नीलेश ‘विक्रम’ हिन्दी साहित्य और हिन्दी सिनेमा में विशेष रूचि रखते है और इन विषयो पर अक्सर अपने विचार लिखा करते हैं। । फेसबुक पर हिन्दी सिनेमा पर उनके लिखे पोस्ट जिन्हें वो विक्रम की डायरी से के अंतर्गत प्रकाशित करते हैं काफी चर्चित रहे हैं।
आज एक बुक जर्नल पर पढ़िए लेखक सुरेन्द्र मोहन पाठक के उपन्यास कागज की नाव पर उनकी एक पाठकीय टिप्पणी। बताते चलें ‘कागज की नाव’ लेखक सुरेन्द्र मोहन पाठक का लिखा थ्रिलर उपन्यास है जिसका प्रथम प्रकाशन सन 1987 में हुआ था।
“भेज फिरेला है साले किचू का।”
एक भावुक लड़का लल्लू उर्फ लालचंद हजारे जुर्म की दुनिया का बड़ा नाम बनने की इच्छा से धारावी के कुख्यात और पेशेवर अपराधी एंथोनी फ्रांकोज़ा और दुर्दांत कातिल अब्बास अली के साथ काम करने का फैसला लेता है । अपराध की दुनिया में अपना सिक्का जमा चुके इन दोनो मवालियो की सरपरस्ती में वो अपने लिए भी एक सम्मानजनक स्थान बनाने का सपना देखता है। उसे इस अपराध के दलदल में फँसने से बचाने की हरसंभव कोशिश करता है एक कर्त्तव्यपरायण इंस्पेक्टर यशवंत अष्टकेर -जो अपने बेटे के हत्यारे की तलाश में है। लेकिन वह लल्लू उर्फ लालचंद हजारे को अपने फैसले से डिगा नहीं पाता । उसे बुराई से अच्छाई की तरफ मोड़ने का यशवंत अष्टेकर का प्रयास सफल नहीं हो पाता।
लेकिन ऐसा चमत्कार तब होता है जब लल्लू को खुर्शीद नाम की लड़की से प्रेम होता है ।
खुर्शीद के प्रेम में डूबा लालचंद ,खुर्शीद से एक शरीफ इंसान बनने का वादा करता है ।
क्या लल्लू एक शरीफ इंसान बन पाया ? विलियम का कातिल कौन था ? नट्टू रविराम लल्लू को क्यो खत्म करना चाहता था? शांता और शोभा को लुटे हुए माल का पैसा क्या मिल पाया ? क्या इंस्पेक्टर अष्टकेर एक नाकाम पुलिसिया था जो प्रेम में असफल होने के बाद अब अपने एसीपी का कोपभाजन बनने वाला था ? बैंक डकैतियों का माल कहां छुपा कर रखा गया था ? क्या जोगलेकर बैंक डकैती में शामिल व्यक्ति का सुराग पुलिस को दे पाया ? ऐसे बहुत से प्रश्न है जिनके उत्तर आपको पढ़ने के बाद ही मिल पाएंगे।
पाठक साहब ने अपने लेखकीय में लिखा है कि
“मैंने इस उपन्यास को चरित्र प्रधान बनाने की जगह घटना प्रधान बनाने का और मुंबई के जरायम पेशा वर्ग का अपनी ओर से बड़ा सटीक और प्रमाणिक चित्रण करने का प्रयास किया है ।”
मेरे अनुसार पाठक साहब अपने उद्देश्य में पूर्ण रूप से सफल हुए है । उपन्यास घटना प्रधान है और प्रत्येक घटना उपन्यास के पात्रों के स्वभाव में परिवर्तन करती है। लेकिन यह बात भी सत्य है कि उपन्यास के पात्र पढ़ने वाले के मन पर एक अमिट छाप छोड़ जाते है । अपराधियों की जिंदगी को करीब से दिखाने और उनकी मनोदशा को चित्रित करने में ये उपन्यास सफल रहा है।
लल्लू उर्फ लालचंद हजारे एक भावुक , ईमानदार पात्र है जो अपराध की दुनिया मे अपना नाम बनाने और अपने नाम से जुड़े सीधेपन को मिटाने के लिए अपराध की दुनिया मे कदम रखता है। अपनी प्रेमिका खुर्शीद के साथ सुखद जीवन की कल्पना के कारण उसका अपराध की दुनिया से मोहभंग होता है लेकिन अपने अंदर के सीधेपन को वो तब तक समाप्त कर चुका होता है ।
एक खलनायक कैसा होना चाहिए ? – वो जिससे वितृष्णा हो जाये – और टोनी वाकई ऐसा ही विलेन है । उसके व्यक्तित्व के कई पहलू है लेकिन कमीनेपन में उसका कोई सानी नही।
यशवंत अष्टकेर एक ईमानदार ,कर्तव्य परायण इंस्पेक्टर है – साथ ही भावुक प्रेमी भी । अपने प्यार को प्राप्त न कर पाने के कारण वह अविवाहित रहने का फैसला लेता है । अब्बास अली एक बेरहम हत्यारा है -जो टोनी का दायाँ हाथ है और कुटिलता से अपना काम साधने मे उसे महारत हासिल है ।
मोनिका, खुर्शीद और मार्था के रूप में इस कथानक में तीन सशक्त महिला पात्र है – जो प्रेम की नई परिभाषाओं को पाठको के समक्ष लाते है ।
एक शानदार उपन्यास ,जिसकी कहानी पहले पन्ने से ही अपने मोहपाश में बांध लेती है । बहुत गुंथी हुई दिलचस्प रचना , बेहतरीन डायलॉग्स और अपने मोरल ऑफ द स्टोरी के कारण ये उपन्यास मुझे बहुत पसंद है । आप भी पढ़िए । अगर पढ़ चुके तो एक बार और ।
“अपराध कागज की नाव की तरह होता है जो बहुत देर तक बहुत दूर तक नहीं चल सकती” — यशवंत अष्टेकर, इंस्पेक्टर बम्बई पुलिस
किताब: कागज की नाव | लेखक: सुरेन्द्र मोहन पाठक | किताब लिंक: अमेज़न
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ये मेरा पसंदीदा उपन्यास है। कहने की बात नहीं कि उपन्यास का बहुत ही बढ़िया खाका खींचा गया है। भाई नीलेश जी को धन्यवाद ….एक बार फिर पढ़ने की जिज्ञासा हो गई है
पढ़ कर अपनी राय भी दीजिएगा….
जी नमस्ते ,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार(३०-१०-२०२१) को
'मन: स्थिति'(चर्चा अंक-४२३२) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
पोस्ट को चर्चा अंक में स्थान देने के लिए हार्दिक आभार मैम….
पुस्तक के प्रति रुचि बढ़ाती शानदार विस्तृत समीक्षा।
सुंदर समीक्षा के लिए हृदय से बधाई।
जी आभार मैम।