दफा 302 – सुरेंद्र मोहन पाठक

संस्करण विवरण:

फॉर्मेट:
ई बुक | प्रकाशक: डेलीहंट | पहला प्रकाशन: 1980

पहला वाक्य :
वीरवार दोपहर
‘जैम हाउस’ जनपथ पर स्थित एक चार-मंजिली इमारत थीं। 

कहानी

जैम हाउस दिल्ली का माना हुआ जवाहारातों का स्टोर था जहाँ कि दिल्ली के जाने माने रईस गहने खरीदने आया करते थे। शोरूम का एक रुतबा था। लेकिन आजकल दिल्ली में कुछ ऐसा हो रहा था जिससे इस रुतबे के कम होने के आसार थे। दिल्ली में जवाहारातों की चोरी काफी बढ़ गयी थी और पुलिस को इसमें एक पैटर्न दिखने लगा था। चोरी की वारदात जिन घरों में हुई थी उनमे से काफी जैम हाउस के ग्राहक थे। 
क्या ये केवल संयोग था या चोरी के तार जैम हाउस से जुड़े थे?  
इंस्पेक्टर पंडित इसी केस की तफ्तीश में लगा था और उसे ये संयोग नहीं लगता था। क्या इंस्पेक्टर चोरी की वारदातों में शामिल गिरोह का पता लगा पाया?

इसी दौरान शोरूम के सीनियर पार्टनर कमलनाथ व्यास की कार का जब एक्सीडेंट हुआ तो उनकी मौत को सबने एक दुर्घटना माना।  डॉक्टर  के अनुसार उन्हें दिल का दौरा पड़ा जिससे गाड़ी का संतुलन बिगड़ गया और उनका एक्सीडेंट हो गया। सभी के लिए दुर्भाग्यपूर्ण घटना थी। लेकिन इंस्पेक्टर पंडित को इस थ्योरी पे विश्वास नहीं था। कमलनाथ का दिल कमजोर था और इंस्पेक्टर को शक था कि दिल का दौरा प्राकृतिक नहीं था। 
क्या इंस्पेक्टर का शक सही था या बेबुनियाद था?

मुख्य किरदार :

प्रदीप पुरी – जैम हाउस का मुख्य सेल्समेन
कमलनाथ व्यास – जैम हाउस का सीनियर पार्टनर और लगभग मालिक
देवीलाल जैन  – जैम हाउस का जूनियर पार्टनर
पवनकुमार – जैम हाउस का जवाहरात का विशेषज्ञ
अपर्णा व्यास – कमलनाथ व्यास की लड़की
विक्रम सोलंकी – जैम हाउस का मुख्य डिज़ाइनर
अग्रवाल – मैजेस्टिक ऑटोमोबाइल्स का मालिक  जिसने जैम हाउस से एक कीमती हार लिया था
शालिनी व्यास – कमलनाथ व्यास की पत्नी
काशीनाथ – कमलनाथ व्यास का नौकर
शान्तिस्वरुप – कमलनाथ व्यास का वकील
मिसेज साराभाई – कमलनाथ व्यास की पड़ोसी और जैम हाउस की खरीदार
जग्गी – चोरों की एक गैंग का मुखिया
इमरान, बिहारी – जग्गी के गैंग के अन्य सदस्य
दिलावर – जग्गी के गैंग का एक तिजोरीतोड़
नासर शीराजी – एक बूढा इरानी जो बदकिस्मती से अपनी पोती के साथ भारत आ बसा था। वो जग्गी के लिए चोरी के जवाह्रातों को काटकर उनकी शक्ल बदला करता था
सुरैया – शीराजी की पोती
मिस्टर पंडित – दिल्ली पुलिस के सी आई डी इंस्पेक्टर जो कि दिल्ली में बढती जवाहरातों की चोरी के केसेस पर काम कर रहा था।

विचार

दफा 302 (Dafa 302 ) सुरेन्द्र मोहन पाठक (Surender Mohan Pathak) का थ्रिलर उपन्यास है जो पहली बार  1980 में प्रकाशित हुआ था और अब लगभग ३७ साल बाद डेली हंट (Daily Hunt) के माध्यम से मुझे पढ़ने का मौका मिला। पाठक साहब (Surender Mohan Pathak) के पुराने उपन्यास वैसे भी ढूंढें नहीं मिलते तो इसका पेपरबैक मिलने की संभावना अभी कम है। लेकिन हाँ, उनके उपन्यास अब पुनः प्रकाशित हो रहे हैं तो शायद पाठकों को ये भी जल्दी पढने को मिले। खैर, तब तक के लिए डेली हंट (Daily Hunt) तो है ही।

उपन्यास की बात करूँ तो उपन्यास पठनीय है। उपन्यास शुरुआत से अंत तक एक बैठक में पढ़ा जा सकता है।
उपन्यास की कहानी की बात करूँ तो उपन्यास की कहानी मुझे औसत लगी। उम्रदराज पति की पत्नी जिसने पैसों के खातिर अपने पति से शादी करी और जिस्मानी जरूरतों के लिए अपने पति के मुलाजिम से आशनाई करी। ये कहानी हम कई बार देख चुके हैं, सुन चुके हैं और पढ़ चुके हैं। उपन्यास की कहानी भी सीधी बढ़ती है और सब कुछ पाठक के आँखों के सामने होता है। यानी उपन्यास में कोई रहस्य नहीं है। पाठक को पता होता है किसने क्या किया और क्यों किया। बस इन  किरदारों के साथ आगे क्या घटित होगा ये जानने के लिए उपन्यास पढ़ता जाता है। पाठक साहब  (Surender Mohan Pathak) ने ये इंटरेस्ट उपन्यास में अंत तक बरकरार रखा है। लेकिन मेरी  व्यक्तिगत राय है कि अगर उपन्यास हुडनइट सरीखा होता या कहानी में कुछ अप्रत्याशित मोड़ होते तो कहानी को पढ़ने में ज्यादा मज़ा आता।

किरदारों में मुझे खलनायक पसंद आया। वो बहुत लेवल हेडेड बन्दा है। उसके और इंस्पेक्टर पंडित के बीच के संवाद पढ़ने में काफी मज़ा आया। वो कई बार इंस्पेक्टर को बातों में हरा देता है। इंस्पेक्टर पंडित का किरदार भी एक सी आई डी के तौर पर फिट बना है। सब उसके शक के घेरे में होते हैं और वो तरीके से काम करता है। वो कैसे कातिल को पकड़ेगा ये देखना दिलचस्प था। शालिनी का किरदार मुझे काफी पसंद आया। वो एक मत्ल्ब्परस्त औरत है। ये उपन्यास में काफी जगह जाहिर होता है।  जिन लोगों से वो कन्नी काटने की कोशिश करती है जब उसके पास चारा नहीं होता तो उन्हीं के पास जाने लगती है। उसका अंत मुझे इतना पसंद नहीं आया। मैं ये जानना चाहता था कि उसकी शादी कमलनाथ व्यास से आखिर हुई कैसे ? अगर फ़्लैश बेक में वो भी उपन्यास में दर्शाया होता तो बढ़िया रहता। इससे ये तो पता चलता कि वो शुरुआत से ऐसी थी या वक्त के साथ ऐसे बदलाव उसमे आ गये। और उपन्यास और रोचक बन सकता था। बाकी के किरदार कथानक के अनुसार बढ़िया हैं और फिट बैठते हैं। उपन्यास में सुधीर कोहली (Sudhir Kohli) के युनिवेर्सल इन्वेस्टीगेशनस का भी जिक्र है। ये पढ़कर अच्छा लगा। सुधीर का नाम उपन्यास दो तीन बार आता है लेकिन वो खुद प्रकट नहीं होता है। एक गेस्ट अपीयरेंस हो जाती तो उसके फेन होने के नाते मुझे अच्छा लगता।

लालच के कारण आदमी क्या क्या नहीं कर देता ये इस उपन्यास में देखने को मिलता है। पत्नी पति की नहीं होती। प्रेमिका आशिक की नहीं होती। रिश्ते रिश्ते नहीं रह पाते। आदमी को पता ही नहीं चलता कि उसे रुकना कब है। ज्यादातर अपराधी इसिलिए पकड़े जाते हैं और इधर भी ये ही होता है। फिर चोर की दाड़ी में तिनका वाली बात भी है जो इस उपन्यास में चरित्रार्थ होती है और इसी कारण मुख्य खलनायक भी पकड़ा जाता है।

उपन्यास के किरदारों की बात कर दी कहानी की बात कर दी तो अब इसके शीर्षक पर आते हैं। उपन्यास के शीर्षक की बात करूँ तो वो मुझे कहानी के अनुसार ठीक नहीं लगा। हाँ, कथानक के आखिर में आते आते ‘दफा 302’ कई बार बोला गया जो कि शायद शीर्षक को जस्टिफाई करने के लिए था। मैंने ऐसा कई जगह होते देखा है। जेम्स हैडली चेस (James Hadley Chase) के उपन्यास का शीर्षक अक्सर एक वाक्यांश होता है और उपन्यास में उस वाक्यांश का आना लगभग तय होता है। अनिल मोहन (Anil Mohan) के एक दो उपन्यासों में भी ये देखा है।

अंत में  यही कहूँगा उपन्यास दफा 302 (Dafa 302 ) एक बार पढ़ा जा सकता है। कहानी साधारण होते हुए भी पठनीय बनी है। अगर पाठक साहब (Surender Mohan Pathak) के फैन हैं और इस उपन्यास को नहीं पढ़ा है तो एक बार पढ़ सकते हैं। अगर रहस्यकथाओं  में रूचि रखते हैं तो इससे किनारा कर लें क्योंकि उपन्यास में रहस्य जैसा कुछ नहीं है।  अगर पाठक साहब (Surender Mohan Pathak) को पहले नहीं पढ़ा तो इससे पढ़ने की शुरुआत न करें बाकी और भी बेहतरीन उपन्यास उनके मौजूद हैं। उसके बाद इसे पढ़ सकते हैं।

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About विकास नैनवाल 'अंजान'

विकास नैनवाल को अलग अलग तरह के विषयों पर उन्हें लिखना पसंद है। एक बुक जर्नल नाम से एक वेब पत्रिका और दुईबात नाम से वह अपनी व्यक्तिगत वेबसाईट का संचालन भी करते हैं।

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11 Comments on “दफा 302 – सुरेंद्र मोहन पाठक”

  1. achha nvl tha.mujhe to pahli bar hi bada sahi laga tha. mnornjak se bharpur suspence bhi tha
    .
    subhashchandar azadbharti

    1. novel तो अच्छा था इसमें तो कोई दो राय नहीं है। आपका मनोरंजन हुआ ये जानकार अच्छा लगा।ब्लॉग पर आते रहियेगा।

  2. Very attention-grabbing diary. lots of blogs I see recently do not extremely give something that attract others, however i am most positively fascinated by this one. simply thought that i'd post and allow you to apprehend.

  3. Awesome work. Just wished to drop a comment and say I’m new in your journal and adore what I’m reading. Thanks for the share

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  5. बहुत बढिया रिव्यू किया है…
    नावल मुझे बढिया लगा…
    २.५** रेटिंग कम लग रहा है…

    1. जी 2 का मतलब होता है कहानी औसत थी। 2.5 का मतलब है कहानी औसत से अच्छी है। रेटिंग ज्यादा मायने नहीं रखती। वो व्यक्तिपरक है। मुझे जो जो लगा वो उपन्यास के विषय में इस लेख में लिखा था।

      कहानी साधारण होते हुए भी पठनीय बनी है। अगर पाठक साहब के फैन हैं और इस उपन्यास को नहीं पढ़ा है तो एक बार पढ़ सकते हैं। अगर रहस्यकथाओं में रूचि रखते हैं तो इससे किनारा कर लें क्योंकि उपन्यास में रहस्य जैसा कुछ नहीं है। अगर पाठक साहब को पहले नहीं पढ़ा तो इससे पढने की शुरुआत न करें बाकी और भी बेहतरीन उपन्यास उनके मौजूद हैं। उसके बाद इसे पढ़ सकते हैं।

      इससे आप मेरे मनोभावों को समझ सकते हैं। इन्ही के तहत मैंने ये रेटिंग दी थी।

  6. मुझे पाठक साहब का लिखने का स्टाइल पसंद है।
    टाइम के हिसाब से कलेवर बड़ा है। पाठक साहब के उपन्यास से मेरी उम्मीद अधिकतर मर्डर मिस्ट्री की होती है लेकिन ये भी ठीक ठाक लगा।
    आपके ब्लॉग के बारे में कहना चाहता हूं कि मुझे पसंद आता है पढ़ना, बिना घूमे हुए अलग अलग जगहों के बार में पता चला रहा है।
    धन्यवाद

    1. जी मैं बिना उम्मीद लगाकर पढ़ना पसंद करता हूँ। कई बार देखा है कि उम्मीद लगाओ और उम्मीद के हिसाब से न निकले तो किताब भले ही अच्छी हो लेकिन अपना वो प्रभाव नहीं छोड़ पाती। इसलिए मैं बिना उम्मीद के पढ़ता हूँ।

  7. अच्छी समीक्षा है | नॉवेल मिला तो जरूर पढूंगा |

    1. जी आभार। मैं तो डेली हंट का शुक्रगुजार हूँ कि उनके बदौलत मैं पाठक साहब के काफी ऐसे उपन्यास पढ़ पाया जो काफी वक्त से आउट ऑफ़ प्रिंट थे। डेली हंट न होता तो शायद इसे भी न पढ़ पाता।

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