संस्करण विवरण
फॉर्मैट: ई-बुक | प्लैटफॉर्म: डेलीहंट | प्रथम प्रकाशन: 1991
कहानी
प्रदीप मेहरा की प्रदीप प्रिंटर्स नाम से दुकान थी। उसे जो भी देखता उसकी शराफत के मुरीद हो जाता था। इसमें काफी हद तक उसके चेहरे मोहरे का भी योगदान था जिसके कारण वह मक्खी मारने के काबिल भी न लगता था।
लेकिन किसी को भी यह भनक नहीं थी कि वह एक खून करके बच चुका था और जाली नोट प्रिन्ट करता था। शायद इसी ने उसे वो आत्मविश्वास दिया था कि वह मौका पड़ने पर दो और खून करने से न हिचकिचाया।
आखिर प्रदीप मेहरा ने पहला खून किसका किया था?
उसे बाद के खून करने की जरूरत क्यों आन पड़ी?
क्या उसे उसके गुनाहों की सजा मिली या वह पिछली बार की तरह ही बच गया?
किरदार
वर्षा सक्सेना – 23 वर्षीय लड़की जो कि प्रदीप प्रिंटर्स नाम की जगह कार्य करती थी
प्रदीप मेहरा – प्रदीप प्रिंटर्स का मालिक
भूपेंद्र जुनेजा – प्रिंटर्स का ग्राहक
शेखर सक्सेना – वर्षा का पति जिसकी शादी के एक साल बाद ही कैंसर से मृत्यु हो गयी है
किशन भगत – प्रदीप मेहरा का दोस्त और दिल्ली पुलिस में इंस्पेक्टर
विवेक जैन – मेरठ में वर्षा का पड़ोसी था और उससे उम्र में बढ़ा था
प्रीति मेहरा – प्रदीप मेहरा की पत्नी
मोनिका बारबोसा – विवेक की प्रेमिका
निर्मल पसारी – सिंडिकेट बैंक का अकाउंटेंट
पुष्पा देवी – प्रदीप मेहरा की पड़ोसी
प्रदीप मेहरा – प्रदीप प्रिंटर्स का मालिक
भूपेंद्र जुनेजा – प्रिंटर्स का ग्राहक
शेखर सक्सेना – वर्षा का पति जिसकी शादी के एक साल बाद ही कैंसर से मृत्यु हो गयी है
किशन भगत – प्रदीप मेहरा का दोस्त और दिल्ली पुलिस में इंस्पेक्टर
विवेक जैन – मेरठ में वर्षा का पड़ोसी था और उससे उम्र में बढ़ा था
प्रीति मेहरा – प्रदीप मेहरा की पत्नी
मोनिका बारबोसा – विवेक की प्रेमिका
निर्मल पसारी – सिंडिकेट बैंक का अकाउंटेंट
पुष्पा देवी – प्रदीप मेहरा की पड़ोसी
मेरे विचार
गुनाह का कर्ज सुरेन्द्र मोहन पाठक का लिखा थ्रिलर उपन्यास है जो कि सर्वप्रथम 1991 में प्रकाशित हुआ था। यह एक अपराध कथा है जिसके केंद्र में एक ऐसा व्यक्ति है जिसे लगता था कि वह किस्मत का मारा था और किस्मत ने उसकी हालत मोरी के कीड़े जैसी कर दी थी लेकिन उसने अपनी किस्मत से दो-दो हाथ करने की ठान ली थी। उसने अपने हुनर का इस तरह से इस्तेमाल करने की सोची थी जो कि गैरकानूनी था। लेकिन वह कहते हैं न कि गुनाह की उम्र लंबी नहीं होती है। और ऐसा ही उस व्यक्ति के साथ हुआ। उसकी जरा सी चूक ने घटनाओ का एक ऐसा चक्र शुरू कर दिया जिससे बचने के लिए उसने काफी हाथ पैर मारने की कोशिश की लेकिन वह बचने के बजाए उसमें और फँसता चला गया। यह आदमी था प्रदीप मेहरा जो कि प्रदीप प्रिंटर्स नाम की फर्म का मालिक था।
कहानी की शुरुआत एक साधारण दिन से होती है जब कि प्रदीप अपने दफ्तर से निकलता है। यहाँ आपको पहले ही बताया दिया जाता है कि वह आम दिन प्रदीप के लिए खास होने वाला है क्योंकि उस दिन प्रदीप, जो कि एक खून करके बच चुका है, वह अब दूसरे खून करने की ठानेगा। प्रदीप किसका खून करके बच गया है? वह किसका खून करेगा? यह ऐसे प्रश्न हैं जो कि आपको उपन्यास पढ़ते चले जाने के लिए विवश कर देते हैं।
प्रेस का मालिक प्रदीप मेहरा वो निहायत जरूरी काम उसे सौंपकर खुद वहाँ से चला गया था। वो नहीं जानता था आइन्दा कुछ ही मिनटों में उसकी मलाजीम वर्षा सक्सेना के किये वहाँ कुछ ऐसा होने वाला था जिसकी वजह से एक बार फिर उसे अपने हाथ कहूँ से रंगने पड़ने थे।
यह उपन्यास जैसे जैसे आगे बढ़ता है वैसे वैसे आपको बाँध कर रख देता है। आपको यह तो पता लगता है कि मेहरा किसका कत्ल करके बचा था साथ ही साथ ही यह पता लगता है कि अब उसे गुनाह करने की जरूरत क्यों पड़ी थी। कई बार आपको लगता भी है कि पट्ठे ने इस बार भी अपने गुनाह के सारे सबूत मिटा दिये हैं और वह अब बच जाएगा लेकिन थोड़ा आगे जाने पर आपका ख्याल गलत साबित हो जाता है और आप कहानी का अंत जानने के लिए इसे पढ़ते चले जाते हो।
उपन्यास चार अध्यायों में विभाजित है और इन्हें अलग अलग शीर्षक दिया है जिसका की कहानी में महत्वपूर्ण भूमिका होती है। पहला अध्याय का शीर्षक वर्षा सक्सेना है, दूसरे का विवेक जैन है, तीसरे का मोनिका बारबोसा है और चौथे का वर्षा सक्सेना उर्फ वर्षा श्रीवास्तव है। इन चार अध्यायों में आपको वर्षा, विवेक जैन, मोनिका, प्रदीप और किशन भगत में इतनी जानकारी मिल जाती है कि आपका जुड़ाव इन किरदारों के साथ हो जाता है।
विवेक जैन और मोनिका के साथ जो होता है उससे आपको बरबस ही हैरत इलाहबादी की गजल का पहला मिसरा ‘आगाह अपनी मौत से कोई बशर नहीं, सामान सौ बरस का है पल की ख़बर नहीं ‘ याद आ जाता है। उनके साथ जो होता है वह दुख देता है। अच्छी बात यह है कि लेखक ने उस हिस्से को ज्यादा विस्तृत तौर से नहीं लिखा है।
इस घटना से एक और चीज पाठक के मन में होती है। प्रदीप के तरफ उनके लहजे में बदलाव भी आ जाता है। इससे पहले थोड़ी ही सही लेकिन एक तरह की सहानुभूति पाठक के मन में प्रदीप के लिए होती है। आप चाहते हो कि प्रदीप से जो गलती हुई है वह किसी तरह बच निकले लेकिन इस घटना के बाद पाठक के रूप में कहीं न कहीं प्रदीप को आप अपने गुनाह की सजा पाते हुए भी देखना चाहते हो।
उपन्यास के किरदारों की बात करूँ तो सभी किरदार कहानी के अनुरूप हैं और वह यथार्थ के काफी नजदीक प्रतीत होते हैं। वर्षा सक्सेना एक जवान विधवा है और उसके विषय में बताते हुए लेखक ने बाखूबी दर्शाया है कि ऐसी युवती को किस तरह से समाज देखता है। मोनिका और विवेक के बीच का प्यार आपको उनके साथ जोड़ देता है और आपको उनके लिए दुखी कर देता है।
उपन्यास की कमी की बात करूँ तो उपन्यास की सबसे बड़ी कमी इसका अंत है। उपन्यास का अंत इस तरह से किया गया है जो कि जल्दबाजी में किया गया लगता है। एक किरदार है जिसे मेहरा के विषय में जब कुछ पता होता है। यह कैसे और क्यों पता होता है यह दर्शाया नहीं गया है। ऐसा लगता है कि जल्दबाजी में पृष्ठ संख्या पूरी होने के चलते कहानी को खत्म कर दिया गया है। मुझे ये लगता है कि उपन्यास का अंत बेहतर हो सकता था।
वहीं कहानी में एक रहस्य यह भी रहता है कि प्रदीप की पत्नी की मौत वाले दिन उसके साथ कौन था लेकिन वह चीज भी एक किरदार के डील डौल और उसके एक आदत के बयान करने के चलते आपको पता लग ही जाती है। हाँ, उस वक्त लेखक डील डौल का जिक्र न कर या आदत का जिक्र न करते तो शायद बेहतर होता।
अंत में यही कहूँगा कि भले ही गुनाह का कर्ज का अंत थोड़ा कमजोर है लेकिन फिर भी यह एक बार पढ़े जाने लायक है। क्राइम नेवर पेज का ये एक रोमांचक उदाहरण है।
उपन्यास के कुछ अंश जो मुझे पसंद आये
आज की दुनिया की सारी काबिलियत दौलत थी। दौलत हजार नाकाबलियतों पर पर्दा डालती थी तो लाख काबलियतों से दौलतमंद को नवाजती थी। पैसे वाला आदमी खामखाह ही दुनिया को काबिल लगने लगता था। कोई एक इकलौती आइटम मोरी के कीड़े की भी औकात बना सकती थी तो वो दौलत थी।
तो फिर लंबी छलाँग लगाने की क्या जरूरत थी? उसमें तो मुँह के बल गिरने का खतरा होता था। छोटे-छोटे कदम उठाने वाले के साथ तो ऐसा कोई हादसा नहीं होता था। छोटा कदम वैसे भी सोच-समझकर उठाया जाता था और ऐसा कदम गलत उठ जाने पर उसे वापिस ले लेना भी आसान होता था।
शादी नहीं हुई होती तो औरत कहती है कि उसे एक अदद अच्छे पति के अलावा कुछ नहीं चाहिए लेकिन जब वो पति उसे मिल जाता है तो उसे सब कुछ चाहिये।सिवाय पति के।बाद में वो ही साला फालतू चीजों के गोदाम में रखने लायक डोरमेंट आइटम बन जाता है।
आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल बुधवार (12-01-2022) को चर्चा मंच "सन्त विवेकानन्द" जन्म दिवस पर विशेष (चर्चा अंक-4307) पर भी होगी!
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सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार कर चर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
चर्चाअंक में पोस्ट को शामिल करने हेतु हार्दिक आभार…