कहानी: नदी का इश्क जिंदा था – दिव्या शर्मा

कहानी: नदी का इश्क जिंदा था - दिव्या शर्मा | कहानी संग्रह: कैलंडर पर लटकी तारीखें

मैं आज फिर उसके शहर में खड़ा था। सालों से शरीर पर चिपकी मेरी बाँहें खुलकर लहरा उठीं। मैंने गहरी साँस ली और उसके शहर की हवा को अपने अंदर खींच लिया।

वैसी ही खुशबू मेरे अंदर उतर गयी जैसी बरसों पहले उसके आँचल में महकती थी।

मैंने अपने पैर को मोड़कर पैंट से जूतों को साफ किया और कदम बढ़ा दिया।

सड़क पर चलते इन कदमों में कुछ अजीब सी थकान थी फिर भी आवाज कर रहे थे।

बदलाव तो कुछ नजर आया… पर खुद को मुझसे छिपाने की कोशिश में यह शहर आज भी दरवाजे की ओट लिए नजर आया।

मेरे कदमों ने अपनी रफ्तार बढ़ा थी…।

मेरी आँखें उन पेड़ों को तलाशने लगीं जो मेरे साथ छुपन छुपाई खेलते थे। कभी-कभी मैं अड़ जाता उनकी डालियों पर झूलने के लिए, वे पेड़ मेरी जिद सुन लेते और अपनी बाँहों का झूला बना मुझे समेट लेते।

अचानक पीछे से आहट सुनाई दी। मैं ठिठक गया। वह आहट चरमरायी देह की लग रही थी।

मैंने मुड़कर देखा तो किस्सों की गली मेरे पीछे चली आ रही थी।

मेरी भवें तन गयीं और होंठ टेढ़े होकर बुदबुदाने लगे। चारों तरफ एक जंगल सा उग आया, कटीली झाड़ियों पर साँप सरकने लगे।

मेरी आँखें पीपे के मुँह की तरह गोल हो गयीं जो संकरी होकर भी सारे जंगल को पी रही थी।

तभी एक किस्से ने आकर मेरे कानों में कुछ कहा, लेकिन मैं सुन नहीं पाया।

“तुमने कुछ सुना?”

“नहीं…।”

“तुम्हें सुनना चाहिए था…।” उस किस्से के चेहरे पर पसीने की कुछ बूँदें फिसल आयीं।

“मेरे कानों पर ख़ुशबू का कैप (ढक्कन) लगा है…उसे हटाना होगा।”

मैंने सिगरेट का लम्बा कश लिया और उसके चेहरे पर धुआँ उड़ेल दिया।

“तुम्हारी आदतों में झुंझलाहट शामिल हो गयी है… तुम अब कुछ नहीं सुन सकते।”

अब वह निराश था।

“हम्म… पर मैं सुनना चाहता हूँ… अच्छा चलो…मैं अपने जूते उतार कर इन झाड़ियों पर चढ़ जाता हूँ…तुम कहो, मैं सुनूँगा।”

“तुम्हारे जूते अकेले हो जायेंगें, मत उतारो उन्हें।” किस्से ने मेरे हाथ को पकड़ लिया और एक पेड़ की डाली पर मुझे बिठा दिया।

मेरे सामने मेरा बचपन चला आया और हँसने लगा। उसकी हँसी सुनकर मुझे गुस्सा आने लगा।

मेरी पीपे के मुँह जैसी आँख एक बार फिर फैल गयी और अपने बचपन को मैंने पी लिया।

कानों पर लगे खुशबू के कैप को उतारकर आँखों के ऊपर लगा दिया।

मेरी नाक कुछ फड़फड़ाई लेकिन जल्दी शांत हो गयी।

“तुम अब भी झुँझला रहे हो…।” उस किस्से ने कहा और अपने जंगल को समेटने लगा।

“नहीं-नहीं, मैं बिल्कुल शांत हूँ…बिल्कुल उस नदी की तरह जो शहर में बहती है।”

मैं पेड़ से उतर कर किस्से के पास आकर खड़ा हो गया।

“अब इस शहर में कोई नदी नहीं बहती… एक नाला जरूर बहता है यहाँ… बदबूदार…।” उसने अपने चेहरे को घृणा से सिकोड़ लिया।

“नदी… कहाँ चली गयी? वो…उसे तो इश्क़ था इस शहर से!” मैं आश्चर्य में था।

“उस इश्क़ ने ही तो उसे मौत दे दी।” दुखी हो किस्से ने कहा।

अब तक खामोश मेरी नाक सिसक उठी और उसने खुद को जोर से बंद कर लिया। इतनी जोर से कि मेरी साँस घुटने लगी।

मैं घबरा कर किस्से के गले लग गया। उसने हौले से मेरी पीठ पर अपनी हथेली टिका दी।

उसके स्पर्श से मेरी साँस ने अपने रस्ते खोल दिए और मैं बच गया।

“तुम कुछ कह रहे थे, कहो न!” मैंने आग्रह किया।

उसने एक बार मेरी ओर ध्यान से देखा मैं सकपका गया और अपनी हथेली रगड़ने लगा।

हथेलियों की रगड़न से कुछ बूँदें चुहने लगी…।

उन बूँदों में नदी का अक्स दिखने लगा।

किस्से ने मेरी हथेलियों को पकड़ लिया और बोलना शुरू किया, “कुछ किस्से बहुत आवाज करते हैं और कुछ खामोशी से आपको घेर लेते हैं। खामोश किस्सों के पास एक नाव होती है, जिसकी पतवार अनदेखे, अनसुने किरदारों के हाथों में होती है। यह किरदार आपको हौले-हौले अपने साथ ले चलते हैं अपने किस्सों की नाव में बिठा कर और आप चल पड़ते हो चुपचाप।”

“पर तुम भी तो एक किस्सा हो!” मैंने उसे बीच में टोका। पर उसने मेरी बात को अनसुना कर दिया और अपनी बात जारी रखी।

“आपको शायद पता न हो, इन किस्सों की एक गहरी नीली नदी होती है जिसमें नीलम-सी सीपियाँ झिलझिमालाती हैं, लेकिन कभी-कभी जाने क्यों यह सीपियाँ स्याह हो जाती हैं।

किस्सों की महक में आप खुद को डुबो भी नहीं पाते कि तेज दुर्गंध आपको बेचैन कर देती है। आप बंद कर लेते हैं अपनी नाक… पर भूल जाते हैं कि किस्सों की दुर्गंध तो कानों से अंदर घुसती है… वह हँसती है आपकी मूर्खता पर…।” इतना कह वह जोर-जोर से हँसने लगा।

उसकी बातें मुझे बेचैन कर रही थीं, उसने मेरी नाक के सच को जान लिया था। मुझ पर घबराहट तारी होने लगी।

मैंने अपनी आँखों को चौड़ा किया और उस किस्से को भी पी लिया।

अपने कदमों की रफ्तार तेज कर दी।

मेरे जूते मेरे साथ थे।

तभी एक मोड़ पर आकर मेरे कदमों को किसी ने बाँध दिया। लेकिन वहाँ कोई नहीं था।

मेरे जूते मेरे पैरों को चुभने लगे। जाने कहाँ से कीलें खड़ी हो गईं… अनगिनत कीलें।

पर उन कीलों की नोक पर कुछ लिखा था।

मेरी आँखें मिचमिचाते हुए उसे पढ़ने की कोशिश करने लगीं।

दो अक्षर थे शायद या फिर एक नाम, कौन सा नाम यह समझ नहीं आया। जूतों पैरों से खुद ब खुद उतर गए और मेरी तरफ देख कर मुस्कुरा दिए। उनकी मुस्कुराहट जाने क्यों मुझे व्यंग्य लगी…ऐसा लगा जैसे मेरी हालत का मखौल बना रहे हों।

“तुम मुझे छोड़कर ऐसे नहीं जा सकते…।” मैंने पैरों में से कीलें निकाल कर कहा।

“तुम हमें रोक नहीं सकते…।” बाएँ पैर के जूते ने कहा।

“मैं रोक सकता हूँ!” इतना कह मैंने अपनी बाँह को उठाया तो वह नहीं उठी…वापस मेरी शरीर से चिपक गयी।

मैं जोर से चीखने की कोशिश करने लगा लेकिन मेरे होंठ मेरी जुबान को पकड़कर बैठ गए।

मैं अपने कदमों को सिकोड़ने लगा और पेट से चिपका दिए।

मेरी आँखों से अब पानी बह रहा था… लेकिन यह क्या… उसमें मरी हुई नदी का अक्स था…बिल्कुल वैसे ही जैसे हथेलियों के गिरते पानी में…।

“तुम सो रहे हो या मर गए हो!” एक आवाज मेरे कानों से टकरायी।

मैंने आँखों को मिचमिचाते हुए खोला…। आसमान स्याह था लेकिन सूरज चमक रहा था। एक परछाई मेरे जिस्म पर फैल गयी।

“मैं तुमसे पूछ रहा हूँ…! तुम सो रहे हो या मर गए?”

वह परछाई फिर बोली।

मेरी नजर अब साफ देख पा रही थी। उसके कांधे पर एक झोला था और एक हाथ में लकड़ी। जिसके सहारे वह खड़ा था।

उस लकड़ी को देखकर मुझे अपने बचपन वाले पेड़ की याद आ गयी।

मेरी आँखों से वह बचपन कूद कर बाहर आ गया और परछाई की लकड़ी को पकड़कर खड़ा हो गया।

“लगता है यह मर गया है। तुम मेरे साथ चलो।” परछाई ने बचपन से कहा।
अब मुझे वह परछाई अपने बिल्कुल ऊपर नजर आयी। वह जर्जर बूढ़े के जैसी दिख रही थी।

मेरा बचपन उसके साथ चलने लगा…मेरे दिल ने जोर से मुझे धक्का दिया।

“रुको… मैं सो गया था, लेकिन अब उठ गया हूँ…तुम कौन हो?”

मेरी आवाज कुछ तेज थी। मेरे होंठों ने जीभ को खोल दिया था।

“मैं इस शहर का एक हिस्सा हूँ…तुम भूल गए मुझे…!” उसने अपनी लकड़ी को बजाते हुए कहा।

“ओह…मैं पहचान गया… तुम उस पेड़ के साथ रहते थे न…पर तुम तो जर्जर हो गए हो!” मैंने आश्चर्य से पूछा।

“हाँ…वह पेड़ अब नहीं रहा…उसके जाने से मेरी देह सूख गई…मेरे तन पर फफोले उग आएँ हैं…मैं जलता जा रहा हूँ…।” इतना कहकर उसने अपने शरीर से कमीज उतार दी।

उसके शरीर पर फैले फफोलों से मवाद बह रहा था, दुर्गंध वाला मवाद…।
मेरी नाक परेशान हो गयी।

इससे पहले की वह मेरी साँस को रोक ले, मैंने बूढ़े की कमीज वापस उसके शरीर पर डाल दी।

यह सब इतनी जल्दी हुआ कि मेरी उंगलियाँ उसके जिस्म पर रगड़ गयीं।

रगड़ने से खाल खुरच कर नीचे गिर गई। वह दर्द से चिल्लाया।

मेरे दिल ने मुझे फिर एक जोर का धक्का मारा।

अबकी बार मैं लड़खड़ा गया और बूढ़े के ऊपर गिर गया।

मुझे अपने नीचे कुछ तरल नजर आया… वह बूढ़ा, पानी बन गया था लेकिन गँदला पानी…। मेरी आँखों ने अपने मुँह को फैलाया और उसे भी पी लिया।

उसके झोले में कुछ शोर सुनाई देने लगा। मेरा बचपन एक ओर बूढ़े की लकड़ी थामे सहमा खड़ा था।

वह धीरे से झोले के करीब आया और उसमें झाँका…धड़धड़ाते हुए मेरे जूते उसमें से बाहर आ गए और मेरे कदमों से लिपट गए।

मुझे बहुत गुस्सा आया।

मैं अपने पैरों को झटकने लगा…।

“अब रहने दो न… वह तुम्हारे साथ चलना चाहते हैं।” बचपन ने हिम्मत जुटाकर कहा।

“तुम्हें बाहर नहीं आना था…चुपचाप पीपे में चलो जाओ…वहाँ से दिल में चले जाना…।” मैंने उसे घूरते हुए कहा।

“दिल में अँधेरा तो नहीं?”

“रोशनी तुम्हें तलाशनी होगी… अँधेरी सुरंग के पार फूलों की दुनिया है जहाँ हँसी रहती है।” मैंने उसे कहा।

उसने मुझे ध्यान से देखा…। चारों तरफ रहस्यमयी धुआँ उठने लगा… धुआँ कुछ नीला था….नदी के नीले पत्थरों की तरह।

मैं वहाँ से भागने लगा।

शहर के दरवाजे बंद होने लगे…मेरी दौड़ जारी थी…शहर की सड़कों पर खूटियाँ टँगी थी… जिनपर अनगिनत कोट टँगे थे…मुझे इन्हें नहीं देखना था।

आखिरकार मैं वहाँ पहुँच गया…उस मोड़ पर। मेरी साँसें उखड़ रही थीं, लेकिन मेरा दिल खुश था।

कानों से ख़ुशबू के कैप हटाकर मैं अपने मन की सुनना चाहता था।

वह मोड़ अब भी चमक रहा था…मैं उस ओर चल पड़ा।

अब खूँटियों पर कुछ दुपट्टे नजर आ रहे थे…लाल…पीले…। सबके अंदर गाँठ बँधी थी… ऐसा लग रहा था जैसे मन्नतों को यहाँ बाँध दिया गया हो…।

मेरे कदम और तेज हो गए।

मैं उसके निकट था…बस कुछ देर में मैं उसकी चौखट पर पहुँच जाऊँगा…।
तभी मेरा बचपन हँसते हुए मुझसे आगे निकल गया। नीला धुआँ उसके साथ था। मेरी आँखें फिर चौड़ी होने लगीं, लेकिन मैंने अपनी हथेलियों से उन्हें ढँक दिया।

वह कसमसा कर चुप हो गयी।

मैं अपने बचपन के साथ रेस करने लगा, वह खिलखिला रहा था।

मेरे चेहरे पर एक हँसी पसर गयी…। खूँटी पर टँगे दुपट्टे हवा में लहराने लगे।

उसकी चौखट मेरे सामने थी।

मैं घुटनों के बल बैठ गया। मेरे दोनों हाथ जुड़ गए।

आँखों का बाँध टूट गया। आँसुओं की धार के साथ सारे किस्से बहने लगे…।कटीली झाड़ियाँ पेड़ बन गई और साँप उनकी शाखाएँ।

मैंने अपने होंठ चौखट पर रख दिए और उसे चूमने लगा…।

सारी दुर्गंध उस नीले धुएँ के साथ चली गयी और चारों तरफ खुशबू की लहर बिखर गयी…।

अब मैं अकेला नहीं था…वहाँ एक नदी थी…उसके शहर की नदी।

(यह कहानी लेखिका के कथा संग्रह ‘कैलंडर पर लटकी तारीखें’ से प्रकाशक की इजाजत से ली गयी है।)


किताब परिचय

दिव्या शर्मा का यह लघुकथा संग्रह, जिसमें 87 लघुकथाएँ संकलित हैं, साहित्य की अनमोल धरोहर साबित होगी। दिव्या ने ऐसे अनछुए प्रसंगों को लघुकथा के ताने-बाने में बुना जो कुछ पल को चिंतन की ओर ले जाने से नहीं चूकती। क्षेत्रीय बोली का भी प्रयोग कई लघुकथाओं में करके उसे और लालित्या पूर्ण बनाया है। भाषा पर अच्छी पकड़ के साथ ही बिम्ब योजना व शिल्प भी सराहनीय है। दिव्या का यह लघुकथा संग्रह आने वाले समय में मील का पत्थर साबित होगा।

(पुस्तक की भूमिका से)

किताब लिंक: साहित्य विमर्श | अमेज़न

लेखक परिचय

दिव्या शर्मा

वर्तमान में फ्रीलांसिंग स्क्रिप्ट राइटर, दिव्या शर्मा ने 150 से अधिक लघुकथाओं की रचना की हैं, जो भिन्न-भिन्न पत्र-पत्रिकाओं एवं प्लेटफॉर्मों पर प्रकाशित हो चुकी हैं। इनके द्वारा लिखित कई लघुकथाओं का नाट्य मंचन ‘नुक्कड़ नाट्य मंडली’ एवं संस्थाओं द्वारा किया गया है। कैंसर पर जागरूक करती लघुकथा “मर्कट_कर्कट” का नाट्य रूपांतरण ‘नशाखोर’ के रूप में, प्रयागराज के प्रतिष्ठित रंगशालाओं में मंचन हुआ है। इनको अपनी रचनाओं के लिए भिन्न-भिन्न संस्थानों द्वारा पुरस्कार एवं सम्मान से सम्मानित किया गया है। दिव्या शर्मा विश्व भाषा अकादमी, हरियाणा की महासचिव एवं ‘युग-युगांतर’ पत्रिका की सह-सम्पादक भी हैं।


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2 Comments on “कहानी: नदी का इश्क जिंदा था – दिव्या शर्मा”

    1. कहानी आपको पसंद आयी ये जानकर अच्छा लगा। हार्दिक आभार।

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