संस्करण विवरण:
फॉर्मैट: पेपरबैक | पृष्ठ संख्या: 104 | प्रकाशक: हिन्द पॉकेट बुक्स
पुस्तक लिंक: अमेज़न
कहानी
राकेश उषा पर जान छिड़कता था लेकिन फिर कुछ ऐसा हो गया कि उसने उषा से अपने संबंध तोड़ दिए।
वहीं सोमनाथ ने जब उषा की जान बचाई तो उसे मालूम नहीं था कि यह उषा के साथ उसके ब्याह की पहली सीढ़ी होगी।
उषा ने भी राकेश के धोखे को भुलाकर सोमनाथ के साथ जीने का मन बना लिया था। पर होनी को कुछ और मंजूर था।
कुछ ऐसी घटनाएँ घटित हुई उषा का बसा बसाया संसार बिखरने की कागार पर आ गया।
राकेश ने उषा का साथ क्यों छोड़ा?
आखिर कैसे हुई सोमनाथ और उषा की शादी?
राकेश और उषा जब दोबारा मिले तो आखिर उनके बीच क्या हुआ?
मुख्य किरदार
उषा – एक युवती
राकेश – उषा का दोस्त
सोमनाथ – राकेश और उषा का दोस्त
योगी विश्वानन्द – सोमनाथ के पिता के दोस्त
वंदना – उषा और सोमनाथ की बेटी
इंद्रनाथ – सोमनाथ और उषा का बेटा
गोपीनाथ – दिल्ली के मुख्य फिल्म डिस्ट्रिब्यटर
मेरे विचार
जब से
हिन्द पॉकेट बुक्स (Hind Pocket Books) का पेंगविन (Penguin) ने अधिग्रहण किया है तभी से उन्होंने ऐसे शीर्षक पुनः प्रकाशित किये हैं जो काफी वर्षों से आउट ऑफ प्रिन्ट चल रहे थे। मैंने भी कई ऐसे शीर्षक पुनः प्रकाशन के बाद हिन्द पॉकेट बुक्स से लिए हैं।
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प्रस्तुत उपन्यास ‘देवता’ भी एक ऐसा ही लघु-उपन्यास है जिसे काफी वर्षों बाद पुनः प्रकाशित किया जा रहा है। सत्यकाम विद्यालंकार (Satyakam Vidyalankar) द्वारा लिखित यह सामाजिक लघु-उपन्यास पहली बार 1962 में प्रकाशित हुआ था। इससे पूर्व मैं सत्यकाम विद्यालंकार के नाम से वाकिफ नहीं था और अब यह देवता पढ़ने के पश्चात मैं उनके अन्य उपन्यास भी जरूर पढ़ना चाहूँगा।
उपन्यास की बात करूँ तो ‘देवता’ मूलरूप से उषा और सोमनाथ की कहानी है। उषा और सोमनाथ की प्रकृति एक दूसरे से भिन्न है। जहाँ सोमनाथ एक सीधा सादा लड़का वहीं उषा एक चंचल सी खूबसूरत लड़की है जिसे घूमना फिरना और अपनी ज़िंदगी को जीना पसंद आता है। इन दो युवाओं का विवाह कैसे होता है और इसके बाद उनके जीवन में क्या-क्या बदलाव आता है यही उपन्यास का कथानक बनता है। उपन्यास का शीर्षक ‘देवता’ सोमनाथ के लिए प्रयोग किया गया है। सोमनाथ ऐसा क्या करता है जो उसे देवता की उपाधि मिलती है यह भी उपन्यास में देखने को मिलता है। अगर आप पुरानी फिल्मों के शौकीन हैं तो यह उपन्यास आपको उनकी याद जरूर दिलाएगा।
सामाजिक उपन्यासों की यह खासियत होती है कि अक्सर उनमें समाज से जुड़े कई मुद्दे उठाए जाते हैं। प्रस्तुत उपन्यास में भी उपन्यास के माध्यम से लेखक ने कई चीजों पर बात की है।
कई बार परिस्थितियों के चलते बेमेल विवाह हो जाता है लेकिन विवाह का सफल और असफल होना इस पर निर्भर करता है कि पति और पत्नी दोनों किस तरह से विवाह रूपी इस गाड़ी को खींचना चाहते हैं। ऐसे में कई बार पति को अपनी पत्नी की खुशियों का ध्यान रखना चाहिए और कई बार पत्नी को अपनी पति की खुशियों का ध्यान रखना चाहिए। जब ऐसा नहीं होता है तो कैसे एक व्यक्ति दुखी हो जाता है और अपने जीवन में आए इस खालीपन को किस तरह बाहर से भरने की कोशिश करता है यह इस उपन्यास में उषा के वैवाहिक जीवन के प्रसंगों से जाना जा सकता है। मुझे लगता है अगर सोमनाथ उषा के ऊपर अधिक ध्यान देता और थोड़ा बहुत उसकी खुशियों का ख्याल रखता तो शायद वह सब नहीं होता जो कि इनकी ज़िंदगी में आगे हुआ।
उपन्यास का एक पहलू विवाह के बाहर जन्में बच्चे भी हैं। अधिकतर समाजों में विवाह रूपी संस्था के बाहर पैदा हुए शिशुओं को और उनकी माँओं को गलत नजरिए से देखा जाता है। हम लोगों ने ऐसे मापदंड स्थापित कर दिए हैं कि विवाह से बाहर या विवाह से पहले अगर किसी स्त्री का बच्चा होता है तो उसके चरित्र को हम लोग गिरा हुआ मानने लगते हैं। पर ऐसा करना कितना सही है और क्या हर एक मामले में यह चीज लागू होती है? देवता इस प्रश्न को भी पाठक के सामने रखता है। इसके अलावा उपन्यास के अंत में लेखक ने सात पृष्ठों का आदिकथन भी दिया है जिसमें लेखक यह बतलाने की कोशिश करते हैं कि समाज द्वारा बनाए गए इन मापदण्डों ने क्या-क्या नुकसान पहुँचाया है और इसे कैसे ठीक किया जा सकता है। लेखक ने इसका इलाज बेटे के लिए माँ का नाम होना जरूरी बतलाया है और पिता का नाम होना गौण बताया है जो कि एक आदर्श समाज में संभव तो है लेकिन चूँकि आज भी अधिकतर संपत्ति पिता के नाम पर होती है तो आज के समाज में तब तक होना संभव नहीं होगा जब तक कि औरतों के पास भी संपत्ति नहीं होगी। एक बार महिलायें आर्थिक रूप से सक्षम हो जाती हैं तो शायद तब ऐसे शिशुओं और उनकी माँओं को कम वेदना झेलनी होगी।
उपन्यास के किरदारों की बात की जाए तो इसमें कम ही किरदार मौजूद हैं जो कि कहानी के अनुरूप गढ़े गए हैं। उषा और सोमनाथ के अलावा राकेश भी एक महत्वपूर्ण किरदार है। राकेश एक अच्छा गायक है। कई बार हम लोग किसी कलाकार की कला से अभिभूत हो उसके प्रति अपने मन में धारणा बना लेते हैं। हमें लगता है कि एक अच्छा कलाकार एक अच्छा व्यक्ति भी होगा लेकिन अक्सर ऐसा होता नहीं है। राकेश भी ऐसा ही व्यक्ति है। वह अच्छा कलाकार तो है लेकिन उसका मन कोमल नहीं है। स्त्री उसके लिए केवल भोग की वस्तु है। इसके अतिरिक्त उपन्यास से उसके विषय में ज्यादा कुछ जाना नहीं जा सकता है। उपन्यास में लेखक ने राकेश का प्रयोग केवल कहानी को आगे बढ़ाने के लिए ही किया है इसलिये वह जरूरतभर को उपन्यास में मौजूद है। अच्छा होता कि राकेश के किरदार को लेखक और विस्तार देते। उसके मन में चीजों को करते हुए जो चल रहा था वो अगर दर्शाया होता तो शायद बेहतर होता।
उपन्यास में योगी विश्वानन्द का किरदार रोचक है। वह एक योगी हैं और जब सोमनाथ को अपनी ज़िंदगी बर्बाद हो चुकी लगती है तो वह किसी देवता के रूप में आकर उसको ढाढ़स बँधाते हैं। वह समय समय पर उषा और सोमनाथ को मार्गदर्शन प्रदान करते रहते हैं। उनके माध्यम से लेखक ने ऐसी कई बातें कहीं हैं जो कि आपको सोचने के लिए काफी कुछ दे जाता है। उनके योगी बनने की कहानी भी रोचक है।
उपन्यास की लेखन शैली आपको बांधकर रखती है। कथानक के साथ-साथ लेखक कई सूक्तियाँ भी उपन्यास के बीच में पाठकों के लिए दे जाते हैं जो कि संग्रह करने योग्य हैं।
अंत में यही कहूँगा कि यह एक उपन्यास एक बार पढ़ा जा सकता है। चूंकि यह उपन्यास 1962 में आया था तो कुछ चीजें उसी हिसाब से इसमें लिखी गई हैं। संवाद न होने के चलते शादी में आई दूरी हो या विवाह के बाहर होने वाले बच्चों के प्रति नजरिया। यह ऐसी चीजें हैं जो आज भी लगभग वैसी ही हैं जैसी उस वक्त रही होंगी और इसलिए उपन्यास काफी हद तक आज भी प्रासंगिक है। हाँ, आज के वक्त में अगर सोमनाथ होता तो शायद वह अपनी पत्नी को न्याय दिलाता जिसे लेकर इस उपन्यास में बातचीत नहीं की गई है। मैं किस न्याय की बात कर रहा हूँ यह तो आपको उपन्यास पढ़ने के बाद ही पता चलेगा।
पुस्तक के कुछ अंश जो मुझे पसंद आये:
भावुक व्यक्ति को जीवन में गुजरे दिनों की याद ही नहीं, व्यथावेदना भी प्यारी हो जाती है। अपने दर्द से प्यार भी हो जाता है। भावप्रवण व्यक्ति को। हमें सुरक्षा सबसे अभीष्ट होती है, किन्तु जब वह हमें मिल जाती है तो हम अपनी गुजरी विकलता की याद में रस लेने लगते हैं।
हम प्रायः अपने को ही करुणा की स्थिति में रखकर अपने लिए आँसू बहाने में आनंद अनुभव करते हैं। रसानुभ करना हमारा स्वभाव है। अपनी व्यथा का अतिशय रूप बनाकर उस पर करुणाई होने में भी हमें रस मिलता है। (पृष्ठ 41)
किन्तु स्मरण रखो, अपराध स्वीकृति से ही किसी का स्वाभिमान नष्ट नहीं हो जाता। ऐसे मिथ्या स्वाभिमान को सच्चाई के आगे समर्पित होना ही चाहिए। हम स्वाभिमान शब्द का प्रयोग प्रायः मिथ्या अहंकार के भाव में कर देते हैं। इस अहंकार से विनम्रता श्रेयस्कर है। विनम्र होने से ही कोई दिन नहीं बन जाता। विनय या दैन्य तभी अपराध बनता है जब स्वार्थ भावना से किया जाए। सत्य के आगे झुकना दैन्य नहीं है। (पृष्ठ 72)
“पाप भी कभी पुण्य में बदलता है बाबाजी?”
“हाँ बेटी, बदलता है।”
“कैसे?” उषा ने उत्सुकता से पूछा।
बाबाजी ने गंभीरता से कहना शुरू किया …
“तपस्या से, बेटी, पाप पुण्य में बदल जाता है। ताप करना होगा, यंत्रणाओं में तपन होगा। अपने पराए सब कष्ट देंगे; मगर यदि तुमने कष्ट सह लिया तो तुम्हें भगवान का वरदान मिलेगा।” (पृष्ठ 78)
जीवन में जो भी महत्व की बातें होती हैं, अकस्मात ही होती हैं – उन्हें ईश्वरीय विधान मानकर अपने धर्म का पालन करना होता है। (पृष्ठ 88)
अनजाने में किये गए कार्य का दण्ड मुनुष्य द्वारा नहीं दिया जाता। उसका न्याय भगवान ही करते हैं। ऐसे समय तो और भी हमदर्दी होनी चाहिए। खासकर उससे, जिससे हमारा स्नेह हो। (पृष्ठ 88)
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Sounds interesting. Some very nice quotations. Reminds me of those novels that I used to read many many years ago (when we were not advised to read 'novels' but we read them anyway). And it's so good that Hind Pocket Books are doing that. Lovely review!
Thank you. Do give some of them a try. You'd enjoy them.