अगर हिंदी शिकार साहित्य की बात आती है तो पंडित श्रीराम शर्मा का नाम इस श्रेणी में सबसे आगे आएगा। आज एक बुक जर्नल पर पढ़िए उनका यह संस्मरण ‘भिड़ंत’। यह संस्मरण उनकी पुस्तक ‘शिकार ‘में संकलित है।
सायंकाल के चार बजे थे। स्कूल से लौटकर घर में गरम-गरम चाय पी रहा था। छोटी लड़की अपनी भोली और शुद्ध दृष्टि से, पास ही बैठी, खिलौने से खेल रही थी, और अपनी तोतली बोली में कह रही थी – “बाबूजी! इछे भी चाय दे दो, थंद लग रही है।”
मैं कुछ कहना ही चाहता था कि किसी ने बाहर से पुकारा – “मास्टर साहब! मास्टर साहब!! जरा बाहर आइये। एक आदमी आया है । बाघ की खबर लाया है।”
बाघ का नाम सुनकर मैं उछल पड़ा। चाय का प्याला वहीं-का-वहीं रखकर झट से बाहर आया।
देखा, तो बाहर पश्मीने की चादर ओढ़े मेरे शिकारी मित्र, पं लक्ष्मीदत्त थपलियाल खड़े हैं, और उनकी बगल में एक हाड़ का कंकाल बूढ़ा खड़ा है। उसकी मुखाकृति उसकी अंतर्वेदना की द्योतक थी। कष्ट, विपत्ति और समय के उलट फेर ने उसकी गति, तूफान में फँसे जहाज की सी, कर दी थी।
चिंता ने कौतूहल का स्थान लिया, और बातचीत से मालूम हुआ कि बाघ ने टिहरी से कुछ दूर एक ही साथ दो गायों का वध किया है।
एक तो दिनभर की थकावट, दूसरा कुसमय और तिस पर कड़ाके का जाड़ा— तबीयत बाहर निकलने को न करती थी, पर उस बूढ़े की आँखों में एक खिंचाव था, जो हृत्तंत्री के तारों को अपनी ओर खींच रहा था । वह खिंचाव प्रेमका आकर्षण-सा न था, वरन् कम्पायमान, भावी आशंका से भयभीत बलि पशु की आँखों से निकलती हुई मूक याचना का खिंचाव-सा था । उसकी आँखें कह रही थीं, यदि तुम हृदयहीन नहीं हो, तो हमारी रक्षा करो।
वन-बीहड़ सहचरी बंदूक उठाई। कारतूस जेब में डाले, और लक्ष्लीदत्त जी तथा बूढ़े किसान को साथ लेकर जंगल की ओर चला। चला जाता था और मन-ही-मन सोचता जाता था कि संसार में जीवन-संग्राम समस्या बड़ी बिकट है। मनुष्य से लेकर कीड़े-मकोड़े तक उदर-पूर्ति के लिए एक दूसरे के खून के प्यासे होते हैं। यदि कोई मनुष्य किसी पशु को मारता है, तो पापी कहलाता है, पर जब बाज और बाघ चिड़िया और गाय को मारते हैं, तब हम केवल यह कह कर ही चुप हो जाते हैं कि ‘जीवो जीवस्य भोजनम्’। कल्पनाशक्ति अपनी उड़ान में हिंसा के मूलतत्व के विश्लेषण की ओर उड़ रही थी कि बूढ़े ने कंधे पर हाथ रखकर कहा— “मालिक, ऊपर देखो । ठीक उस डाँडे पर मेरी बड़ी गाय मरी पड़ी है, और वहाँ से चार फर्लांग पर पहाड़ की दूसरी ओर दूसरी गाय पड़ी है।”
बूढ़े की बात सुनकर दार्शनिक विचारों ने अपनी राह ली, और बाघ मारने की सूझी। लक्ष्मीदत्त जी और मुझमें चार-पाँच मिनट के लिए परामर्श हुआ। परामर्श क्या था, एक प्रकार की युद्ध कॉनफरेंस सी थी, जिसमें अपने शत्रु की सब चाल का खयाल किया गया।
बाघ ने दो गाएँ मारी थीं। परामर्श से हम लोग इस नतीजे पर नहीं आये थे कि एक ही बाघ ने दो गायों को मारा है। सम्भव है, मारा हो। पहली गाय को मारने के पश्चात् यदि किसी प्रकार वह वहाँ से भगा दिया गया होगा, तो उसने दूसरी गाय को मार्ग में पाकर, पेट की अग्नि शांत करने के लिए, उसको मार डाला हो? और यह भी सम्भव था कि दूसरी गाय को किसी दूसरे बाघ ने मारा हो। मेरी राय यही थी, और लक्ष्मीदत्त जी ने मुछे जनरल मानकर मेरी ही बात ठीक समझी।
दो बाघों की आशंका से हम लोगों ने अपने दल को दो भागों में विभक्त किया। लक्ष्मीदत्त जी तो दूसरी गाय की लाश की ओर चले, जो शाम के डाँडे पर मरी पड़ी हुई गाय से चार फ़र्लांग दूर गाँव की ओर थी। मैं डाँडे की ओर चला और यह निश्चय हुआ कि समय अधिक हो जाने पर लाश पर आज बैठना ठीक नहीं, क्योंकि बैठने के लिए स्थान दिन में चार बजे तक बन जाना चाहिए था, जिससे बाघ को किसी बात का शक न हो। स्मरण रहे, बाघ जंगल का कूटनीतिज्ञ चाणक्य है। छोटी सी हिलती पत्ती से, आसन बदलने से और कोई-कोई तो कहते हैं कि पलक की आवाज तक़ से बाघ अपने शत्रु को समझ लेता है और फिर लाश पर नहीं आता। इसलिए बाघ को मारने के लिये झाड़ी और काँटों से जो स्थान बनाते हैं, वह दिन में चार बजे तक बना लेते हैं, और बनाते समय कुछ आदमी इधर-उधर बैठे रहते हैं कि जिससे बाघ यह समझे के कि किसान घास काट रहे हैं। जब शिकारी छिपकर बैठ जाते हैं, तब और लोग बातें करते चले जाते हैं, जिससे बाघ समझे कि घास काटने वाले चले गये और उसका भोजन बेखटके पड़ा है। ऐसा होने पर भी बाघ एकदम शिकार पर नहीं आता। छिप-छिपकर और रुक-रुककर चारों ओर देख देखकर एक-एक गज बढ़ता है।
लक्ष्मीदत्त जी बूढ़े के साथ छोटी गाय की लाश की ओर चले। हम दोनों को गाँव में मिलना था।
मुझे एक मील के लगभग पहाड़ की चोटी पर पहुँचना था और समय तंग हो रहा था। जंगल में बाघ अपने शिकार पर चार-पाँच बजे ही आ जाता है, इसलिए मैं बड़ा चौकन्ना होकर चल रहा था । पहाड़ की चोटी पर डूबते हुए सूरज की लाल किरण गजब ढा रहीं थीं। जीवन-ज्योति इसी प्रकार अंतिम प्रकाश करके अनंत में लीन हो जाती है। दार्शनिक विचारों को फिर रोका, और जीवन एवं मृत्यु–बाघ के शिकार–का प्रश्न सम्मुख आ गया। रात्रि आगमन के चिन्ह चारों ओर दृष्टि-गोचर हो रहे थे। चिड़ियाँ झाड़ियों में चहचहा रहीं थीं। किसान थके माँदे घर को लौट रहे थे। मैं चढ़ाई पर एक-एक पैर सम्भालकर रख रहा था। कहीं चुपचाप बाघ दिखाई पड़ जाय और बाघ मुझे देख पाये, तो फिर एक बार जीवन की बाजी लगाकर फायर कर दिया जाय। बाघ और शिकारी जब घात लगाकर चलते हैं, तब उनकी आकृति देखने योग्य होती है। मनुष्य तो मनुष्य की श्रेणी से सद्भावनाओं और भावुकता के विचार जगत से गिरकर पशु ही हो जाता है। स्नायु खिंचे हुए, पुट्ठे जकड़े हुए, खूनी आँखें चारों ओर देखती हुई, कान चौकन्ने संसार की सब बातों–बाल-बच्चों, देश और राजनीति को भूलकर शिकारी एक विचित्र प्राणी हो जाता है। कड़ी चढ़ाई पर मैं इसी दशा में चला जाता था। कभी-कभी रुककर इधर-उधर देखता भी जाता था कि कहीं बाघ के दर्शन हो जाएँ तो मनोरथ सिद्ध हो जाय। आधी चढ़ाई चढ़ने के उपरांत मैं एक चट्टानके किनारे रुका और गृद्ध-दृष्टि से डाँडे की चोटी की ओर देखा। एक झाड़ी के आसपास चिड़ियाँ कुछ विचित्र रूपसे चिड़-चिड़ा रही थीं। उधर जो देखा, तो हृदय की धड़कन एकदम बढ़ गयी। सामने तीन सौ गज पर झाड़ी के सहारे बाघ खड़ा हुआ दिग्दर्शन कर रहा था, और चिड़ियाँ अपनी शक्ति-भर उस पर विरोध का प्रदर्शन कर रही थीं—मानो टोड़ी बच्चा हाय हाय की पुकार मचा रही थीं। मेरे पास रायफल न थी — बंदूक थी। रायफल न लाने की मूर्खतापर अपने को हजार बार कोसा, क्योंकि बारह नम्बर बंदूक की मार इतनी दूर नहीं होती।
बाघ थोड़ी देर बाद अपने शिकार की ओर शाही शान से चला। मैंने अपना मार्ग छोड़, कुछ चक्कर काटकर, पहाड़ की चोटी पर पहुँचने की ठानी, जिससे कि बाघ पर बगल से, छिपकर फायर किया जा सके। बाघ मुझसे तीन सौ गज ऊपर था। वह पहाड़ के ऊपर से ही अपने शिकार की ओर जा रहा था। मैंने आगे बढ़कर उसके रास्ते में जाना चाहा।
दोनों को एक ही स्थान पर पहुँचना था। जिस प्रकार दो गलियों से और भिन्न दिशाओं से कोई चलकर गलियों के चौराहे पर मिलते हैं और जब तक आमने-सामने नहीं आ जाते, तब तक एक दूसरे को नहीं देख सकते। ठीक उसी प्रकार मैं इस विचार से मोड़ की ओर चला कि कहीं पीछे से पचास साठ गज पर बाघ दिखाई पड़ा और मौका हुआ, तो उसे मारने की चेष्टा करूँगा। यह केवल अंदाज ही अंदाज था। यह स्वप्न में भी विचारा न था कि अंदाजा इतना ठीक निकलेगा। जूते उतारकर मैं ऊपर को लपका। जूते इसलिए उतार दिए कि तनिक भी आहट न हो। जब पहाड़ की चोटी का मोड़ पचास-साठ गज रह गया, मैं धीरे-धीरे एक-एक पैर गिनकर बंदूक को बगल में दबाये और हाथ बंदूक के घोड़े पर रखे हुए आगे बढ़ा। खयाल था कि इतनी देर में बाघ मोड़ को पार कर गया होगा, और मैं मोड़ पर पहुँचकर उसके मार्ग को काटकर छिपकर बैठ जाऊँगा, पर ज्यों ही मैं मोड़पर शिकारी आसन से पहुँचा, त्यों ही दूसरी ओर से बाघ आ गया। मैंने पहले बाघ को देखा। जंगल में स्वतंत्र रूप से, अभिमान के साथ, मस्त चाल से चलते हुये मैंने बाघ को इतने समीप से पहले कभी न देखा था। झुकी हुई अधखुली आँखे, श्वेत दाँतों से कुछ बाहर निकली हुई लाल जीभ और गजब के पुट्ठे —ऐसे पुट्ठे — जो प्रत्येक युवक के होने चाहिए — साक्षात् यमराज की मूर्ति मेरे सामने आ गयी। हृदय की धड़कन तो कुछ सैकिण्डों के लिये न मालूम कितनी तीव्र हो गयी। बाघ से मुझे सहसा भय नहीं लगता। पर इस आकस्मिक स्वागत के लिए मैं तैयार न था; पीछे हटने का समय न था। ऐसे अवसरों पर मनुष्य बुद्धि से काम नहीं ले सकता। ऐसे अवसर उसे बुद्धिहीन कर देते हैं। सोचने का समय तो घर और सभा समितियों में ही हुआ करता है। ऐसे मौके पर मनुष्य की सहायक पशु-बुद्धि (Instinct) ही होती है और प्रेरक कोई विशेष शक्ति। ज्यों ही बाघ की दृष्टि मुझ पर पड़ी, त्यों ही वह गरजकर पिछले पाँव खड़ा हो गया। अगले पंजों के नाखून निकाल कर पूँछ को इस प्रकार हिलाता हुआ जिस प्रकार बिल्ली चिड़िया की घात में बैठी हुई अपनी पूँछ हिलाती रहती है, मेरे सामने मुँह फाड़ कर खड़ा हो गया। बाघ मेरे इतने समीप था कि मैं बंदूक की नाल से उसे छू सकता था। पहले तो मैं काँपा और यह मालूम होता था कि हृदय नीचे पैरों की ओर भीतर ही भीतर सरक रहा है। इसका कारण आकस्मिक मुठभेड़ थी। बाद को निराश-जन्य साहस अथवा उद्वेग ने मुझे मृत्यु का सामना करने योग्य ऐसे बना दिया, जैसे हरिन अपने बचाव का कोई उपाय न पाकर दौड़ना छोड़कर, मारने पर उतारू हो जाता है। मैंने समझ लिया कि मैं फायर करूँ अथवा न करू — बाघ मुझे मार ही देगा, और मेरे मरने की खबर स्त्री, बच्चों, घरवालों और इष्टिमित्रों को मेरे शरीर की बची खुची हड्डियाँ और मूक बंदूक देगी, और इस जीवन का अंत— जिसका आदर्श निरीह किसानों की सेवा करना बना रखा था—इस प्रकार अकेले पहाड़ और पत्थरों में, जो हजारों वर्ष से ऐसे ही कांड देखते हुए हृदयहीन हो गये हैं, होगा।
उधर बाघ ने भी समझा कि यह दो पैर का प्राणी काली-काली लोहे की वस्तु लिए उसकी जान की खातिर आया है। उसके खून का प्यासा है; उसके मुँह से ग्रास छीने तो छीने पर उसकी जान का गाहक—दो पैर का जीव — इस प्रकार अपमान करके उसे मारने आया है। यह नहीं हो सकता । इस अपमान और धृष्टता का एक ही उत्तर था, और वह यह कि वह अपने शत्रु की सत्ता ही मिटा दे।
इधर मैंने खयाल किया कि यदि फायर किया, तो बाघ गिरते हुए भी एक चोट करेगा, और यदि वह मेरे खून को न भी पी सकेगा, नीचे खड्ड में तो गिरा ही देगा। खड्ड में एक मील नीचे गिरने पर मेरे अंत का पता भी कोई न देगा, इसलिए घोड़ा चढ़ाये खड़ा था कि पहले मैं आक्रमण न करूँगा। यदि बाघ मुझ पर झपटा तो फायर करूँगा और आत्म-रक्षा के लिए जो कुछ बन पड़ेगा करूँगा। बंदी गृह में जब दारा का सिर काटने के लिए औरंगजेब के भेजे हुए आदमी आये, तो दारा के पास शाक काटने का चाकू था। दारा उसी से लड़ा। तलवार के सामने उसकी कुछ न चली, पर दारा वीर की भाँति लड़ता ही रहा। प्रत्येक व्यक्ति का यही कर्त्तव्य होना चाहिए। इस कर्म-विपाक-विमर्श के लिए न तो समय ही था और न उस समय दिमाग ही। इस घटना को लिखने और पढ़ने में देर लगती है, पर यह सब बातें एक मिनट में हुई। कम ही समय लगा होगा, अधिक नहीं।
एक मिनट तक हम दोनों डटे रहे। बाघ गुर्रा रहा था। उसकी आँखों से ज्वाला-सी निकल रही थी। मैंने फायर न किया और न उसने आक्रमण। यह एक मिनट युग के समान था। अंत में बाघ एकदम मुड़कर भागा। ज्यों ही वह मुड़ा, मैंने समझा कि बस मेरे ऊपर आया। बंदूक दाग ही तो दी। जंगल गूँज गया। गोली बाघ के पेट में लगी। मैंने बाघ को गिरते देखा। बंदूक छोड़ मैं नीचे को दौड़ा, पर गिरकर लुढ़कने लगा। जिस बात का डर था, वही हुआ। खड्ड की ओर मैं फुटबाल की भाँति ढरकने लगा । चालीस पचास गज लुढ़का हूँगा कि हृदय दहलाने वाली बाघ की गर्जन कान पर मालूम हुई।
मौत के अनेक बहाने होते हैं और जीवन-रक्षा के अनेक सहारे। यदि जीवन होता है, तो मनुष्य पहाड़ की चोटी में गिरकर बच जाता है, और मरने के लिए सीढ़ियों से गिरना ही काफी है। मुझे बचना था। भगवान को यही मंजूर था कि मैं बचा रहूँ । सामने खड्ड की ओर तेजी के साथ लुढ़कने के मार्ग में एक चीड़ का वृक्ष था। इतना होश हवास तो था ही। आठ-दस गज ऊपर से पेड़ देख लिया। उसी ओर को जाने के लिए हाथ-पैर पीटे और उस पेड़ से आकर टकराया। पीछे से बाघ के घिसटने की सरसराहट हो रही थी। पेड़ से ठोकर खाकर रुका, झटपट ऊपर चढ़ा। इतने ही में विद्युत गति से बाघ भी आ गया और उचककर मुझ पर पंजा मारा। उसके पंजे में मेरा नैकर आया । नैकर फट गया और मैं ऊपर निकल गया। बाघ की कमर टूट गयी थी, इसीलिए वह पेड़ पर न चढ़ सका। पेड़ पर ऊपर बैठकर मैंने दम लिया, और तब चोट और खून की ओर ध्यान गया। पेड़ के नीचे बाघ पड़ा हुआ अंतिम श्वास ले रहा था। मेरे मन में विचारों का सागर उमड़ पड़ा, पर उनको लिखने की आवश्यकता नहीं । रात्रि के नौ बजे तक जाड़े में उस पेड़ पर टँगा रहा। लक्ष्मीदत्त जी ने आठ बजे तक प्रतीक्षा की, और वह भी इसलिए कि शिकारी और भिखारी का कुछ ठिकाना नहीं कि कहाँ जा निकले। छह बजे नहीं, तो सात बजे तक मुझे पहुँचना चाहिए था, इसलिए, चिंतित होकर लालटेन और दो आदमियों को लेकर वे मेरी खोज में निकले और नौ बजे मुझे पेड़ पर टँगा और बाघ को नीचे मरा हुआ पाया। बड़ी कठिनता से उतारा। बंदूक की तलाश प्रातःकाल पर छोड़ी गयी। उस बूढ़े ने बाघ के न मालूम कितनी लातें मारी और उसके बाप-दादों को गालियों से पेट भरकर कोसा।
घर लौटकर थोड़ी बहुत सेंक साक की। गुड़ के साथ दूध पिया । गृहणी ने उस दिन ऐसी सेवा की, मानो मुझे बाघ ने घायल कर दिया हो। अगले दिन लक्ष्मीदत्त जी और मैंने दूसरे बाघ को मारा। लक्ष्मीदत्तजी ने विकट साहस दिखाया था—घायल होकर भी बाघ को मार दिया।
पुस्तक लिंक: शिकार