आतंक का पहाड़ लेखक अनिल मोहन के लोकप्रिय किरदार देवराज चौहान शृंखला का उपन्यास है। इस उपन्यास की कहानी दौलत खतरे में के बाद शुरू होती है।
दौलत खतरे में जिस दौलत को लूटने की योजना देवराज और उसके साथियों ने बनाई थी वो जब उनके हाथ से उनके एक साथी की पत्नी के धोखेबाजी के चलते निकल जाती है तो वह उस का पीछा करते हुए वह लोग एक दिल्ली से मद्रास जा रहे जहाज में चढ़ बैठते हैं। दुर्भाग्यवश इस हवाई जहाज को आतंक का पहाड़ नाम से कुख्यात आतंकवादी हाईजैक कर देता है और आगे क्या होता है यही इस उपन्यास का कथानक बनता है।
आज एक बुक जर्नल पर पढ़िए इसी उपन्यास आतंक का पहाड़ का एक रोचक अंश जो कि हमें उम्मीद है उपन्यास के प्रति आपकी रुचि जगाने में कामयाब होगा।
यह भी पढ़ें: एक बुक जर्नल में मौजूद लेखक अनिल मोहन के उपन्यासों की समीक्षा
******
गन थामे देवराज चौहान दौड़ते-दौड़ते ठिठका। गैलरी सीधी जा रही थी जो कि टीवी रूम में जाकर समाप्त होती थी। और जहाँ इस समय देवराज चौहान खड़ा था, उसके ठीक बाईं तरफ जो गैलरी जा रही थी, आतंक के पहाड़ ने बताया था कि इस तरफ गनमैनों के छोटे-छोटे रेस्टरूम बने हुए हैं। और इस वक्त रात थी। स्पष्ट था कि पूरे नहीं तो आधे से ज्यादा गनमैन इस वक्त आराम कर रहे होंगे। दस-बारह के करीब ही पहाड़ी में कहीं अपनी ड्यूटी दे रहे होंगे।
खोह में होने वाली फायरिंग की आवाज यहाँ तक आ चुकी थी। आवाज मद्धम अवश्य थी परन्तु उसे सुनने में किसी को कोई दिक्कत नहीं आ सकती थी। स्पष्ट था कि आवाज सुनने के बाद गनमैन अपने रेस्टरूमों से बाहर अवश्य निकलेंगे।
देवराज चौहान का ख्याल गलत नहीं था।
गैलरी के भीतर कहीं कदमों की आहटों, बातें करने की ऊँची आवाजें आने लगी थीं। मतलब कि फायरिंग की आवाजें सुनकर उनमें भगदड़ मच गई थी।
देवराज चौहान चेहरे पर खूँखारता के भाव समेटे वहीं गैलरी के किनारे पर दीवार की ओट में हो गया। चंद क्षणों के पश्चात ही उसे जूतों की आवाजें आने लगीं। जो कि लगातार तेज होती जा रही थीं और साफ तौर पर इस बात का अहसास हो रहा था कि गैलरी के भीतर से आने वाले इसी तरफ आ रहे हैं। देवराज चौहान ने उनकी संख्या का अनुमान लगाने की चेष्टा की।
परन्तु जूतों की गुड़मुड़ आवाजों में वह कोई अनुमान नहीं लगा सका। साथ ही आने वाले गनमैन तेज स्वर में बातें कर रहे थे। जाहिर है बातों का मुद्दा फायरिंग की आवाजें हो होगा।
अब देवराज चौहान को इस बात का अहसास हो गया कि वह लोग अब काफी करीब आ गए हैं तो होंठ नीचे खतरनाक मुद्रा में गन थामे एकाएक वह खुली गैलरी के सामने खड़ा हुआ और दाँत पीसते हुए गन का मुँह खोल दिया। लपटों में लिपटे अंगारे, तेजी से आते गनमैनों की तरफ लपके।
गन पर साइलेन्सर था, वरना गन का शोर इस छोटी-सी गैलरी में भूचाल जैसा शोर पैदा कर देता।
देवराज चौहान बहुत खतरनाक अंदाज में गन का इस्तेमाल कर रहा था।
गैलरी में चीख पुकार की आवाजें भर उठीं। किसी को संभलने का मौका नहीं मिला। आने वाले मरकर गिरते तो पीछे वालों की बारी आ जाती। मौत का खूनी सिलसिला जारी रहा।
कई सेकंडों के पश्चात यह सिलसिला रुका।
अब गैलरी में किसी प्रकार की कोई हलचल नहीं थी। बारूद की स्मैल थी। हल्का-सा धुआँ था या फिर गैलरी के पथरीले फर्श पर पड़ी आतंक के पहाड़ के गनमैनों की खून से सनी लाशें।
कई पलों तक देवराज चौहान चेहरे पर मौत के भाव लिए, खून से सनी लाशों को देखता रहा। फिर गन को फौरन इस्तेमाल करने वाले अंदाज में थामे सावधानी से बेहद धीरे-धीरे गैलरी में आगे बढ़ा। इस बात के प्रति वह सावधान था कि कोई ज़िंदा ना हो और गन थामे उसे निशाने पर लेने के लिए मौके की ताक में ना हो।
परंतु ऐसा कुछ नहीं था।
सब मरे पड़े थे।
देवराज चौहान उनके ऊपर पाँव रखकर आगे बढ़ने लगा। लाशों को पार करके वह पुनः पथरीली जमीन पर आ गया। मरने वाले बारह-तेरह के करीब थे और देवराज चौहान को पूरा विश्वास था कि भीतर रेस्टरूमों में कुछ गनमैन और भी होंगे जो आने की तैयारी कर रहे होंगे, परन्तु चीखों की आवाजों को सुनकर वहीं रुक गए होंगे और मामला समझने की चेष्टा कर रहे होंगे। उन सब को भी खत्म करना जरूरी था। वरना वे बाहर आकार, खून खराबा फैला सकते थे।
देवराज चौहान की सोचों के मुताबिक, आंतक के पहाड़ का एक साथी भी गन सहित यहाँ से बाहर निकलकर ढेरों विमान यात्रियों की ज़िंदगियाँ ले सकता था। लेकिन वह अकेला था, हर तरफ ध्यान नहीं रख सकता था। फिर भी उसकी कोशिश थी कि ऐसा कुछ ना हो।
देवराज चौहान खोह में फायरिंग को लेकर निश्चिंत था। उसे पूरा विश्वास था कि जगमोहन ने बिना किसी दिक्कत के, खोह में मौजूद गनमैनों को रास्ते से हटा लिया होगा। साथ में नगीना भी थी। वह बाखूबी जानता था कि जोधासिंह जैसे लड़ाके की बेटी, नगीना जब खुलकर मैदान में उतरती है तो फिर उसे संभाल पाना, उसका मुकाबला कर पाना आसान नहीं।
देवराज चौहान को कुछ पहले ही रेस्टरूम नजर आ गए थे। वह होंठ भींचे सावधानी से आगे बढ़ना लगा। अब आगे बढ़ने की रफ्तार धीमी कर दी थी। पहले छोटा कमरा आया। कमरे में सिर्फ एक सलाखों वाला दरवाजा था जो कि खुला हुआ था। कतार में बने अन्य कमरों के दरवाजे भी अधिकतर खुले हुए थे। देवराज चौहान सावधानी से उन कमरों में झाँकने लगा।
हर कमरे में एक कुर्सी, एक बेड और एक छोटा-सा एक टेबल था।
तीसरा कमरा देखकर देवराज चौहान आगे बढ़ने को हुआ कि ठिठक गया। आँखों में दरिंदगी में लिपटी मौत से भरी चमक उभरी। कमरा खाली था। देवराज चौहान धीरे-धीरे नीचे झुकने लगा। आहिस्ता से उसके घुटने मुड़ने लगे। देवराज चौहान का निशाना बेड के नीचे था। सारा कमरा खाली था तो जाहिर था कि जो मध्यम सी सरसराहट उसके कानों तक पहुँची थी, वह बेड के नीचे से ही आई थी।
देवराज चौहान अभी आधा ही झुका था कि उसे बेड के नीचे से गन की झलक मिली। उसी पल देवराज चौहान ने फायर किया और एक तरफ लुढ़का गया।
*****
पुस्तक: आंतक का पहाड़ | लेखक: अनिल मोहन | पुस्तक लिंक: अमेज़न
अमेज़न में मौजूद अनिल मोहन के अन्य उपन्यास:
आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल बुधवार (17-11-2021) को चर्चा मंच "मौसम के हैं ढंग निराले" (चर्चा अंक-4251) पर भी होगी!
—
सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार करचर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
—
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
'मयंक'
जी चर्चा अंक में मेरी पोस्ट को शामिल करने के लिए हार्दिक आभार।
बेहतरीन प्रस्तुति
जी आभार…