संस्करण विवरण:
फॉर्मैट: ई-बुक | पृष्ठ संख्या: 225
पुस्तक लिंक: अमेज़न
कहानी
वह खुद को सोहनलाल कहता था। उसके अनुसार वो मुंबई का बड़ा दादा हुआ करता था जिसकी गैंग को पुलिस वालों ने हाल ही में खत्म कर दिया था।
सोहनलाल जिस शहर में आया था उसका सबसे बड़ा अपराधी तीरथ राम पाहवा हुआ करता था और सोहनलाल ने उसे बर्बाद करने का फैसला ले लिया था।
शंकरदास एक सजायाफ्ता मुजरिम था जिसे जल्द ही फाँसी होने वाली थी। पर अपनी फाँसी के कुछ दिनों पहले ही वह जेल से फरार हो गया था। अब उसका एक ही मकसद था तीरथ राम पाहवा की बर्बादी।
आखिर कौन थे सोहनलाल और शंकर दास?
क्या ये तीरथ राम पाहवा को बर्बाद करने के अपने मकसद में कामयाब हो पाए?
इनकी तीरथ राम पाहवा से क्या दुश्मनी थी?
मुख्य किरदार
तीरथ राम पाहवा – शहर का सबसे बड़ा अपराधी
महेश चंद्र – तीरथ राम पाहवा का दायाँ हाथ
अवतार सिंह – सोहन लाल का प्रतिद्वंदी
पाल देशमुख – एक ईमानदार इन्स्पेक्टर
दीपक, रजनी – दो प्रेमी युगल
सुंदरलाल – एक चोर
रामसरन गुप्ता – जेलर
शंकर दास – शहर का एक नामी मुजरिम जिसने बीस से ऊपर कत्ल किए थे
राज किशोर – वार्डन
किशन पाहवा – तीरथ राम पाहवा
सुधीर गोस्वामी – एक हवलदार
जय चंद पाटिया – तीरथ राम पाहवा का प्रतिस्पर्धी
रानी – पाहवा की माशूक
अजय चौधरी – जय चंद पाटया का आदमी
विचार
वैसे तो अनिल मोहन अपनी लिखी देवराज चौहान और मोना चौधरी शृंखलाओं के लिए ज्यादा जाने जाते हैं लेकिन उन्होंने की एकल थ्रिलर भी लिखे हैं। ‘आतंक के साये’ लेखक अनिल मोहन द्वारा लिखा गया एक ऐसा ही थ्रिलर उपन्यास है। यह लेखक का पुराना उपन्यास है जिसे उन्हें किन्डल पर पुनः प्रकाशित किया गया है। उपन्यास प्रथम बार कब प्रकाशित हुआ था इसकी जानकारी ई बुक से पता नहीं चलती है। मुझे लगता है कि लेखक को अपने पुराने उपन्यासों को पुनः प्रकाशित करते हुए कम से कम यह जानकारी ई बुक में देनी चाहिए कि वह उपन्यास कब प्रकाशित हुआ था और किसके द्वारा प्रथम बार प्रकाशित किया गया था।
‘आतंक के साये’ की बात करूँ तो यह मूलतः कुछ अपराधियों की कहानी है जो एक दूसरे से टकराते हैं। उपन्यास का कथानक एक अज्ञात शहर में घटित होता है। इस शहर पर तीरथ राम पाहवा नाम का अपराधी राज करता है। सभी उसका खौफ खाते हैं। ऐसे में परिस्थितियाँ ऐसी बन जाती हैं कि उसके खिलाफ दो लोग सोहनलाल और शंकरदास, जो कि अधेड़ उम्र के अपराधी हैं, खड़े हो जाते हैं। उपन्यास एक्शन से भरपूर है जिसमें कुछ न कुछ ऐसा घटित होता रहता है कि आपको कुछ जगहों को छोड़कर बोर नहीं करता है।
उपन्यास के केंद्र में सोहनलाल है जिसके विषय में पाठक को अंदाजा हो जाता है कि वह जो खुद को कहता है वो नहीं है। सबसे पहले तो वही जानने के लिए पाठक उपन्यास पढ़ता चला जाता है। फिर जब उसका तीरथ से उसका पंगा शुरू हो जाता है और वह इस पंगे से बचने की कोशिश कैसे करता है और फिर आखिरकार कैसे इस पंगे में पड़कर पंगे को खत्म करता है यह देखना रोचक होता है।
उपन्यास में सोहनलाल का जैसा विवरण देखने को मिलता है उससे वह देवराज के साथी सोहनलाल की याद दिलाता है। यह सोहन लाल भी उसी सोहनलाल की तरह डेढ़ पसली है बस ये नशे की सिगरेट का इस्तेमाल नहीं करता है। उपन्यास में जब इस सोहनलाल की असल पहचान उजागर होती है तो वह जो अपनी कहानी बताता है उससे वह अधेड़ देवराज सरीखा लगता है।
सोहनलाल वैसे तो अपराधी है लेकिन उसके अंदर मानवीय गुण भी मौजूद हैं। वह बिना वजह खून खराबे से बचता है, लोगों की मदद करने से नहीं हिचकता है और जब उपन्यास में कुछ मासूमों को उसके कारण मौत के घाट उतार दिया जाता है तो वह उनका बदला लेने से भी नहीं चूकता है। उपन्यास के अंत में लेखक ने जो उसके मन की हालत दर्शाई है वह भी उसके अंदर मौजूद मानवीय भावनाओं को दर्शाती है। हाँ, उपन्यास में जो उसका किशन पाहवा के बारे में लिया गया फैसला था वही एक जगह थी जब उससे थोड़ा नफरत हुई थी। यह फैसला मुझे उसके किरदार से मेल खाता नहीं लगा।
उपन्यास का दूसरा केन्द्रीय पात्र शंकरदास है। वह एक खूंखार अपराधी है जो कि बीस कत्ल के जुर्म में जेल में फाँसी की सजा पाए होता है। शंकर दास मूल रूप से फौजी था जिसके साथ कुछ ऐसा घटित हुआ कि वह यह बीस कत्ल करने को मजबूर हो गया। जहाँ सोहनलाल में मानवीय गुण मौजूद हैं वहीं शंकर दास एक फौजी की तरह केवल अपने लक्ष्य पर ध्यान रखता है और इसे पूरा करने के लिए कुछ भी कर सकता है और किसी को भी कुर्बान कर सकता है। उसकी इस प्रवृत्ति के चलते सोहनलाल के साथ उसकी बहस भी होती है जो कि काफी रोचक रहती है। हाँ, शंकर दास के कत्ल करने के पीछे की कहानी जो लेखक ने दर्शाई है वो मुझे कमजोर और अविश्वसनीय लगी। उसकी बैक स्टोरी थोड़ा बेहतर हो सकती थी।
उपन्यास में सोहनलाल और शंकर दास के समक्ष तीरथ राम पाहवा खड़ा दिखता है। वह एक डॉन है और उसी की तरह फैसला लेता है। वह क्यों अपराध की दुनिया का राजा है यह भी उपन्यास को देखकर पता चल जाता है। पाहवा का साथ महेश चंद भी प्रभावित करता है।
उपन्यास का अगला मुख्य किरदार पाल देशमुख है। यह एक पुलिसवाला है और एक ईमानदार पुलिस वाले को क्या क्या सहना पड़ सकता है और कैसे वह पुलिसवाला भी सिस्टम के आगे मजबूर हो जाता है यह लेखक ने इस किरदार के माध्यम से दर्शाया है।
उपन्यास में एक रोचक किरदार जय चंद पाटिया है जो कि शातिर अपराधी है। उसका चित्रण मुझे पसंद आया। कई बार आप ऐसे लोगों से दो चार होते हैं जिन्हे देखकर आपको उनके विषय में मुगालता हो जाता है। वह जितने खतरनाक होते हैं उतने दिखते नहीं हैं। जय चंद भी ऐसा ही किरदार है।
उपन्यास में एक किरदार सुधीर गोस्वामी है। वह एक भ्रष्ट पुलिसिया है। उसके साथ जो हुआ वह सुकून पहुँचाता है। उपन्यास के बाकी किरदार कथानक के अनुसार है। सुंदरलाल एक मामूली चोर होते हुए भी जिस तरह पेश आता है वह प्रभावित करता है।
उपन्यास की कमियों की बात की जाए तो सबसे बड़ी कमी इसमें मौजूद प्रूफ की गलतियाँ हैं। उपन्यास में यह गलती काफी अधिक मात्रा में हैं। एक एक पृष्ठ में कई गलतियाँ मौजूद हैं जो कि पढ़ने की लय को बिगाड़ देती हैं। उदाहरण देखिए:
सोहन लाल ने जेल से सौ का नोट निकालकर हाथ में ले लिए। (पृष्ठ 42)
सोहन लाल जानता था की तीरथ राम पाहवा इस शहर की हस्ती था, पगड़ी हस्ती। (पृष्ठ 42)
दस मिनट तक सोहनलाल के बताये रास्ते पर चलकर कार्ड रुक गई। (पृष्ठ 44)
सोहनलाल की आँखें सिकुड़ गई। इसमें दो राय नहीं कि वो व्यक्ति का आदमी था और उन्हीं कमांडो में से एक था जो उसे फ्लैट पर लेने आये थे।(पृष्ठ 48)
कथानक में मौजूद कमी की बात की जाए तो प्रस्तुत उपन्यास एक्शन भरपूर जरूर है लेकिन कई बार ये खिंचा हुआ सा लगता है। मुझे लगता है कथानक को संपादित कर चुस्त बनाने की जरूरत थी। कुछ घटनाओं से बचा जा सकता था जिससे कहानी तेज गति महसूस होती है। अभी यह गति कहीं कहीं सुस्त पड़ जाती है।
कहानी में भी कुछ चीजें मुझे खटकी थीं। उदाहरण के लिए:
कहानी में एक प्रसंग है जिसमें शंकर और सोहनलाल मिलकर एक व्यक्ति का अपहरण करते हैं। उस वक्त उनके पास तीरथ राम पाहवा का अपहरण करने का मौका भी होता है। लेकिन वह ऐसा नहीं करते हैं। अगर वह ऐसा करते तो तीरथ राम पाहवा से वो उसी वक्त छुटकारा पा सकते थे और अपने मकसद में कामयाब हो सकते थे।
उपन्यास में एक प्रसंग आता है कि सोहनलाल एक कमरे में बंद है और दूसरे तरफ से महेश चंद्र दरवाजा तोड़ रहा होता है। ऐसे में सोहनलाल उसके आने का इंतजार करता है और आसानी से उसके काबू में आ जाता है। जबकि कायदे से वह दरवाजे पर पोजीशन लेकर उनसे मुकाबला कर सकता था। वहीं दूसरी बात ये है कि जब होटल में आगे पीछे दोनों तरफ से हमला हो रहा था तो महेश चंद्र कैसे सोहन लाल तक पहुँचा? यह भी एक गुत्थी ही बनी रहती है।
अंत में यही कहूँगा कि ‘आंतक के साये’ एक बार पढ़ा जा सकता है। थोड़ा संपादित करके कथानक और चुस्त बनाया जाता तो बेहतर होता क्योंकि तब कथानक की पठनीयता बढ़ जाती। उपन्यास का अंत मुझे रोचक लगा। उपन्यास के अंत में सोहनलाल एक उधेड़बुन में दिखाई देता है। वह आगे क्या करेगा यह लेखक ने इतना साफ नहीं दर्शाया है जो कि अगले भाग के लिए एक संभावना छोड़ देता है। मैं सोहनलाल से दोबारा मिलना चाहूँगा।
पुस्तक लिंक: अमेज़न