संस्करण विवरण:
फॉर्मैट: पैपरबैक | पृष्ठ संख्या: 132 | प्रकाशन: नीलम जासूस कार्यालय | शृंखला: विजय-रघुनाथ
पुस्तक लिंक: अमेज़न
कहानी
‘देवता का हार’ रतनगढ़ एस्टेट के राजा महाराजा रतनसिंह का पुश्तैनी हार था। यह हार अपनी खूबसूरती के लिए विश्व प्रसिद्ध था और यही कारण था कि फिल्म वाले उसे अपनी शूटिंग का हिस्सा बनाना चाहते थे।
और यहीं पर रतन सिंह से गलती हो गई। वह हार शूटिंग पर तो गया लेकिन वहाँ किसी के द्वारा बदल दिया गया। किसी को भी समझ नहीं आ रहा था कि असली हार के बदले नकली हार किसके द्वारा रखा गया था।
अब महाराजा रतनसिंह रघुनाथ के साथ विजय के पास आया था ताकि वह उसकी मदद से हार को पा सके और हार को चोरी करने वाले अपराधी को सजा दिलवा सकें।
आखिर देवता का हार किसने चोरी किया था?
क्या विजय इसका पता लगा पाए?
मुख्य किरदार
विजय – नायक और एक प्राइवेट जासूस के छद्म रूप में रहने वाला युवक जो कि असल में भारतीय सीक्रिट सर्विस का मुखिया है
रघुनाथ – पुलिस सुप्रीटेंडेंट
महाराज रतन सिंह – रतन गढ़ एस्टेट के महाराज
हीरालाल – एक जौहरी जिसने बताया था कि हार नकली है
रिचार्ड टेलर – एक अंग्रेज जौहरी जो होटल डी गारिका में रुका हुआ था और रतनसिंह से जिनसे हार की तारीफ की थी
अमृतलाल – फिल्म डायरेक्टर जो शूटिंग के लिए रतनसिंह का हार चाहता था
पूनम – अभिनेत्री
अवधबिहारी – पूनम का प्रेमी
गुलफाम – राजनगर का एक पूर्वअपराधी जो कि गुलफाम होटल का संचालक था और विजय की काफी इज्जत करता था
किशोरी और लल्लन – दो अपराधी
अकबर – एक और अपराधी जिससे मिलवाने को गुलफाम विजय को लेकर गया था
मेरे विचार
‘देवता का हार’ लेखक वेद प्रकाश काम्बोज का लिखा हुआ उपन्यास है। यह विजय-रघुनाथ शृंखला का उपन्यास है जो कि शायद साठ या सत्तर के दशक में प्रथम बार प्रकाशित हुआ था और अब कई वर्षों बाद नीलम जासूस कार्यालय द्वारा नवीन साज सज्जा के साथ पुनः प्रकाशित किया जा रहा है।
उपन्यास की बात करें तो यह मूलतः एक रहस्य कथा है जिसमें पहले तो विजय को यह पता लगाना होता है कि हार की अदला-बदली किसने की लेकिन जैसे जैसे वह अपनी तहकीकात में आगे बढ़ता है मामले में कत्ल भी जुड़ते जाते हैं जो कि रहस्य की एक और परत उपन्यास में जोड़ देते हैं। अब न केवल विजय को हार का पता लगाना होता है बल्कि यह भी पता लगाना होता है कि कत्ल किसने किये हैं और क्यों किये हैं। वहीं उसे इस गुत्थी को भी सुलझाना होता है कि क्या कत्ल करने वाले और हार चुराने वाले एक हैं या दो अलग-अलग लोगों द्वारा इन अपराधों को अंजाम दिया गया है।
विजय अपनी तहकीकात के दौरान एक के बाद एक अलग अलग लोगों से मिलता है और उनसे मिले सबूतों के आधार पर आगे बढ़ता है। इस दौरान उस पर हमले भी होते हैं। वह कैसे आखिर मुजरिम तक पहुँचता है ये देखना रोचक रहता है।
पुस्तक पठनीय है और अपनी पठनीयता अंत तक बनाए रखती है।
चूँकि उपन्यास में विजय है तो इसमें झकझकी और हास्य होना लाजमी है। यह उपन्यास में दिखता है और आपके चेहरे पर कई बार मुस्कराहट ले आता है।
विजय और रघु नाथ के बीच वार्तालाप रोचक हैं।
उपन्यास में एक किरदार विजय के परिचित गुलफाम का है जो कि मुझे रोचक लगा। पहले के कई उपन्यासों में हीरो के ऐसे दोस्तों का चलन था जो कि पूर्व अपराधी होते थे। ये लॉग अपराध की दुनिया में नायक की आँखें होते थे और आपराधिक दुनिया की छोटी से छोटी जानकारी भी हीरो को मुहैया करवाते थे। गुलफाम भी ऐसा ही किरदार है और अपना काम बखूबी करता है।
गुलफाम के माध्यम से ही विजय अकबर से मिलता है जो कि है तो अपराधी लेकिन अपनी ज़बान का पक्का है। अकबर और गुलफाम के बीच की बातें रोचक रहती हैं और अकबर भले ही कम समय के लिए आया लेकिन अपना प्रभाव छोड़ने में सफल रहता है।
उपन्यास के बाकी किरदार जैसे अवधबिहारी,अमृतलाल, रिचार्ड टेलर, रतन सिंह, हीरालाल इत्यादि कथानक के अनुरूप गढ़े गए हैं।
अगर उपन्यास की कमी की बात करूँ तो कुछ बातें मझे लगीं जिन पर अधिक काम किया जा सकता था।
पहला तो यह कि विजय को अपराधी तक पहुँचने का सबूत इत्तेफाक से मिलता है। वह एक होटल पहुँचता है और वहाँ से उसे एक संदिग्ध किरदार मिल जाता है जिससे अटकी हुई तहकीकात आगे बढ़ती है। अपराध कथाओं विशेषकर रहस्यकथाओं में ऐसे इत्तेफाक होना मुझे थोड़ा कम ही जमता है। अगर लेखक ने इत्तेफाक का सहारा न लेकर किसी सबूत द्वारा विजय को उस संदिग्ध तक पहुँचाया होता तो शायद बेहतर होता।
इसके अतिरिक्त मुख्य अपराधी के लिए लेखक ने संदिग्ध कम खड़े किये हैं। अगर संदिग्धों की मात्रा अधिक होती तो उपन्यास थोड़ा पेचीदा बन सकता था जिससे कथानक में रहस्य रोमांच बढ़ सकता था क्योंकि पाठक सोचने पर मजबूर हो जाता कि इन संदिग्धों में से कत्ल करने वाला कौन होगा? अभी एक के बाद एक व्यक्ति तक लेखक पहुँच जाता है जिससे रहस्य और रोमांच थोड़ा सा कम हो जाता है।
अगली जिस कमी की मैं बात कर रहा हूँ वो पुस्तक की नहीं बल्कि इस संस्करण की है। पुस्तक की प्रिन्ट क्वालिटी तो बहुत अच्छी है लेकिन इस संस्करण में प्रूफ की कई गलतियाँ हैं जो कि पढ़ते हुए खटकती हैं और ऐसे प्रतीत होती हैं जैसे भोजन करते हुए मुँह में कंकर आ गया हो। उम्मीद है प्रकाशक अगले संस्करणों में इस गलती में सुधार कर चुके होंगे।
अंत में यही कहूँगा कि यह उपन्यास पठनीय है। ‘देवता का हार’ साठ सत्तर के दशक में यह लिखा गया था तो उस हिसाब से देखा जाए तो उपन्यास एक बार पढ़ा जा सकता है। हाँ, अगर उपन्यास में इत्तेफाक नहीं होता और शक की सुई कई लोगों पर जाती दिखती तो पढ़ने का मजा और बढ़ जाता।
पुस्तक लिंक: अमेज़न
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