पुस्तक अंश: कोरोया फूल: जन, जंगल, जीवन – अथनास किसपोट्टा

पुस्तक अंश: कोरोया फूल: जन, जंगल, जीवन - अथनास किसपोट्टा

अथनास किसपोट्टा की पुस्तक कोरोया फूल: जन ,जंगल ,जीवन छोटा नागपुर इलाके के आदिवासियों के सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन का दस्तावेज है। अपने इन संस्मरणों और लेखों से लेखक ने वहाँ की संस्कृति और उसमें  होते बदलावों को दर्शाने का प्रयास किया है। एक बुक जर्नल पर पढ़िए पुस्तक कोरोया फूल में मौजूद एक लेख  ‘गोंगो’। 


गोंगो

कोरोया फूल: जन, जंगल, जीवन – अथनास किसपोट्टा

फिल्म शोले में एक डायलॉग ज़बरदस्त मशहूर हुआ था- “इलाके में 50 मील के अंदर जब भी कोई बच्चा रोता है, तो माँ कहती है- चुप हो जा बेटे, वरना गब्बर सिंह आ जाएगा।” इतना आतंक था गब्बर सिंह डाकू का। गब्बर सिंह आतंक का पर्याय बन गया था। गाँव-देहात में बच्चों के मनोरंजन के साधन कम या नहीं के बराबर होने से उन्हें व्यस्त रखना एक कठिन काम होता था। बचपन में जब माँ-बाप अपने छोटे बच्चों को दादी माँ के जिम्मे छोड़कर खेत या जंगल में काम करने जाते और घर में जब छोटे बच्चे दादी माँ को तंग करते, रोते, या ज़िद करते तो दादी माँ कहती थी- “चुप हो जाओ नहीं तो ‘गोंगो’ आ जाएगा।” इसी प्रकार माँ के सामने जब बच्चा रूठता, मचलता, ज़मीन पर लोटता, ज़िद करता या बात नहीं मानता तो माँ भी कहती- “वो देखो ‘गोंगो’ आ रहा है। ‘गोंगो’ ले जाएगा।” बच्चे उस अज्ञात गोंगो के डर से दादी, या माँ की बात मान लेते और शांत हो जाते थे। दादी, माँ खुश हो जाती थीं। वे जो चाहती थीं वह काम हो जाता था। अनुशासन बनाए रखने में ‘गोंगो’ नाम बड़ा सहायक होता था।

वर्षों पहले छोटानागपुर क्षेत्र के गाँवों में कुछ परदेशी आते थे। उनमें से एक वर्ग उन लोगों का होता था जो शूकर बाल क्रेता होते थे। वे ऊँचे-पूरे, मूँछ-दाढ़ी वाले, लंबे-तगड़े, साढ़े छः फुटहा होते थे। वे लुंगी-कुरता, पगड़ी और लट्ठधारी होते थे। वे स्थानीय बोली में ‘किस्स-चुट्टी’ (शूकर बाल वाला) कहकर हाँक लगाते थे। गाँव वाले सहमते हुए सामान की उपलब्धता पर औने-पौने दाम में उन्हें माल दे देते थे। वे इतने डरावने से लगते थे कि गाँव वाले उनसे बहस करने से डरते थे। उन्हें देख बच्चे भी सहम जाते, कोई-कोई तो रोने लगते थे। कुछ समय के बाद इन लोगों का आना तो बंद हो गया, परंतु दूसरे कैटेगरी के लोग जो सिर पर मिर्च-मसाला या परचून का सामान बेचने आते थे, वे छल-कपट से जुगत लगाकर क्षेत्र में बसते गए और अंत में उनकी बस्ती ही बस गई। ऐसे बाहरी लोगों को गाँव वाले ‘गोंगो’ कहा करते थे। उनके डरावने स्वरूप के कारण उनका भय दिखाकर माताएँ और बड़े-बुजुर्ग, बच्चों को चुप कराते, अथवा उनकी शरारत का इलाज़ करते थे।

‘गब्बरसिंह’ और ‘गोंगो’ में उतना अधिक अंतर नहीं है। गब्बरसिंह डाकू फिल्म का एक खलनायक है, अथवा नामधारी व्यक्ति विशेष है, जबकि ‘गोंगो’ एक सामान्य नाम है जो किसी बाहरी, अपरिचित, अंजान, खतरनाक जैसे दिखने वाले व्यक्ति के लिए उपयोग में लाया जाता है। बस नाम का ही मामूली अंतर है, अन्यथा दोनों का काम लगभग एक सा है। गब्बरसिंह बंदूक के बल पर आतंक दिखाकर डाका डालने का काम करता है और ‘गोंगो’ समाज में रहकर छल, कपट का इस्तेमाल करते, चतुराई से डाका डालते हैं। दोनों का आतंक समान है। दोनों का प्रभाव ऐसा है कि गाँव में उनके प्रवेश करते ही अफरा-तफरी मच जाती है। एक के आने से जान-माल का सीधा खतरा और दूसरे के आने से छल-कपट की आशंका, जिसमें माल का सीधा नुकसान और जान के तिल-तिल कर जाने की शंका रहती है।

जहाँ तक उपद्रवी बच्चों को शांत या अनुशासित करने की बात है इसमें गाँव अथवा इलाके के कुछ खास बुड्ढों की भूमिका भी ‘गोंगो’ के नाम पर होती थी। उनकी शक्ल-सूरत और हाव-भाव से बच्चे उनसे डरते थे और उनके डर से अनुशासन में आ जाते थे। ऐसे बूढ़ों में से खास प्रचलित नाम थे जैसे-कुहू, नवापड़िया, गोच्चो, भोंड्डा, भुंडू, भौवा आदि। गाँव के बच्चों पर इन बूढ़ों का डर इस कदर छाया रहता था कि इनमें से जिनका भी नाम ले लो तो बच्चे अनुशासन में आ जाते थे। इन बूढ़ों का असर ऐसा होता था कि यदि बच्चे सामान्य रूप से खेलते भी होंगे तो उन्हें देखकर वे रोते हुए अपनी माँ की ओर दौड़ जाते और माँ से कहते- “बदमाशी नहीं करूँगा, बात मानूँगा” आदि, ताकि वे बूढ़े अपने रास्ते चले जाएँ, तब माँ कहती- “बाबा! मेरा बेटा बदमाशी नहीं करता है, बातें मानता है, मेरे बेटे को कुछ मत करना” आदि। उस बूढ़े बाबा के वहाँ से जाने के बाद ही बालक सामान्य होता और खेलने लगता था। आज भी गाँव में ‘गोंगो आ जाएगा’ का फार्मूला उपयोग में आ ही जाता है।
बात ‘गोंगो’ की है। ये गोंगो हैं कौन? गोंगो से तात्पर्य बाहरी लोगों से था जो अपरिचित, अनजान तथा डरावने किस्म के दिखाई देते थे, जो स्वभाव से दबंग, कद-काठी से बुलंद, धूर्त, स्वार्थी, कठोर, खुदगर्ज और चालू होते थे। ये स्थानीय जनजातीय लोगों की तुलना में हर प्रकार से अलग होते थे। ये धन-संपन्न होते ही हैं, पर इनमें धन लोलुपता कूट-कूटकर भरी रहती है तथा ये परायी धन-संपत्ति को दबाने-हड़पने में उस्ताद होते हैं। अपने लक्ष्य प्राप्ति के लिए वे छल-कपट करने में माहिर होते हैं। वे सदा चौकन्ने रहते हैं और कमजोर वर्ग की तलाश में रहते हैं। ये जनजातीय लोगों को अच्छी तरह समझ चुके होते हैं। जनजातीय बिरादरी के लोग जहाँ-जहाँ बसते गए, ये सूँघते हुए वहाँ-वहाँ पहुँचते गए और अपनी आदत के अनुसार मनमानी करते गए और स्थानीय लोगों को डरा-धमका कर वहाँ से भगाने की जुगत करते रहे। संभवतः राजा-रजवाड़ों के जमाने में राजा के नुमाइंदों के संरक्षण में इन इलाके में इनका पदार्पण हुआ। उन्होंने पूरे क्षेत्र को, अपने लक्ष्य को अंजाम देने के अनुकूल और उपयुक्त पाया और छल-बल और कपट से माल और ज़मीन हड़पते रहे, दबाते रहे, लूटते रहे। जनजातीय लोग किंकतर्व्य-विमूढ़ता की स्थिति में थे क्योंकि वे धन और चालबाजी के मामलों में अत्यंत कमजोर थे। ये गोंगो लोग एक के पाँच, पाँच के पचास और दस के सौ बनाते रहे, अपना आतंक दिखाकर अपना घर भरते रहे। वे पिसते रहे, अपनी ज़मीन, जगह छिनते देखते रहे। बच्चे गोंगो के भय से छुपते रहे। यह उनकी विवशता थी।

ज़िंदगी यों ही सरकती रही। ये गोंगो लोटा, सोंटा और झोंटा लेकर आए थे। सिर पर नमक, मिर्च, मसाला आदि छोटी-मोटी ज़रूरत की चीज़ें गाँव-गाँव में घूमकर बेचा करते थे। वे अस्थायी तौर पर निवास करते थे। संभवतः प्रारंभ में वे भी नए इलाके में किंचित भय खाते थे, पर अब तो वे ही भय और आतंक का पर्याय बन गए। बच्चे तो क्या धीरे-धीरे बड़े-बूढ़े भी गोंगो के आने से सशंकित हो जाते थे। उनका आना अर्थात् किसी न किसी पर गाज गिरना ही था। आदिवासियों की मजबूरी थी, उनसे बचना ही मुश्किल था। शादी-ब्याह, बीमारी या किसी मजबूरी में रुपया लेने उनके पास जाना ही पड़ता था। एक बार जो उनके चंगुल में आया, वह बर्बाद हो गया। उनकी विवशता थी, उनके दरवाजे पर जाना ही पड़ता था और वे इनकी मजबूरी का भरपूर फ़ायदा उठाने से चूकते नहीं थे। वे इधर राजा की बेठ-बेगारी, उसके कारिन्दों की मनमानी से पिसते रहे उधर सेठ-साहूकारों की मनमानी से भी हलकान होते रहे। नतीज़ा यह हुआ कि पूरे क्षेत्र में त्राहि-त्राहि मच गई।

वर्षों पहले एक दिन एक फटफटिया (मोटर सायकल) गाँव के अखड़ा में रुकी। पहली बार चलने-दौड़ने वाली मशीन गाँव में आई थी। एक अंजान और बिल्कुल अलग सा दिखने वाला गोरा व्यक्ति फटफटिया से उतरा। सिर पर टोप, अलग ढंग का पहनावा और रंग-रूप भी अलग था। गाँव में पहली बार ऐसा व्यक्ति आया था। फटफटिया की आवाज़ सुनकर गाँव में सन्नाटा छा गया। छोटे बच्चे दादी अथवा माँ से चिपट गए। अन्य बच्चे कौतूहलवश दूर से उसे देख रहे थे। दादी अम्माएँ हुक्का गुड़गुड़ाती दूर से उसे देख रही थीं। बड़े-बूढ़े खैनी मींजते अथवा रस्सी ओंटते अखड़ा तक आ गए। फटफटिया और फटफटिया सवार दोनों ही आकर्षण का केन्द्र बन गए थे। सब उसे दूर-दूर से घूर रहे थे। बड़े-बूढ़े बच्चों को फटफटिया से दूर रहने की हिदायत दे रहे थे। वह नवागंतुक एक मिशनरी था। उनकी स्थिति देख नवागंतुक बच्चों को अपने आस-पास आने के लिए इशारा करने लगे। नंग-धड़ंग बच्चे सकुचाते, शर्माते, धक्का-मुक्की करते उनके पास आने लगे। आगंतुक स्थानीय टूटी-फूटी बोली में उनसे बतियाने की कोशिश कर रहे थे। उन्हें अपनी बोली में बातें करते देख बच्चों की हिम्मत बढ़ी और वे उनके पास आ गए और दादा-दादी तथा बड़े लोग भी उनके नजदीक आ गए। मिशनरी ने लिमचूस (लेमनजूस) का पैकेट निकाला और बच्चों को देने लगे। वे लिमचूस बाँटते जाते और बच्चों के नाम पूछते जाते थे। एक लड़की अपने छोटे भाई को पीठ पर बांधे (बेतरा) खड़ी थी। मिशनरी ने उसका और उसके भाई का नाम पूछा। छोटा बच्चा रोने लगा। लड़की ने उसे चुप कराया। बच्चे ने मिशनरी की ओर उंगली से इशारा करते हुए कहा- “गोंगो…!”

“क्या कहा? गोंगो?” -मिशनरी ने आश्चर्य से पूछा। उस लड़की ने अपने छोटे भाई को समझाते हुए कहा- “गोंगो! नहीं बाबू ये पादरी साहब हैं।” ये सब बातें उस बच्चे की समझ में नहीं आई, वह लिमचूस चूसने लगा। सभी गाँववासी मिशनरी को एकटक देख रहे थे और वे बड़े-बूढ़ों से बतिया रहे थे। थोड़ी देर में गाँव का मुखिया दूसरे गाँव से वापस आया। मिशनरी को अभिवादन कर उसने उसके लिए खटिया बिछाई और उन्हें बैठने का निवेदन किया और बड़े पात्र में बासी पानी लाकर उन्हें पीने को दिया जिसे उन्होंने बड़े चाव से पी लिया। सभी उन्हें अचरज से देख रहे थे। आज तक किसी बाहरी व्यक्ति ने उनके हाथ का पानी स्वीकार नहीं किया था। सब मन ही मन में सोच रहे थे “ये तो भगवान के रूप हैं! देखो इनमें और उन गोंगो लोगों में कितना फर्क है! शायद भगवान ने हम गरीबों की सुधि ली है।” मिशनरी गाँव की स्थिति के बारे में जानकारी ले रहे थे। बड़े-बुजुर्गों ने गोंगो गुट के कारनामों की भी जानकारी दी। मिशनरी गंभीर हो गए थे। फिर भी उनके चेहरे पर दृढ़तायुक्त आत्मविश्वास झलक रहा था। इन गोंगो लोगों के चंगुल से गाँव वालों को बचाना पहला काम था। उन्होंने मुखिया से जरूरी बातें कीं। शाम होने पर थी। रास्ता उबड़-खाबड़, कच्चा और नया था, अतः वे फटफटिया चालू कर सबकी दुआएँ लेते हुए अपने बंगले लौट गए। बच्चे उनकी फटफटिया के पीछे-पीछे भागे और फटफटिया के ओझल होते तक देखते रहे, फिर अखड़ा (आदिवासियों का नृत्यस्थल) लौट गए। बड़े-बूढ़े अभी भी वहीं बैठे आपस में बतिया रहे थे और मुखिया उन्हें समझा रहा था।

बुजुर्गों में से कुछ ने बच्चों से पूछा- “अभी जो आए थे वे कौन थे?”

एक दो बच्चों ने कहा- “गोंगो!”

“गोंगो?”

“गाँव में जो दूसरे लोग आते हैं वे क्या हैं?”

“गोंगो…।”

“वे गोंगो क्या तुमसे बातें करते हैं?”

“नहीं”

“वे कैसे लगते हैं?”

“उनसे डर लगता है।”

“अच्छा! तो ये गोंगो कैसे लगे?”

“ये अच्छे हैं, बातें करते और प्यार भी करते हैं।”

“वे क्या बोल रहे थे?”

“पढ़ने के लिए बंगला आने को बोल रहे थे।”

“पढ़ने जाओगे?”

“हाँ…।”

“ठीक है, ये गोंगो नहीं है, ये पादरी साहेब हैं। अब से इन्हें गोंगो नहीं बोलना…।”

मिशनरी ने देखा गाँव वालों में भोलापन, सादगी और सरलता कूट-कूट कर भरी थी और गाँवों में अशिक्षा, गरीबी, अज्ञानता का बोलबाला था तथा राजतंत्र का दबाव था। कुछ समझदारों के सहयोग से शिक्षा पर जोर दिया जाने लगा और हर क्षेत्र से स्कूल जाने लायक बच्चों को स्कूल जाने का महत्व समझाया गया। मेहनत रंग लाने लगी।

क्षेत्र में खुशनुमा बयार बहने के आसार दिखने लगे। बच्चे स्कूल का रुख करने लगे। लोगों के चेहरे से आत्मविश्वास झलकने लगा। गोंगो लोगों के चंगुल से बचने के उपाय हो रहे थे। उनका गाँव आना लगभग कम हो गया। क्षेत्र में खुशी की लहर लहराने लगी। कभी-कभी बड़े बुजुर्ग जब सुरूर में रहते और मूड में आते तो कृतज्ञतावश उनके मुँह से गीत के बोल फूट पड़ते थे जिसका अर्थ था- “धन्य हो पादरी साहेब! आपने हमें जीने की राह दिखाई, हमारे सूने और अंधकारमय जीवन में प्रकाश दिखाया, हमें मनुष्य होने का अहसास कराया।”

अपनी परिस्थिति देख आनन्दातिरेकता की स्थिति में समूह में भी मिशनरियों के प्रति अपनी कृतज्ञता इसी अंदाज़ में प्रकट करते थे।

इलाके में एक आशा, नई उमंग, नया जोश, नया प्रकाश, नया उत्साह दिखाई देने लगा, नया सबेरा आ गया था। मेहनत रंग ला रही थी। लोगों को एक नई दिशा मिल गई थी, जो उनकी दशा को सुधार रही थी। मिशनरी गाँवों का दौरा करके स्थिति का जायजा लेते, प्रोत्साहन देते और किसी प्रकार की समस्याओं का भरसक समाधान करते। इलाके के लोग खुश थे। जब मिशनरी अपने सामान और दल के साथ दौरे पर निकलते तो नज़ारा उत्साहवर्द्धक और आनन्ददायक हो उठता था। वे गाँव-गाँव का दौरा करते, उनसे संवाद करते, उनके दुख-दर्द सुनते और उन्हें सलाह देते और अपने स्तर पर यथासंभव मदद देने का प्रयास करते। उनकी सहृदयता, संवेदनशीलता और उदारता अपना प्रभाव छोड़ जाती थी। गाँव वाले उनकी प्रशंसा में गाते हुए झूम उठते थे। गाँव के युवाओं में नया जोश, नयी उमंग भर रही थी। अखड़ा (नृत्य स्थल) में सामूहिक नृत्य के दौरान गीत गाते, नृत्य करते और अपनी कृतज्ञता व्यक्त करते थे।

समय गुजरता गया। एक-दो पीढ़ियाँ गुजर गयीं और इन वर्षों में बहुत कुछ बदल गया है। गाँव किंचित व्यवस्थित हो गये हैं। गाँव सड़कों से जुड़ गये हैं। गाँव की गलियाँ सुधर गई हैं। बिजली पानी की सुविधा हो गई है। गाँवों की स्थिति पहले की अपेक्षा सुधर गई है। अधिकांश परिवारों के युवा पढ़ लिखकर सरकारी, गैर सरकारी नौकरियाँ कर रहे हैं। अधिकांश परिवारों के पास टी.वी., मोबाइल, मोटर-साइकिलें हैं। यहाँ तक कि चार पहिया वाहन भी हैं। पक्के मकान भी बन गए हैं। अब बच्चों को मोटर-सायकिल आकर्षित नहीं करते तथा वे उनके पीछे नहीं भागते। बच्चों के लिए आंगनबाड़ी है, पड़ोस के गाँव में स्कूल खुल गये हैं। हरेक परिवार से पढ़ने वालो बच्चे हैं। रहन-सहन का स्तर कुछ बढ़ गया है। खुशहाली का आलम है। मिशनरियों का आना-जाना बना है, पर वे अब गोरे मिशनरी नहीं हैं, अब तो स्थानीय, देशी मिशनरी ही सारा काम संभाल रहे हैं। यदा-कदा गोंगो लोगों का आना-जाना होता रहता है, लेकिन उनके आने के साथ साथ बड़े-बूढ़ों के भी कान खड़े हो जाते हैं।

गोंगो लोगों की बस्तियाँ बस गई हैं। अपनी आदत अनुसार छल-बल से मौके की ज़मीन हड़पकर ठाठ से रह रहे हैं। साहूकारी और व्यापार उन्हीं के अधीन हैं। उनकी मनमानी बदस्तूर जारी है और आज भी लोग उनके जाल में फँसते और बर्बाद होते देखे जा सकते हैं। वे दिन-प्रतिदिन मालामाल होते जा रहे हैं। पहले तो कच्चे मकान बनाकर व्यवसाय संचालन करते थे, इसलिए कि कहीं स्थानीय लोग उनका विरोध कर उन्हें भगा न दें और यदि भागना भी पड़ा तो उन्हें अधिक नुकसान उठाना न पड़े। अफ़सोस! ऐसा नहीं हो सका, उन्हें स्थानीय लोगों की नस-नस की जानकारी हो गई है और वे जानते हैं कि स्थानीय लोगों को किस तरह पटाया या भरमाया जा सकता है। अब तो उन्होंने स्थायी पक्के मकान और हवेलियाँ खड़ी कर ली हैं और क्षेत्र में अपना रुतबा बढ़ा लिया है। आर्थिक रूप से तो वे संपन्न हैं ही उनका सामाजिक और राजनीतिक कद भी बढ़ गया है। हर क्षेत्र में उनकी दखलंद़ाजी है। क्षेत्र में सब मिल-जुलकर रहते हैं। छुट-पुट घटनाओं को छोड़कर शांति है। गोंगो लोगों ने अब स्थानीय बोली सीख ली है, ताकि वे गाँव के ग्राहकों को प्रभावित कर सकें। लूटने की क्रिया अब भी जारी है किंतु चतुराई पूर्वक। शांति तो दिखती है परंतु यह खामोशी कहीं आने वाले तूफान का संकेत तो नहीं हैं!!

एक दिन क्षेत्र में उड़न-खटोले की घरघराहट और कर्णफोडू आवाज़ ने सबको चौंका दिया। पहाड़ों की ओर जंगल के ऊपर पूरे इलाके में उड़न-खटोले के असामान्य रूप से उड़ान ने सबके चेहरे पर चिंता की लकीरें खींच दीं। हल जोतने वाले हलवाहों के हल थम गए, महुआ बीनने वालों के हाथ रुक गए, घर में रहने वाले घर से बाहर निकलकर उड़न-खटोले का नज़ारा देखने लगे। हर कोई अपना काम छोड़कर उड़न-खटोले पर ही नज़र टिकाए रहा। काफी देर तक पूरे इलाके में मंडराने के बाद उड़न खटोला वापस चला गया। गाँव वालों ने थोड़ी राहत की साँस ली, पर एक अज्ञात भय ने सबको हिलाकर रख दिया। सबकी जुबान पर उड़न-खटोले की इस असामान्य उड़ान की ही चर्चा थी। अगले दिन भी वही उड़न-खटोला गाँव के ऊपर चक्कर मारने लगा।

जब भी उड़न खटोला गाँव की सीमा पर आता, गाँव वालों का रक्त-चाप बढ़ जाता। भयभीत बच्चे अपनी माताओं के पल्लू थामे माँ से लिपट जाते। थोड़े बड़े बच्चे टोली बनाकर उसे देखते। एक कौतूहल, एक संशय, एक अज्ञात भय ने सबको झकझोर दिया। बच्चे कहते- “गोंगो आ रहे हैं।” माताएँ कहतीं- “हाँ गोंगो ही आ रहे हैं।”

उड़न खटोला, गाँव के आसपास के पूरे क्षेत्र में घंटों मंडराकर वापस हुआ। साप्ताहिक बाज़ार के बाद लोगों में इसी उड़न खटोले की असामान्य उड़ानों की चर्चा होती रही, जितने मुँह उतनी बातें हो रही थीं। सबके चेहरे पर परेशानी साफ़ झलक रही थी। गाँव की चौपाल में इसके विषय में चर्चा होती थी। हर कोई अपने ज्ञान के अनुसार अपनी-अपनी बात कहता।

गाँव में बड़ों ने बच्चों को “गोंगो आ जाएगा” कहकर उन्हें खूब डराया और उन्हें अनुशासित करने का यह तरीका खूब चलाया। बच्चे डरकर चुप तो हो गए, पर क्या इस तरीके का मनोवैज्ञानिक असर किसी भी युग के बालमन पर न पड़ा होगा? यह शोध का विषय हो सकता है। अब गोंगो लोग वास्तव में क्षेत्र में घुस ही गए और बड़े-बड़े खूंखार गोंगो (उद्योगपति) क्षेत्र में आने की तैयारी में हैं। इन क्षेत्रों में बसने वाली जनजातियों में अब गोंगों के स्थान पर ‘बाहरी’ लोगों का दबाव बढ़ गया है। वे अब भी ठगे जाने के भय से बाहर नहीं आ सके हैं। ‘गोंगों’ शब्द से वर्तमान पीढ़ी परिचित नहीं है, न ही अब इस नाम से इन्हें डराया जा सकता है। स्थितियाँ वही हैं, बस पात्र बदल गए हैं।


पुस्तक विवरण:

नाम: कोरोया फूल: जन, जंगल, जीवन | प्रकाशक: साहित्य विमर्श प्रकाशन | विधा: संस्मरण | पुस्तक लिंक: अमेज़न | साहित्य विमर्श | किंडल


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About विकास नैनवाल 'अंजान'

विकास नैनवाल को अलग अलग तरह के विषयों पर लिखना पसंद है। साहित्य में गहरी रूचि है। एक बुक जर्नल नाम से एक वेब पत्रिका और दुईबात नाम से वह अपनी व्यक्तिगत वेबसाईट का संचालन भी करते हैं।

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