‘दुबई गैंग’ लेखक सुरेन्द्र मोहन पाठक द्वारा लिखित नव प्रकाशित उपन्यास है। यह जीत सिंह शृंखला का 12वाँ उपन्यास है। उपन्यास साहित्य विमर्श प्रकाशनसाहित्य विमर्श प्रकाशन द्वारा प्रकाशित किया गया है।
किताब के विषय में
पुस्तक अंश
घाटकोपर वेस्ट में जगदीश नगर के करीब वो एक छ: मंजिला रिहायशी इमारत थी जो गंगा मेंशन के नाम से जानी जाती थी। उसकी सूरत बताती थी कि अंग्रेज के टाइम से खड़ी थी। समुद्री हवा के थपेड़ों से उसकी बाहरी दीवारें काली पड़ चुकी थीं जबकि उनको नियमित रूप से पेंट कराया जाता था। इमारत में कोई चीज नयी थी तो वो लिफ्ट थी जो शायद इमारत जितनी ही पुरानी चरमराती लिफ्ट की जगह हाल ही में लगवाई गई थी।
रात की उस घड़ी दो बजने को थे। तब इमारत सुनसान थी। सब फ्लैटवासी पुराने दिन को विदा कर के आराम की नींद सो रहे थे।
सिवाय उन दो लोगों के जिनके दिन का समापन अमूमन सुबह चार बजे होता था।
इतनी रात गए कोई वहाँ उनके पहुँचने का इंतजार कर रहा था। वो ‘कोई’ एक फैशनेबल ओवरकोट पहने था, सिर पर फेल्ट हैट लगाए था, और आँखों पर रात की उस घड़ी भी काला चश्मा लगाए था। उस को उन्हीं दो जनों का इंतजार था जिनके दिन का समापन सुबह चार बजे होता था लेकिन उस रोज की बाबत उसे निश्चित रूप से मालूम था कि वो लोग दो बजे के करीब लौट आने वाले थे।
उन दो जनों के साथ दो सशस्त्र बॉडीगार्ड होते थे लेकिन एक का हमेशा डबल रोल होता था, उसे बॉस के ड्राइवर के तौर पर भी इस्तेमाल किया जाता था।
बखिया के निजाम में बॉडीगार्ड सिर्फ बॉडीगार्ड होता था, उससे किसी कैसे भी अतिरिक्त काम को करने की अपेक्षा नहीं की जाती थी। बॉस का सामान उठाना, उसके लिए सिग्रेट ले के आना बॉडीगार्ड के काम नहीं समझे जाते थे। दोनों ही काम एक मुस्तैद बॉडीगार्ड के लिए गलत थे क्योंकि सामान उठाता तो उसके हाथ बिजी हो जाते, जो तब जरूरत के वक्त गन तक पहुँच ही न पाते, सिग्रेट लेने जाता तो वो उस दौरान गार्ड करने के लिए बॉडी के साथ न होता। बतौर ड्राइवर भी उसका दर्जा टोकन गार्ड का ही रह जाता क्योंकि ड्राइविंग अहम होती।
यानी बखिया के निजाम में बॉडीगार्ड को ड्राइवर या जनरल हैन्डीमैन की तरह नहीं ट्रीट किया जाता था, न ही उसे इसलिए लापरवाह और अलगर्ज होने दिया जाता था कि अमन शांति का दौर था, कुछ होने वाला तो था नहीं। बखिया जानता था कि दुश्मन के भरपूर वार जैसा कुछ तभी होता था जबकि कुछ न होता दिखाई देता था। इसी वजह से – और ऐसी वजुहात से – उस की बादशाहत निर्विघ्न सालोंसाल चली थी।
ये भाईगिरी की वो बारीकियाँ थीं जो खाली बखिया समझता था, आज के ‘भाई’ लोग नहीं समझते थे – समझते थे तो नज़रअन्दाज़ करते थे।
जिन दो जनों का फेल्ट हैट वाले को इंतजार था, वो अमर नायक के इम्पॉर्टेंट भीड़ू थे, ओहदेदार थे। रात की उस घड़ी लापरवाह होना उनसे इसलिए भी अपेक्षित था क्योंकि न अमर नायक बखिया था और न ओहदेदार और गार्ड ‘कम्पनी’ के अंडर में चलने वाले, खुद ‘कम्पनी’ के सिपहसालार मैक्सवैल परेरा के भरपूर सिखाए पढ़ाए, भीड़ू थे। गार्ड्स का काम ओहदेदार को सिरे तक, तसदीकशुदा सुरक्षित माहौल में, पहुँचाना होता था जबकि उनके गार्ड कभी उन दोनों के साथ छटी मंजिल तक नहीं जाते थे। वहाँ के फ्लैट में भी एक गार्ड होता था जो हमेशा उन दो कथित ओहदेदारों को सोया मिलता था और काल बैल बजाये जाने पर ही उठता था।
इमारत की लॉबी खुला दरबार था; वहाँ न कोई गेट था जो कि रात को बन्द किया जाता हो और न रात की चौकसी के लिए कोई चौकीदार था। एक केयरटेकर वहाँ बराबर था लेकिन वो दिन को ही उपलब्ध होता था – सुबह दस बजे आता था और शाम छ: बजे चला जाता था। लॉबी में ही दाईं ओर एक कमरा था जहाँ कोई काम न हो तो वो रेस्ट करता, टीवी देखता पाया जाता था।
लिहाज़ा इमारत के बाहर से लेकर टॉप फ्लोर तक जो सिक्योरिटी गैप था, उसकी तरफ कभी किसी की तवज्जो नहीं गई थी। लेकिन फेल्ट हैट वाला उस घड़ी उसी सिक्योरिटी गैप को कैश करने के लिए दृढ़प्रतिज्ञ था।
इमारत के सामने ‘टी’ फॉर्मैशन में एक लंबी सड़क थी जिसका दर्जा इमारत की अप्रोच रोड का था, जिस पर आता कोई वाहन इमारत से दूर से ही दिखाई दे जाता था। फेल्ट हैट वाला इमारत की छटी मंजिल पर मौजूद था। लिफ्ट के सामने और आजू-बाजू के दो-दो फ्लैट्स के सामने से गुजरता एक गलियारा था जिसके सड़क की ओर वाले सिरे पर एक गलियारे जितनी ही चौड़ी खिड़की थी जो अमूमन खुली रहती थी। वो खिड़की पर मौजूद था और उसकी चौकस निगाह सामने की सड़क पर थी। वो पहले ही मालूम कर चुका था कि जिनका उसे इंतजार था, वो इमारत के टॉप फ्लोर पर रहते थे। उस फ्लोर के बाकी तीन फ्लैट में से दो इत्तफाक से उन दिनों आबाद नहीं थे। आबाद होते तो कोई बड़ा फ़र्क न पड़ता पर उनका आबाद न होना उसके लिए कदरन सहूलियत का बायस था।
तभी मोड़ काट कर एक कार सामने की सड़क पर दाखिल हुई। फेल्ट हैट वाले ने आँखें फाड़ कर उसकी तरफ देखा। वो और करीब आई तो उसने उसे पहचाना कि वो भाई लोगों की वही सांत्रो कार थी जिसका उसे इंतजार था। लेकिन अभी कोई जल्दी नहीं थी, उसके पास पक्की तसदीक के लिए अभी काफी टाइम था, कार के इमारत के सामने पहुँचने तक अभी वो खिड़की पर बना रह सकता था।
ऐसा हो चुका तो वो खिड़की पर से हटा और निःशब्द चलता लिफ्ट के सामने पहुँचा। उसने पाया लिफ्ट उस घड़ी चौथे माले पर खड़ी थी। उसने काल बटन दबाया तो लिफ्ट का दरवाजा ऊपर उसके सामने आ कर खुला। बाहर खड़े खड़े उसने लिफ्ट का एक मंजिल नीचे का काल बटन दबाया। नीचे जाने के लिए लिफ्ट का दरवाजा बन्द होने लगा तो पहले से ही हाथ में तैयार एक लकड़ी का कोई चार इंच लंबा टुकड़ा उसने बन्द होते पल्लों के बीच फर्श पर उनके रास्ते में रख दिया। पल्ले तत्काल रुक गए। दरवाजा पूरा बन्द न हो सका। अब जब तक दोनों पल्ले आपस में न मिलते, सर्कट कम्प्लीट न होता और लिफ्ट तब तक उसी फ्लोर पर खड़ी रहती जब तक कि कोई उस मंजिल पर आकर वो विघ्न दूर न करता जो फेल्ट हैट वाले ने पैदा किया था।
कौन आता!
केयरटेकर छ: बजे के बाद उपलब्ध नहीं होता था और रेज़िडेंट्स तमाम के तमाम उस घड़ी घोड़े बेच कर सो रहे थे। लिहाजा रात के दो बजे लिफ्ट बिगड़ी पा कर उनका सीढ़ियों के रास्ते अपनी मंजिल पर पहुँचना उनकी मजबूरी था। उसने खिड़की पर जा कर एक बार बाहर झाँका तो कार को वापिस लौटती पाया। यानी वो लोग अब लॉबी में थे। वो वापिस सीढ़ियों पर पहुँचा और उन पर खामोश कदम डालता तब तक नीचे उतरा जब तक कि सीढ़ियों का मोड़ न आ गया। वो कुछ क्षण वहाँ ठिठका फिर सीढ़ियों के वैल के करीब सरक आया और कान खड़े कर के सुनने लगा।
आ रहे थे।
तब उनके कदमों की आहट से ज्यादा उनके नशे में डूबे लहज़े में आपस में बतियाने की आवाज आ रही थी।
वो प्रतीक्षा करने लगा।
ऊपर आती आवाज़ें अब निरंतर मुखर होती जा रही थीं। अब किसी भी क्षण वो उन दोनों के रूबरू हो सकता था। वो घड़ी करीब आने लगी तो वो घूम कर दबे पाँव पाँच सीढ़ियाँ वापिस ऊपर चढ़ गया। तब उसने ओवरकोट की एक जेब से गन और दूसरी से साइलेंसर निकाला। उसने साइलेंसर को गन की नाल पर चढ़ा कर चूड़ियाँ कसीं और प्रतीक्षा करने लगा जो कि अब समाप्तप्राय थी।
दोनों ने सीढ़ियों का आखिरी मोड़ काटा और सामने, पाँच सीढ़ी ऊपर, फेल्ट हैट वाले को खड़ा पा कर ठिठके।
“होगा कोई!” एक जना बड़बड़ाता-सा अपने साथी से बोला, “हमेरे को क्या!”
फेल्ट हैट वाला सीढ़ियों पर यूँ पसर कर खड़ा था कि उसके पहलू से उसे धकेले बिना नहीं गुजरा जा सकता था।
“बाजू हट, भई!” दूसरा कर्कश स्वर में बोला – “क्या खम्बे का माफिक खड़ेला है…”
फेल्ट हैट वाले ने अपना दायाँ हाथ आगे किया तो बल्ब की सीमित रौशनी भी गन की नाल पर से प्रतिबिंबित हुई।
“स्टैचू का माफिक खड़े होने का।” फेल्ट हैट वाला बोला तो उसका लहजा इतना सर्द था कि उसकी सिहरन उन दोनों को महसूस हुई, “हिले तो गोली!” वो एक क्षण ठिठका, फिर बोला, “न हिले तो भी गोली!”
“कौन है, भई, तू?” पहला बोला, “क्या माँगता है तेरे को?”
जो पहले कड़क बोला था, वो तब भी अपनी हवा में था। वजह शायद ये थी कि साथी से ज्यादा नशे में था।
“साला जानता नहीं किनके सामने खड़ेला है!” वो बोला।
“जानता हूँ।” फेल्ट हैट वाला स्थिर स्वर में बोला, वो स्थिति का आनंद लेता जान पड़ रहा था, “अमर नायक के भड़वों के सामने खड़ेला हूँ।”
“तू है कौन?”
“मौका देता हूँ। पहचान सको तो पहचान लो।”
उसने बाएँ हाथ से फेल्ट हैट माथे से पीछे सरकाया और काला चश्मा उतार कर हाथ में ले लिया।
तत्काल दोनों के मुँह से सिसकारी निकली।
“त-तू!” पहला हकलाया, “त-तुम…बाप, तुम!”
“लगता है पहचान लिया!” फेल्ट हैट वाला पूर्ववत् स्थिर स्वर में बोला, “पण किसी को बोल तो सकोगे नहीं! पहले ही दूसरी दुनिया में कदम होगा।”
“लुढ़काना माँगता है, बाप?”
“नहीं, गोद में बिठा के लोरी सुनाना माँगता है।”
“बाप, हम अमर नायक बाप के इम्पॉर्टेंट कर के भीड़ू!”
“बोले तो ओहदेदार!” अब दूसरे के भी हवास उड़े हुए थे, उसने जल्दी से जोड़ा।
“अच्छा हुआ बता दिया! वरना मेरे को कहाँ सूझना था! मेरे को कौन बताता ये टेम!”
“बाप,” पहला बोला, “तुम ये काम…ऐसीच काम…खुद करता है?”
“बोले तो बरोबर। यूँ मेरे को किसी से रिपोर्ट नहीं माँगना पड़ता। यूँ मैं जो करता है, वो मैं ही जानता है। अमर नायक मॉर्निंग में सोचता होयेंगा कि कौन डेयर किया। क्या?”
दोनों ने जवाब न दिया, दोनों अपने सूख आए होंठों पर बार बार जुबान फिराने लगे।
फेल्ट हैट वाले ने दोनों को शूट कर दिया।
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पुस्तक लिंक: अमेज़न
लेखक परिचय
सुरेन्द्र मोहन पाठक का जन्म 19 फरवरी, 1940 को पंजाब के खेमकरण में हुआ था। विज्ञान में स्नातकोत्तर उपाधि हासिल करने के बाद उन्होंने भारतीय दूरभाष उद्योग में नौकरी कर ली। युवावस्था तक कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय लेखकों को पढ़ने के साथ उन्होंने मारियो पूजो और जेम्स हेडली चेज़ के उपन्यासों का अनुवाद शुरू किया। इसके बाद मौलिक लेखन करने लगे। सन 1959 में, आपकी अपनी कृति, प्रथम कहानी ’57 साल पुराना आदमी’ मनोहर कहानियाँ नामक पत्रिका में प्रकाशित हुई। आपका पहला उपन्यास ‘पुराने गुनाह नए गुनाहगार’, सन 1963 में ‘नीलम जासूस’ नामक पत्रिका में छपा था। सुरेन्द्र मोहन पाठक के प्रसिद्ध उपन्यास असफल अभियान और खाली वार थे, जिन्होंने पाठक जी को प्रसिद्धि के सबसे ऊँचे शिखर पर पहुँचा दिया। इसके पश्चात उन्होंने अभी तक पीछे मुड़ कर नहीं देखा। उनका पैंसठ लाख की डकैती नामक उपन्यास अंग्रेज़ी में भी छपा और उसकी लाखों प्रतियाँ बिकने की ख़बर चर्चा में रही। उनकी अब तक 306 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।
उनसे smpmysterywriter@gmail.com पर सम्पर्क किया जा सकता है।
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