तड़ीपार – सुरेन्द्र मोहन पाठक

किताब सितम्बर 13 2020 को पढ़ी गयी 

संस्करण विवरण:
फॉर्मेट: पेपरबैक 
प्रकाशक: डेली हंट 
प्रथम प्रकाशन: 1993
तड़ीपार - सुरेन्द्र मोहन पाठक
तड़ीपार – सुरेन्द्र मोहन पाठक

प्रथम वाक्य:
कदम कुआँ के भीड़ भाड़ भरे इलाके में शरद शुक्ला बस से उतरा और बस के आगे बढ़ जाने के बड़ा भी वो कई क्षण वहीं ठिठका खड़ा रहा।

कहानी:
शरद शुक्ला एक कार चोर था जो कि जब बरेली से एक साल के लिए तड़ीपार हुआ तो पटना में रहने लगा था। पटना में रहते हुए वह ब्रह्मा नाम के एक रसूखदार व्यक्ति के लिए काम करने लगा था।
अपने काम के चलते शरद को नेपाल का फेरा लगाना पड़ता था। वैसे तो शरद एक इम्पोर्ट एक्सपोर्ट कम्पनी के मुलाजिम के रूप में यह चक्कर लगाता है लेकिन वह भी जानता था कि वह तस्करी कर रहा था। अब तक दस महीने में इक्कीस बार वह अपने मालिक के लिए यह काम कर चुका था।
इस बार भी ब्रह्मा उससे यही चाहता था। ब्रह्मा के मुताबिक यह शरद का उसकी मुलाजमत में आखिरी फेरा होने वाला था। इस बार अगर वो फेरा लगाकर वापिस आ जाता तो ब्रह्मा ने उसे बड़ा ईनाम देना था और फिर उनके रास्ते हमेशा के लिए अलग हो जाते। शरद भी अब ऐसा ही चाह रहा था।
यह फेरा इस कारण भी अलग था क्योंकि इस फेरे में शरद को अपने एक एक जरूरी काम को भी अंजाम देना था। एक ऐसा काम जिसमें की अगर कुछ गड़बड़ होती तो शरद का नेपाल की जेल में बंद होना तय था।
वहीं शरद के मन में उसके बॉस की हरकतें भी खटकने लगी थी। ब्रह्मा की हरकतों से उसे लगने लगा था कि यह फेरा उतना आसान नहीं होने वाला है जितना कि पिछले इक्कीस फेरे साबित हुए थे।
शरद को नेपाल में कौन सा जरूरी काम अंजाम देना था? 
क्या वह अपने काम को सफलता पूर्वक कर पाया?
क्या शरद शुक्ला का शक जायज था? 
क्या ब्रह्मा के इस आखिरी फेरे में कुछ साजिश थी?

मुख्य किरदार:

शरद शुक्ला – एक तीस साल का युवक जिसे तड़ीपार कर बरेली से पटना भेज दिया गया था 
ब्रह्मा – शरद का बॉस 
फीफी – शरद की फ़्रांसिसी बीवी 
माया कोईराला – शरद की माशूक 
नकुल कोईराला – माया का जुड़वा भाई जो कि नेपाल में एक सजायाफ्ता इश्तहारी मुजरिम था 
अष्टभुजा – शरद का जिगरी दोस्त 
नीलकंठ – ब्रह्मा का आदमी 
मिसेज ली – माया के होस्टल की मैट्रन 
लेकी दोरजी – एक तिब्बती रेस्त्रों का मालिक जहाँ शरद और अष्टभुजा अक्सर जाया करते थे
उज्वला पंडित – माया की दोस्त 
अयोध्या – ब्रह्मा का एक मुलाजिम 
भट्टराई – ब्रह्मा का मुलाजिम 
राम खिलावन और तुलसी – एक ढाबे के मालिक 
सब इंस्पेक्टर गजानंद – नेपाली चौकी का इंचार्ज 
राम रूद्र थापा – नेपाल के एक्सपोर्ट प्रमोशन बोर्ड का चेयरमैन जिसके साथ शरद व्यापार करता था 
निर्मला – रामरूद्र थापा की हाउस कीपर
शरद वहाँ से भागा क्यों था? इससे तो उसने खुद को शक के घेरे में डाल दिया।
भंडारी, बियांगी – दो नेपाली 
मकरंद श्रेष्ठ – एक नेपाली अफसर
रामपूजन सिंह – एक सी आई डी इंस्पेक्टर 
गौतम गोरखा – एक नेपाली एजेंट 
लक्ष्मण विश्वकर्मा – नेपाली सीक्रेट सर्विस के चीफ 


मेरे विचार :

तड़ीपार सुरेन्द्र मोहन पाठक की थ्रिलर श्रृंखला का उपन्यास है जो कि 1993 में प्रथम बार प्रकाशित हुआ था। सुरेन्द्र मोहन पाठक के रचना संसार में थ्रिलर श्रृंखला में उन उपन्यासों को रखा गया है जो कि उनके द्वारा लिखी किसी और श्रृंखला जैसे सुनील, विमलसुधीर,जीत सिंह, मुकेश माथुर, प्रमोद, विवेक अगाशे का हिस्सा नहीं होते हैं। 2013 में यह उपन्यास डेलीहंट में प्रकाशित हुआ था और मैंने खरीद लिया था। अब इसे पढ़ने का मौका लगा है।
उपन्यास की बात करूँ तो उपन्यास एक तड़ीपार व्यक्ति शरद शुक्ला की कहानी है। शरद शुक्ला तड़ीपार होकर जब बरेली से पटना आया तो ब्रह्मा नाम के व्यक्ति के लिए तस्करी करने लगा था। उपन्यास की कहानी उसके इसी तस्करी के आखिरी फेरे को केंद्र में रखकर लिखी गयी है।
उपन्यास की शुरुआत में शरद अपने बॉस से मिलता दिखता है और वहाँ उसे अपने आखिरी मिशन के विषय में पता चलता है। इसके बाद ही पाठक को शरद और उससे जुड़े कई व्यक्तियों के विषय में जानकारी होती है। पाठक जानता है कि शरद की प्रेमिका माया कोइराला नाम की एक नेपाली लड़की है जिसके चलते उसे अपने बॉस के द्वारा दी जा रही तनख्वाह कम लगने लगी है। पाठको को यह भी पता लगता है कि शरद के अपने बॉस की फ्रांसीसी पत्नी फीफी से सम्बन्ध रह चुके हैं  और फीफी अभी भी उस पर दिल रखती है, और इसके विषय में बॉस सब जानता है। वहीं वह यह भी जानता  है कि अष्टभुजा नाम का शरद का एक जिगरी दोस्त है जिसके बिना वह नेपाल  नहीं जाता है और अपने आखिरी फेरे में भी वह उसे लेकर नेपाल जाने वाला है। इन किरदारों के आपसी समीकरण,जैसे जैसे उपन्यास का कथानक आगे बढ़ता है, कथानक को घुमाने का काम करते हैं। कुछ धोखेबाजियाँ होती हैं जो कि कथानक में इतने घुमाव लाते हैं कि कथानक में रोमांच लगातार बना रहता है। 
चूँकि उपन्यास में शरद शुक्ला एक तस्कर बना है तो इस धंधे से जुड़े दाँव पेंच भी उपन्यास मौजूद हैं जो कि इस रोमांच को बढ़ाते ही हैं। 
तड़ीपार की पृष्ठभूमि की बात करूँ तो यह उपन्यास भारत के बिहार राज्य और नेपाल में बसाया गया है। वैसे तो सुरेन्द्र मोहन पाठक ने नेपाल को लेकर कई उपन्यास (पाँच पापी, आखिरी रास्ता, चोरों की बारात इत्यादि) लिखे हैं लेकिन यह उपन्यास उन उपन्यासों से हटकर  इसलिए है क्योंकि इस उपन्यास में नेपाल की राजनीति भी कथानक का एक मह्त्वपूर्ण हिस्सा है। इससे पहले सुरेन्द्र मोहन पाठक के नेपाल से जुड़े हुए जो उपन्यास मैंने पढ़े थे वो नेपाल में बसे हुए तो थे लेकिन उनका नेपाल की राजनीति  में इतना हस्तक्षेप नहीं होता था (आखिरी रास्ता में थोड़ा बहुत रसूख वाले नेपाली लोग शामिल थे)। मूलतः वह ऐसे भारतीय किरदारों की कहानी था जो नेपाल में या तो पर्यटक थे या अगर रह भी रहे थे तो उनका नेपाल से जुड़ाव इतना सशक्त नहीं था। इस उपन्यास के केंद्र में ही एक नेपाल के खिलाफ एक राजनीतिक साजिश है जो कि उपन्यास को थोड़ा बहुत पोलिटिकल थ्रिलर का रूप भी दे देता है।
 
उपन्यास के किरदारों की बात करूँ तो उपन्यास के किरदार कथानक के हिसाब से फिट बैठते हैं। उपन्यास का मुख्य किरदार शरद शुक्ला है जो कि एक अपराधी रह चुका है और अपराध करने में उसे कोई गुरेज नहीं है लेकिन फिर भी वह बेवजह खून खराबे और दादागिरी से बचता है जो कि उसे इस उपन्यास, जिसके के ज्यादातर किरदार घुटे हुए बदमाश हैं, में एक नायक तो बना ही देते हैं। फिर वह अपने पेशे, अपनी मोहब्बत और अपने दोस्तों के प्रति ईमानदार है जो कि पाठक के मन में उसके लिए सद्भावना जागृत कर देती है। आप चाहने लगते हैं कि अपने मिशन में कामयाब हो जाये और अपनी प्रेमिका माया के साथ ब्याह रचाकर अपना घर बसा ले। 
उपन्यास का दूसरा मुख्य किरदार ब्रह्मा नाम का व्यक्ति है जो कि शरद का बॉस भी है। ब्रह्मा कौन है और वह जो कर रहा है वो क्यों कर रहा है यह बात उपन्यास के अंत में ही पाठक को पता चलती है। इससे पहले वह एक ऐसा सफेदपोश ही दिखता है जो कि असल में अपराधी है या किसी और का फ्रंट है। ब्रह्मा एक तेज तर्रार व्यक्ति है जो जानता है कि सामने वाले को क्या चाहिए और अपनी बातों की जाल में उसे फँसाकर अपना काम उसे किस तरह निकालना है। ब्रह्मा की एक ही कमजोरी है और वह उसकी बीवी है जो कि उसके  हाथ से बाहर जा चुकी है और जिसे वह चाहकर भी अपने से अलग नहीं करना चाहता है। 
एक औरत अपने पर आ जाए तो वह किस हद तक जा सकती है वह ब्रह्मा की पत्नी फीफी को देखकर जाना जा सकता है। वह एक ऐसी औरत है जो अपने पति से संतुष्ट नहीं है और चूँकि उसका पति उसे छोड़ना नहीं चाहता था तो वह उसे परेशान करने के लिए अपने शरीर का बेजा  इस्तेमाल करने से भी गुरेज नहीं करती है। वह हर किसी बालिग मर्द  से शारीरिक सम्बन्ध बना लेती है ताकि उसके पति बदनाम हो और उसे छोड़ दे। चूँकि फीफी बहुत खूबसूरत है तो वह आसानी से मर्दों को अपने जाल में फँसाकर उनसे अपना काम निकालना जानती है। और वह उपन्यास में अपनी इस खूबी का काफी प्रयोग करती है। वहीं चूँकि शरद शुक्ला ने उसके प्रेम को ठुकरा दिया है तो उपन्यास में आगे चलकर उसके क्रोध की गाज शरद पर भी गिरती है जो कि उपन्यास में ऐसी परिस्थितियाँ ला देते हैं जो कि उपन्यास को तो पाठक के लिए रोमांचक बना देते हैं लेकिन इससे शरद की जान साँसत में फँसती चली जाती है।
अष्टभुजा भी उपन्यास का एक मुख्य किरदार है जो कि मुझे बहुत पसंद आया। यह किरदार शरद शुक्ला का जिगरी दोस्त है और यह एक बच्चे के तरह है भोला भी है और किसी जंगली जानवर की तरह खूँखार भी। शरद और अष्टभुजा की दोस्ती भी उपन्यास में बनती बिगड़ती रहती है और उपन्यास का एक महत्वपूर्ण बिंदु है। शरद और अष्टभुजा के बीच आखिर के सीन आपके मर्म को छू जाते हैं।
उपन्यास में माया कोइराला शरद की प्रेमिका है जिसका किरदार वैसे तो एक मासूम सी लड़की का दिखता है लेकिन उपन्यास के अंत में दो तीन जगह जो करामात उसने दिखाई है उसे देखकर पाठक ही नहीं शरद भी भौंचक्का रह जाता है। 
उपन्यास के काफी किरदार उसी राजनितिक उठापटक का हिस्सा हैं जिसका मैंने जिक्र ऊपर किया है। जब किसी क्रांति में कोई भाग लेता है तो वो अपने मिशन के लिए कितने हद तक उग्र और क्रूर हो जाते हैं यह उन्हें देखकर जाना जा सकता है। ये किरदार उपन्यास में रोचकता लाते हैं। वहीं उपन्यास चूँकि तस्करी और राजनितिक क्रान्ति से जुड़ा है तो कई पुलिस वाले और सीक्रेट सर्विस वाले भी उपन्यास में हैं जो कि कथानक के हिसाब से फिट बैठते हैं।
उपन्यास शुरुआत से ही अपनी पकड़ पाठक पर बनाते हुए चलता है। जैसे जैसे उपन्यास आगे बढ़ता जाता है वैसे वैसे उपन्यास में रहस्य जुड़ते जाते हैं। एक रहस्य खुलता है तो दो उसकी जगह ले लेते हैं जो कि आपको कथानक से बाँध कर रखते हैं। कई जगह उपन्यास में संयोग भी होते हैं लेकिन इन संयोगों से चूँकि उपन्यास के किरदार भी वाकिफ हैं और वे इस पर विचार विमर्श भी करते हैं तो यह संयोग उस तरह खटकते नहीं हैं। इस संयोगों का कारण भी आपको बाद में दिया गया है जो कि मुझे तो संतोषजनक लगा।
अंत, में यही कहूँगा कि उपन्यास मुझे पसंद आया। कथानक में राजनीति का तड़का और अष्टभुजा और शरद की दोस्ती ने इसे मेरे लिए आम थ्रिलर से ऊपर उठा दिया। अगर एक अच्छे थ्रिलर की आपको तलाश है तो इसे एक बार जरूर आजमायें। हो सकता है आपका भी यह उसी तरह मनोरंजन करे जैसा कि इसने मेरा किया है।
अगर उपन्यास आपने पढ़ा है तो आपको यह कैसा लगा? अपने विचारों से मुझे जरूर अवगत करवाईयेगा।
रेटिंग: 4.5/5

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पाठकों अब कुछ प्रश्न आपके लिए:
प्रश्न: क्या आप पोलिटिकल थ्रिलर पढ़ते हैं? हिन्दी अपराध साहित्य के कुछ पोलिटिकल थ्रिलर के नाम आप साझा कर सकते हैं?
प्रश्न: प्रस्तुत उपन्यास तड़ीपार का कथानक का काफी हिस्सा भारत के पडोसी राज्य नेपाल से जुड़ा हुआ है। क्या आप ऐसे और हिन्दी अपराध उपन्यासों के नाम साझा कर सकते हैं जिनकी पृष्ठभूमि भारत के पडोसी देश हों?
आपके उत्तरों की मुझे प्रतीक्षा रहेगी।

© विकास नैनवाल ‘अंजान’

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6 Comments on “तड़ीपार – सुरेन्द्र मोहन पाठक”

    1. लेख आपको पसंद आया यह जानकर अच्छा लगा। वेबसाइट पर आते रहियेगा।

  1. बहुत ही अच्छी समीक्षा की है विकास जी आपने । मैंने यह उपन्यास इसके प्रथम प्रकाशन के साथ ही पढ़ लिया था (1993 में) और मुझे बहुत पसंद आया था क्योंकि यह एक परफ़ेक्ट थ्रिलर है जिसमें कोई झोल या तथ्यात्मक भूल नहीं है एवं यह आदि से अंत तक पाठक को बांधे रखता है (बशर्ते कि वह पॉलिटिकल थ्रिलर में रुचि रखता हो) । ऐसा थ्रिलर पाठक साहब उस ज़माने में ही लिख सकते थे क्योंकि तब नेपाल में राजशाही थी और तख़्ता पलटने की ऐसी साज़िश मुमकिन थी । दिसंबर 2007 में नेपाल में राजशाही ही समाप्त कर दी गई और कोई राजा या नरेश नहीं रहा, अतः इस उपन्यास का प्लॉट ही तर्कपूर्ण नहीं रहा । इस उपन्यास को लिखते समय पाठक साहब सोच भी नहीं सकते थे कि पंद्रह वर्षों के भीतर नेपाल में उपन्यास के प्लॉट को ही संदर्भहीन कर देने वाला अभूतपूर्व परिवर्तन आने वाला था । ख़ैर …, इसी को तक़दीर या प्रारब्ध कहते हैं । मुझे अष्टभुजा का किरदार सबसे अधिक पसंद आया और आपने ठीक ही लिखा है कि उसके और शरद के आख़िर के दृश्य दिल को छू जाते हैं । आपको यह जानकर भी आश्चर्य होगा कि ऐसा बेहतरीन थ्रिलर पाठक साहब के व्यावसायिक रूप से सफल उपन्यासों में सम्मिलित नहीं है । मूल प्रकाशन के समय पाठकों द्वारा इसे अधिक पसंद नहीं किया गया था ।

    1. वाह आपने तो बहुत जल्दी ही इसे पढ़ लिया था। आपकी इस बात से सहमत नहीं हूँ कि प्लाट तर्कपूर्ण नहीं रहा। मुझे लगता है यह उपन्यास उस वक्त के राजनितिक हालातों को समझने का जरिया हो सकता है। राजनीति बदलती रहती हैं और ऐसे में हम उस दौर के उपन्यास देखें तो पाठक के लिए ये किसी इतिहास के पाठ से कम नहीं होते हैं।
      यह जानकर दुःख हुआ कि उस वक्त पाठकों को यह पसंद नहीं आया था। लेकिन कुछ चीजें वक्त से आगे की भी होती हैं। पाठक साहब के उपन्यासों के प्लॉट्स के साथ यही है और इसी कारण मेरे जैसा पाठक जो कि उपन्यास लिखे जाने के वक्त दो तीन साल का रहा होगा आज तीस साल का होने पर भी इस उपन्यास का लुत्फ़ ले पा रहा है। साहित्य की यही चीज तो मुझे इसके प्रति आकर्षित करती है।
      इस विस्तृत टिप्पणी के लिए बहुत बहुत शुक्रिया।

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