लघु-कथा: विराम चिन्ह – जयशंकर प्रसाद

लघु-कथा: विराम चिन्ह - जयशंकर प्रसाद

देव-मंदिर के सिंहद्वार से कुछ दूर हट कर वह छोटी-सी दुकान थी। सुपारी के घने कुंज के नीचे एक मैले कपड़े पर सूखी हुई धार में तीन-चार केले, चार कच्चे पपीते, दो हरे नारियल और छह अंडे थे। मंदिर से दर्शन करके लौटते हुए भक्त लोग दोनों पट्टी में सजी हुई हरी-भरी दुकानों को देखकर उसकी ओर ध्यान देने की आवश्यकता ही नहीं समझते थे।

अर्द्ध-नग्न वृद्धा दुकानवाली भी किसी को अपनी वस्तु लेने के लिए नहीं बुलाती थी। वह चुपचाप अपने केलों और पपीतों को देख लेती। मध्याह्न बीत चला। उसकी कोई वस्तु न बिकी। मुँह की ही नहीं, उसके शरीर पर की भी झुर्रियाँ रूखी होकर ऐंठी जा रही थीं। मूल्य देकर भात-दाल की हाँडिय़ाँ लिये लोग चले जा रहे थे। मंदिर में भगवान् के विश्राम का समय हो गया था। उन हाँड़ियों को देखकर उसकी भूखी आँखों में लालच की चमक बढ़ी, किंतु पैसे कहाँ थे? आज तीसरा दिन था, उसे दो-एक केले खाकर बिताते हुए। उसने एक बार भूख से भगवान् की भेंट कराकर क्षण-भर के लिए विश्राम पाया; किंतु भूख की वह पतली लहर अभी दबाने में पूरी तरह समर्थ न हो सकी थी, कि राधे आकर उसे गुरेरने लगा। उसने भरपेट ताड़ी पी ली थी। आँखे लाल, मुँह से बात करने में झाग निकल रहा था। हाथ नचाकर वह कहने लगा–“सब लोग जाकर खा-पीकर सो रहे हैं। तू यहाँ बैठी हुई देवता का दर्शन कर रही है। अच्छा, तो आज भी कुछ खाने को नहीं?”

“बेटा! एक पैसे का भी नहीं बिका, क्या करूँ? अरे, तो भी तू कितनी ताड़ी पी आया है।”

“वह सामने तेरे ठाकुर दिखाई पड़ रहे हैं। तू भी पीकर देख न!”

उस समय सिंहद्वार के सामने की विस्तृत भूमि निर्जन हो रही थी। केवल जलती हुई धूप उस पर किलोल कर रही थी। बाज़ार बंद था। राधे ने देखा, दो-चार कौए काँव-काँव करते हुए सामने नारियल-कुंज की हरियाली में घुस रहे थे। उसे अपना ताड़ीखाना स्मरण हो आया। उसने अंडों को बटोर लिया।

बुढ़िया ‘हाँ, हाँ’ करती ही रह गयी, वह चला गया। दुकानवाली ने अँगूठे और तर्जनी से दोनों आँखों का कीचड़ साफ़ किया, और फिर मिट्टी के पात्र से जल लेकर मुँह धोया।

बहुत सोच-विचार कर अधिक उतरा हुआ एक केला उसने छीलकर अपनी अंजलि में रख उसे मंदिर की ओर नैवेद्य लगाने के लिए बढ़ाकर आँख बंद कर लीं। भगवान् ने उस अछूत का नैवेद्य ग्रहण किया या नहीं, कौन जाने; किंतु बुढ़िया ने उसे प्रसाद समझकर ही ग्रहण किया।

अपनी दुकान झोली में समेटे हुए, जिस कुंज में कौए घुसे थे, उसी में वह भी घुसी। पुआल से छायी हुई टट्टरों की झोपड़ी में विश्राम लिया।


उसकी स्थावर सम्पत्ति में वही नारियल का कुंज, चार पेड़ पपीते और छोटी-सी पोखरी के किनारे पर के कुछ केले के वृक्ष थे। उसकी पोखरी में एक छोटा-सा झुंड बत्तखों का भी था, जो अंडे देकर बुढ़िया की आय में वृद्धि करता। राधे अत्यंत मद्यप था। उसकी स्त्री ने उसे बहुत दिन हुए छोड़ दिया था।

बुढ़िया को भगवान् का भरोसा था, उसी देव-मंदिर के भगवान् का, जिसमें वह कभी नहीं जाने पायी थी!

अभी वह विश्राम की झपकी ही लेती थी कि महंतजी के जमादार कुंज ने कड़े स्वर में पुकारा– “राधे, अरे रधवा, बोलता क्यों नहीं रे!”

बुढ़िया ने आकर हाथ जोड़ते हुए कहा– “क्या है महाराज?”

“सुना है कि कल तेरा लड़का कुछ अछूतों के साथ मंदिर में घुसकर दर्शन करने जायगा?”

“नहीं, नहीं, कौन कहता है महाराज! वह शराबी, भला मंदिर में उसे कब से भक्ति हुई है?”

“नहीं, मैं तुझसे कहे देता हूँ, अपनी खोपड़ी सँभालकर रखने के लिए उसे समझा देना। नहीं तो तेरी और उसकी; दोनों की दुर्दशा हो जायगी।”

राधे ने पीछे से आते हुए क्रूर स्वर में कहा– “जाऊँगा, सब तेरे बाप के भगवान् हैं! तू होता कौन है रे!”

“अरे, चुप रे राधे! ऐसा भी कोई कहता है रे। अरे, तू जायगा, मंदिर में? भगवान् का कोप कैसे रोकेगा, रे?” बुढ़िया गिड़गिड़ा कर कहने लगी। कुंजबिहारी जमादार ने राधे की लाठी देखते ही ढीली बोल दी। उसने कहा–“जाना राधे कल, देखा जायगा।”–जमादार धीरे-धीरे खिसकने लगा।

“अकेले-अकेले बैठकर भोग-प्रसाद खाते-खाते बच्चू लोगों को चरबी चढ़ गयी है। दरशन नहीं रे–तेरा भात छीनकर खाऊँगा। देखूँगा, कौन रोकता है।”–राधे गुर्राने लगा। कुंज तो चला गया, बुढ़िया ने कहा–“राधे बेटा, आज तक तूने कौन-से अच्छे काम किये हैं, जिनके बल पर मंदिर में जाने का साहस करता है? ना बेटा, यह काम कभी मत करना। अरे, ऐसा भी कोई करता है।”

“तूने भात बनाया है आज?”

“नहीं बेटा! आज तीन दिन से पैसे नहीं मिले। चावल है नहीं।”

“इन मंदिर वालों ने अपनी जूठन भी तुझे दी?”

“मैं क्यों लेती, उन्होंने दी भी नहीं।”

“तब भी तू कहती है कि मंदिर में हम लोग न जाएँ! जाएँगे; सब अछूत जाएँगे।”

“न बेटा, किसी ने तुझको बहका दिया है। भगवान् के पवित्र मंदिर में हम लोग आज तक कभी नहीं गये। वहाँ जाने के लिए तपस्या करनी चाहिए।”

“हम लोग तो जाएँगे।”

“ना, ऐसा कभी न होगा।”

“होगा, फिर होगा। जाता हूँ ताड़ीखाने, वहीं पर सबकी राय से कल क्या होगा, यह देखना।”–राधे ऐंठता हुआ चला गया। बुढ़िया एकटक मंदिर की ओर विचारने लगी– ‘भगवान्, क्या होनेवाला है!’


दूसरे दिन मंदिर के द्वार पर भारी जमघट था। आस्तिक भक्तों का झुंड अपवित्रता से भगवान् की रक्षा करने के लिए दृढ़ होकर खड़ा था। उधर सैकड़ों अछूतों के साथ राधे मंदिर में प्रवेश करने के लिए तत्पर था।

लट्ठ चले, सिर फूटे। राधे आगे बढ़ ही रहा था। कुंजबिहारी ने बगल से घूमकर राधे के सिर पर करारी चोट दी। वह लहू से लथपथ वहीं लोटने लगा। प्रवेशार्थी भागे। उनका सरदार गिर गया था। पुलिस भी पहुँच गयी थी। राधे के अंतरंग मित्र गिनती में 10-12 थे। वे ही रह गये।

क्षण भर के लिए वहाँ शिथिलता छा गयी थी। सहसा बुढ़िया भीड़ चीरकर वहीं पहुँच गयी। उसने राधे को रक्त से सना हुआ देखा। उसकी आँखे लहू से भर गयीं। उसने कहा– “राधे की लोथ मंदिर में जायेगी।” वह अपने निर्बल हाथों से राधे को उठाने लगी।

उसके साथी बढ़े। मंदिर का दल भी हुँकार करने लगा; किंतु बुढ़िया की आँखों के सामने ठहरने का किसी को साहस न रहा। वह आगे बढ़ी; पर सिंहद्वार की देहली पर जाकर सहसा रुक गयी। उसकी आँखों की पुतली में जो मूर्ति-भंजक छायाचित्र था, वही गलकर बहने लगा।

राधे का शव देहली के समीप रख दिया गया। बुढ़िया ने देहली पर सिर झुकाया; पर वह सिर उठा न सकी। मंदिर में घुसनेवाले अछूतों के आगे बुढ़िया विराम-चिह्न-सी पड़ी थी।


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Author

  • जयशंकर प्रसाद

    जन्म: 30 जनवरी 1889 निधन: 15 नवम्बर 1937 जयशंकर प्रसाद छायावादी युग के प्रमुख स्तम्भों में से एक थे। वह कवि, नाटककार, और् उपन्यासकार थे। प्रमुख रचनाएँ: छोटा जादूगर (कहानी), इंद्रजाल(कहानी), कंकाल (उपन्यास), तितली (उपन्यास) इत्यादि।

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