मनमौजी मामाजी – इरा सक्सेना | सी बी टी प्रकाशन

संस्करण विवरण:

फॉर्मैट: पेपरबैक | पृष्ठ संख्या: 69 | प्रकाशक: सी बी टी प्रकाशन | चित्रांकन: वंदना जोशी
पुस्तक लिंक: अमेज़न

कहानी 

गौरव और संजू जानते हैं कि जब भी उनके मामा जी आएँगे कुछ न कुछ रोचक उनके जीवन में घटित होगा। समय समय पर मामाजी को नये नये शौक जो चढ़ते हैं और अक्सर इनके चलते कई ऐसी परिस्थितियाँ आ जाती हैं जो हँसाती भी हैं और कई बार मामा जी को मुसीबत में भी डाल देती हैं।
पर जो भी हो गौरव और संजू को इस दौरान मजा आ जाता है और वो कई ना भुलाए जा सकने वाले अनुभवों से दो चार हो जाते हैं।
आखिर कैसे हैं गौरव और संजू के मामाजी?
उन्हें किन किन चीजों का शौक चढ़ता है?
इन शौकों के कारण वो कैसी परिस्थितियों में पड़ जाते हैं?

विचार

सी बी टी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित इरा सक्सैना की ‘मनमौजी मामाजी’ एक संग्रह है जहाँ गौरव और संजू के मामाजी सुरेन्द्रनाथ सहाय उर्फ दौलत ए टनकपुर के सात किस्से संकलित गए हैं। पुस्तक में दर्ज जानकारी के अनुसार ‘मनमौजी मामाजी’ की सी बी टी प्रकाशन द्वारा आयोजित हास परिहास वर्ग में द्वितीय पुरस्कार मिला था और 1990 में प्रथम बार इसका प्रकाशन हुआ था। 
हास्य कथाएँ मुझे हमेशा से पसंद रही हैं और मैं इनकी तलाश में रहता ही हूँ। वैसे भी किसी दिन अगर अच्छा हास्य प्रदान करने वाली रचना पढ़ने को मिल जाए तो दिन बन सा जाता है। ऐसे में इन्हें संग्रहित करके ऐसे दिनों की संख्या बढ़ाने की मेरी इच्छा रहती है।  इसलिए पुस्तक मेले में जब इस पुस्तक पर नजर पड़ी थी तो इसे क्रय कर लिया गया था। 
पुस्तक की बात की जाए तो इसमें सात कहानियाँ संकलित की गई हैं। यह कहानियाँ हैं:
‘अनोखा हॉर्न’, ‘तीरंदाजी का कमाल’, ‘फोटोग्राफी की धुन’, ‘बहरूपियेपन की सनक’, ‘उलटे गियर में’, ‘प्यारी छतरी’, ‘मूँछ बढ़ा के’  
इन सभी कहानियों के केंद्र में सुरेन्द्रनाथ सहाय उर्फ दौलत ए टनकपुर हैं जो खुद को सुरू,जो उनके घर का नाम है, की जगह ‘स्यूरेन’ कहलाना पसंद करते हैं। उनके अनुसार स्यूरेन इक्कसवीं सदी की ओर बढ़ता हुआ प्रगतिशील नाम है। मामाजी अपने तरह के एकलौते मनुष्य हैं। उन्हें समय समय पर नया शौक चढ़ता रहता है। फिर वह अपनी बड़ी दीदी के घर आते हैं जहाँ उनके दो प्यारे भांजे गौरव और संजू हैं। अपने इस शौक के चक्कर में वो गौरव और संजू के साथ किन परिस्थितयों में पड़ते हैं और फिर उससे कैसे उभरते हैं यही कहानियाँ बनती हैं। यह परिस्थितियाँ अक्सर ऐसी होती हैं जो ‘स्यूरेन’ जी को तो मुसीबत में डाल देती हैं लेकिन पाठक के लिए हास्य पैदा कर देती हैं। 
यह सभी कहानियाँ एक तरह के फॉर्मैट पर चलती हैं। हर कहानी में मामाजी द्वारा एक नयी चीज की जाती है। इन चीजों के  चलते पहले मामाजी लगभग दो बार मुसीबत पर पड़ते हैं और फिर उनकी किस्मत के चलते कुछ ऐसा हो जाता है कि जिस शौक के चलते उनकी फजीहत हुई थी या होते होते रह गयी थी वही शौक उनकी वाहवाही का कारण बन जाता है और मामाजी इस शौक को छोड़कर नए शौक के पीछे चल पड़ते हैं। 
लेखिका की भाषा सहज सरल है और घटनाओं का विवरण उन्होंने इतने सजीव रूप से किया है कि दृश्य चित्रों के समान आँखों के सामने चलने लगते हैं। उदाहरण के लिए: 
सुनते ही मामजी मुड़े, ठन से कार के जिस्म को नाखून से ठोकते हुए दूसरा हाथ हवा में फतह के झंडे की तरह उठाकर बोले, “ठीक हो गया।” उनके काले ग्रीस के धब्बों से सुसज्जित गोरे मुख पर सफलता की स्मित बिखर गयी, पुष्ट कंधे घमंड से और सीधे हो गये व प्रसन्नता से उनकी सुडौल कद काठी और भी अधिक प्रतिष्ठित दिख रही थी। 
गौरव समझ गया कि मामाजी इस समय विजयोल्लास के आनंद से विभोर हैं। उसने याद दिलाया, “अम्मा बुला रही हैं।”
“ऊँह! सुनो तो, जीजी भी यहीं दौड़ी चली आएँगी,” हाथ झटकाते हुए मामाजी ने गौरव की बात काट दी। वह ऐसे बेताब दिख रहे थे जैसे कोई संगीतज्ञ एक नया मुखड़ा सुनाने के लिए बेकल हो। 
मामाजी सकपका गए। काँपते हाथों में खड़ताल झनझना उठी। घबराकर हाथ जोड़ते हुए बोले, “क्या कर रही हैं पार्वती बहन, मैं वो नहीं।”
“मुये, मेरा नाम भी पता करके आया है…” गृहणी दाँत पीसकर बोली। 
“वह तो… गणेश की मैया पार्वती ही तो…” मामाजी काँप रहे थे। हकला… हकला कर बोले जा रहे थे, “मैं वह नहीं…. मैं तो नाटक… फैंसी ड्रेस…”
“बच्चू अभी सारा नाटक थाने के रंगमंच पर पेश कराता हूँ… ठहर जा… इस ड्रेस के किराये के लिए भीख न मँगवाई तो बात रही,” अंदर से धोती संभालते एक सज्जन मोर्चे पर आये, गृहणी एक ओर कमर पर हाथ रख शान से मटकने लगी। 
मैंने काफी समय बाद ऐसा गद्य पढ़ा है और इसलिए लेखिका की अन्य रचनाएँ भी मैं जरूर पढ़ना चाहूँगा। 
किरदारों की बात करूँ तो पात्र अधिकतर जीवंत हैं। मामाजी जैसे किरदार हमारे आस पास मौजूद रहते हैं लेकिन जाहिर उनकी ‘झक’ इक्का दुक्का ही होती है और प्रस्तुत पुस्तक में चीजों को हास्यजनक बनाने के लिए लेखिका ने इनमें बढ़ोत्तरी करी है। गौरव और संजू भले ही उम्र में छोटे हैं लेकिन समझदार हैं। मामाजी के वो लाड़ले हैं और कई बार वो ही मामाजी को मुसीबत से बचाते हैं। बाकी अलग अलग कहानियों में अलग अलग किरदार आते रहते हैं। 
चूँकि यह पुस्तक 1990 में प्रकाशित हुई थी तो उस समय की हल्की सी झलक भी इधर दिखती है। फिर भी यह झलक थोड़ा और अधिक होती तो बेहतर होता। 
कहानियाँ सभी पठनीय है। मुसीबत में पड़ते मामाजी को मुसीबत से निकलते देखने में मजा आता है और साथ ही जब उनकी झक से उनका नाम हो जाता है तो आपके चेहरे पर मुस्कान आए बिना नहीं रह पाती है। गौरव और संजू से बाल पाठक एक जुड़ाव महसूस जरूर करेंगे। 
कहानियों में कमी की बात करूँ तो ऐसी विशेष कमी मुझे नहीं दिखी। फिर भी अगर कुछ बताना ही पड़े तो यही कहूँगा कि जैसे ऊपर बताया है कि सभी कहानियाँ एक ही ढर्रे पर चलती हैं तो उससे बचा जा सकता था। ऐसा इसलिए क्योंकि अभी  एक दो कहानी पढ़ने के बाद पाठक को मालूम होता है कि कहानी किधर को जाएगी। उन्हें पता रहता है कि पहले दो बार मुसीबतों में ममाजी फँसेंगे और फिर उससे उभरेंगे। अगर लेखिका इससे बची होती और पाठक के लिए कुछ अनपेक्षित भी कहानियों में होता तो कहानी और अधिक प्रभावशाली हो जाती। 
पुस्तक में वंदना जोशी के बनाए चित्र भी हैं जो कि कहानी के महत्वपूर्ण दृश्यों को दर्शा कर पढ़ने के अनुभव को और बेहतर बनाते हैं। 
अंत में यही कहूँगा कि ‘मनमौजी मामाजी’ के ये किस्से पठनीय हैं। बाल पाठकों के साथ साथ वयस्क पाठकों का भी यह मनोरंजन यह पुस्तक करती है। मुझे तो यह पसंद आयी।  लेखिका की अन्य रचनाएँ भी सीबीटी से प्रकाशित हुई हैं जिन्हें पढ़ने की कोशिश रहेगी। 
पुस्तक लिंक: अमेज़न
नोट: पुस्तक का मूल्य 80 रुपये है और अमेज़न पर काफी कीमत पर बेची जा रही है। बेहतर होगा कि पुस्तक मेले या चिल्ड्रन बुक ट्रस्ट की आधिकारिक दुकानों से इसे खरीदें। 

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About विकास नैनवाल 'अंजान'

विकास नैनवाल को अलग अलग तरह के विषयों पर लिखना पसंद है। साहित्य में गहरी रूचि है। एक बुक जर्नल नाम से एक वेब पत्रिका और दुईबात नाम से वह अपनी व्यक्तिगत वेबसाईट का संचालन भी करते हैं।

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