संस्करण विवरण:
फॉर्मेट: ई बुक | प्रकाशक: डेली हंट | शृंखला: सुनील #27 | प्रथम प्रकाशन: 1969
पुस्तक लिंक: किन्डल
प्रथम वाक्य:
“मिस्टर सुनील, मैं एक ब्लैकमेलर हूँ।”- वह आदमी सरल स्वर में बोला।
कहानी
राधेमोहन खुद को एक ब्लैकमेलर कहता था जिसका पेशा रसूख वाले लोगों को ब्लैकमेल करने का था।
एक दिन राधेमोहन की कोठी में डकैती हो गई और वह सभी दस्तावेज जिनके बलबूते पर वह ब्लैकमेलिंग करता था चोरी हो गए।
अब राधेमहन सुनील कुमार चक्रवर्ती के पास आया था। उसका मानना था कि एक वही था जो उन दस्तावेजों के चोरों को ढूंढकर उन्हें वापस प्राप्त करने में मदद कर सकता था।
क्या सचमुच दस्तावेज गायब हुए थे?
क्या सुनील राधेमोहन की मदद करने को तैयार हुआ?
आखिर किसने वह दस्तावेज चुराए थे?
मुख्य किरदार
सुनील कुमार चक्रवर्ती – ब्लास्ट का चीफ रिपोर्टर
चटर्जी – चटर्जी एंड मुखर्जी फर्म का वकील
बंसीलाल – एक डाकू जिसने राधेमोहन के घर डाका डाला था
मंगतराम – एक आदमी जो बंसीलाल को जानता था
राम सिंह – पुलिस सुप्रीटेंडेंट
जॉनी – एक युवक जो कि अपराधी था और मार्शल की गैंग में था
मार्शल (पीटर मौस)- एक अपराधी
कमला (रेखा अग्रवाल) – मार्शल की प्रेमिका
फ्रैंक – फ्रैंक्स कॉफी बार का मालिक जो पहले राजनगर का दादा हुआ करता था
मेरे विचार
डरपोक अपराधी लेखक सुरेन्द्र मोहन पाठक की सुनील शृंखला का सत्ताईसवाँ उपन्यास है। यह उपन्यास प्रथम बार वर्ष 1969 में प्रकाशित हुआ था। उपन्यास का मैंने डेलीहंट द्वारा प्रकाशित संस्करण पढ़ा जो कि वर्ष 2015 में प्रकाशित हुआ था।
डरपोक अपराधी मूलतः एक रोमांचकथा है। उपन्यास का नायक सुनील कुमार चक्रवर्ती है जो कि ‘ब्लास्ट’ नामक अखबार का में पत्रकार है। सुनील का अपने काम के चलते काफी नाम है। उसने काफी पेचीदा मामले सुलझा लिए हैं और इसलिए अक्सर लोग उससे मदद माँगने के लिए मिलने आते रहते हैं। लेकिन इतने लोगों की मदद करने वाले सुनील ने भी कभी ऐसा नहीं सोचा रहा होगा कि कभी कोई अपराधी उससे मिलने आयेगा और उससे मदद माँगेगा । लेकिन कई बार जो व्यक्ति नहीं सोचता है वो हो जाता है।
सुनील कुमार चक्रवर्ती उस वक्त अपने दफ्तर में बैठा हुआ रहता है जब खुद को ब्लैक मेलर कहने वाला व्यक्ति राधेमोहन उससे मदद माँगने आता है। राधेमोहन के घर में चोरी हुई होती है जिसके कारण उसके वो कागज जिनके बल पर वो शहर के कई ताकतवर लोगों को ब्लैकमेल करता था गायब हो जाते हैं। सुनील उस वक्त तो राधेमोहन की मदद करने से मना तो कर देता है लेकिन संयोग ऐसा हो जाता है कि वो एक डकैत से टकरा जाता है और इस मामले में उसका दखल हो ही जाता है। जैसे-जैसे वो आगे बढ़ता है यह मामला डकैती से हत्या का हो जाता है और सुनील किस तरह इस मामले को सुलझाता है यह देखना रोचक रहता है।
अगर एक रहस्य कथा के तौर पर देखें तो मामला उतना पेचीदा नहीं बनाया गया है जितना बन सकता था। मसलन राधेमोहन के घर में जो लोग चोरी करते हैं उनमें से एक का चेहरा उसने देखा होता है और वहीं जब वो सुनील से दुत्कार सुनकर उसके दफ्तर से बाहर निकलता है तो उसे वो आदमी, जिसका चेहरा उसने देखा होता है, सुनील के दफ्तर के बाहर ही मिल जाता है। सुनील, जो कि राधेमोहन के पीछे ही रहता है, को बिना कोई अतिरिक्त मेहनत किए मामले का पहला सुराग मिल जाता है और फिर एक सुराग का पीछा कर उसे दूसरा सुराग मिलता चला जाता है और ऐसे करके वो असल बात तक पहुँच जाता है। इस दौरान उसकी जान पर भी बन आती है और इससे कथानक में रोमांच रहता है। वहीं कथानक में सुनील की जरायम पेशा की दुनिया में जान पहचान का भी पता लगता है। कथानक या तहकीकात भले ही पेचीदा नहीं है लेकिन लेखक ने इस बात का पूरा इंतजाम किया है कि चीजें तेजी से घटित होती रहें जो कि कथानक को बोरिंग नहीं बनने देती हैं।
उपन्यास में मौजूद किरदार कथानक के अनुरूप है। फ्रैंक का किरदार मुझे पसंद आया। पहले की फिल्मों में ऐसे किरदार अक्सर पाए जाते थे जिनमें पूर्व-अपराधी जान पर खेलकर हीरो की मदद करते थे। फ्रैंक भी ऐसा ही किरदार है। वैसे तो इस उपन्यास में रमाकांत के मुलाजिम जोहरी की मदद भी सुनील लेता है लेकिन जरूरी जानकारियाँ इस बार फ्रैंक ही उसे मुहैया करवाता है।
उपन्यास में रमाकांत तो नहीं है लेकिन जोहरी की मदद अपने काम के लिए सुनील जरूर लेता दिखता है वहीं उपन्यास में राम सिंह नामक पुलिस सुप्रीटेंडेंट है जो कि सुनील के शुरुआती उपन्यासों में अक्सर दिखता है।
उपन्यास में मुख्य अपराधी मार्शल और कमला नामक अपराधी युगल है। मुझे ये किरदार भी रोचक लगे। पढ़ते हुए मैं यही सोच रहा था कि अगर इनकी शुरुआती कहानी मिले कि कैसे ये करीब आए और कैसे साथ अपराध को अंजाम देने लगे तो मैं कहानी जरूर जानना चाहूँगा।
उपन्यास की कमियों की बात करूँ तो मुझे लगता है कि इस बार मामले के सबूत सुनील को थाल पर सजाकर दिए गए थे। अगर सुनील को अपना पहला सबूत पाने के लिए थोड़ा ज्यादा हाथ पैर मारने पड़ते तो शायद उपन्यास थोड़ा और बेहतर बन सकता था।
प्रस्तुत संस्करण की बात करूँ तो इसमें मौजूद वर्तनी की कुछ गलतियाँ हैं जो कि कुछ खटकती हैं लेकिन डेलीहंट में मौजूद कुछ ई बुक की तुलना में ये कम ही है तो ठीक ही है।
अंत में यही कहूँगा कि सुनील शृंखला का उपन्यास डरपोक अपराधी एक अच्छी रोमांच कथा है जिसे एक बार पढ़ सकते हैं। अगर आपको पेचीदा रहस्यकथाएँ पसंद है तो शायद यह कथानक पसंद नहीं आए लेकिन अगर तेज रफ्तार रोमांचकथायें पसंद हैं तो उपन्यास जरूर पसंद आएगा।
पुस्तक लिंक: किन्डल
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बहुत सुंदर समीक्षा।
पुस्तक पर लिखा यह लेख आपको पसंद आया यह जानकर अच्छा लगा। आभार।