तू है भ्रष्टाचार की माँ – रीमा भारती

रेटिंग : 3/5
किताब 21 जनवरी 2018 से 25 जनवरी 2018 के बीच में पढ़ा गया

संस्करण विवरण:
फॉर्मेट : पेपरबैक
पृष्ठ संख्या : 271
प्रकाशक : धीरज पॉकेट बुक्स
श्रृंखला : रीमा भारती सीरीज

पहला वाक्य:
अपना पैग समाप्त करके रीमा भारती से खाली गिलास मेज पर रखा और वेटर की तलाश में हॉल में चहुँ ओर नज़रें दौड़ाईं तो उसकी निगाहें हाल के दरवाजे की तरफ ठिठक गईं।

कोरन ड्यूक कभी अमेरिकी पुलिस विभाग में कैप्टेन हुआ करता था। लेकिन उसके सम्बन्ध नशे के कारोबार में लिप्त लोगों के साथ थे। इसी कारण उसे नौकरी से हाथ धोना पड़ा और अपनी जान बचाने के लिए अमेरिकी कैद से भागकर भारत आना पड़ा। अब वो भारत में नशे का कारोबार को बढ़ाना चाहता था। वहीं आईएस सी की नंबर वन एजेंट को ये मिशन मिला था कि उसे कोरन ड्यूक को पकड़ना था।

शिप्रा मन्तोडकर आईएससी के अकाउंट विभाग में कार्यरत थीं। उनकी दुनिया तब उजड़ गई जब उनका एक लौता बेटा अंकुर कॉलेज के पुस्तकालय में ड्रग की ओवरडोज से मरा पाया गया। इसने न केवल उन्हें तोड़ दिया बल्कि लोगों ने उनकी दी  परवरिश के ऊपर ही सवाल उठा दिया। शिप्रा की माने तो अंकुर ड्रग का आदि नहीं था और उसकी मौत किसी और कारण से हुई थी। पुलिस ने काम के नामपर केवल खानापूर्ति  ही की थी। शिप्रा चाहती थी कि रीमा इस केस को एक बार देखे और अंकुर के कातिलों को ढूँढ कर उनको उनके किये की सजा दिलवा सके।

रीमा ने एक दुखी माँ को इंसाफ दिलाने का फैसला कर दिया था। क्या अंकुर सचमुच निर्दोष था और उसकी हत्या हुई थी? अगर ऐसा था तो ऐसा क्यों हुआ था? वही कोरन ड्यूक भारत में आकर किस योजना पर काम कर रहा था? क्या रीमा उसे पकड़ पाई? भारत में कौन से लोग उसके साथ थे? और उन तक पहुँचने के लिए रीमा को कितने पापड़ बेलने पड़े?

सवाल तो काफी हैं? और जवाब आपको केवल इस उपन्यास को पढ़कर ही प्राप्त होंगे।

मुख्य किरदार : 
रीमा भारती – इंडियन सीक्रेट कोर (आई एस सी) की सबसे होनहार एजेंट
खुराना – रीमा का चीफ
शिप्रा मातोंडकर – आईएससी के अकाउंट डिपार्टमेंट में काम करने वाली एक महिला
अंकुर मातोंडकर – शिप्रा का जवान बेटा जिसकी मृत्यु ड्रग के ओवर डोज़ से हुई थी
कोरन ड्यूक – अमेरिकी नागरिक जो पहले पुलिस कैप्टेन हुआ करता था लेकिन भ्रष्ट होने के नाते उधर से भागकर भारत आ गया था
प्रकाश भार्गव – डोल्फिन क्लब का मेनेजर
रितिका भार्गव – प्रकाश की बीवी
सोलर – एक ड्रग लार्ड जो बाहर से अपने नशे के व्यपार को भारत में चलाता था
राजेश लुथारिया – एक जिम मालिक
मिस्टर एक्स – एक नया ड्रग लार्ड जो सोलर के सामने अपना धंधा शुरू करना चाहता था
विनोद जायसवाल -अंकुर के कॉलेज का  छात्र नेता
इंस्पेक्टर रणविजय सिंह – कोरन ड्यूक जिस हत्याकांड में शामिल था उसकी तहकीकात ये इंस्पेक्टर ही कर रहा था
इनके इलावा काफी छोटे मोटे किरदार थे जो थोड़े वक्त के लिए आये थे।

रीमा  भारती एक किरदार के रूप में मुझे पसंद आती है और इसलिए गाहे बगाहे मैंने उसके उपन्यास पढ़ता ही रहता हूँ। अक्सर जब रेलवे स्टेशन जाना होता है तो एक बार बुक स्टाल का चक्कर मारकर देख लेता हूँ। अगर कुछ ऐसा मिलता है जो मेरे पास नहीं है तो खरीद भी लेता हूँ। ऐसा इसलिए करना पड़ता है क्योंकि ऑनलाइन विक्रेताओं के पास रीमा भारती के उपन्यास मुश्किल ही मिलते हैं। अब इस उपन्यास के विषय में ही देख लें तो ये उपन्यास मैंने अपनी माउंट आबू यात्रा के दौरान खरीदा था। माउंट आबू जाने के लिए जब हमे आबू रोड की टिकेट नहीं मिली थी तो हमने उदयपुर होते हुए उधर जाने का फैसला किया था। बहरहाल ये उस यात्रा का वृत्तांत नहीं  है। अगर आप इंटरेस्टेड हैं तो इस लिंक पर क्लिक करके उस वृत्तांत की दूसरी कड़ी जिसमे उपन्यास खरीदने का जिक्र है पढ़ सकते हैं। आप सोच रहे होंगे कि मैंने ये सब क्यों लिखा है। इसके पीछे दो कारण हैं। एक तो ये कि ये उपन्यास मेरे जेहन में हमेशा उस यात्रा की याद ताजे कर देता है। दुकानों से खरीदे उपन्यासों की यही खासियत होती है कि उनसे कुछ यादें जुडी होती हैं तो मैं उन यादों को आपके समक्ष करने का लोभ संवरण नहीं कर पाया। दूसरा कारण ये है कि रीमा भारती के उपन्यासों के विषय में लिखी गई पोस्ट में अक्सर ये प्रश्न पाठक उठाते है कि वो उपन्यास उन्हें कैसे प्राप्त हो सकता है। तो ऊपर लिखी बात से उन्हें आईडिया हो जायेगा कि मुझे कैसे मिला और उस हिसाब से वो खुद ही निर्णय ले सकते हैं कि वो इस तरह से उपन्यास खरीदना चाहते हैं या नहीं।

खैर, अब उपन्यास पे आते हैं। अभी तक मैंने रीमा भारती से जुड़े जितने उपन्यास पढ़े हैं उनमे से दो ही प्रकाशक हैं जिन्होंने उन उपन्यासों को छापा है। एक तो धीरज पॉकेट बुक्स और दूसरा रवि पॉकेट बुक्स। और इस मामले में मेरा व्यक्तिगत अनुभव ये रहा है कि धीरज से निकलने वाले उपन्यास कहानी के मामले में ज्यादा बेहतर होते हैं। इसलिए जब कहीं मुझे रीमा के धीरज से प्रकाशित उपन्यास दिखते  हैं तो मैं अक्सर उन्हें खरीद कर रख लेता हूँ। इस उपन्यास को भी सच पूछो तो प्रकाशक के नाम देखकर ही खरीदा था और शायद मेरा फैसला सही था क्योंकि उपन्यास मुझे अपेक्षा से बेहतर लगा और मेरा पूरा मनोरंजन हुआ।

रीमा भारती के इस उपन्यास में रीमा के पास शुरुआत में दो केस हैं जिनकी तहकीकात उसे करनी होती है। पहला केस वो अपने महिला सहकर्मी की मदद करने के लिए लेती है और दूसरा केस उसे उसके चीफ खुराना देते हैं। दोनों ही केस की तफ्तीश रोमांच और एक्शन से भरपूर है। कहानी में काफी ट्विस्ट हैं। इसके इलावा रीमा को पूरे उपन्यास के दौरान काफी दौड़ भाग करनी पड़ती है जो उपन्यास में रोमांच बरकरार रखते हैं। यानी उपन्यास मुझे अच्छा लगा। रीमा पूरे उपन्यास में अपने पूरे जलाल पर है। बहुत लोगो की ठुकाई करती है जिसे पढने में मजा आया। इसे पढ़कर सोच रहा था कि काश भारत की हर महिला ही रीमा जितनी सशक्त होती तो उन पर हो रहे अपराध से कम हो सकते थे। बाकी किरदार कहानी के अनुरूप एक दम बढ़िया हैं। उनके कई रूप हैं और कई तो रीमा को गच्चा देने में भी कामयाब हो जाते हैं। रीमा सफलता तो प्राप्त करती है लेकिन उसकी इसके लिए कई बार नाको चने चबाने पड़ते हैं और इससे पाठक का भरपूर मनोरंजन होता है क्योंकि रोमांच बरकरार रहता है। उपन्यास में एक रहस्यात्मक पहलू मिस्टर एक्स भी है जिसकी पहचान उपन्यास के अंत तक रहस्य रहती है। पूरे उपन्यास के दौरान मैं यही सोचता रहा कि आखिर ये कौन हो सकता है? हाँ, इतना तो मुझे अंदाजा था कि उपन्यास में दर्शाये किरदारों के बीच में से ही कोई एक होगा। लेकिन कौन ये नहीं पता और अंत में वो मेरे लिए सरप्राइज ही था।

उपन्यास की कमियों की यदि बात करूँ तो इक्का दुक्का ही हैं। जैसे उपन्यास में कई बार दोहराव है। जो कि साफ़ पता चलता है कि पृष्ठों की संख्या बढ़ाने के लिए किया गया है। पृष्ठ 41-42 में रीमा को जो दो केस मिले हैं जिनसे पाठक पहले से ही अवगत है उसी का दोहराव है, ऐसे ही पृष्ठ 155 में भी दोहराव है। ये बड़े हिस्से हैं जो मुझे याद हैं लेकिन बीच में कई बार छोटी मोटी जगह ऐसे हुआ है। जब लेखक और प्रकाशक ऐसे पृष्ठ बढाने के लिए करते हैं जो वो कहानी की कसावट खो देते हैं जो कि कहानी की गुणवत्ता घटा देता है। अगर पृष्ठ बढाने ही हैं तो कई काम किये जा सकते हैं। आने वाले उपन्यास का कुछ हिस्सा दिया जा सकता है। एक छोटी मोटी लघुकथा प्रकाशित की जा सकती है। इससे न केवल पाठक ज्यादा इंगेज होगा बल्कि उसे आने वाले प्रोजेक्ट्स के प्रति ज्यादा उत्साहित भी होगा।

दोहराव के इलावा दो तीन बातें मुझे थोड़ी सी खटकी थी।

पहला ये कि उपन्यास में रीमा के पास एक आध जो मुख्य क्लू आये थे वो उसकी तहकीकात से न आकर संयोगवश आये थे। जैसे उपन्यास में रीमा को एक व्यक्ति की तलाश रहती है जिसकी छः उँगलियाँ थीं। जब उसे वो मिलता है तो कोई उसका क़त्ल करवा देता है।  अब रीमा के पास कुछ नहीं बचा होता कि वो आगे कि तहकीकात कैसे करे। ऐसे में ऐसी घटना होती है जिसमे उस छः उँगलियों वाले व्यक्ति की हत्या करने वाले और रीमा संयोगवश एक ही जगह में होते हैं। जहाँ वो अपराध करते हैं रीमा वहीं होती है और इस बात से कहानी आगे बढती है। अब मुंबई जैसे शहर में ऐसे संयोग मुझे नहीं पचे। कहानी में संयोगवश कुछ होना मेरे हिसाब से कमजोर प्लाट की निशानी होता है।

ऐसा ही संयोग दूसरे मामले में होता है। उधर रीमा किसी अज्ञात भावना के चलते कहीं पहुँचती है और उधर कोई व्यक्ति जिसका कहानी से कोई लेना देना नहीं था उसे एक महत्वपूर्ण जानकारी देता है जो कहानी को आगे बढाने के लिए मह्त्वपूर्ण थी। ये आदमी का अचानक से आना मुझे कुछ जचा नहीं। फिर जब रीमा उससे जानकारी लेकर आगे जाती है तो लेखक ने कुछ ऐसा लिखा था:


वो नीचे उतरा तो रीमा ने कार आगे बढ़ाई। 
उस समय उसकी आँखों में ठीक वैसे ही चमक थी जैसे कि शिकारी की आँखों में तब नजर आती है जब उसे इस बात की लगभग गारंटी होती है कि अब तो शिकार उसके बिछाये जाल में फंसकर ही रहेगा।
(पृष्ठ 147)

ये वाक्य पढ़कर मेरे मन में ये बात कौंधी थी कि ऊपर वाला मामला किसी संयोगवश नहीं बल्कि बड़ी साजिश के तहत हुआ है। एक आशा भी बंधी थी कि आगे जाकर खुलासा होगा लेकिन फिर न वो आदमी दोबारा नज़र आया और न ही इस बिंदु पर आगे कुछ प्रकाश डला कि रीमा को इसने क्यों और किसके कहने पर जानकारी दी। फिर इसे पता कैसे चला कि रीमा उधर पहुंचेगी क्योंकि रीमा तो उधर अजनान भावना से प्रेरित होकर पहुँची थी।


कार के रुकने पर वो सोचने लगी कि उसने वहाँ कार क्यों रोकी?
कोई वजह नहीं सूझी तो झुँझलाकर कार स्टार्ट करते हुये बड़बड़ाई -“पता नहीं दिमाग के कुत्ते क्यों फेल हो गये जो यहाँ रोक बैठी।”
(पृष्ठ 241)

ऊपर लिखे दो संयोग के इलावा उपन्यास के शीर्षक का कहानी से क्या सम्बन्ध था ये मेरी समझ नहीं आया। कहानी नशे के कारोबार के ऊपर है और भ्रष्टाचार तो इसमें है ही नहीं। सारे पुलिस वाले भी ईमानदार ही हैं। हाँ एक जगह रीमा डायलॉग मारते हुए ‘जुर्म की माँ’ इस्तेमाल करती है। अक्सर हिंदी पल्प में शीर्षक में इस्तेमाल वाक्यांशों को कहानी में इस्तेमाल करके उसके औचित्य को सही ठहराने की कोशिश करते हैं लेकिन इधर ऐसा नहीं था। अगर जुर्म की माँ भी उपन्यास का नाम होता तो वो भी इस एक डायलॉग के चलते फिट बैठ सकता था लेकिन अभी तो ये शीर्षक बेतुका ही लग रहा है।

खैर, ऊपर लिखी दो तीन बातें ही उपन्यास में खटकी थी। अक्सर रीमा भारती के उपन्यासों से मैं ज्यादा अपेक्षा नहीं करता हूँ लेकिन इस बार उन्होंने अपेक्षा से ऊपर डिलीवर किया है। कहानी में रोमांच बरकरार रखा है और प्लाट होल्स काफी कम हैं।  ये ही इसकी उपलब्धि है।

अगर आप रीमा भारती के फेन हैं तो उपन्यास का पसंद आना इस बात पर निर्भर करेगा कि आप किस तरह के फेन हैं। अगर रीमा भारती के उपन्यास रतिक्रिया के विस्तृत विवरण के लिए पढ़ना पसंद करते हैं तो  निराश होंगे। इस उपन्यास में दूर दूर तक ऐसा कुछ नहीं है। वहीं अगर रोमांच और एक्शन के लिए उपन्यास रीमा भारती के उपन्यास पढ़ते हैं तो आपको शायद ये पसंद आये।

अगर आपने इस उपन्यास को पढ़ा है तो आपको ये कैसा लगा?  कमेंट में जरूर बताईयेगा। उपन्यास मुझे किधर मिला ये तो ऊपर बता ही दिया है। आप पढ़ना चाहते हैं तो आपको भी आस पास के रेलवे स्टेशन के बुक स्टाल्स में देखना पड़ेगा। शायद आपको मिल ही जाये।

मैंने रीमा भारती श्रृंखला के और उपन्यास भी पढ़े हैं। उनके विषय में मेरी राय निम्न लिंक पर जाकर पढ़ सकते हैं:
रीमा भारती सीरीज


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About विकास नैनवाल 'अंजान'

विकास नैनवाल को अलग अलग तरह के विषयों पर लिखना पसंद है। साहित्य में गहरी रूचि है। एक बुक जर्नल नाम से एक वेब पत्रिका और दुईबात नाम से वह अपनी व्यक्तिगत वेबसाईट का संचालन भी करते हैं।

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2 Comments on “तू है भ्रष्टाचार की माँ – रीमा भारती”

  1. एक समय रीमा भारती के उपन्यास काफी प्रचलित थे पर अब नहीं । कहानी के नाम परबस एक्शन होता हैं।
    हालांकि कुछ एक उपन्यास अच्छे कहे जा सकते हैं।
    हिंदी पल्प में सदाबहार उपन्यासों की बहुत कमी है।

    1. आपने सही कहा। मेरे पास पहले से खरीदे हुए तीन चार उपन्यास पड़े हैं। अभी वही पढने बाकी हैं। बाकी सदाबाहर उपन्यासों की कमी तो रहती ही है।

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