लघु-कथा: हाथी के दाँत – विकास नैनवाल ‘अंजान’

हाथी के दाँत - विकास नैनवाल | कहानी

चाय की टपरी पर बहस चल रही थी। एक साहब चाय का लुत्फ़ उठाते हुए कह रहे थे, “अरे! साहब इन नेताओ ने ही देश का बट्टा बैठाया हुआ है। पूरा देश बेच के खा गये ये। सच में अंग्रेजों ने सही कहा था कि हम लोग अभी ताकत को संभाल नहीं सकते हैं।”

चाय की चुस्कियों के साथ साथ उनके प्रति मेरा और आस पास मौजूद व्यक्तियों का उनके प्रति सम्मान बढ़ता जा रहा था। मैंने भी सिर हिलाकर उनकी बात को समर्थन दिया। जब तक चाय खत्म नहीं हो गयी वो यूँ ही देश, देश में फेले भ्रष्टाचार और नेताओं के काइयाँपन के बारे में बोलते रहे। चाय समाप्त करके वो चले गये और चूँकि चाय अच्छी बनी थी और मुझे वक्त काटना था तो मैंने एक और चाय माँगी और उसे चुसकने लगा। उन साहब ने माहौल बना दिया था और हर कोई नेताओ के घोटालों के विषय में बाते कर रहा था।

चाय खत्म हुई और मैंने घड़ी को देखा। दस बज चुके थे। फिर मैं उस ऑफिस के गेट की तरफ देखा। ‘अब तो शायद साहब लोग अपनी अपनी सीट पर बैठ चुके होंगे।’ मैंने सोचा और चाय के पैसे चुकाकर दफ्तर की तरफ बढ़ा।

ऑफिस के बाहर पहुँचकर मैंने अपना थैला देखा और यह सुनिश्चित किया कि मेरे सभी दस्तावेज ठीक हैं। सबका आकलन करने के बाद मैं अंदर दाखिल हुआ।

मैंने चपरासी से पूछा कि जिस काम के लिए आया हूँ वो किधर होगा तो उसने मुझे इशारा करके बता दिया।

मैं बतायी गयी सीट पर पहुँचा तो मेज के दूसरे तरफ बैठे व्यक्ति को देखकर मेरे चेहरे पर मुस्कान अपने आप आ गयी। मैं बैठा और अपने मामले के विषय में उन्हें जानकारी दी। उन्होंने सारे कागज़ देखे और फिर बोला-“देखिये इसमें एक कागज की कमी है। आप फलाना कागज ले आइये। देखिये सरकारी काम अब बहुत सख्त हो गये हैं। अगर मैं अनदेखी करता हूँ तो मेरे ऊपर इन्क्वायरी बैठ सकती है। आप तो समझते हैं। आपने तो इस सिस्टम में काम किया है। आपको पता है चीजे कैसी चलती हैं।” वो ये सब एक ही साँस में कह गये और मेरी तरफ देखने लगे।

“जी अच्छा। ये कागज लाने में तो वक्त लगेगा। मैं कल आता हूँ।”, मैंने कहा और उनका बताया कागज लाने जाने लगा।

“अरे बिलकुल! हम लोग आपकी सेवा के लिए ही तो बैठे हैं।” उन्होंने आत्मीयता से कहा।

मैंने सोचा था कि जल्द ही काम पूरा हो जायेगा। पर कितना गलत था मैं।

उस दिन से लेकर आज तक मैं सात बार दफ्तर में साहब के पास हाजरी लगा चुका हूँ। यह आठवीं बार हैं जो मेरा इधर आना हुआ है। आज भी साहब मुझसे उतनी ही आत्मीयता से मिलते हैं।

“देखिये सर। अब तो सारे कागज पूरे हैं न?” मैंने मिमियाते हुए कहा।

“हम्म” साहब ने संजीदगी का चोगा ओढ़कर हुँकार सी भरी। “काफी कुछ सही है लेकिन अभी भी कुछ कमी है।”

“क्या?” मैंने कहा।

उन्होंने मुझे देखा और कहा, “आप बताईये। आपने तो सिस्टम में काम किया है।”

“कितने?” मैंने उनका आशय भाँपते हुए कहा।

“देखा। आपको तो यह बात पहले समझ जानी चाहिए था। लेकिन खैर, वो कहते हैं न देर आये दुरुस्त आये। पाँच परसेंट।” उन्होंने कहा।

“पर ये तो बहुत ज्यादा हैं।” मैं घिघियाया।

“अरे आप तो सब समझते हैं। फिर भी ऐसी बात।” मैं ही थोड़े न हूँ। ऊपर से लेकर नीचे तक सब हैं। उन्होंने समझाते हुए कहा। “आपने इतने साल कैसे गुजार दिये?” उन्होंने अगला प्रश्न दागा।

“आपको कुछ नहीं पता क्या?” मुझे चुप देख उन्होंने हैरान होते हुए सवाल किया।

“पता तो था पर।”

“अरे पर वर कुछ नहीं। आपको पता है तब तक कुछ नहीं होगा।” उन्होंने खीजते हुए कहा।

“ठीक है। मैंने हामी भरी। मैं कल लेकर आता हूँ।” कहकर मैं उठने लगा।

“अरे बिलकुल। हम लोग इधर आपकी सेवा के लिए ही तो बैठे हैं।” उन्होंने कहा और खींसे निपोर दी।

मैं उन्हें देखने लगा और सोचने लगा- यह वही साहब थे जो उस दिन नेताओं की बेमानी और भ्रष्टाचार को लेकर चाय की टपरी में परेशान थे।

यह सोच कर मेरे चेहरे पर एक मुस्कराहट सी आ गयी। बेबसी, क्रोध, विषाद सब इस हँसी में था।

समाप्त

नोट: यह लघु-कथा उत्तरांचल पत्रिका के अगस्त 2019 अंक में प्रकाशित हुई थी।


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About विकास नैनवाल 'अंजान'

विकास नैनवाल को अलग अलग तरह के विषयों पर उन्हें लिखना पसंद है। एक बुक जर्नल नाम से एक वेब पत्रिका और दुईबात नाम से वह अपनी व्यक्तिगत वेबसाईट का संचालन भी करते हैं।

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