएगा। 

पुस्तक लिंक: अमेज़न

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About विकास नैनवाल 'अंजान'

विकास नैनवाल को अलग अलग तरह के विषयों पर लिखना पसंद है। साहित्य में गहरी रूचि है। एक बुक जर्नल नाम से एक वेब पत्रिका और दुईबात नाम से वह अपनी व्यक्तिगत वेबसाईट का संचालन भी करते हैं।

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2 Comments on “अनोखी चोरी | अनुराग कुमार ‘जीनियस’ | कहानी”

  1. आपकी समीक्षा चाहे उपन्यास की हो या कहानी की या फिर कॉमिक पुस्तक की, पूर्णतया वस्तुपरक होती है. ऐसी निष्पक्ष समीक्षा संभावितपाठक हेतु भी उपयोगी होती है तथा रचयिता को भी दिशाज्ञान देती है.

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