अपने चश्मे को निकालकर गुंजन ने बगल में मौजूद बेंत के मोढ़े पर रख दिया। गोदी में मौजूद कॉपी को बंद करते हुए कुर्सी के पुश्त पर सिर टिकाकर उसने अपनी आँख मूँद ली। थोड़ी देर आँखें बंद करने के पश्चात उसने आँखें खोली और सामने मौजूद पर्वत श्रृंखलाओं को देखने लगी।
कब से मौजूद हैं यह पर्वत शृंखलाएँ? न जाने कितनी पीढ़ियों के जीवन की साक्षी रही होंगी। न जान कितने ही कहानियों को अपनी आँखों से गुजरते हुए देखा होगा इन्होंने। हरे भरे पहाड़ों के पीछे मौजूद हिमालय की श्वेत हिमाच्छादित चोटियाँ ऐसे लगती मानो किसी विशालकाय राजा के सिर पर मौजूद मुकुट हो। सब कुछ कितना खूबसूरत था यहाँ। उनके घर के आगे का बरामदा था जहाँ बेंत की कुर्सी और मोढ़े को लगाकर बैठते हुए शाम गुजारना उसे पसंद था। यह जगह उसकी सबसे प्रिय जगहों में से थी। वो इधर बैठकर घंटों कल्पना के सागर में गोते लगा सकती थी या सामने दिखते दृश्यों को निहार सकती थी। दिन में मौजूद दृश्य उसे जितना खूबसूरत लगता रात ढलते-ढलते वो दृश्य उसके लिए उतना ही रहस्यमय हो जाता। जैसे जैसे अँधेरा होने लगता सामने वाले पहाड़ में कई प्रकाश पुंज रोशन हो जाते। जिन ज़िंदगियों से वो अभी तक अनजान थी उनके होने का अस्तित्व उसे पता लगने लगता। क्या कर रहे होंगे वो लोग उधर? क्या चल रहा होगा उनकी ज़िन्दगी में? क्या उसकी तरह कोई उधर भी बैठा ऐसी ही बातें सोच रहा होगा। ऐसे ही कई सवाल उसके मन में उठते? कभी-कभी उसे ये बाते बचकानी भी लगती लेकिन फिर अपने मन का यह बचपना भी उसे अच्छा लगता। छोटी छोटी चीजों में ख़ुशी ढूँढना उसे हमेशा से ही अच्छा लगता था।
लेकिन आज शायद ऐसा कुछ भी उसके मन में नहीं उठ रहा था। तभी तो उसने दोबारा आँखें मूँदी और कमर और सिर कुर्सी पर टिकाकर आराम करने लगी। न जाने ऐसे कितना ही वक्त गुजरा जब एक स्पर्श उसे अपने माथे पर महसूस हुआ।
माँ के हाथ का स्पर्श। माँ का हाथ उसके सिर को सहला रहा था। माँ की आदत थी जब भी वो इधर बैठी होती तो कुछ न कुछ खाने के लिए लाती थी। वो मना भी करती थी लेकिन माँ के पाँव में तो शायद एक चक्करघिरनी लगी थी। उनसे एक ही जगह पर नहीं बैठा जाता था। कुछ न कुछ करने में लगी रहती थीं। वो उन्हें आराम करने को कहते तो उनका एक ही जवाब होता -”शरीर जितना चलता रहे उतना ठीक रहता है। बैठकर बिस्तर तोड़ने से क्या फायदा।”
और उसके पास इस बात का कोई जवाब नहीं होता। वो केवल मुस्करा देती। कोई इस बात के उत्तर में कह भी क्या सकता था। वैसे भी माँ से बातों में जीतना नामुमकिन सा था। उन्हें जो करना होता वो करके ही रहती और जो बात मनवानी होती वो मनवा कर रहती। बस शायद एक ही बार उन्होंने घुटने टेके थे। लेकिन वो पाँच साल पुरानी बात हो चुकी थी।
उसने आँखें खोली और उसकी आँखों के सामने माँ का सौम्य चेहरा दिखा। माँ मुस्करा रही थी।
“थक गई, बेटी?” माँ ने कहा।
“न,माँ। बस ऐसे ही।” उसने कहा
“काम ज्यादा है न आजकल।” माँ समझते हुए बोली।
“जी। फाइनल्स के पहले के मंथली टेस्ट अभी खत्म हुए है। जल्द ही कॉपी चेक करके देनी है तो वही कर रही थी।” उसने जवाब दिया।
“चल, ये बुरांस का जूस पी ले। थोड़ा ताज़गी मिलेगी । फिर थोड़ी देर में चाय बनाकर लाती हूँ।”
“जी माँ।” ‘इसकी क्या जरूरत है’ कहना उसने काफी पहले छोड़ दिया था। उसे पता था माँ नहीं मानेगी।
माँ ने जूस के दो गिलासों को मोढ़े के ऊपर एक ट्रे में रखा था। उसने एक जूस का गिलास उठा लिया।
माँ अपने साथ एक और बेंत की कुर्सी लेकर आयी थीं और वो उधर बैठ गयी। वे अपने साथ क्रोशिया और धागे का गोला भी लेकर आई थी। कुछ न कुछ बनाते रहना भी माँ का शगल था। कभी टेबल क्लॉथ, कभी स्वेटर या कभी वॉल हैंगिंग। इन सभी चीजों में वो पारंगत थी। और यह बात आस-पास की गृहणियाँ भी जानती थी तभी तो जब वो स्कूल से आती तो कई बार पड़ोस की महिलाओं को माँ से कुछ न कुछ डिज़ाइन के विषय में चर्चा करते हुए देखती थी। अभी भी वो न जाने क्या बना रही थीं।
माँ ने उसे अपने तरफ देखते हुए पाया तो उसकी जिज्ञासा को जानकर कहा-”ये मोढ़े के ऊपर बिछाने के लिए एक और तैयार कर रही हूँ। खाली बैठकर भी क्या करना है। फिर सामने वाली साबी ने एक बढ़िया डिज़ाइन बनाया था। मुझे पसंद आया तो उससे सीख लिया और अब कोशिश कर रही हूँ। बन जायेगा तो तेरे मोढ़े पर कितना अच्छा लगेगा।” यह कहकर माँ मुस्कराने लगी।
माँ की मुस्कराहट का उस पर भी असर हुआ। उसके मन में मौजूद अवसाद का जो बादल सा घिर आया था वो माँ की मुस्कुराहट की रौशनी से छटने लगा।
उसने जूस का एक घूँट लिया और फिर मोढ़े से अपना चश्मा उठाकर उसे कपड़े से साफ़ किया और फिर पहन लिया। अभी भी दस पंद्रह कॉपी चेक करने के लिए बची थी। उसे वो निपटाना था।
उसने कॉपी उठाई और चेक करने में तल्लीन हो गयी। दस पंद्रह ,मिनट ऐसे ही बीते। शाम का मधुर वातावरण, पक्षियों का कलरव, और बगल में माँ के क्रोशिया पे बुनाई करने का एहसास ने एक आरामदायक वातावरण की सृष्टि कर दी थी। अगर सुखमय जीवन कुछ होता है तो शायद ये ही वो था। अब कुछ ही कॉपी बची हुई थी।
उसे अहसास हुआ कि माँ उसके तरफ देख रही है तो उसने माँ को देखा और पूछा- “जी माँ।”
“तो क्या सोचा तुमने?”माँ ने कहा।
“माँ मैंने जो सोचा है वो आपको बता दिया है। मैं ऐसा नहीं कर सकती। आपको पता है राकेश …. ” वो आगे न कह पायी।
“मुझे पता है राकेश को गुजरे तीन साल हो चुके हैं। हर एक दिन गिनती हूँ मैं।”
“माँ मेरा वो मतलब नहीं था।” कहते हुए वो उठी और अपनी कुर्सी को माँ के पास लेकर टिका ली। उसने माँ का हाथ अपने हाथो में ले लिया और फिर कहा -”आप जानते हो मुझसे ये नहीं होगा। मैं नहीं कर सकती।”
माँ ने उसे देखा और कहा – “तुझे पता है मैं तुम्हारे और राकेश की शादी के लिए राज़ी नहीं थी।”
“जी।”
“जाति का फर्क जो था। बचपन में दिए गए संस्कार इतने अंदर तक चले जाते हैं कि उनसे पार पाना मुश्किल हो जाता है। मैंने पढ़ा लिखा लेकिन फिर भी उन संस्कारों से पार नहीं पा पायी। लेकिन तुम नहीं माने। उस वक्त मैं बहुत गुस्सा थी। तुम्हे और उसे बुरा भला कहती थी ये जानते हुए भी के तुम लोग गलत नहीं हो। समाज, खुद का गुरूर और न जाने कितने डर थे जिन्होंने मुझे वैसा सोचने पर मजबूर कर दिया था। ”
“माँ, आप।” उसने कहना चाहा।
“नहीं मुझे कह लेने दो, गुंजन।” माँ ने उसे रोकते हुए कहा। “आज न कहा तो शायद हमेशा ये ग्लानि रहेगी कि कभी न कह सकी। तो इन अनाजने डर, रूढ़ि और दम्भ के आवरण ने मेरे मन को इतना कठोर बना दिया था। मुझे लगता था कि मेरी संतान मेरा कहना मानेगी और जब ऐसा नहीं हुआ तो मुझे उसमें अपना अपमान होता भी नज़र आया। अब उन बातों को सोचती हूँ तो हँसी आ जाती है अपने जिद्दीपन पर। और ये सोचकर भी हैरत होती है कि मैं उस वक्त एक प्रिंसिपल हुआ करती थी। लेकिन पढ़ाई और ओहदे का मलतब ये नहीं होता कि आपको ज्ञान भी हो। आप रूढ़ियों से मुक्त हो। अब मैं सोचती हूँ तो मुझे गर्व होता है राकेश पर। उसने मेरी बात नहीं मानी और वो काम किया जो शायद ही आज के समाज में भी काफी कम करते हैं। उसने रूढ़ियों के बंधन तोड़े। उसने इनसान को इनसान समझा। बस मुझे जो बात कचोटती है वो ये कि अपनी ज़िद के चलते ही मैंने एक साल गँवा दिया। वो एक साल जब मैं उसके साथ रह सकती थी।”, ये कहकर माँ के आँखों से आँसू आ गए।
गुंजन भी खुद को रोक न सकी। उसके चक्षुओं से भी अश्रु बूँदे झर रही थी।
माँ ने अपनी साड़ी के पल्ले से आँखों के आँसू पोछे और कहा – “खैर, वो बात गुजर चुकी है। समय का चक्र वापस नहीं हो सकता। लेकिन तुम… तुम्हारे मामले में ऐसा नहीं है।”
“पर माँ”, उसने कहा- “मैं कैसे? वो भी इतनी जल्दी। मैं सोच भी नहीं सकती।”
“क्यों नहीं?” मैं जानती हूँ तुम्हे- “और तुम्हारे मन को भी।”
“माँ।”
“बेटा समाज की बेड़ियाँ औरतों को जकड़ने के लिए ही होती हैं। ये युगों से होता आया है। तुमने एक बार इसे तोड़ा है। फिर दोबारा क्यों नहीं। श्याम अच्छा लड़का है।”
“माँ!” वो चिंहुक उठी।
“मैं जानती हूँ। जब वो उस दिन आया था तो मैं उसे देखकर समझ गई थी। माँ की आँखें अक्सर परख लेती हैं।”
“पर माँ।”
“सोचने के लिए वक्त चाहिए तुझे।”
उसने कुछ कहना चाहा।
माँ ने उसके कपोल को हाथ में लिया और अपने पल्ले से उसके आँखों से बहते आँसूँ को पोछा।
“मुझे यकीन है तू सही फैसला लेगी। तू सोचना। अब वक्त हो गया है, गुंजन। मेरी फ़िक्र मत कर। बेटी जब दूसरे घर जाती हैं तो माँ को थोड़े न भूल जाती हैं। क्यों, मैं गलत कह रही हूँ क्या?”
गुंजन से कुछ कहते नहीं बना। वो बस अपनी आँखों से सहमति ही जता पायी।
माँ उठी। उन्होंने ट्रे के दोनों गिलास उठाकर रखे। फिर गुंजन की तरफ मुड़कर बोली -”तू बाकी कॉपियाँ चेक कर। मैं चाय पकोड़े बनाकर लाती हूँ।”
“जी माँ।” गुंजन बस यही कह पायी।
माँ बरामदे से अंदर किचन की तरफ चली गयी। किचन का रास्ता ड्राइंग रूम से होकर गुजरता था जहाँ राकेश की बड़ी सी तस्वीर लगी हुई थी। माँ एकाएक उधर जाकर रुक गयी। राकेश मुस्करा रहा था। जैसे माँ ने जो किया उसने सुन लिया हो। माँ ने अपने दोबारा बहते आँसुओं को साड़ी के पल्ले से पोछा।
“माँ, मैं गुंजन को हमेशा खुश देखना चाहता हूँ। उसे दुःखी नहीं देख सकता।”
माँ को राकेश के शब्द याद आये। ये शब्द उसने तब कहे थे जब माँ ने उसे गुंजन से रिश्ता तोड़ने को कहा था।
लेकिन आज जब माँ को ये शब्द याद आये तो उन्हें लगा कि राकेश शायद अब खुश होगा। गुंजन कब बहु से बेटी बन गयी उन्हें पता भी नहीं चला था। और कब राकेश के साथ वो भी गुंजन को खुश देखने की चाहत रखने लगी इसका एहसास भी उन्हें नहीं हुआ।
“गुंजन हमेशा खुश रहेगी, राकी।” माँ बुदबुदायी। “उसकी माँ है न अभी।” और ये कहते हुए माँ किचन की तरफ बढ़ गयी।
उन्हें अपनी बेटी के लिए गरमा गर्म पकोड़े और अदरक वाली चाय जो बनानी थी।
समाप्त
लेखक परिचय
विकास नैनवाल पढ़ाई से कंप्यूटर इंजीनियर हैं। मूलतः पौड़ी गढ़वाल उत्तराखंड से आते हैं और फिलहाल गुरुग्राम में वक्त गुजार रहे हैं। किस्से कहानियाँ पढ़ने का शौक है। लेखन, अनुवाद और सम्पादन का कार्य भी करते हैं। उत्तराखंड पत्रिका, तहकीकात जैसी पत्रिकाओं में उनके लेख, लघु-कथा, अनुवाद इत्यादि प्रकाशित होते रहते हैं। वह किताबों से जुड़ी एक वेब पत्रिका एक बुक जर्नल का संपादन भी करते हैं और अपनी वेबसाइट दुईबात भी चलाते हैं जहाँ यात्रा वृत्तांत, अनुवाद, कविताएँ लेख इत्यादि प्रकाशित करते रहते हैं।
ईमेल: nainwal.vikas@gmail.com
वेबसाइट: दुईबात
This post is a part of Blogchatter Half Marathon 2024
Bahut hi acchhi kahani man ko choo gyi .
आभार मामी जी…