उपन्यास अक्टूबर 19 ,2017 से अक्टूबर 21,2017 के बीच पढ़ा गया
संस्करण विवरण :
फॉरमेट : पेपरबैक
पृष्ठ संख्या : 320
प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स
श्रृंखला : सुधीर कोहली #22
पहला वाक्य:
मैं अपने नेहरू प्लेस स्थित ऑफिस में मौजूद था और सोच रहा था कि मेज का दाईं ओर का नीचे का दराज अभी खोलूँ या थोड़ी देर बार खोलूँ।
सार्थक बराल के ऊपर अपनी 21 वर्षीय पत्नी श्यामला के कत्ल का इल्जाम था। लेकिन आम धारणा थी कि दिल्ली पुलिस ने उसे अपनी कामचोरी के चलते इस केस में फंसाया था। सार्थक को छुड़ाने के लिए सार्थक को इंसाफ दो नाम की मुहिम भी चलाई जा रही थी।
लेकिन चूँकि कानून सबूत माँगता है, ऐसे में सार्थक के वकील विवेक महाजन को पता था कि सार्थक को अगर छुड़ाना था तो उन्हें श्यामला के कातिल को सामने लाना था।
मुख्य किरदार :
रजनी शर्मा – सुधीर की सेक्रेटरी
विवेक महाजन – एडवोकेट सेशन एंड हाई कोर्ट
सार्थक बराल – व्यक्ति जिसका केस लेकर विवेक सुधीर के पास आया था
श्यामला – सार्थक की 21 साला बीवी जो अपने निवास में मरी पाई गई थी।
अमरनाथ परमार – श्यामला का पिता। वो एक बिल्डर था जिसे लगता था कि उसकी दौलत के खातिर सार्थक ने उसकी बेटी को फाँसा था।
शिखर बराल – सार्थक का भाई जो उसके साथ था जब सार्थक ने अपनी बीवी की लाश पाई थी
कमला ओसवाल – श्यामला की पड़ोसन जिसने सार्थक और श्यामला के झगड़े को सुना था। उसके ही डस्टबिन से अलायकत्ल बरामद हुआ था।
दर्शन सक्सेना – सार्थक के खिलाफ एक और गवाह जिसने उसे पड़ोसन कमला के डस्टबिन में कुछ फेंकते देखा था
आलोक निगम – अमरनाथ परमार का साला। और साउथ दिल्ली के रूलिंग पार्टी का सांसद
सुनीता – अमरनाथ की स्वर्गवासी पत्नी जिसकी याद में शतरंज का टूर्नामेंट होता था
दीप्ति निगम – आलोक निगम की बहन और अमरनाथ की दूसरी पत्नी
माधव धीमरे – रोजवुड क्लब के मैनेजर जिसकीं सार्थक इसे अदावत थी
शरद परमार – अमरनाथ का बड़ा बेटा
शेफाली परमार – अमरनाथ की बेटी
अहिल्या बराल – सार्थक की माँ
रॉक डिसिल्वा – सैनिक फार्म के रॉक्स बार का मालिक
पवन सेठी – रियल एस्टेट के धंधे से जुड़ा व्यक्ति जो कि विवेक महाजन का जान पहचानवाला था
पाठक सर के उपन्यास की खास बात उपन्यास का कथानक ही नहीं बल्कि उसमे छपा हुआ लेखकीय भी होता है। ये भी एक बात है जिसके चलते मुझे ई बुक्स इतने पसंद नहीं आते क्योंकि उनसे लेखकीय गायब रहता है। खैर, इस उपन्यास में लगभग 18 पृष्ठों का लेखकीय है जिसमे सबसे पहले पाठक साहब ने वेद जी को श्रद्धांजलि अर्पित की है। उसके पश्चात उन्होंने कातिल कौन के प्रति पाठकों की राय को दिया है। मुझे तो कातिल कौन ठीक ठाक उपन्यास लगा था। सच पूछो तो इतने समय पहले पढ़ा था कि अब ठीक से याद भी नहीं।(लगता है दोबारा पढ़ना होगा।) लेकिन जो कमी लेखकीय में दर्शाई है वो उस वक्त मेरी पकड़ में न आई थी। मैं अक्सर मनोरंजन के लिए उपन्यास पढता हूँ तो ऐसे बरीकी से उसको नहीं पढता। इसलिए पढने की लय में अगर कोई चीज उभर कर आ रही है तो वो तो मुझे पता चलता है लेकिन कुछ बारीक गलतियाँ होती हैं तो उनका या तो पता नहीं लगता या नज़रन्दाज कर देता हूँ। दोबारा ‘कातिल कौन‘ पढूँगा तो हो सकता है उनकी तरफ ध्यान दूँगा।
मुझे तो कातिल का पता अंत में जाकर तभी लगा जब सुधीर इसका पर्दा फाश करता है इसलिए मेरे लिए तो ये उम्दा मिस्ट्री थी।
मर्डर मिस्ट्री के इलावा इसमें पाठक साहब ने समाज के ऊपर भी टिपण्णी की है। परिवार में कैसे रिश्तों को ताक में रख यौनिक शोषण होता है ये भी दर्शाया है। इसके इलावा कैसे एकाकीपन से ग्रस्त औरतों का इस्तेमाल करने के लिए लोग बाग़ अक्सर तैयार रहते हैं ये भी दर्शाया है।
विमुर्दिकरण और बेनामी संपत्ति को जिस खूबसूरती से पाठक साहब ने कथानक में पिरोया है वो भी मुझे अच्छा लगा।
सुधीर कोहली इस उपन्यास में अपने पूरे जलाल में है। उसके फलसफे और डायलॉग्स याद करने लायक हैं। और इन्हीं के माध्यम से वो कई बार समाज की दोगली सोच को उजागर करता है। उदाहरण:
जैसे वो कुछ कम था! शादीशुदा, उम्र में बड़ी औरत से अफेयर था और जाहिर यूँ कर रहा था जैसे बड़ा फेथफुल हसबैंड था। यानी एक ही काम जब मर्द करे तो ‘होता है, यार। चलता है,भई’, औरत करे तो गोली मार देने के काबिल। मर्द करे तो एडवेंचरिस्ट , औरत करे तो छिनाल। करैक्टरलेस।
उसका दूसरा कथन भी समाज के एक पहलू को दर्शाता है:
मैं उसे कैसे समझाता कि मर्द से धोखा खाना औरत का प्रारब्ध था। आदिकाल से ऐसा ही चला आ रहा था।कैसे समझाता कि प्यार और वासना में सुई की नोक जितना ही फर्क होता था।कैसे समझाता कि मर्द की भंवरे वाली फितरत नहीं बदल सकती थी।
उसका एक और कथन ने मुझे छुआ जिसमे वो एक माँ को सांत्वना देना चाहता है :
कभी रूबरू मिल के वृद्धा को समझाऊंगा कि दो दुखों के बीच का वक्फा सुख होता था। यदि आप सुखी हैं तो समझिये दुख आने वाला है, दुखी हैं तो समझिये सुख मोड़ पर खड़ा है, बस आप तक पहुंचने ही वाला है।जैसे रात जाती है तो दिन आ जाता है, दिन जाता है तो रात आ जाती है, वैसे ही दुख जाता है तो सुख आ जाता है, सुख जाता है तो दुख आजाता है।
भले ही इधर वो समाज का सोच दर्शा रहा है लेकिन तब भी उसका ऐसा कहना मुझे अखरा। इसके इलावा जब शैफाली की मामी कहती है कि शैफाली भली लड़की है तो वो मन में ये ही सोचता है कि वो मेरे साथ रात को थी वो कैसी भली लडकी है। इधर वो खुद उसी सोच का शिकार लगता है जिसके विषय में उसने ऊपर बात की है।
यही एक दो जगह औरत के विषय में जो उसके विचार थे वो मुझे पसन्द नहीं आये लेकिन फिर कई जगह उसने ऐसी बात की जो दिल को छू गयी। इंसान और समाज की दोगली बातों को उसने उजागर किया। यही उसे flawed किरदार और इसी कारण तीन आयामी किरदार बनाता है।
उपन्यास में बाकी किरदार कथानक के हिसाब से ठीक ठाक हैं। सुधीर और रजनी के बीच के रिश्ते की मुझे थोड़ा कंफ्यूज करने वाला लगा। वैसे तो वो सुधीर को घास नहीं डालती लेकिन फिर शैफाली सामने आती है तो ऐसी बात करती है जिससे जाहिर होता है वो शैफाली से जल रही थी। ये अटपटा लगा।
उपन्यास में कमी मुझे तो कोई नहीं लगी। दो तीन जगह नामों में हेर फेर किया गया है। जैसे :
पृष्ठ 107 वकील का नाम विवेक महाजन की जगह आलोक निगम है जो कि मकतूला का मामा था।
पृष्ठ 170 वेबसाइट को वेबसाइड लिखा गया है। दो दो बार।
पृष्ठ 254 फिर विवेक महाजन को आलोक निगम लिखा गया है
बाद में भी कई जगह डिसिल्वा को सिल्वेरा कहा गया है।
इन गलतियों को अगले संस्करण में सुधारा जा सकता है। पढने के दौरान ये खटकती है।
कथानक में एक कमजोरी मुझे क्लब का एक सीन लगी। अगर मैं किसी का अपहरण करके उसे छुपाऊँगा तो इस बात का खास ख्याल रखूँगा कि पार्टी के दौरान उधर न जाऊँ और पार्टी से पहले उसके खाने पीने की व्यवस्था कर दूँ। लेकिन उपन्यास का एक किरदार पार्टी के दौरान ये सब करता है। वो पार्टी के बीच में ही अपहरित को खाना ले जाने जाता है। इसके बाद जो होता है तो वो पाठक उपन्यास पढकर ही जाने तो बेहतर लेकिन इधर थोड़ा मेहनत करके किसी दूसरे रूप से इस बिंदु को उजागर किया जाता तो ज्यादा ठीक रहता। क्योंकि किरदार का ये काम इतने भीड़ वाले माहौल में करना मुझे तो बेतुका लगा।
बाकी उपन्यास आपको कैसा लगा इसके विषय में अपनी राय कमेंट में जरूर दीजियेगा।
अगर आपने उपन्यास नहीं पढ़ा है तो आप इसे निम्न लिंक से मँगवा सकते हैं:
उपन्यास पर आपकी समीक्षा अच्छी लगी।
सुधीर कोहली सीरिज का यह उपन्यास काफी चर्चा में रहा था।
अगर कभी यह उपन्यास मिला तो अवश्य अध्ययन करुंगा।
धन्यवाद ।
जी, जरूर पढ़ियेगा। सुधीर अपने ठेठ दिल्ली वाली हरकतों के लिए ही जाना जाता है। ये उपन्यास भी उम्दा है। पढना चाहिए आपको।
सुधीर कोहली मेरी पसंदीदा सीरीज है | सुधीर को पढ़ने का अलग ही मजा है | यह नॉवेल भी है बस इसका नम्बर लग नही पाया | समीक्षा बहुत बढ़िया है |
सुधीर मेरा भी पसंदीदा चरित्र है। सुधीर और सुनील की ख़ास बात यह भी होती है कि आप इन्हें किधर से भी पढ़ सकते हैं जबकि जीता और विमल के मामले में ऐसा नहीं है। लेख आपको पसंद आया उसके लिए दिल से धन्यवाद।