संस्करण विवरणल्:
फॉर्मैट: ई-बुक | पृष्ठ संख्या: 244 | प्रकाशक: थ्रिल वर्ल्ड
पुस्तक लिंक: अमेज़न
कहानी
शशांक को अगर मालूम होता कि उसकी पल भर की दिलेरी उसकी जिंदगी में ऐसा तूफान लाएगी तो वह दिलेरी न दिखाता।
पर शशांक ये नहीं जानता था और अब पुलिस उसके पीछे पड़ी थी।
किसी ने उसकी हालत का फायदा उठाकर एक ऐसा जाल उसके इर्द गिर्द बुना था कि वह किसी मक्खी की तरह उसमें फँसता जा रहा था।
ये अब वक्त की बात थी कि जब कानून रूपी मकड़ी उसे अपना शिकार बना लेती। शशांक जितना इस जाल से निकलने के लिए छटपटाता उतना ही गहरा इसमें धँसता चला जाता।
आखिर शशांक अपनी किस दिलेरी की सजा भुगत रहा था?
आखिर किसने उसके लिए यह ट्रैप बनाया था?
पुलिस शशांक के पीछे क्यों पड़ी थी?
किरदार
धर्मराज चौहान – बलुआ चौकी का इंचार्ज
दीपक दयाल – एस सो (स्टेशन ऑफिसर)
अविनाश सिंह – सी ओ (सर्कल ऑफिसर)
अवधेश चंद्रा – नैना का पति
रूपम मंडल – अंजना का पति
वीर प्रताप सिंह – एम पी
विकास गुप्ता – एम एल ए
अमित दीवान – फास्ट ट्रैक इन्वेटिगेशन कम्पनी का मालिक
शीतल – अंजना की नौकरानी
मेरे विचार
ट्रैप लेखक संतोष पाठक (Santosh Pathak) द्वारा लिखी एक रहस्य कथा है। उपन्यास मार्च 2020 में किंडल पर प्रथम बार प्रकाशित हुआ था।
उपन्यास का कथानक एक जुलाई 2019 से तेरह जुलाई 2019 के बीच में घटित होता है। इन तेरह दिनों में शशांक यादव, जो कि उपन्यास का मुख्य किरदार है, की जिंदगी एक रोलर कोस्टर राइड की तरह ऐसे ऊँचे नीचे और टेढ़े मेढे पड़ावों से होकर गुजरती है कि पाठक उपन्यास से चिपक सा जाता है और उपन्यास खत्म करके ही दम लेता है।
उपन्यास की शुरुआत शशांक यादव के बदले लेने के लिए एक कॉलोनी में दाखिल होने से होती है। वह बदला किस से और क्यों ले रहा है इसका पता पाठक को तब पता चलता है जब शशांक के तोते बदला लेने वाले के घर पहुँच कर उड़ जाते हैं। इसके बाद शुरू होता है भागने का सिलसिला। शशांक को पता है किसी ने उसके लिए एक फंदा तैयार किया है लेकिन वो इससे जितनी दूर जाना चाहता है उतना ही ये फंदा उस पर कसता चला जाता है। ये कैसे होता है? फंदा डालने वाला कौन होता है? शशांक खुद को बचाने के लिए जो काम करता है और जिस तरह और जिन लोगों की सहायता से आखिरकार इस जंजाल से निकलता है यही इस उपन्यास का कथानक बनता है।
उपन्यास के किरदारों की बात करूँ तो इसका मुख्य पात्र शशांक यादव है जो कि एक ऐसा व्यक्ति है जो कि आया तो काम की तलाश में वाराणसी था लेकिन परिस्थितियों के चलते वो एक पुरुष वैश्या बन गया है। हाँ, वो जो काम पैसा कमाने के लिए करता है उसका कथानक में बस उतना ही प्रयोग किया गया है जितना जरूरी है। वह अक्खड़ दिमाग किरदार है जिसके अंदर ताकत तो है तो दिमाग की थोड़ी कमी दिखती है। अच्छी बात है ये है कि उसे ये बात पता है और इस चीज का जिक्र वह करता भी है।
उपन्यास में कई ऐसे किरदार भी है जो कि पुलिस में हैं। पुलिस की एक तरह की छवि एक आम नागरिक के जहन में बनी हुई है। यह छवि कोई अच्छी नहीं है और ऐसे पुलिस वालों, जिनसे ये धूमिल छवि बनी है, को भी हम इस उपन्यास में देखते हैं। पुलिस कई बार कैसे हद से ज्यादा पाशविक हो सकती है यह भी इधर दिखता है। पुलिस और राजनीति का गठजोड़ मिलकर कैसे अपराध को छुपाता है यह भी इधर दिखता है। लेकिन बुरे पुलिस वालों के साथ साथ कुछ ऐसे पुलिस वाले भी हैं जो कि सही हैं लेकिन वो भी जिस तरह के हथकंडे कई बार प्रयोग करते दिखते हैं उससे ये ही लगता है कि जैसे गुंडई के बिना काम पुलिस में नहीं चलता है।
उपन्यास में अंजना दत्ता का भी महत्वपूर्ण किरदार है। वह शशांक की दोस्त है। अक्सर हिंदी फिल्में हों या उपन्यास उनमें अगर महिला और पुरुष किरदार हैं तो उनके बीच में कभी न कभी रोमांटिक क्षण आता ही है। स्त्री पुरुष दोस्ती जब दिखती भी है तो उसमें भी यह दोस्ती का भाव अक्सर एक ही व्यक्ति के तरफ से होता है और दूसरा वाला केवल प्यार ही करता है। खालिस दोस्ती कम ही देखने को मिलती हैं। ऐसे में अंजना और शशांक के बीच का यह खालिस दोस्ती वाला समीकरण ताज़ा महसूस होता है। यह दोनों गहरे दोस्त हैं। हाँ, इनकी यह दोस्ती इतनी गहरी कैसे हो गई इस पर इतना प्रकाश नहीं डाला गया है। इनकी इतनी गहरी दोस्ती का होना अटपटा इसलिए भी लगता है क्योंकि शशांक के पेशे से अंजना वाकिफ है। इसके साथ साथ सामाजिक और शैक्षिक रूप से भी उनके बीच में काफी अंतर है। ऐसे में लेखक अगर इस दोस्ती के होने की कारणों पर प्रकाश डालते तो अच्छा होता। बहरहाल अंजना एक मजबूत विचारों वाली स्त्री है जिसे पता है कि उसके लिए सही क्या है और क्या नहीं है। वह अपने निर्णयों पर कायम रहना भी जानती है। और शशांक की मदद ऐसे ऐसे तरीकों से करती है जैसे आज के जमाने में लँगोटिया यार भी न करें। ये भी एक कारण था कि मैं जानना चाहता था कि इनके बीच में ये प्रगाढ़ दोस्ती कैसी हुई। साथ ही अंजना को मैं आगे किसी और उपन्यास में भी अवश्य देखना चाहूँगा।
उपन्यास के बाकी किरदार कथानक के अनुरूप ही हैं। इनमें अंजना का दोस्त मयंक मंडल और फास्ट ट्रैक इंवेस्टिगेशन के मालिक दीवान साहब महत्वपूर्ण है। मयंक चूँकि अंजना पर दिल रखता है और अंजना को ये पता है तो अंजना को उसे अपनी उँगली पर नचाना आता है। यह काम् वह करती भी है। वहीं दीवान एक प्राइवेट डिटेक्टिव एजेंसी चलाता है। हिंदी साहित्य में अक्सर जो प्राइवेट डिटेक्टिव दिखते हैं वह वन मैन शो ही रहते हैं लेकिन दीवान की अपनी एक पूरी संस्था है जो कि तकनीक और मातहतों की मदद से काफी कुछ करने के काबिल दिखता है।
उपन्यास के कथानक की बात करूँ तो कथानक तेज रफ्तार है और इस तरह से चीजें इसमें घटित होती है कि आप एक ही बैठक में इसे पढ़ जाते हैं। कहानी में ट्विस्ट्स आते रहते हैं जिससे कथानक आपके ऊपर पकड़ बनाए रखता है। साजिश के पीछे कौन है इसके लिए भी लेखक कई संदिग्ध खड़े करते हैं। वह इस तरह से कथानक को आगे बढ़ाते हैं कि पाठक आखिर तक ये पता नहीं लगा पाता है कि ये सब जो कर रहा है वो कौन है? जब कौन का पता नहीं लगता है तो क्यूँ का पता लगना तो मुश्किल ही रहेगा।
अकसर हिंदी उपन्यासों में जब वाराणसी की बात आती है तो लेखकों ने इधर या तो प्रेम आख्यान घटित होते दिखाए हैं या फिर यहां आध्यात्म से जुड़े कथानक ही दर्शाए हैं। ऐसे में जय बाबा फेलुनाथ के बाद एक अपराध कथा को इस शहर में सेट किया हुआ देखना रोचक रहता है।
उपन्यास की कमियों के बारे में बात करूँ तो इतनी बड़ी कमी कोई मुझे इसमें नहीं दिखी। एक चीज जो मुझे खटकी वो ये थी कि उपन्यास में जब शशांक पुलिस के हत्थे चढ़ता है तो पुलिस को लगता है कि वो तीन लोगों को गोली मार कर आया है। अक्सर देखा जाता है कि हत्यारे ने गोली चलाई है या नहीं इसके लिए भी एक टेस्ट होता है। पर ऐसा टेस्ट कोई शशांक पर करता नहीं दिखता है। इसके अतिरिक्त एक जगह एक किरदार एक बार फोन पर कुछ फुसफ़साते हुए दिखाया जाता है। इतना तो मुझे पता था कि ये शक पैदा करने के लिए दर्शाया गया था। पर अंत तक दिमाग से ये बात नहीं गई कि वो किरदार फुसफुसाकर किससे बात कर रहा था। अगर आखिर में ये जाहिर कर देते तो बेहतर रहता।
उपन्यास में एक प्रसंग है जब अंजना शशांक को छोड़कर आ रही होती है और पुलिस उसकी गाड़ी रोक देती है। वहाँ जो अफसर उसे रोकता है उसका नाम कभी भरत बताया और कभी मुकुल। ये सम्पादन में ठीक कर दें तो बेहतर रहेगा।
अक्सर संतोष पाठक आम बोल चाल की भाषा का प्रयोग करते हैं जिसमें हिंदी में उर्दू अंग्रेजी की छौंक लगा होता है। इस उपन्यास में उन्होंने बीच बीच में भोजपुरी का भी प्रयोग किया है जो कि कथानक को उधर का फ्लेवर देता है। ये चीज मुझे अच्छी लगी।
अंत में यही कहूँगा कि एक अगर आप एक अच्छी रहस्यकथा पढ़ना चाहते हैं तो ट्रैप पढ़कर देख सकते हैं। लेखक रहस्य को अंत तक बरकरार रखने में और इस कारण मेरी नज़रों में एक मनोरंजक अपराधकथा पाठकों को मुहैया करवाने में पूरी तरह से सफल होते हैं। अगर रहस्यकथाओं के शौकीन है तो मुझे लगता है कि आप इससे निराश नहीं होंगे।
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